tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post7677533306278636976..comments2023-08-25T04:09:30.854-07:00Comments on विनय पत्रिका: नामवर के होने का अर्थबोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.comBlogger22125tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-57740194476519235302010-02-16T18:25:52.149-08:002010-02-16T18:25:52.149-08:00बोधिसत्व जी,
आपके एक एक अक्षर से सहमत।बोधिसत्व जी,<br /><br />आपके एक एक अक्षर से सहमत।विवेक रस्तोगीhttps://www.blogger.com/profile/01077993505906607655noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-45308058057236255502009-10-31T17:08:23.759-07:002009-10-31T17:08:23.759-07:00उन दिनो यूही एक मित्र से मै इस संगोष्ठी की चर्चा क...उन दिनो यूही एक मित्र से मै इस संगोष्ठी की चर्चा कर रहा था । मोहल्ले के एक बुजुर्ग सज्जन जो न नामवर जी को जानते है न ब्लॉग के बारे मे उन्हे कुछ पता है न ही कम्प्यूटर की तकनीक के बारे मे जानते है । साहित्य मे उन्हे मानस के अलावा कुछ नही पता ,हमारी बात सुन रहे थे । अचानक हमारी बात सुनकर उन्होने कहा " अरे नामवर जी उद्घाटन करने आ रहे हैं मतलब ब्लॉगिंग कोई बहुत बड़ी चीज है !!! "शरद कोकासhttps://www.blogger.com/profile/09435360513561915427noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-29975921677556171192009-10-31T11:01:58.547-07:002009-10-31T11:01:58.547-07:00चाहे कितनी भी सहमतियाँ/असहमतियाँ हों, नामवर होने क...चाहे कितनी भी सहमतियाँ/असहमतियाँ हों, नामवर होने का अर्थ केवल नामवर होना है. और किसी भी टिप्प्णी से नामवर का मह्त्व कम नहीं हो जाता.प्रदीप कांतhttps://www.blogger.com/profile/09173096601282107637noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-41953204993243920662009-10-30T00:49:55.482-07:002009-10-30T00:49:55.482-07:00हिंदी ब्लागिंग और खास तौर पर पत्रकारिता की दुनिया ...हिंदी ब्लागिंग और खास तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में ऐसे कथित विद्वानों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, जो अज्ञानता को अलंकार की तरह धारण करके घूम रहे हैं. उन्हें अपनी मूर्खता के भव्य प्रदर्शन से इतना भयंकर व्यामोह है कि नारद मोह भी हल्का लगने लगता है. <br />बोधि भाई, बहुत सोचा किया...बहुत देखा किया...बहुत सुना किया...मगर बकौल फिराक, दुविधा पैदा कर दे दिलों में ईमानों को दे टकराने, बात वो कर ऐ इश्क कि कायल सब हों कोई न माने...सिर्फ नामवर दिखते हैं. जरा ईमानदारी से बताएं पूरे हिंदी जगत में आप फिलवक्त किसको नामवर के समकक्ष रख सकते हैं? दो-चार ब्लागिए के आशीर्वचनों(?) से नामवर की महत्ता और मेधा के बारे में कितना जाना जा सकता है? हकीकत ये है कि नामवर के कट्टर दुश्मन भी नामवर की प्रतिभा और अध्ययन से भीतर ही भीतर भयभीत रहते हैं. मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूं कि भले ही दो-चार कक्षाओं में, पर उनसे पढ़ा है. अनेक बार, अनेक शहरों में अनेक मुद्दों पर बोलते हुए सुना है. संस्कृत, इंग्लिश, उर्दू, हिंदी, अपभ्रंश-अवहट्ट के वे आधिकारिक विद्वान तो हैं ही, तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्य में चल रही गतिविधियों से वे हमेशा अपडेट<br /> रहते हैं. गुरुदेव को सादर नमन.Pankaj Parasharhttps://www.blogger.com/profile/06831190515181164649noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-61033740526934419672009-10-28T20:45:09.329-07:002009-10-28T20:45:09.329-07:00मित्र,
मै बारह साल से भारत के बाहर बसा हुआ हूं. ...मित्र, <br /><br />मै बारह साल से भारत के बाहर बसा हुआ हूं. अन्य अनिवासियों की तरह मेरी भी हिन्दी से और हिन्दवासियों से जुडाव एक भावनात्मक जरूरत ज्यादा थी. नाम/सेवा/छपास की पीडा आदी से जुडी जरूरत कतई नहीं! <br /><br />इसीलिये सत्य कहते, किसी के नाम का कद और उस कद की छाया का भय नही रहा मुझे, लेकिन बंद दिमाग की दिवारों पर अपना सर फ़ोड लूं इतना दीवाना भी नहीं हूं. <br /><br />मै हिन्दी चिट्ठाकारी से राम-राम करने का मन बना चुका हूं बस कुछ बचे काम हैं वो हो लें. अब आप शान्ती पाईये. <br /><br />रही चिपलूनकर और मेरी विचारधारा को एक जमात में बिठाने की बात - वो संभव नही - वे एक हिन्दूत्ववादी भारतवासी हैं और मै मूलत: अंग्रेजी में अधिक सोचने वाला एक वसुधैव कुटुंबकम जपता टेक्नोलोजी प्रेमी. <br /><br />बाकि आपजैसों को सिखाने के लिये रवि जैसे टेक्नोक्रेट हैं ही ना! आप सुरक्षित हाथों मे हैं अब चलता हूं .. पता नही ये संदेश कितनी जगह कट पेस्ट करना पडे! :)eSwamihttps://www.blogger.com/profile/04980783743177314217noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-198440204025473122009-10-28T11:17:42.451-07:002009-10-28T11:17:42.451-07:00बहुत अच्छा लिखा है आपने .
माना कि ब्लॉगिंग स्वतं...बहुत अच्छा लिखा है आपने . <br /><br />माना कि ब्लॉगिंग स्वतंत्र विधा है पर बहु-अनुशासनिक अध्ययन के जमाने में ब्लॉगिंग को महज तकनीकी जानने वालों का एकांगी माध्यम नहीं माना जा सकता . तकनीकी को मानविकी और साहित्य से पोषक रस पाना ही होगा .<br /><br />नामवर जी से असहमत हुआ जा सकता है,पर उनके बारे में जैसा अल्लम-गल्लम नेट पर बैठे कुछ साक्षर कर रहे हैं वह न केवल निहायत बचकाना है,बल्कि वितृष्णा पैदा करता है . हिंदी समाज अपनी साहित्य-संबंधी समझ को विकसित करने लिये जिन आलोचकों का ऋणी है,रामचंद्र शुक्ल,हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, रामबिलास शर्मा और नामवर सिंह उनमें सर्वप्रमुख हैं .<br /><br />भारतेन्दु ने हिंदी समाज के दो प्रमुख फल गिनाए हैं -- फूट और बैर , फूट की बेल और बेर के वृक्ष ब्लॉग जगत में भी फल-फूल देते दिख रहे हैं .Priyankarhttps://www.blogger.com/profile/13984252244243621337noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-24210426539861784342009-10-28T10:25:49.353-07:002009-10-28T10:25:49.353-07:00बोधि भाई आपकी बात से सहमत हूँ....वैसे मुद्दे की बा...बोधि भाई आपकी बात से सहमत हूँ....वैसे मुद्दे की बात कि आपने धैर्य बनाए रखा यही क्या कम है.VIMAL VERMAhttps://www.blogger.com/profile/13683741615028253101noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-48430537055781148772009-10-28T10:17:36.028-07:002009-10-28T10:17:36.028-07:00एक जमाना था जब सिमिंट के कट्टों के परमिट कटे करै...एक जमाना था जब सिमिंट के कट्टों के परमिट कटे करै थे ! फोन लगवाने , गैस के सिलिनर <br />लेने की पर्ची कटे करीं एम. पी. कोटे सें ! रचना छपवावे को संपादक की लल्लो-चप्पो <br />और अपनी किताब छपने पे भी आलोचक की किरपा दृष्टी चहिये होय करे थी बाबू साहेब ! <br />अब बखत बदल गया है , ट्वेंटी -ट्वेंटी किरकिट खेला जा रहा है !. म्यूजियम की चीजों को म्यूजियम में देख के जी खुस होता है<br />बाऊजी , खोंखियावो मति ......हाँ !मुनीश ( munish )https://www.blogger.com/profile/07300989830553584918noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-56665550268949142762009-10-28T09:52:45.620-07:002009-10-28T09:52:45.620-07:00नामवर सिंह होने का अर्थ है जिस मंच पर वो आसीन हो उ...नामवर सिंह होने का अर्थ है जिस मंच पर वो आसीन हो उसे सम्मान मिल जाता है। जो मंच पर नहीं हैं, वे गरियाते रहेंगे ही!चंद्रमौलेश्वर प्रसादhttps://www.blogger.com/profile/08384457680652627343noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-84901416442762442802009-10-28T09:40:13.388-07:002009-10-28T09:40:13.388-07:00बोधिसत्व जी, अपने आवेश में सच कहा है,जाहिर है ब...बोधिसत्व जी, अपने आवेश में सच कहा है,जाहिर है बल देने के चक्कर में कुछ ज्यादा हो गया,चलता है। गुरूजनों की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। लेकिन ब्लाग पर लगाम की बात से संभवत: दुनिया का कोई भी बड़ा लेखक सहमत नहीं है। मैं नामवर के कद वाले दुनिया के लेखकों के नाम गिनाना नहीं चाहता। आप जानते हैं।आप समझदार आदमी हैं,हम आपके पाठक हैं। लेकिन नामवरजी का ब्लाग के बारे में जो सुझाव है वह बेमानी है। क्योंकि सुझावों, हिदायतों,निषेधों,कानूनों को धता बताते हुए ब्लाग नामक नेट विधा का जन्म हुआ है। यह चालीस साल की है। यह मुक्त लेखन का अब तक का चरमोत्कर्ष है। इसकी साहित्य अथवा प्रेस अथवा अन्य मीडिया से तुलना नहीं की जा सकती। यह नया विधा रूप है और ऐसे मीडियम का विधा रूप है जो सारे माध्यमों का सरताज है,इसे इंटरनेट कहते हैं। यहां साहित्य के फार्मूले नहीं चलते। नामवरजी की राय से असहमत होना बुरी बात नहीं है। नामवरजी स्वयं असहमतियों को बढावा देते हैं। असहमति के प्रत्युत्तर में भूरी-भूरी प्रशंसा अच्छी बात है गुरूजनों की प्रशंसा सुनने में हमें अच्छी लगती है। लेकिन गुरूदेव को अच्छी नहीं लगती।जगदीश्वर चतुर्वेदीhttps://www.blogger.com/profile/06417945584062444110noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-42112126205812066892009-10-28T08:38:13.411-07:002009-10-28T08:38:13.411-07:00@ पाण्डेय जी - वकालत के लिये बधाई, नामवर जैसे महान...@ पाण्डेय जी - वकालत के लिये बधाई, नामवर जैसे महान लोगों का नाम तो मैं ले सकता हूं, लेकिन मुझ जैसे अकिंचन व्यक्ति का नाम बोधि जी ने इतनी बार ले लिया इसलिये मुझे आश्चर्य हुआ… <br />वैसे नामवर जी के बारे में ई-स्वामी जी ने मुझसे कहीं बेहतर लिखा है… इधर http://hindini.com/eswami/archives/286 <br />ज़रा देखें… <br />वाकई कागज़ कीमती है, लेकिन दुर्भाग्य से देश में बहुतेरे कलमघिस्सुओं को यह बात समझ में ही नहीं आती… क्या करें… <br />@ द्विवेदी जी - आपकी पसन्द लाजवाब है… :)Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/02326531486506632298noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-3671201198760241022009-10-28T08:23:26.828-07:002009-10-28T08:23:26.828-07:00"...आप को नामवर जी ब्लॉगिंग के योग्य क्यों दि...<b>"...आप को नामवर जी ब्लॉगिंग के योग्य क्यों दिखेंगे। क्योंकि आपकी दुनिया केवल ब्लॉग तक सिमटी है । लेकिन हिंदी तो केवल ब्लॉग की मोहताज नहीं है। और उसके किसी भी माध्यम पर आपसे अधिक नामवर का हक है।..."</b><br /><br />सच कहा आपने. 'हिन्दी' है, तो 'हिन्दी ब्लॉगिंग-श्लागिंग चिट्ठाकारी-शिट्टाकारी' है. मगर क्या करें, लोग-बाग अपने कम्प्यूटर टेबल पर बैठकर कम्प्यूटर में मात्र हिन्दी में टाइपिंग कर लेने की योग्यता पा लेने के बाद - अपने बाप-दादाओं को याद करते हुए - <b> टेबल राइटिंग करते हुए </b>, नामवरों को गरियाने लगते हैं!रवि रतलामीhttps://www.blogger.com/profile/07878583588296216848noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-52523125069425116552009-10-28T08:07:58.381-07:002009-10-28T08:07:58.381-07:00सौ फीसद सहमत हूं बोधिभाई।
बेहतरीन आलेख। शुक्रिया।...सौ फीसद सहमत हूं बोधिभाई। <br />बेहतरीन आलेख। शुक्रिया।अजित वडनेरकरhttps://www.blogger.com/profile/11364804684091635102noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-8783774432070969122009-10-28T07:58:19.956-07:002009-10-28T07:58:19.956-07:00बोधि भाई अच्छा मुद्दा उठाया आपने. नामवर जी पर क्या...बोधि भाई अच्छा मुद्दा उठाया आपने. नामवर जी पर क्या कहूँ - उनकी कुछ समकालीन गतिविधियों और फ़ैसलों से असहमतियों के बावजूद वे मेरे लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितने छात्र जीवन में थे. सीधा संपर्क ना रहने के बावजूद वे मेरे साहित्य गुरु हैं. पहले अंकुर मिश्र सम्मान समारोह में उनसे मिले स्नेह को भुला पाना असंभव है. नामवर जी बीसवीं सदी की महत्वपूर्ण आलोचकत्रयी(रामचंद्र शुक्ल, हज़ारिप्रसादद्विवेदी और नामवर जी) में हैं और उनके सोच-विचार का मेरे कवि पर भी प्रभाव है और मेरे अध्यापक पर भी. इस लेख और इस तेवर के लिए आपको बधाई.शिरीष कुमार मौर्यhttps://www.blogger.com/profile/05256525732884716039noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-37137022144244096932009-10-28T07:02:37.960-07:002009-10-28T07:02:37.960-07:00आप चाहें तो नामवर को ठाकुरद्वारे में ले जाके बैठा ...आप चाहें तो नामवर को ठाकुरद्वारे में ले जाके बैठा दें किसने रोका है. लेकिन हिंदी को उनके जिस योगदान का बखान करते आपकी उंगलियाँ नहीं थकीं जरा बताएं कि हिंदी जानने वाले कितने लोग उससे परिचित हैं और हिंदी को साधारण जनमानस तक पहुँचाने में उसका क्या उपयोग हो पाया. सच बात तो यह है कि वाम गिरोहबंदी ने हिंदी को आज इस हालत में पहुंचा दिया है कि हिंदी साहित्य आम पाठक से दूर हो गया है और आम पाठक भी हिंदी साहित्य से दूर हो गया है. और इस गिरोहबंदी के अगुआ रहे हैं यही नामवर. अपनी विचारधारा और अपने लोगों को सेट करने में माहिर इस गिरोह का ही कमाल है कि आज आप विरोध के स्वर को दबाने और नजरों में सुर्खरू होने के लिए इतने उतावले हैं. <br /><br />ब्लागिंग किसी नामवर का मोहताज नहीं और न ही इसे उनके अनुमोदन कि आवश्यकता है. यहाँ भेड़ -बकरियां नहीं चर रही कि कोई किसी भी तरफ हकाल देगा. राज्यसत्ता के हस्तक्षेप और नियंत्रण का क्या अर्थ है उससे भी लोग भली-भांति परिचित हैं. आलोचना की आड़ में बहुत दिनों तक लोगों कि धोतियाँ खींचते रहे और अब जब लोगों के हाथ आपके तरफ बढ़ने लगे तो राज्यसत्ता की दुहाई देने लगे.<br /><br />वाम गिरोह सदा से ही "बौद्धिक ब्राह्मणवाद" से पीड़ित रहा है. उसे अपनी विचारधारा, अपने लोग और अपनी सत्ता से इतर कुछ भी देखना सुनना - गंवारा नहीं. अपने से अलग जो कुछ भी है वह तुच्छ, हेय और "दुरदुराये" जाने योग्य है. यह "विलासिता" ब्लाग में नहीं चलने वाली क्योंकि यहाँ न तो लोगों को छपास लगी है और ना ही अलमारियों में सजने की इच्छा. चाहे जो हथकंडे अपना लें लेकिन "भिन्न विचारों" को न तो आप पनपने से रोक पाएंगे और न ही उन्हें मुखरित होने से.निशाचरhttps://www.blogger.com/profile/17104308070205816400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-11223108178468638222009-10-28T06:07:41.715-07:002009-10-28T06:07:41.715-07:00ब्लाग क्या अपने आप में कहानी-कविता-लेख-आलोचना आदि ...ब्लाग क्या अपने आप में कहानी-कविता-लेख-आलोचना आदि की तरह कोई स्वातंत्र विधा है क्या? अगर नहीं तो इन सबके व्यापक परिवार का हिस्सा या सेट का सबसेट क्यों नहीं है? यह स्वीकार करने में इतनी परेशानी क्यों?<br /><br />जब ब्लाग नहीं था तो लिख कर विरोध/समर्थन/रचनात्मक अवदान करने की चाह रखने वालों को अपने प्रोडक्शन का क्या करना चाहिये था? और ये पोस्ट प्रोड्यूसर लोगों ने लेखन कला और प्रतिभा क्या मुद्रित पन्नो को पढकर और सादे कागज़ पर लिख कर ही अर्जित नहीं की है? और अब जब स्वयं प्रकाशित होने और संपादक से संपादित होने के बीच चुनाव के लिये सब स्वतंत्र हैं।<br /><br />चिपलूणकर साहब ब्लाग जगत के टुटपूंजिया, साम्प्रदायिक लेखकों के प्रतिनिधि हैं तो उनका नाम आयेगा ना। आपका नाम कितनी बार लिया था नामवर जी ने जो पिल पडे उन पर? हां रहा सवाल माध्यम पर अधिकार जमाने का तो ये चाहत ही आप सदृश लोगों की मानसिकता तय कर देती हैं।<br />और हां आप गूगल की किरपा से ही लिखते रहिये। पेडों की जान बहुत कीमती है।Ashok Kumar pandeyhttps://www.blogger.com/profile/12221654927695297650noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-4945952060516350132009-10-28T06:05:10.696-07:002009-10-28T06:05:10.696-07:00बोधि भाई, नहीं जानता था कि आप आवेश में ही अपनी सर्...बोधि भाई, नहीं जानता था कि आप आवेश में ही अपनी सर्वोत्तम रचनाएँ लिखते हैं। इस आलेख से अक्षरश सहमत हूँ। इस से आगे कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है।दिनेशराय द्विवेदीhttps://www.blogger.com/profile/00350808140545937113noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-88098135307195803342009-10-28T04:26:45.311-07:002009-10-28T04:26:45.311-07:00भैया, हमें तो प्रिण्ट में जिक्र होने का कोई लोभ मो...भैया, हमें तो प्रिण्ट में जिक्र होने का कोई लोभ मोह नहीं। हमें तो साहित्य में भी मूड़ घुसाने का राग नहीं। <br />हम लिखते भी नहीं। पोस्टें प्रोड्यूस करते हैं - जैसे तकली से कता सूत या कोंहार के दिये! <br />लिहाजा हमें कोई कुण्ठा नहीं। पर ब्लॉग को साहित्य का एनेक्सी मानने वाले जब ठकुराई करते हैं, तब नहीं जमता। <br />साहित्य की इज्जत होनी चाहिये और व्यक्ति की ब्लॉग रचनाधर्मिता को उसका सब-सेट मानने की हठधर्मी नहीं होनी चाहिये! ब्लॉग की इज्जत होनी चाहिये।Gyan Dutt Pandeyhttps://www.blogger.com/profile/05293412290435900116noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-84747745056948531842009-10-28T04:00:33.310-07:002009-10-28T04:00:33.310-07:00ह्हुफ़्फ़्फ़्फ़, इतने लम्बे लेख में मेरा नाम 7-8 बार…?...ह्हुफ़्फ़्फ़्फ़, इतने लम्बे लेख में मेरा नाम 7-8 बार…? वाह क्या बात है… और तो और पहली ही टिप्प्णी में भी एक बार पाण्डे जी के श्रीमुख से भी… लाटरी लग गई क्या मेरी? मैंने तो आपका नाम एक बार भी नहीं लिया था, फ़िर भी ऐसी भारी खुन्नस? ठण्डा पानी पीजिये थोड़ा… ई-स्वामी जी आते ही होंगे जवाब देने… <br /><br />@ अशोक पाण्डे जी - यह टुटपुंजिया लेखक लिखता रहेगा गूगल की मेहरबानी से… क्या करें गूगल पर वामपंथी विचारकों (जो विभिन्न विश्वविद्यालयों में कब्जा जमाये बैठे हैं) का जोर नहीं चल रहा अभी… :)Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/02326531486506632298noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-46714859658687408002009-10-28T03:32:56.570-07:002009-10-28T03:32:56.570-07:00डा० अनुराग के बात मार्के की है.."आप किसी से स...डा० अनुराग के बात मार्के की है.."आप किसी से सिर्फ़ इसलिए असहमत नहीं हो सकते कि वे नामवर सिंह हैं.."<br /><br />मुझे लगता है कि हिन्दीभाषी लोग तिल का ताड़ बनाने की अजब बीमारी से ग्रस्त हैं.. पिछले दो-तीन महीने में तीन क़िस्से हो गए.. पहले उदय प्रकाश और आदित्यनाथ विवाद, फिर 'प्रमोद वर्मा स्मृति..' को लेकर झंझट और अब ये.. पहले मुझे लगा कि मेरे वामपंथी मित्र ही कुछ नैतिकता के ऊँचे घोड़े पर सवार हैं..(वैसे मोदी और उनके अन्य साथी हैं इसी लायक कि दुरदुराये जायं).. मगर अब देखता हूँ कि किसिम किसिम के लोग खड़े हो हो के हाजिरी दे रहे हैं..'हमें भी किड़वा काट के बीमारी दे गया है'.. <br /><br /> सब लोग मिल कर छूत-अछूत का खेल खेल रहे हैं.."ऊ इहाँ कईसे बईठा.. तू ओ से कईसे मिला..ऊ साहित्य वाला अपने खेल में हम का नाहीं खेलाइस.. अब हम बिलाग-बिलाग खेल रहे हैं.. ऊ का धंसे ना देब.."<br /><br />क्या किजियेगा.. लात खाया समाज काँय-कांय तो करबे करेगा..अभय तिवारीhttps://www.blogger.com/profile/05954884020242766837noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-84396455717677543842009-10-28T01:55:59.130-07:002009-10-28T01:55:59.130-07:00कोई भी चीज जब सामने आती है तो सार्वजानिक हो जाती ह...कोई भी चीज जब सामने आती है तो सार्वजानिक हो जाती है .व्यक्तिगत नहीं रह जाती फिर उस पर पाठको का भी हक हो जाता है ..प्रतिक्रियाये करने का हक भी होता है ...जाहिर है हर पाठक ब्लोगर नहीं होता ...ओर हर पढने वाला टिपण्णी भी नहीं करता ..जैसे हर पत्रिका में हम ख़त नहीं भेजते ...नामवर जी विद्वान आदमी है .ओर बहुतेरो से कही ज्यादा ... ऐसा नहीं के उनसे सिर्फ इसी बिना पर सहमत हुआ जाए .....पर ऐसा भी नहीं के उनसे सिर्फ इसलिए असहमत हुआ जाए चूंकि वे नामवर सिंह है ......असहमति ओर विचारो में भेद एक मनुष्यगत स्वभाव है ....पर अक्सर हम वक्ता की बात से ज्यादा वक्ता पर केन्द्रित रहते है ....यदि यही बात किसी ओर ने कही होती ...?<br />..मै तो उनसे पूरी तरह सहमत हूँ के ब्लॉग पर भी अनुशासन आना चाहिए .बिकुल किसी दूसरे माध्यम की तरह .क्यों नहीं .क्या देश हित के खिलाफ चलने वाले ब्लोगों के प्रति हम सब की एक आम सहमति नहीं बनी थी की उन्हें बेन किया जाए ....<br />मेरी राय में किसी भी गोष्टी या समूह के मिलने में हमें कुछ सकारात्मक पक्ष ढूंढने चाहिए .....डॉ .अनुरागhttps://www.blogger.com/profile/02191025429540788272noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-23213683682383331722009-10-28T01:51:24.217-07:002009-10-28T01:51:24.217-07:00आपने सही कि कि नामवर जी हिन्दी साहित्य जगत के शीर्...आपने सही कि कि नामवर जी हिन्दी साहित्य जगत के शीर्ष हैं-- बेशक़। उनसे तमाम असहमतियां हो सकती हैं, नाराज़गियां भी लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कि हिन्दी के जीवित लेखकों में उनसे बडा कोई नहीं। <br /><br />असल में ब्लाग जगत में सक्रिय ख़ालिसों को पता नहीं क्यूं प्रिण्ट का डर हमेशा सताता है…जबकि अख़बारों में अपने ब्लाग का ज़िक्र इतना आनन्दित करता है कि तुरत स्कैनर की ओर भागते हैं। फिर भी जिस जगह मौका मिलता है प्रिण्ट की पत्रिकाओं, उनके संपादकों उनके लेखकों को गरियाने का कोई मौका नहीं छोडते। कारण शायद कुण्ठा है या एक हीनभावना या फिर एक भयावह असुरक्षा बोध। साथ ही दक्षिणपंथ और मध्यवर्गीय अवसरवाद से संचालित (जो ज़ाहिर तौर पर खाये-अघाये लोगों का स्वाभाविक दर्शन है) अपनी विचारधारा के चलते चिपलूणकर जैसे टुटपुंजियों के लिये नामवर जी का नाम ही आतंक पैदा करने के लिये काफ़ी है। उन्हें शायद मोहन भागवत चाहिये थे उद्घाट्न के लिये।<br />जो ब्लाग पत्रिकायें निकल रही हैं क्या उन्होंने उन सब दुर्गुणों से मुक्ति पाली है? मेरा अनुभव इसके विपरीत है।<br />हमे यह समझना होगा कि ब्लाग कोई हौआ नहीं हैं। यह भी लिखित शब्दों की प्रस्तुति का माध्यम है। कोई चाहे तो इसे सार्वजनिक डायरी जैसा कुछ कह सकता है। अब यह तो नहीं होता ना कि कागज़ बनने से पहले के साहित्य को इस आधार पर ख़ारिज़ कर दिया जाये कि वह ताडपत्र पर लिखा गया है। तो ब्लाग की दुनिया को इतना सीमित कैसे किया जा रहा है? डिनर पार्टियों की तर्ज़ पर ब्लागर सम्मेलन करने वाले लोग गंभीर गोष्ठियों को ख़ारिज़ करेंगे ही। वो क्यों चाहेंगे कि कोई छह पूछे की भाई इस माध्यम के सामाजिक सरोकार नहीं होना चाहिये क्या?<br /><br />नामवर के लोग होने का मतलब है उस परम्परा के लोग होना जो साहित्य के सामाजिक सरोकार को स्वीकार करते हैं…और इसलिये सारे विरोध के बावज़ूद जब बात आर-पार की होगी तो हम भी उन्हीं लोगों में शामिल हैं।Ashok Kumar pandeyhttps://www.blogger.com/profile/12221654927695297650noreply@blogger.com