tag:blogger.com,1999:blog-9215894215776990582024-03-12T16:00:16.398-07:00विनय पत्रिकाफिलहाल इसे प्रार्थना पत्र न समझेंबोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.comBlogger148125tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-62470221648339880192011-12-18T12:00:00.000-08:002011-12-18T12:05:20.751-08:00अदम जी मुझे लौकी नाथ कहते थे<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6dwHoBtT7gS52J9evqbORfQ30dsazwJsdKD4rBCKxkmf_tRCAcslsObUiUfMKujFDT1bNfQV0imyk1WMXCj-OCrniEd6-NFX11drlMYAUwQ35JVkoXLW3DrYub2N9k3gYvRy7E8eBk-XX/s1600/adam+ji.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 258px; height: 195px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6dwHoBtT7gS52J9evqbORfQ30dsazwJsdKD4rBCKxkmf_tRCAcslsObUiUfMKujFDT1bNfQV0imyk1WMXCj-OCrniEd6-NFX11drlMYAUwQ35JVkoXLW3DrYub2N9k3gYvRy7E8eBk-XX/s320/adam+ji.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5687561833067527042" /></a><br /><br /><br />जयपुर में अदम जी मंच संचालन कर रहे थे। मुझे कविता पढ़ने बुलाने के पहले एक किस्सा सुनाया। किसी नगर में एक बड़े ज्ञानी महात्मा थे। उनका एक शिष्य था नाम था उसका लौकी नाथ। एक दिन लौकी नाथ मठ छोड़ कर भाग गया। ज्ञानी गुरु ने खोज की लेकिन लौकी नाथ का कुछ पता न चला। सालों के बाद उसी नगर में एक नए संन्यासी आत्मानंद पधारे। उनके प्रवचन की धूम मच गई। ज्ञानी गुरु जी अपने शिष्यों के साथ आत्मानंद का प्रवचन सुनने गए। वहाँ अपार जनसमूह था। नजदीक जाने पर गुरुजी ने देखा तो बोल बड़े यह तो लौकी नाथ है। किस्सा खत्म कर अदम साहब ने कहा कि मैं बोधिसत्व हो गए अपने लौकी नाथ उर्फ अखिलेश कुमार मिश्र को कविता पढ़ने के लिए बुलाता हूँ। <br /><br />मैं अचानक लौकी नाथ बन जाने से थोड़ा हिल-डुल गया था। लेकिन पढ़-पढ़ा के बाहर आया। दोस्तों ने कुछ ही दिनों तक मुझे लौकी नाथ कह कर बुलाया लेकिन अदम जी तो हर मुलाकात में बुलाते का हो लौकी नाथ का हाल बा। <br /><br />उन्होंने कभी बोधिसत्व नहीं कहा। और सच कहूँ तो मुझे उनकी अपनापे भरी बोली में का हो लौकी नाथ सुनना अच्छा लगता था। अपने बड़े भाई या काका दादा की की पुकार की तरह। सोच रहा हूँ कि अब कौन कहेगा मुझे लौकी नाथ। वे ही कहेंगे। और कोई सुने या नहीं मैं सुन लूँगा। <br /><br />हिंदी विश्वविद्यालय की अयोध्या कार्यशाला में बड़े उछाह से सबसे मिलने आए। कभी लगा नहीं कि एक बड़े कवि के साथ बैठे हैं। न वे बदले न उनकी कविता बदली, न उनका पक्ष बदला। जबकि बदलने और बिकने के लिए कितना बड़ा बाजार मुह बाए खड़ा है। कह सकता हूँ कि जो बदल जाता है वो अदम गोंडवी नहीं होता। अदम जी को प्रणाम-सलाम। <br />और बाते हैं- फिर कभी।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-16197257213176161472011-09-01T09:41:00.000-07:002011-09-01T10:31:38.010-07:00गुरु की याद<span style="font-size:78%;">अपने प्राथमिक अध्यापकों को अक्सर याद करता हूँ। उनमें से अब तो कई गोलोकवासी हो गए हैं। कल्लर पाठक जी जिन्होंने अक्षर ज्ञान कराया। उनकी लिखावट बड़ी नोक दार और बर्तुल थी। वो लिखाई अब तक नहीं सध पाई है। बाबू श्याम नारायण सिंह की बौद्धिक चमक किसी और गुरु अध्यापक शिक्षक में न मिली। वे मेरे मिडिल के प्रधानाचार्य थे। कभी पढ़ाते नहीं थे। लेकिन जिस दिन पढ़ाने की घोषणा कर देते थे तो लड़कों में उत्साह की आग लग जाती थी। उस दिन स्कूल न आए लड़के पछताते रहते थे कि पढ़ने क्यों न आए।</span>
<br /><span style="font-size:78%;">सबसे विरल अनुभव था शंभु नाथ दूबे जी से पढ़ने का। वे अक्सर स्कूल आ कर रजिस्टर में अपनी हाजिरी लगाते और सो जाते। फिर १ बजे के आस-पास अगर महुए का मौसम हुआ तो उसका रस पीते और गन्ने का रस मिल जाता तो गन्ने का रस पीकर सो रहते। लेकिन स्कूल आने जाने का समय नियम से पालन करते। एक बार मेरी एक ताई जी ने अकारण मेरी पिटाई करने के कारण शंभुनाथ जी को तमाचा मार दिया था। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि जितने अध्यापक पंडितजी यानी ब्राह्मण थे वे पढ़ाते कम थे नौकरी अधिक बजाते थे। वह सिससिला अभी भी चल रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। </span>
<br /><span style="font-size:78%;">गुरु और साधु की जात नहीं पूछते। लेकिन जो पिछड़ी जाति के अध्यापक मिले उन्होंने पढ़ाने की भरपूर कोशिश करते थे। रूपनारायण मुंशी जी इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। स्कूल के सभी बच्चे उनकी कोशिश को सम्मान देते थे। हम श्रद्धा से भर कर कभी उनका पैर छूने की कोशिश करते तो वे रोक देते। वे कुछ उन अध्यापकों में से हैं जिनसे मिलने का मन करता है। पिछली गाँव यात्रा में उनको फोन किया तो पहचान गए। मुझे अचरज हुआ कि एक अध्यापक अपने ३० साल पहले विलग हो गए छात्र को कैसे याद रखता है। इस बार जाने पर उनसे मिलना होगा। </span>
<br /><span style="font-size:78%;">यहाँ एक बात लिखते हुए ग्लानि से भर रहा हूँ कि २०-२५ साल के विद्यार्थी जीवन में कभी भी किसी मुसलमान अध्यापक से पढ़ने का अवसर न मिला। मिडिल स्कूल में एक मौलवी साहब पढ़ाने आए तो वे पिछली कक्षाओं को गणित पढ़ाते थे। हालाकि वे मेरे गांव में ही रहते थे लेकिन उनसे कुछ भी पढ़ नहीं पाया। यहाँ मुंबई आकर एकबार उर्दू पढ़ने के लिए बांद्रा के उर्दू स्कूल में शायर हसन कमाल साहब के साथ गया तो लगा कि यहाँ वह सु्वसर मिलेगाष लेकिन फीस जमा करके भर्ती होने के आगे बात न बढ़ पाई।</span>
<br /><span style="font-size:78%;">पढ़ाई समाप्त करने तक कुल ५० अध्यापकों से पढ़ने का अवसर मिला। सोचता हूँ कि सबको लेकर अपने संस्मरण लिख दूँ। देखते हैं कि कब लिखता हूँ। </span>
<br />बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-3191106156779668832010-10-06T00:54:00.000-07:002010-10-07T02:39:48.605-07:00हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से लौट कर<span style="font-size:130%;"><span style="color:#ff0000;">लेखकों से मिलना सुखद रहा<br /></span></span><br />मैंने पहले लिखा था कि वर्धा में <a href="http://vinay-patrika.blogspot.com/2010/09/blog-post.html">वृहद् उत्सव </a>होने जा रहा है। तो वह जन्मशती उत्सव सम्पन्न हुआ और लेखकों का भारी जमावड़ा रहा। 2 और 3 अक्टूबर को वर्धा में बहुत आनन्द आया। वहाँ महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित जन्मशतियों के उत्सव में देश भर से कवि लेखक और आलोचक जुटे थे ।<br /><br />वहाँ नामवर जी, आलोक धन्वा, अरुण कमल, खगेंद्र ठाकुर, गोपेश्वर सिंह, दिनेश शुक्ल, दिनेश कुशवाह, अजय तिवारी, अखिलेश, विमल कुमार के साथ ही नित्यानन्द तिवारी जी से सालों बाद मुलाकात हुई। सबसे रोचक रहा मुझे चाँद चाहिए के लेखक सुरेंद्र वर्मा से मिलना। वे कम बोले और थोड़ा अलग-अलग रहे। उनकी बातों से पता चला कि वे पिछले 13 सालों से एक उपन्यास लिख रहे हैं जो कि मुगल-खानदान पर है। निर्मला जैन जी को 12 साल बाद सुना। अपनी सोच और आलोचकीय अवधारणा पर प्रतिबद्ध हिंदी में शायद वे अकेली हैं। उषा किरण खान से 8 साल बाद मिला।<br /><br /><br />रंजना अरगड़े से शमशेर जी और उनकी रचनावली के बारे में बहुत सारी बाते हुईं। उनके पास अभी भी शमशेर जी की बहुत सारी अप्रकाशित रचनाएँ हैं जिन्हें वे शमशेर रचनावली में दे रही हैं। हिंदी को रंजना अरगड़े जी का आभारी होना चाहिए। उन्होंने हिंदी की थाती को सहेज कर रखा।<br /><br />हिंदी विश्वविद्यालय का यह जन्म शती आयोजन जगमग रहा। नागार्जुन, अज्ञेय ,शमशेर, केदार और फैज जैसे पांच कालजयी कवियों के कृतित्व और व्यक्तित्व पर गंभीर चर्चा हुई। तो विभिन्न सत्रों के बीच आपसी बातो में लोगों ने खूब रस लिया। राजकिशोर जी के चुटिले संवाद, गोपेश्वर सिंह के ठेंठ का ठाठ और कविता वाचक्नवी के ठहाके याद आ रहे हैं.। गोपेश्वर जी से करीब 12 साल बाद मिलना हुआ। 1999 में पटना प्रवास में गोपेश्वर जी मेरे लिए बड़े सम्बल की तरह थे।<br /><br />पक्षधर के संपादक विनोद तिवारी दिल्ली से तो ब्लॉगर शशिभूषण चेन्नै से पधारे थे। आलोचक शंभुनाथ ने अपने वक्तव्य से संगोष्ठी को गरिमा प्रदान की। शशिभूषण का अज्ञेय पर केंद्रित व्याख्यान तर्कपूर्ण था। डॉ. विजय शर्मा का मौन रहना और नरेन्द्र पुण्डरीक कवि केदार नाथ अग्रवाल को लेकर भावुक हो जाना एक अलग अनुभूति से भर गया। गंगा प्रसाद विमल और जीवन सिंह का एक दूसरे से लपक कर मिलना और एक दूसरे से देर तक बतियाना सुखद लगा।<br /><br />सत्यार्थमित्र ब्लॉग के संचालक और अब विश्वविद्यालय संबंद्ध सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने पूरे कार्यक्रम की सजग रिपोर्टिंग की। विश्वविद्यालय का सभागार लगातार छात्रों और वहाँ के अन्य लोगों की उपस्थिति से भरा रहा। कुलपति विभूति नारायण राय और कुलाधिपति नामवर सिंह पहले वक्ताओं और फिर श्रोताओं में लगातार बने रहे। दो दिन में लगभग 6 गंभीर सत्रों को सुनना बड़े धैर्य की बात होती है। कुल मिला कर मेरा दो दिन बहुत आनन्द में बीता। कितनों से मिलना कितनों को जानना अच्छा लगा।<br /><br />नागपुर से कवि वसंत त्रिपाठी के साथ आए रंगदल ने नागार्जुन बाबा की कविताओं का रुचिकर मंचन किया। जिसका लोगों ने भरपूर आनन्द उठाया।<br /><br />सूरज पालीवाल, शंभुगुप्त, बीरपाल, अनिल पाण्डेय और उमाकांत चौबे को छूना देखना आह्लादकारी रहा।<br />वहाँ न पहुँचे लोगों के लिए एक सुखद बात यह है कि विश्वविद्यालय इस संगोष्ठी में पढ़े या बोले गए वक्तव्यों को आने वाले दिनों में किसी न किसी रूप में प्रकाशित भी करेगा।<br /><br /><br /><span style="font-size:0;"></span>बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-35236228457808823132010-10-02T01:33:00.000-07:002010-10-02T02:41:55.653-07:00हिंदी विश्वविद्यालय में हिंदी महारथियों का जन्मशती उत्सव प्रारंभ<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijYzaFry3YZ-zSfnUSe4dVLas-lfHHEwwYEZCBRyed2sa8pKR-IQ1a2bIqqgMkFPIwBsrJB3mWW37SIbd-b6PhDmwWXSohWZs8ZcKLZ0Z88p4EcB1B5M9pbL8JOc9sso0xk2apGe4zMyvW/s1600/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80+%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%AF+%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82+%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A5%80+%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%B5.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 184px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijYzaFry3YZ-zSfnUSe4dVLas-lfHHEwwYEZCBRyed2sa8pKR-IQ1a2bIqqgMkFPIwBsrJB3mWW37SIbd-b6PhDmwWXSohWZs8ZcKLZ0Z88p4EcB1B5M9pbL8JOc9sso0xk2apGe4zMyvW/s320/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80+%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%AF+%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82+%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%B6%E0%A4%A4%E0%A5%80+%E0%A4%89%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%B5.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5523378632332350546" /></a><br /><div>जन्मशती उत्सव के उद्घाटन सत्र में विषय प्रवर्तन करते हुए कुलपति विभूतिनारायण राय ने बीसवीं सदी की चर्चा करते हुए इसे सर्वाधिक परिवर्तनों की सदी बताया। उन्होंने कहा कि यह सदी हाशिये की सदी कही जा सकती है जिसमें हाशिए पर रहने वाले लोग- जैसे दलित, आदिवासी और स्त्रियाँ- पहली बार मनुष्य की तरह जीवन जीने का अवसर पा सके।</div><div><br /></div>वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय का सभागार देश भर से आये साहित्यकारों और हिंदी प्रेमी श्रोताओं से खचाखच भरा था। बहुत दिनों बाद नामवर जी को छूने, भेंटने और सुनने का अवसर मिला और पचासी की उम्र में नामवर जी की मेधा अपने उत्कर्ष पर दिखी। उनको छूकर एक ऋषि और युग को छूने का आभास हुआ और भेंट कर लगा कि अपने किसी पुरखॆ से मिले हैं।<div><br /></div><div>हिंदी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित जन्मशती उत्सव के उद्घाटन वक्तव्य में नामवर जी ने बीसवीं सदी के अवदान को कई कोणों से रेखांकित किया और बताया कि इसी सदी में प्रथम, द्वितीय और तीसरी दुनिया का आविर्भाव हुआ और अवसान भी। तीनो में से अब तीसरी दुनिया ही बची है। इसी सदी में दो विश्व युद्ध हुए और समाजवाद का उदय हुआ। सदी का अंत होते-होते समाजवाद का भी प्रायः अंत हो गया। उन्होंने याद दिलाया कि भक्तिकाल में सूर, कबीर व तुलसी के साथ मीरा का काव्य स्वर निरंतर सक्रिय रहा। छायावादी कवि त्रयी- प्रसाद, पंत, निराला- के साथ महादेवी वर्मा का चौथा दृढ़ स्वर जुड़ा था, किंतु अज्ञेय, केदार, शमशेर व नागार्जुन की पीढ़ी में कोई महान कवयित्री नहीं दिखती। </div><div><br /></div><div>उन्होंने उक्त चारो कवियों में नागार्जुन के काव्य संसार को अलग से रेखांकित किया। नामवर जी ने जोर देकर कहा कि नौ रसों में विभत्स रस अज्ञेय और शमशेर के यहाँ खोजने पर न मिलेगा। किंतु नागार्जुन ने हिंदी कविता में उस उपेक्षित दुनिया को प्रवेश दिलाया जो नागार्जुन के पहले बहुधा बहिष्कृत थी। उस उपेक्षित दुनिया और दोहे उसके लोगों को ्नागार्जुन ने अपने तरीके से स्थापित किया। उन्होंने नागार्जुन के दोहों को कालजयी बताते हुए उनका प्रसिद्ध दोहा उद्धरित किया</div><div><br /></div><div><span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Tahoma, Helvetica, FreeSans, sans-serif; font-size: 13px; color: rgb(2, 2, 2); line-height: 18px; "><p style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;">खड़ी हो गयी चाँपकर कंकालों की हूक।</span></span></p><p style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;">नभ में विपुल विराट सी शासन की बंदूक॥</span></span></p><p style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;">जली ठूठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक</span></span></p><p style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;">बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक</span></span></p><p style="text-align: left;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;">इस उम्र में नामवर जी की स्मृति और राजनीतिक दृष्टि की दाद देनी होगी। उन्होंने चलते-चलाते अज्ञेय को एक दरेरा दे ही दिया कि असली प्रयोगवादी नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल ही हैं न कि अज्ञेय और उनके द्वारा प्रचारित कवि।</span></p><p style="text-align: left;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;">नामवर जी के बाद बोलने आयी निर्मला जैन ने अज्ञेय की राजनीतिक समझ को रेखांकित किया। उन्होंने इस बात को साफ-साफ कहा कि १९४७ की भारत के विभाजन जैसी विराट त्रासदी और विस्थापितों की समस्या पर ऊपर के चारो कवियों में अकेले अज्ञेय ने ही लिखा। निर्मला जी ने अपने वक्तव्य में अज्ञेय की शरणार्थी श्रृंखला की ग्यारह कविताओं और उनकी शरणागत कहानी को उनकी राजनैतिक समझ का सबूत बताया। उन्होंने शरणागत को ‘सिक्का बदल गया है’ और ‘अमृतसर आ गया है’ जैसी कहानियों की श्रेणी में रखा। , वहीं उन्होंने नागार्जुन की इन्दू जी-इन्दू जी, आओ रानी हम ढोएंगे पालकी, और शमशेर की राजनैतिक कविताओं को उद्धरित करते हुए उनके महत्व को समझाया। निर्मला जी ने केदार की गृहस्थ जीवन से जुड़ी कविताओं को सुख-दुख की सहचरी को सम्बोधित कविताएँ बताया।</span></p><p style="text-align: left;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;">इस कार्यक्रम में आने वाले देश के कई मूर्धन्य साहित्यकार अगले सत्रों में अपना वक्तव्य देंगे जिनमें नित्यानंद तिवारी, सुरेंद्र वर्मा, खगेन्द्र ठाकुर, उषा किरन खान, धीरेंद्र अस्थाना, </span><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium; ">अरुण कमल, </span><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium; ">अखिलेश, अजय तिवारी, </span><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium; ">रंजना अरगड़े, कविता वाचक्नवी, दिनेश कुशवाह, बसंत त्रिपाठी, नरेंद्र पुंडरीक, गोपेश्वर सिंह, प्रमुख हैं। मुझे भी केदार नाथ अग्रवाल की कविता पर एक पर्चा पढ़ना है।</span></p><p style="text-align: left;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;">नोट: आगे हम आपको जन्मशती उत्सव की अगली रिपोर्ट देंगे और साथ में अज्ञेय की शरणार्थी श्रृंखला की कुछ कविताएँ भी पढ़वाने की कोशिश करेंगे। अपना वक्तव्य तो प्रकाशित होगा ही।</span></p></span></div><div><br /></div>बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-33230540803846184872010-09-28T19:05:00.000-07:002010-09-28T20:12:49.539-07:00महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय प्रकाशित कर रहा है भारत भूषण अग्रवाल संचयिता<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkDThtnXwRIoAvqwN2WpQmEBTen34UUvUhrDmgYBY1PIVVtbkVxNfO9LG5PqmeaJwG77zI5CIXabm7ZkT9GVa8bme9Bse_yMR9RgsSAzTNkIEs7V9TAX-WLc7l8jblGnat7lGM0LFppxig/s1600/bharat+bhooshan+ji.jpg"><img style="float: left; margin: 0pt 10px 10px 0pt; cursor: pointer; width: 200px; height: 150px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkDThtnXwRIoAvqwN2WpQmEBTen34UUvUhrDmgYBY1PIVVtbkVxNfO9LG5PqmeaJwG77zI5CIXabm7ZkT9GVa8bme9Bse_yMR9RgsSAzTNkIEs7V9TAX-WLc7l8jblGnat7lGM0LFppxig/s200/bharat+bhooshan+ji.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5522165996984383410" border="0"></a><br /><!--[if gte mso 9]><xml> <w:worddocument> <w:view>Normal</w:View> <w:zoom>0</w:Zoom> <w:punctuationkerning/> <w:validateagainstschemas/> <w:saveifxmlinvalid>false</w:SaveIfXMLInvalid> <w:ignoremixedcontent>false</w:IgnoreMixedContent> <w:alwaysshowplaceholdertext>false</w:AlwaysShowPlaceholderText> <w:compatibility> <w:breakwrappedtables/> <w:snaptogridincell/> <w:wraptextwithpunct/> <w:useasianbreakrules/> <w:dontgrowautofit/> </w:Compatibility> <w:browserlevel>MicrosoftInternetExplorer4</w:BrowserLevel> </w:WordDocument> </xml><![endif]--><!--[if gte mso 9]><xml> <w:latentstyles deflockedstate="false" latentstylecount="156"> </w:LatentStyles> </xml><![endif]--><!--[if gte mso 10]> <style> /* Style Definitions */ table.MsoNormalTable {mso-style-name:"Table Normal"; mso-tstyle-rowband-size:0; mso-tstyle-colband-size:0; mso-style-noshow:yes; mso-style-parent:""; mso-padding-alt:0in 5.4pt 0in 5.4pt; mso-para-margin:0in; mso-para-margin-bottom:.0001pt; mso-pagination:widow-orphan; font-size:10.0pt; font-family:"Times New Roman"; mso-ansi-language:#0400; mso-fareast-language:#0400; mso-bidi-language:#0400;} </style> <![endif]--> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><b> </b></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><br /></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">मुझे 1999 का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला था। करीब 11 साल हो गए तब से अब तक मैंने भारत जी पर न कुछ लिखा न कहीं कवि रूप में उनकी चर्चा ही की। बस घर में उनके नाम पर मिले सम्मान को सजा कर खुश हूँ।</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">इसी बीच में फरवरी में विभूति नारायण राय से मेरी मुलाकात हुई। बातों के सिलसिले में उन्होंने लगभग ताना सा मारते हुए कहा कि जिन कवियों-आलोचकों के नाम पर सम्मान दिए जाते हैं उन पर लोग क्यों नहीं लिखते। मैंने तभी उनसे कहा था कि मैं भारत भूषण अग्रवाल जी और गिरिजा कुमार माथुर जी पर कुछ कर सकता हूँ। उन्होंने तभी हामी भर दी और कहा कि विश्वविद्यालय के लिए मैं भारत भूषण अग्रवाल जी की एक संचयिता संपादित कर दूँ। मैंने भी इसे एक सुअवसर की तरह माना और संपादित करने की स्वीकृति दे दी।</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">कई महीनों की सुस्ती के बाद इसी हप्ते मैंने भारत जी की पुत्री श्रीमती (प्रो.) अन्विता अब्बी जी से मेल और चैट पर बात करके इस संचयिता की योजना की जानकारी दी। मैंने इस संदर्भ में उनसे विभूति जी की योजना को विस्तार से बताया और मेल से ही पत्र भी भेंज दिया। मुझे अच्छा लगा कि अन्विता जी ने खुशी-खुशी इस संचयिता को हिंदी विश्वविद्यालय से प्रकाशित करने की स्वीकृति दे दी है।</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">इसी सिलसिले में हो रहे चैट में अन्विता जी ने कहा कि विभूति नारायण राय जी ने महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय को गर्द में जाने से बचाया है। मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि विभूति जी ने मेरे लिये भी एक अवसर उपलब्ध कराया कि मैं भारत जी पर कुछ कर पाऊँ। मेरी पूरी कोशिश होगी कि यह संचयिता पीछे की सारी संचयिताओं से बेहतर भले न हो कमतर तो नहीं हो। और विश्वविद्यालय के मानको पर खरा उतर सके मेरा संपादन।</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">मैं कोई महान काम नहीं कर रहा बल्कि भारत जी के नाम से जो एक सम्मान लेकर बैठा हूँ उससे उऋण होने की कोशिश भर कर रहा हूँ। मेरी दृढ़ मान्यता है कि जिन 30 कवियों को यह सम्मान मिला है यदि वे सभी एक-एक लेख भी भारत जी पर लिख दें तो शायद उनका एक समग्र मूल्यांकन हो जाए। लेकिन हर वो बात कहा होती है जो हम चाहते हैं। आज भारत जी पर मिल रहा सम्मान हिंदी कविता की शान है लेकिन भारत जी पर उनके सकालीन और परवर्ती कवि-लेखक-आलोचक बाबाओं की तरह मौन हैं। पिछले कई सालों से पुरस्कार सम्मान की वार्षिक घोषण के अलावाँ मैंने कुछ नहीं पढ़ा भारत जी पर। शायद यह मेरी काहिली हो। इस पर क्या कह सकता हूँ।</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">प्रस्तुत है भारत जी की चार देखन में छोटन लगे घाव करें गंभीर कविताएँ। </font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><b> </b></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify; color: rgb(255, 0, 0);"><font size="4"><b><font face="Mangal" lang="HI">तुक की व्यर्थता</font></b></font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><b> </b></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">दर्द दिया तुमने बिन माँगे, अब क्या माँगू और </font>?</p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">मन के मीत </font>! <font face="Mangal" lang="HI">गीत की लय, लो, टूट गई इस ठौर </font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">गान अधूरा रहे भटकता परिणति को बेचैन</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">केवल तुक लेकर क्या होगा</font> :<font face="Mangal" lang="HI"> गौर, बौर,<font style=""> </font>लाहौर </font>?<font style="color: rgb(255, 0, 0);" face="Mangal" lang="HI" size="4"> </font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify; color: rgb(255, 0, 0);"><font style="" face="Mangal" lang="HI" size="4"><font style=""> </font></font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify; color: rgb(255, 0, 0);"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify; color: rgb(255, 0, 0);"><font size="4"><b><font face="Mangal" lang="HI">न लेना नाम</font></b></font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">न लेना नाम भी अब तुम इलम का</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">लिखो बस हुक्के का चिलम का</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">अभी खुल जाएगा रस्ता फिलम का।</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify; color: rgb(255, 0, 0);"><font size="4"><b><font face="Mangal" lang="HI">तुक्तक और मुक्तक</font></b></font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">( आत्मकथा की झाँकी)</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">मैं जिसका पट्ठा हूँ</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">उस उल्लू को खोज रहा हूँ</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">डूब मरूँगा जिसमें</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">उस चुल्लू को खोज रहा हूँ।।</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><b> </b></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify; color: rgb(255, 0, 0); font-weight: bold;"><font style="" face="Mangal" lang="HI" size="4">समाधि-लेख</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"> </p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">रस तो अनन्त था. अंचुरी भर ही पिया</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">जी में बसन्त था, एक फूल ही दिया</font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है</font> :</p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI">कैसे बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया</font> !</p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;">नोट- गूगल में हिंदी में भारत भूषण अग्रवाल टाइप करके इमेज खोजने पर भारत जी की जगह तीस बत्तीस कवियों की छवियाँ सामने आती हैं लेकिन भारत जी कहीं नहीं दिखते। यहाँ प्रकाशित भारत जी की फोटो श्री अशोक वाजपेयी जी द्वारा संपादित, राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनकी प्रतिनिधि कविताएँ से साभार लिया गया है।<br /><font face="Mangal" lang="HI"> </font></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><b> </b></p> <p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><font face="Mangal" lang="HI"> </font></p>बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-76991334498182704782010-09-17T00:29:00.000-07:002010-09-17T00:54:35.374-07:00कवि विष्णु नागर जी के लिए एक कविता<strong><span style="color:#cc0000;">मेरे गाँव का बिस्नू<br /></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff9900;">(कवि विष्णु नागर जी की षष्ठि पूर्ति पर सादर)<br /></span></strong><br />मेरे गाँव में एक बिस्नू है<br />जो रोता नहीं है।<br /><br />लोगों ने उसे मारा फिर भी वह नहीं रोया<br />कुहनी और घुटने से मारा<br />थप्पड़ और लात से मारा<br />पत्थर और जूते से मारा<br />लाठी से उसका सिर फोड़ दिया<br />लोहे के सरिए से मारा<br />मुगदर से उसकी कमर तोड़ दी<br />बाल पकड़ कर पटक दिया खेत में<br />खेलने के बहाने गिरा दिया मुँह के बल<br />कबड्डी तो कहने के लिए था वह<br />लोग थे कि बिस्नू को छील रहे थे<br />लेकिन फिर भी नहीं रोया<br />मेरे गाँव का बिस्नू।<br /><br />उसका खलिहान जला दिया<br />उसका घर बह गया<br />उसके पिता को मार कर<br />घर के पिछवारे फेंक गए शव<br />सिर अलग धड़ अलग फिर भी नहीं भींगी<br />बिस्नू की आँखें<br />वह बस देखता रहा पिता का शव<br />उसकी माँ लट खोले लोट रही थी<br />उसकी रुलाई से रो रहे थे लोग<br />और बिस्नू चुपचाप अर्थी बनाने में जुटा रहा<br />रोया नहीं।<br /><br />डाका पड़ा गाँव में<br />उठा ले गए डाकू उसकी इकलौती बेटी को<br />अगले महीने होना था उसका गौना<br />सुदिन पड़ चुका था<br />अपनी बेटी को बचाने में बिस्नू लड़ता रहा<br />तब तक जब तक गिर नहीं पड़ा बेसुध हो कर<br />लेकिन न गिड़गिड़ाया न की फरियाद<br />न हाथ जोड़े बस लड़ता रहा<br />अगले हप्ते बेटी की लाश मिली गंगा में उतराते<br />लेकिन रोया नहीं बिस्नू तब भी।<br /><br /><br />उसकी देह पर हैं सैकड़ों चोट के निशान<br />पता नहीं अब वह मजदूर है या किसान<br />पता कि वह क्यों नहीं रोता है<br />और जब नहीं रोता तो उसके मन में क्या होता है।<br /><br />लोगों ने उसकी माँ से पूछा कि बिस्नू क्यों नहीं रोता है<br />माँ बोली कि क्या बताऊँ<br />यह जन्म के समय भी नहीं रोया था<br />सब डर गए........ कि<br />रोएगा नहीं तो जिएगा कैसे<br />रोएगा नहीं तो बचेगा कैसे।<br /><br />लेकिन बेटा सच कहूँ<br />मैं माँ हूँ उसकी<br />मैं जानती हूँ मेरा बिस्नू भी रोता है<br />उसका भीतर-भीतर सुबकना मैं<br />सुन पाती हूँ<br />मैंने उसकी रुलाई देखी तो नहीं<br />लेकिन इतना समझती हूँ कि<br />जब सारा संसार सोता है<br />मेरा बिस्नू तब रोता है।<br /><br />माँ उसकी कहे कुछ भी<br />सच तो यही है कि आज तक किसी ने नहीं देखा<br />बिस्नू को रोते<br />आँख भिगोते या आँसू पोछते।<br /><br /><br />खाली हाथ है जेब फटी है<br />जीवन का कोई हिसाब नहीं है<br />फिर भी बिस्नू के पास लाभ-हानि की कोई किताब नहीं है।<br /><br /><br />सवाल है कि क्या मेरे गाँव का बिस्नू पुतला है<br />काठ का बना है<br />क्या उसके पास नहीं है रोने की भाषा<br />या उसके लिए रोना मना है।<br />जो भी हो मेरे गाँव का बिस्नू नहीं रोता है<br />लेकिन लोग कहते हैं कि इतने बड़े देश मे<br />एक मेरे गाँव के बिस्नू के न रोने से क्या होता है।<br /><br />नोट- यह कविता लखनऊ की कवयित्री प्रतिभा कटियार के सौजन्य से रांची के अखबार के प्रभात खबर में रविवार १२ सिंतंबर २०१० को प्रकाशित हुई है। यह प्रभात खबर में मेरी जानकारी में मेरा प्रथम प्रकाशन है। इसके इस पाठ तक की यात्रा में कवि अशोक पाण्डे और कवि हरे प्रकाश उपाध्याय ने महत्वपूर्ण सलाहों से मेरा रास्ता सहल बनाया। प्रभात खबर, प्रतिभा, अशोक और हरे का आभारी हूँ ।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-78487061622338986262010-09-16T01:18:00.000-07:002010-09-16T01:48:36.708-07:00इलाहाबाद जिंदाबाद है<span style="font-size:130%;color:#cc0000;"><strong>इलाहाबाद शांत हो गया शहर नहीं है, हाँ शांत लगता जरूर है</strong></span><br /><br />कभी-कभी लगता है कि इलाहाबाद शांत हो गया शहर है, अभी वहाँ कुछ रहा नहीं। कई साल पहले कवि देवी प्रसाद मिश्र ने इलाहाबाद छोड़ने के बाद इलाहाबाद के बारे में एक लेख में लिखा था कि इलाहाबाद चुका हुआ नहीं है, चुका हुआ लगता है। उन्हीं के शब्दों के सहारे कहूँ तो इलाहाबाद शांत हो गया शहर नहीं है हाँ शांत लगता जरूर है। लेकिन सच्चाई यह है के इलाहाबाद में हिंदी और उर्दू एक साथ न केवल सक्रिय हैं बरन साथ साथ आगे भी बढ़ रहे हैं।<br /><br />आज भी इलाहाबाद में एक साथ चार पीढ़ियाँ सक्रिय है। यदि कथाकार शेखर जोशी, शिवकुटी लाल वर्मा, अजित पुष्कल, अकील रिजवी और दूधनाथ सिंह वहाँ की वरिष्ठतम पीढ़ी के लोग हैं तो अंशु मालवीय, विवेक निराला और अंशुल त्रिपाठी, युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि स्वर हैं।<br /><br />इसी 13 सितम्बर को हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर इलाहाबाद ने अपनी शांत दिखती छवि को नकारते हुए अपने सक्रिय स्वरूप को एक बार फिर उजागर,किया। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के इलाहाबाद स्थित क्षेत्रीय विस्तार केंद्र में इलाहाबाद के अपने शब्द शिल्पी अपने कवियों-लेखकों ने अपनी रचनाओं से यह बताया कि यह शहर अभी भी सक्रिय है, रचनारत है, हिंदी विश्वविद्यालय के इस आयोजन ने इलाहाबाद की साहित्यिक सक्रियता को स्वर दिया है। <br /><br /><br />इस कविता पाठ के आयोजन में इलाहाबाद के रचनाकारों ने अपनी कविताओं के जरिए समय और समाज के सच को, जिंदगी की सच्चाइयों को दर्ज किया। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता उर्दू के जाने माने रचनाकार एवं प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) के जुड़े प्रो. अकील रिज़वी ने कहा कि विभिन्न भाव बोध की पढ़ी गयी कविताएं, निश्चित रूप से हिंदी कविता के एक समृद्ध संसार को रूपायित करती हैं। इस अवसर पर नया ज्ञानोदय के संपादक और धुर इलाहाबादी वरिष्ठ कथाकार रवीन्द्र कालिया मुख्य अतिथि थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि आज इस कार्यक्रम में पढ़ी गयी सभी रचनाएं हिंदी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं।<br /><br />इस गोष्ठी में लखनऊ से पहुँच कर सबको चकित किया एक और पुराने इलाहाबादी कथाकार ने और तद्भव के संपादक अखिलेश ने। कम लोग जानते होंगे कि अखिलेश मूल रूप से इलाहाबादी है। उन्होंने इलाहाबाद की समृद्ध साहित्यिक परम्परा के लिए इस गोष्ठी के महत्व को रेखांकित किया। इस मौके पर कथाकार ममता कालिया ने भी संगोष्ठी के महत्व को रेखांकित किया।<br /><br />काव्य-पाठ में शहर के युवा एवं वरिष्ठ रचनाकारों ने भागीदारी की जिनमें हरिश्चन्द्र पाण्डे, बद्रीनारायण (प्रलेस), एहतराम इस्लाम (अध्यक्ष-प्रलेस, इलाहाबाद), यश मालवीय़ (नवगीतकार), अंशु मालवीय, सुरेश कुमार शेष (प्रलेस), नंदल हितैषी (इप्टा), जयकृष्ण तुषार, श्रीरंग पांडेय, संतोष चतुर्वेदी (जनवादी लेखक संघ), अजामिल (इलेक्ट्रॊनिक मीडियाकर्मी) अंशुल त्रिपाठी, संध्या निवेदिता आदि प्रमुख हैं। गोष्ठी मे कथाकार शेखर जोशी (जलेस) अनिता गोपेश (कथाकार एवं प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस) ए.ए. फ़ातमी, (प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस), असरार गांधी (प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस), सुरेन्द्र राही- सचिव प्रलेस,इलाहाबाद, अनिल रंजन भौमिक (नाट्य कर्मी- समानांतर-इलाहाबाद), अनुपम आनंद- नाट्य कर्मी, सुभाष गांगुली-कथाकार, , प्रेमशंकर- जन संस्कृति मंच, रामायन राम (प्रदेश सचिव – आइसा), प्रकाश त्रिपाठी (सह संपादक-बहु वचन), रेनू सिंह, अल्का प्रकाश, हितेश कुमार सिंह, गोपालरंजन (वरिष्ठ पत्रकार), फखरुल करीम (उर्दू रचनाकार), शलभ भारती, श्लेष गौतम, के अतिरिक्त बड़ी संख्या में इलाहाबाद के साहित्यप्रेमी, संस्कृतिकर्मी एवं छात्र इलाहाबादी ओजस्विता के साथ उपस्थित थे।<br /><br />कवयित्री और ब्ल़ॉगर कविता वाचक्नवी ने भी अपनी उपस्थिति से संगोष्ठी को अर्थपूर्ण बनाया।<br /><br />इलाहाबाद ने एक बार फिर यह जता दिया है कि हिंदी और संस्कृति के प्रश्न पर वह संगठित है और उसमें अभी भी कुछ कर गुजरने की ऊर्जा शेष है। जो हम भटके और इलाहाबाद को खो चुके इलाहाबादियों के मन को शांति देता है।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-25975482613786761962010-09-12T08:09:00.000-07:002010-09-12T08:18:53.346-07:00जन्म शतियों के उत्सव का वृह्दारम्भ वर्धा से<span style="font-size:130%;color:#ff0000;"><strong>2 और 3 अक्टूबर को वर्धा में एक विराट उत्सव है<br /></strong></span><br /><br />अज्ञेय, नागार्जुन, शमशेर, केदार, फैज, अश्क और नेपाली ये सभी कवि लेखक भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक मर्यादा के संरक्षक और उन्नायक रहे हैं। यह साल हिंदी उर्दू के इन बड़े महारथी लेखकों की जन्म शती का साल है। लेकिन हिंदी समाज ने अभी तक इन महानों के जन्मोत्सव पर कोई वृहद् सांस्कृतिक संयोजन किया हो ऐसी सूचना नहीं आई है। कुछ आरम्भिक सुगबुगाहटों और दो एक पत्रिकाओं के विशेषांकों के अतिरिक्त एक विकट सन्नाटा समूचे देश में पसरा है। जिस तरह इस साल को एक जन्मशती वर्ष घोषित कर देने की सम्भावना दिख रही थी अभी तक वैसा कुछ बड़ा नहीं हुआ है। जानकारों के मुताबिक एक साथ इतने महान साहित्यकारों का जन्म शती वर्ष पहले सुनने में नहीं आया था। जन्म शती वर्ष के सुअवसर को हम हिंदी वाले शायद एक संस्कृति वर्ष बनाने में चूक रहे हैं।<br /><br />लेकिन ऐसा नहीं है। महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा ने इस सन्नाटे को तोड़ा है और उसने इस वर्ष को उत्सव वर्ष को रूप में मनाने का निर्णय लिया है। अपने घोषित कार्यक्रम में हिंदी विश्वविद्यालय इन में से पहले पांच कवियों यानी अज्ञेय, नागार्जुन, शमशेर, केदार, और फैज के दाय को सम्मान देने तथा उनके लेखन का गंभीर आकलन-मूल्यांकन करने जा रहा है। विश्वविद्यालय ने इस सांस्कृतिक संयोजन को “बीसवीं सदी का अर्थ और जन्मशती संदर्भ ” शीर्षक केंद्रीय अंतर्वस्तु के रूप में समझने का उपक्रम किया है।<br /><br />इन कार्यक्रमों का आरम्भ विश्वविद्यालय के मुख्यालय वर्धा से गांधी जयंती के शुभ दिन पर हो रहा है। 2 और 3 अक्टूबर को संयोजित यह सांस्कृतिक उत्सव आगे के दिनों में देश के विभिन्न शहरों में होना तय है। इस प्रस्थानिक संगोष्ठी के बाद रामगढ़(नैनीताल) इलाहाबाद, पटना, बांदा, कोलकाता, दिल्ली में जन्मशती वर्ष के समापन तक कार्यक्रम होते रहेंगे। इन आयोजनों से शायद हिंदी समाज में व्याप्त विकट सन्नाटा टूटे। शायद एक नई सांस्कृतिक सुबह का समारम्भ हो।<br /><br />मैंने कथाकार हरि भटनागर के सम्पादन में निकले वाली पत्रिका रचना समय के शमशेर अंक का अतिथि सम्पादन इसी जन्म शती वर्ष के संदर्भ में किया था। दैनिक भास्कर और नया पथ में मैने नागार्जुन बाबा पर समीक्षात्मक और संस्मरणात्मक लेख लिखे हैं और आलोचक मदन सोनी के संपादन में शमशेर जी पर प्रकाश्य पुस्तक में मेरा एक लेख प्रकाशित होने जा रहा है। यहाँ मुंबई की अस्तव्यस्त जिंदगी के बीच कुछ लिख कर अपने पूर्वजों से उनका स्नेह पाना चाहता हूँ। इसीलिए हिंदी विश्वविद्यालय के इस आयोजन की सूचना से मन में एक उत्साह जागा और मैंने तय किया कि केदार नाथ अग्रवाल की कविता पर अपना वक्तव्य दूँ। हम सब के लिए यह संतोष की बात है कि महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल भारतीय उपमहाद्वीप के इन महान संस्कृति सपूतों के महत्व को गंभीरता से रेखांकित कर रहा है। जो कि उसका कर्तव्य भी है।<br /><br />2 और 3 अक्टूबर को वर्धा में एक विराट उत्सव है। देश भर से हिंदी के मान्य लेखक और आलोचक वर्धा पहुँच रहे हैं। अगले चरण में हिंदी विश्वविद्यालय उपेन्द्र नाथ अश्क और गोपाल सिंह नेपाली के जन्मशती पर भी बड़े कार्यक्रम संयोजित कर रहा है।<br /><br />देश भर से और तमाम संगठनों संस्थाओं और व्यक्तियों ने इस मौके पर बहुत कुछ करने की घोषणा कर रखी है, अब देखना यह है कि उन योजनाओं में से कितनी पूरी होती है और कितनी रह जाती हैं। मैं तो सिर्फ इतना ही सोचता हूँ कहीं भी हो किसी भी स्तर पर हो हिंदी उर्दू के इस महान साधकों के लेखन पर मनन-मंथन हो।<br /><br />नोट-<br />जन्म शती के अवसर पर देशबंधु समूह की पत्रिका अक्षरपर्व ने सर्वमित्रा सुरजन के संपादन में कवि अज्ञेय और नागार्जुन पर केंद्रित एक खास अंक निकाले हैं।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-86558179666757719662010-08-10T12:34:00.000-07:002010-08-10T12:43:25.914-07:00स्त्रियों के पक्ष में है साक्षात्कार- निर्मला जैन<div>इस पूरे प्रकरण पर मुझे इस बात का बेहद खेद है कि अधिकांश लोग इस इंटरव्यू को बिना पढ़े विवाद का विषय बना रहे हैं और इसे नारेबाजी का एक रूप दे दिया है। इसमें आपत्तिजनक यह है कि इसमें ‘नया ज्ञानोदय’ पत्रिका के संपादकीय विभाग की लापरवाही या कहें कि संपादकीय गैर-जिम्मेदारी दिखती है। </div><div> </div><div>मैंने इस इंटरव्यू को पूरा पढ़ा है। इसे पढ़ने के बाद एक बात साफ हो जाती है कि यह महिलाओं के पक्ष में है। यह मैं इसलिए कह रही हूँ कि जो लेखक और संपादक स्त्री विमर्श के नाम पर देह विमर्श को सामने ला रहे हैं, इसमें उनका विरोध किया गया <span class="">है।<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhW7X6Tw2pA61L5LZSPAODMdx4InT6vMizN_6OyS1kT2UEOUYdf7oeEwPPkmovR0sAHDoVm6cou97kZDFEikRkXpQMmWvgNKRGJ477Lgke0nR-k19sjgHBUBz75Fvmma7HHABY9IBbO3Mly/s1600/Nirmala+Jain+on+sakshatkar+vivad.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5503868112426270114" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 63px; CURSOR: hand; HEIGHT: 200px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhW7X6Tw2pA61L5LZSPAODMdx4InT6vMizN_6OyS1kT2UEOUYdf7oeEwPPkmovR0sAHDoVm6cou97kZDFEikRkXpQMmWvgNKRGJ477Lgke0nR-k19sjgHBUBz75Fvmma7HHABY9IBbO3Mly/s200/Nirmala+Jain+on+sakshatkar+vivad.jpg" border="0" /></a></span> </div><div><span class=""></span> </div><div>विभूति नाराय़ण राय ने इस इंटरव्यू में साफ कहा है कि देह की स्वतंत्रता का नारा देकर कुछ लेखक और संपादक स्त्री विमर्श को मुख्य मुद्दे से भटका रहे हैं। इस संदर्भ में उन्होंने ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव की कटु आलोचना की है और दूधनाथ सिंह की ‘नमो अंधकारम’ कहानी को स्त्री विरोधी बताया है। उन्होंने यह भी कहा है कि देह विमर्श करने वाली स्त्रियाँ भी देह विमर्श को शरीर तक केंद्रित कर रचनात्मकता को बाधित कर रही हैं।</div><div><span class=""></span> </div><div><span class=""></span> इस इंटरव्यू में विभूति नाराय़ण राय ने पितृसत्तात्मक समाज का भी विरोध किया है। उनका यह भी कहना है कि स्त्री विमर्श आज देह विमर्श तक सिमट कर रह गया है और इसके कारण दूसरे मुद्दे हाशिए पर चले गए हैं। </div><div><span class=""></span> </div><div>अब रही बात जिस बात पर बवेला मचा है तो इसकी जाँच होनी चाहिए कि इसके लिए विभूति नारायण राय जिम्मेदार हैं या ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादकीय विभाग की लापरवाही की वजह से यह सब हो रहा है। </div><div><span class=""></span> </div><div>मेरा मानना है कि एक पंक्ति को निकाल कर जिस तरह वितंडा खड़ा किया जा रहा है उससे इस समस्या का समाधान नहीं निकलेगा। बल्कि इस गंभीर प्रश्न को सतही ढ़ंग से देखने का खतरा पैदा होगा। हमें जवाब इस बात का देना है कि क्या स्त्री विमर्श सिर्फ देह की स्वतंत्रता है।?.मेरी राय में उसका दायरा कहीं व्यापक और गंभीर है।<br /><span class=""></span><br />नोट- प्रो निर्मला जैन का यह मत दैनिक हिन्दुस्तान में छपा है, वे हिंदी की कुछ अध्येताओं में से हैं जिन्होंने अपनी प्रखर आलोचना से हिंदी को समृद्ध किया है। दिल्ली में रहती हैं।</div><div><span class=""></span> </div>बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-57254081636614423172010-08-08T03:36:00.001-07:002010-08-08T04:14:43.305-07:00बोलने पर जीभ और छीकने पर नाक काटने वाले शब्द हीन समाज में आपका स्वागत हैमैंने विभूति जी के मांफी मांग लेने के बाद इस प्रकार के किसी भी अभियान का समर्थन न करने की बात कही थी जिसमें उनकी बर्खास्तगी या निलंबन की मांग की गई हो। मैं अपने उस मत पर अभी भी कायम हूँ। मेरे द्वारा विभूति जी का विरोध न करने से कुछ लोग इतने उत्तेजित हो गए हैं कि मेरे खिलाफ गाली गलौच पर उतर आए हैं।<br /><br />लोक तंत्र में बहुमत कितना खतरनाक हो सकता है या बहुमत का माहौल बना कर लोग क्या-क्या कर सकते हैं इसका ताजा उदाहरण है विभूति नारायण राय के खिलाफ की जा रही गोलबंदी और इन गोलबंदों हुए लोगों द्वारा की जा रही माँगें।<br /><br /><br />हमारे यहाँ एक कहावत है कि बोलने पर जीभ और छींकने पर नाक काट लेंगे। तर्क यह है कि जीभ रहेगी तो आदमी आगे भी बोलेगा और नाक रहेगी तो छींकेगी, सो दोनों को काट दो। मामला सदैव के लिए खतम हो जाएगा। कुछ लोग हिंदी समाज से विभूति नारायण राय को निकाल बाहर करने पर आमादा हैं और वे उनके माफी मांग लेने को बेमन की या आधी-अधूरी माफी कह रहे है। उनके लिए विभूति जी द्वारा मांगी गई यह माफी सच्ची माफी, मन से माफी, सहज माफी, शुद्ध माफी नहीं है।<br /><br />एक का कहना है कि यह पुलिसिया माफी है तो एक कह रहा है कि नौकरी बचाने के लिए माफी है। एक कह रहा है कि यह महिला समाज से नहीं मागी गई है तो एक कह रहा है कि पूरे भारतीय समाज से नहीं माँगी गई है। कुछ का कहना है कि इस मांग में दलित तबके के साथ हो रहे अन्यायों को भी शामिल कर लिया जाए। यानी सब के अपने अपने तरीके हैं. सबका अपना अपना राग है। अपनी-अपनी माँगे हैं।<br /><br /><br />एक तबका है जो घंटे दो घंटे पर यह लिख रहा है कि देखो माफी मांगने के लिए 130 लोग कह रहे हैं। एक का कहना है देखो बर्खास्तगी के लिए 80 (लेखक) लोग कह रहे हैं। देखो हमारे साथ लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। एक का कहना है कि उन संस्थाओं से कोई ताल्लुक तब तक न रखा जाए जब तक कि विभूति जी अपने पद पर बने हैं। वहाँ भी संख्या का लेखा-जोखा रखा जा रहा है और पेश किया जा रहा है। मित्रो यदि सब कुछ संख्या से ही तय करना है तो इससे दुखद और क्या हो सकता है। यदि कभी प्रतिक्रिया वादी पार्टियाँ जैसे भाजपा, शिवसेना, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना या इस तरह का कोई दल संख्याबल के आधार पर देश की गद्दी पर काबिज हो जाए और मनमानी करने लगे तो यह मत रोना कि देखो संख्या बल के आधार पर सब गड़बड़ किया जा रहा है।<br /><br />कई लोग तो इतने उत्साह में हैं जैसे कोई विभूति बलि यज्ञ हो रहा हो और देश भर से भक्त लोग घंटा घड़ियाल कटार लेकर चले आ रहे हों कि देखो यह मेरी आहुति है देखो और इसे अर्पित करने दो। मुझे भी कुछ करने का अवसर दो। कई तो इतने उत्तेजित हैं कि 4 या 5 तरह की मांग कर हे है। पहला वे ठीक से माफी मांगने को कह रहे है। दूसरा वे बर्खास्तगी के लिए कह रहे हैं। तीसरा वे निलंबन के लिए कह रहे हैं। चौथा वे बहिष्कार के लिए कह रहे हैं। पाँचवां वे भविष्य में ऐसा कुछ न करने को कह रहे हैं।<br /><br />इसके साथ ही लेखकों एक धड़ा अब इस मामले को और तूल देने के विरोध में हस्ताक्षर अभियान चला रहा है। वहाँ भी 70 लेखक अपनी सहमति दर्ज करा चुके हैं।<br /><br />लेकिन मेरा कहना यह है कि लोक तंत्र में यह कैसा दौर है जिसमें बोलने की आजादी नहीं रहेगी। यह एक खाप पंचायत से संचालित लेखक समाज होगा जहाँ लोग वही कहेंगे जिसके लिए गिरोहबंद लेखक अपनी सहमति दे देगे। हर साक्षात्कार हर लेख पहले इन भाई लोगों के अवलोकनार्थ भेंजना होगा जिसे ये लोग प्रकाशित करने लायक समझेंगे वही छपेगा। यह एक प्रकार का समानान्तर सरकार या सेंसर बोर्ड बनाने की एक सोची-समझी चाल है। जिसमें माफी नहीं समूल नाश से न्याय किया जाएगा।<br /><br />यदि किसी ने कुछ असावधानी से या कैसे भी गलत बोल दिया तो माँफी मांगने की छूट नहीं रहेगी। न्याय एक ही है बोलने और छींकने पर जीभ और नाक काटो। ये नई लेखक पंचायत के लोग जिस किताब विचार या व्यक्ति से असहमत होंगे उसे जला देंगे, मिटा देंगे। इनके लिए हत्या ही एक उपाय रहेगा न्याय का । तो मैं ऐसे परम एकांगी हठ-तंत्र का विरोध करता हूँ । क्योंकि यहाँ बात का नहीं व्यक्ति का विरोध हो रहा है। क्या आप इनके खाप पंचायत सरीखे अभियान से सहमत है। क्या कोई भी व्यक्ति जो अभिव्यक्ति को अपना अधिकार मानता होगा वह ऐसे किसी गोल बंद कबीलाई तौर तरीके से अपनी सहमति जता सकता है। मैं विभूति नारायण राय जी और रवीन्द्र कालिया जी के खिलाफ इस तरह की किसी भी माँग का समर्थन नही कर रहा हूँ।<br /><br />मुझे इस तरह की माँगों में एक अलग तरह का खेल दिख रहा है। यहाँ एक ऐसे सुचिता वादी समाज का नया खाका पेश किया जा रहा है, जहाँ माघ मेले के संन्यासियों के प्रवचनों की गूँज होगी और हरि ओम तत्सत का पाठ। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि यह सत्ता में स्वराज का खेल है। विभूति जी और कालिया जी को हटाने वाले यह देख रहे हैं कि न ये संस्थाएँ बंद होंगी न इनके फायदे बंद होंगे। तो ऐसा कुछ करो कि इस पर अपने लोग हों। अपने लोग यानी स्वराज। और फिर स्वराज के फायदे होंगे। अपना भला होगा। तो मामला बहुत कुछ आत्म कल्याण का है।<br /><br />दूसरा मामला बर्खास्तगी की माँग की नैतिकता का है। विभूति जी के उस इंटरव्यू से उस एक शब्द के अलावा मैं पूरी तरह सहमत हूँ। जिस प्रवृत्ति को वे अपने साक्षात्कार में रेखांकित करना चाहते हैं वह प्रवृत्ति हिंदी में आज बहुत संगीन दशा में पहुँच गई है। मामला शब्द चयन में असावधानी का था जिसके लिए उन्होंने मांफी मांग ली है। लेकिन अभी ऐसे लोगों की बहुतायत है जो माफ करने में नहीं साफ करने पर तुले हैं। यह लोकतंत्र का नया रूप है। राजनैतिक दलों को इन लेखकों से सीखना चाहिए। जिसमें विपक्ष को अब बयान देने या बोलने की छूट न होगी। विपक्ष हो गा ही नहीं। सब पक्ष में होंगे और पक्षी की तरह रोर करते रहेंगे। हर दशा में एक दूसरे से सहमत होंगे।<br /><br /><br />जो बाते विभूति जी ने अपने साक्षात्कार में उठाई हैं क्या वे एकदम बेमानी हैं। नहीं सच यही है कि समाज में ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिला है जिनके लेखन में पर पुरुष या पर स्त्री संबंध का उत्तम लेखा जोखा मिले। ऐसा लेखन आज बड़े गौरव का विषय बन गया है। कुछ लेखक लेखिकाओं के लिए यह पराई नार और पराए नर का संबंध तो एक उत्तम लेखकीय विषय-वस्तु का सहज भंडार है। आत्मकथा लिखो या आत्मकथा जैसा लिखो फिर जो चाहे सो लिखो। मामला सहज प्रचार का है। लिखो कि मेरे इतने लोगों से इस इस प्रकार के संबंध थे। लो पढ़ो मैं कितनी या कितना बोल्ड और खुली या खुला हूँ। मैं किताब हूँ। आओ पढ़ो। आओ च़टखारे लो।<br /><br />कई लेखक हैं जो इस प्रकार के आत्म कथात्मक लेखन को अपने विरोधियों के खिलाफ संहारक अस्त्र की तरह काम में लाते है। मेरे शोध(क) गुरु आचार्य दूध नाथ सिंह ने को इस प्रकार के लेखन को अपना अमोघ अस्त्र तक बना रखा है। अपने एक अग्रज लेखक और अपनी एक सहकर्मी के लिए नमो अंधकारम लिखा तो अपने एक स्वजातीय शिष्य के लिए निष्कासन जैसी प्रतिशोधी कहानी लिखी। नमो अंधकारम ने तो इलाहाबाद के एक बड़े लेखक के जीवन को ही तहस-नहस कर डाला। वे परम पूज्य दूधनाथ जी भी यहाँ बहती गंगा में अपना सत्कर्म प्रवाहित करते दिख रहे हैं। वे भी कह रहे हैं कि विभूति जी इस्तीफा दो।<br /><br /><br />ऐसे कई लेखक कवि हैं जिन्होंने जीवन भर यही किया है या इसी प्रकार का लेखन कर सकते हैं। क्या हमारी सामाजिक सच्चाइयाँ इन्हीं शरीर केंद्रित बहसों तक सीमित हैं। क्या हम इस तरह की पर पुरुष-नारी संबंध के लिए कोई बढ़ियाँ पवित्र शब्द खोज पा रहे हैं। मुझे ऐसे पूरे एक तबके को संबोधित करने के लिए एक सच्चरित्र शब्द चाहिए। जिसमें मैं किसी को पालतू पिल्ला, लंपट, लंफंगा या... आदि आदि न कह कर ऐसे निर्मल बोल बोल दूँ कि बात बन जाए और चोट भी न लगे।<br /><br /><br />कबीर कहते हैं कुल बोरनी। तो कुल बोरनी या कुल बोरन से भी काम नहीं चलेगा। यह मध्यकालीन है। कुछ आधुनिक शब्द याद आते हैं श्री लाल शुक्ल या मनोहर श्याम जोशी कहते है पहुँचेली या पहुँचेला। नहीं आज इन पुराने शब्दों से काम नहीं चलेगा। मैं इन या इस प्रकार के संबंध को रोकने की मांग नहीं कर रहा। मैं केवल इस प्रकार के संबंध को एक संज्ञा देने की माँग कर रहा हूँ। क्या कहें इस तबके को। क्या तमाम शब्दकोशों के ये शब्द अब फाड़ कर हटा देने चाहिए। या संबंध रहे बस नाम न रहे। बिना बोर्ड के काम चला लिया जाए। और लेखक समाज सिर्फ देखता रहे। अपनी बात कहने से बचे। तो भविष्य के शब्द हीन और खाप पंचायती लेखकों के समाज में आप का स्वागत है।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-4608398906559963922010-06-28T05:08:00.000-07:002010-06-28T05:22:16.407-07:00बिहारी के दोहे यानी सायक सम मायक नयन<span style="color:#ff0000;"><strong>शब्द-चर्चा</strong></span><br /><br /><strong><span style="color:#33cc00;">सायक सम मायक नयन, रँगे त्रिविध रँग गात।<br />झखौ बिलखि दुरि जात जल लखि जल जात लजात।।</span></strong><br /><strong><span style="color:#33cc00;"><br /></span></strong>बिहारी के इस दोहे पर और खास कर शायक या सायक शब्द को लेकर <a href="http://groups.google.co.in/group/shabdcharcha?hl=en">शब्द-चर्चा </a>में लगातार बात हो रही है। बहस शुरू की थी कवि <a href="http://nayasamay.blogspot.com/">विशाल श्रीवास्तव </a>ने। मैं यहाँ मैं इस दोहे का एक अर्थ करने की कोशिश कर रहा हूँ। कोई दावा नहीं कि मैं सबसे सार्थक अर्थ कर रहा हूँ। यदि अनर्थ लगे तो टोकिएगा<br /><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>सायक बराबर कटार या तलवार के अर्थ में<br /></strong></span><br />सम्मोहित करने वाले मायावी नैन कटार अपने गात को यानी शरीर को तीन प्रकार से रंगे हुए हैं। जिनके जादुई प्रभाव से मछली भी मोह ग्रस्त हो जाती है और कमल भी। मछली तो दुखी होकर जल में छिप जाती है और कमल लज्जित हो जाते हैं।<br /><br />जो जैसा है उस पर वैसा प्रभाव है इस त्रिरंगे नेत्रों का। मछली की समझ से वे मोहक मीनाक्षी हैं और कमल की समझ में वे पद्म नेत्रा या पद्म नेत्र हैं। दोनों की समझ पर मायक की माया प्रभावी है।<br /><br />कटार में तीन रंग मिल सकते है। मूठ का रंग, कटार का अपना रंग और रक्त का रंग। नेत्रों के भी त्रिरंगी होने का वर्णन मिलता है-स्वेत, स्याम, रतनार।<br /><br /><strong><span style="color:#ff0000;">सायक बराबर संध्या के अर्थ में<br /></span></strong><br />इस अर्थ में मेरे हिसाब से बात थोड़ी उलझ जाती है।<br />फिर भी यह अर्थ बनता सा दिखता है।<br /><br />संधिकाल के समान मायावी नेत्र अपनी देहों को तीन रंगों में ऱँगे हुए हैं। उनके जादुई असर से मछली भी जल के पर्दे में छिप जाती है और कमल भी लजा जाते हैं। यह संधिकाल सुबह और साँझ दोनों हो सकती है। दोनों संधिकाल को संध्या कहा और माना जाता है। गाँधी जी का एक भाषण सुना था जिसमें वे दोनों शाम के खाने की बात करते हैं। दोनों वक्त। हिंदू माइथोलॉजी में दोनों संध्याओं में पूजा-वंदना की जाती है। तो इन संधिकाल में सुबह या शाम दोनों की रंगीनी हो सकती है। मेरे हिसाब से सुबह की संध्या है जिसमें कमल और मछली दोनों को दिन के ढल जाने का आभास होता है। यह है मायक का असर। जो दिन में भी रात का अहसास करादे।<br /><br />शाम होते ही पद्म मुर्झा जाते हैं और मछलियाँ भी जल के तह में चली जाती हैं। और यह सब जादुई नेत्रों का कमाल है।<br /><br /><strong><span style="color:#ff0000;">अब रामबृक्ष बेनीपुरी जी की टीका<br /></span></strong><br />यह दोहा बेनीपुरी की बिहारी-सतसई का 53वाँ दोहा है। मैं वहाँ जो-जो जैसा-जैसा लिखा है यहाँ लिख रहा हूँ।<br />सायक सम मायक नयन, रँगे त्रिविध रँग गात।<br />झखौ बिलखि दुरि जात जल लखि जल जात लजात।। 53।।<br /><br /><strong><span style="color:#ff0000;">अन्वय-</span></strong> सायक सम मायक नयन त्रिविध रँग गात रँगे, लखि झखौ बिलखि जल दुरि जात जलजात लजात।<br /><br />सायक=सायंकाल। मायक=माया जाननेवाले, जादूगर,। त्रिविध=तीन प्रकार,। गात=शरीर।<br />झखौ=मछली भी। बिलखि=संकुचित होकर। जलजात=कमल।<br />संध्याकाल के समान मायावी आँखे अफनी देहों को तीन रंग में रँगे हुई हैं। उन्हें देख कर मछली भी संकुचित या दुखी हो कर जल में छिप जाती है और कमल भी लज्जित हो जाते हैं।<br /><strong><span style="color:#ff0000;">नोट</span></strong>- नेत्रों में लाल, काले और उजले रंग होते हैं। देखिए-<br />अमिय, हलाहल मद भरे, स्वेत, स्याम, रतनार।<br />जियत,मरत,झुकि-झुकि गिरत, जिहिं चितवत इकबार।।<br /><br /><strong><span style="color:#ff0000;">अंत में</span></strong>- यह जान लेना अच्छा रहेगा कि बेनीपुरी जी की बिहारी-सतसई की टीका 1925 में प्रकाशित हुई थी और रत्नाकर जी की 1926 में।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-12286683000375436492010-06-04T02:12:00.000-07:002010-06-04T06:42:52.732-07:00बेटी उदास है और माँ के हाथ कठोर<p><span style="font-size:130%;color:#ff0000;"></span></p><br /><br /><p><span style="font-size:130%;color:#ff0000;"><strong>दो कविताएँ</strong></span></p><br />पिछले दिनों देश के दो बड़े दैनिक अखबारों में मेरी दो कविताएँ छपीं। एक कविता <a href="http://alochak.blogspot.com/">विष्णु नागर </a>जी ने नई दुनिया में और दूसरी <a href="http://vatsanurag.blogspot.com/2009/11/blog-post.html">गीत चतुर्वेदी </a>ने दैनिक भास्कर में छापी। इन कविताओं पर कई मित्रों और कुछ नए पाठकों के मेल आए। लोग बताते हैं कि इन अखबारों के करोड़ों पाठक हैं। मुझे यह हमेशा अच्छा लगता है कि कठिनाई से हजार की संख्या में छपने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ ही कविता या साहित्य दैनिक अखबारों में भी प्रकाशित होनी चाहिए। उन दोनों कविताओं को विष्णु जी और गीत के प्रति आभार प्रकट करते हुए यहाँ छाप रहा हूँ। पढ़े और हो सके तो अपनी प्रतिक्रिया दें।<br /><br /><p></p><br /><br /><p><strong><span style="font-size:130%;color:#ff0000;"><span class=""><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9oRM8cHxNfzM2N0LL38OIo3Gl77cEqXh-pKS-Uv7ucQxSM1dhfkCcp7gk89ahZ7jdGD-rImjb_rnnAwBDKPnD69lAyr_3KIGPZqNVrsXAZoQ4LBRrbWYfm45ScFo9w0ZbSQu10sdDk6gg/s1600/the-lament-of-jephthahs-daughter.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5478854899737317138" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 120px; CURSOR: hand; HEIGHT: 200px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9oRM8cHxNfzM2N0LL38OIo3Gl77cEqXh-pKS-Uv7ucQxSM1dhfkCcp7gk89ahZ7jdGD-rImjb_rnnAwBDKPnD69lAyr_3KIGPZqNVrsXAZoQ4LBRrbWYfm45ScFo9w0ZbSQu10sdDk6gg/s200/the-lament-of-jephthahs-daughter.jpg" border="0" /></a>बेटी</span><br /></span></strong><br /><br />आजकल मेरी छोटी बेटी को<br />कुछ भी ठीक नहीं लग रहा।<br /><br />न घर न बाहर<br />न मैं न माँ<br />न भाई न बहन<br />न कोई फिल्म<br />न कोई गाना<br />न खाना<br />कुछ भी उसे अपना सा नहीं लग रहा।<br /><br />बस एक फोन का इंतजार करती रहती है<br />दिन भर<br />बस एक नंबर है जिस पर लगा रहता है<br />उसका मन<br />बस उसी फोन के लिए जागती रहती है<br />रात भर<br />दिन भर में कितनी बार रिचार्ज कराती है<br />सिम कार्ड।<br /><br />कल पानी माँगा तो देखती रही मुझे<br />जैसे सुनी न हो मेरी बात<br />आज माँ ने कहा कि चली जाओ नानी को देखने तो<br />बोली बात कर लिया है नानी से<br />वे ठीक हैं<br />जाना हो तो<br />आप जाओ।<br /><br />बस फिरती रहती है<br />नेट वर्क को देखती<br />बातें इतनी धीमें करती है कि या तो वह सुने या<br />वह जिससे वह कर रही होती है बात।<br /><br />इस बाइस नवम्बर में हो जाएगी<br />बीस साल की<br />मैं समझ सकता उसकी मुश्किल<br />लेकिन कर नहीं पा रहा हूँ उसकी कोई मदद<br />बस देख रहा हूँ उसे इधर-उधर परेशान होते<br />कौन है जिससे वह करती हैं बातें<br />कहाँ रहता है वह<br />उसके घर में भी यही हाल होगा<br />सब उलझन में होंगे<br />पता नहीं क्या सोचते होंगे<br />मेरी बेटी के बारे में<br />बकते हों शायद गालियाँ।<br /><br />क्या करूँ<br />समझ में नहीं आ रहा है।<br /><br />कल उसकी माँ ने कहा<br />यह ठीक नहीं है<br />मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ यह ठीक नहीं है<br />अभी पढ़ रही है<br />अगले महीने से इम्तहान हैं<br />क्या होगा<br />क्या कर पाएगी ऐसी हालत में<br />सचमुच कुछ समझ नहीं पा रहा।<br /><br /><br />न ठीक से खाती है न पीती है<br />बस ऐसे ही जीती है।<br />और हम सब देखते रहते हैं उसका मुह<br />जब वह खुश होती है<br />हम मुसकाते हैं<br />नहीं तो चुप हो इधर-उधर की बातें बनाते हैं।</p><br /><br /><p><strong><span style="font-size:130%;color:#ff0000;">माँ के हाथ</span></strong> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0ZnAlBi6bP4JTK36o0g6splAsZf-ax-E9NTnrq8X2cbUFLJ7v23_L9V5ez3fZxiJpdXQ4ENpcEabmqUijlSYpMiw8rpiONeB0358Y0HB1f_9Q2w74qUKaljlb2kYxzsVVfG3-MOEmAyz3/s1600/old_hands2.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5478852873914336402" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 186px; CURSOR: hand; HEIGHT: 200px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj0ZnAlBi6bP4JTK36o0g6splAsZf-ax-E9NTnrq8X2cbUFLJ7v23_L9V5ez3fZxiJpdXQ4ENpcEabmqUijlSYpMiw8rpiONeB0358Y0HB1f_9Q2w74qUKaljlb2kYxzsVVfG3-MOEmAyz3/s200/old_hands2.jpg" border="0" /></a><br /><br /><br />आज सुबह अचानक माँ के हाथों की याद आई,<br />कितने कठोर-कड़े और बेरौनक हैं उसके हाथ,<br />हरदम काम करती,<br />पल भर को न आराम करती,<br />गोबर हटाती, उपले पाथती, रोटियाँ सेंकती,<br />चापाकल चलाती, बरतन मलती, ठहर लगाती,<br />ऐसा लगता है हाथों के बल धरती पर चलती है<br />नहीं तो इतने कठोर और कड़े कैसे हो गए<br />उसके हाथ।<br /><br />उसके हाथ सदा से तो ऐसे न रहे होंगे<br />कभी तो कोमल रहे होंगे उसके<br />कभी तो उनमें भी रचती रही होगी मेहदी<br />लेकिन जब से जानता हूँ मां को<br />देख रहा हूँ<br />उसके हाथों के कठोरपन को<br />रात में हमें जब आ रही होती थी नींद<br />आती थी वह हमारे पास<br />तेल की कटोरी लिए अपने कठोर हाथों से<br />लगाती हमारे सिर पर तेल<br />सवांरती हमें जब हम नींद में जा पहुँचते<br />तब तक वह जागती हमारे सिरहाने बैठ कर<br />हमारा मुह निहारती।<br /><br />अभी वह दूर है<br />मैं सचमुच का परदेशी हो गया हूँ<br />लग रहा है जैसे वह दूसरे लोक चली गई हो<br />बस उसके हाथ दूर से दिख रहे है<br />खटते हुए, हमें संवारते हुए बनाते हुए<br />हर फटे पुराने को जोड़ते चमकाते हुए।</p><br /><br /><p></p>बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com33tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-71201164763205267262010-05-15T10:11:00.000-07:002010-05-25T09:43:36.250-07:00होरी का पुतलाबस आज फिर होरी दिखा। वह पहले भी कहीं दिखा था। या जो दिखा वह शायद होरी का अपना कोई सगा था। वह बुंदेलखंड से आया था या बिदर्भ से था। उसे किसी ने नहीं देखा। वह चोर की तरह देख रहा था सब कुछ। हारा फटेहाल। उसे मैंने भी<br />नहीं देखा। हम उसे देख कर क्या कर लेते। बस इसीलिए मैं उसे वहीं छोड़ कर चला आया। <br />वह वहीं खड़ा रहा । होरी किताब में अच्छा लगता है या चौराहे पर या खेत में। उसे घर में कैसे देख सकता हूँ<br />उसे घर कैसे ला सकता हूँ।<br /><br /><strong><strong><strong><strong>होरी का पुतला</strong></strong></strong></strong> <br /><br />एक बहुत बड़े चौराहे पर खड़ा हूँ<br />चहुँ ओर बड़ी अट्टालिकाएँ हैं<br />दूकाने हैं उनमें सब कुछ मिलता है<br />मैं सिर्फ देख सकता हूँ यह सब<br />न है मेरे पास पैसा न धन कैसा भी<br />जो खेत था सब बिक गया सोना और रूपा के <br />बियाह में। <br />गऊ दान के लिए न सुतली है न सवा रुपये<br />न धनिया है न गोबर है अभी मेरे पास<br />मेरी गाय को जहर दिया हीरा ने <br />वह मेरा भाई नहीं <br />मैं होरी नहीं <br />मेरे पास तो बैल भी नहीं<br />मैंने कहा न कि सब कुछ छिन गया है मेरा<br />मुझे कहाँ जाना है पता नहीं<br />मुझे अब क्या पाना है पता नहीं।<br /><br />मैं खड़ा हूँ एक बड़े चौराहे पर<br />मैं कोई पुतला हूँ <br />शायद होरी का,<br />मुझे सजा कर रखो <br /><br />मैं देश का गौरव हूँ<br />मैं नरक रौरव हूँ।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-62401395298439715852010-05-09T07:34:00.000-07:002010-05-09T08:29:05.774-07:00माँ तो माँ है वह तो प्यार करेगी ही<strong><strong><strong><strong><strong>अपनी माँ को प्यार करें</strong></strong></strong></strong></strong><br />आज मदर्स डे है। इस अवसर पर अपने पहले संग्रह <strong><strong>सिर्फ कवि नहीं </strong></strong>से तीन कविताएँ यहाँ छाप रहा हूँ। मैं मुंबई में हूँ। माँ गाँव में है। निरपेक्ष हो कर सोचने पर न खुद को लायक पाता हूँ न सुपुत्र। मुझे और उसे साथ-साथ होना था। लेकिन नहीं हूँ। क्या करूँ। आज माउंट आबू से लौटा हूँ। वहाँ से माँ के लिए खास करके कुछ सामान खरीदा था। सोचा था कि जाउँगा तो लेकर जाऊँगा। लेकिन सब गाड़ी में भूल आया। घर आकर बहुत पछताया। लेकिन अभी पछता कर क्या कर सकता हूँ। बस ऐसे ही माँ के खयालों में उलझा था तो लगा कि मेरे चारों संग्रहों में माँ पर कुछ कविताएँ हैं। यह ऐसे ही तो नहीं होगा। इसके पीछे माँ का प्यार दुलार ही है। मैं जानता हूँ कि मैं कैसा भी हूँ माँ तो माँ है। वह तो प्यार करेगी ही। माँ के उन्ही प्यार और दुलार की गवाही देती हैं मेरी ये कविताएँ । यहाँ इतना ही और कह सकता हूँ कि आज ही नहीं हर दिन अपनी माँ को प्यार करें।<br /> <br /><strong><strong><strong><strong>माँ को पत्र</strong></strong></strong></strong><br /><br />मैंने सपना देखा माँ <br />तुम धान कूट रही हो<br />तुम आटा पीस रही हो<br />तुम उपरी पाथ रही हो<br />तुम बासन माँज रही हो<br />तुम सानी-पानी कर रही हो<br />तुम रहर दर रही हो<br />तुम उघरी फटी धोती सी रही हो<br /><br />तुम मुझे डाक से <br />कपड़े सिलाने के लिए<br />रुपए भेज रही हो।<br /><br /><br /><strong><strong><strong>दिल्लगी</strong></strong></strong><br /><br />माँ,<br />अगर बनी रही दिल्ली <br />तो दिल्लगी नहीं करता मैं<br />घर एक <br />दिल्ली में बनाऊँगा<br />तुम्हें दिल्ली <br />दिखाऊँगा।<br /><br /><br /><strong><strong><strong>दिया-बाती</strong></strong></strong><br /><br />माँ जब <br />गहदुरिया में <br />चूल्हा-चौका सँइत-पोत कर <br />पड़ोस से आग ला <br />सुलगाती है चूल्हा<br /><br />तभी सूरज <br />माँ की साफ कड़ाही में <br />आखिरी बार <br />झाँक कर पूछता है<br />“मैं जाऊँ ?”<br /><br />और माँ<br />चुप ही चुप<br />दिया बाती करती हैबोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-84935248730915827282010-04-30T07:43:00.000-07:002010-04-30T08:08:44.383-07:00इनमें क्या है जो धड़कन में लिए फिरता हूँ<strong><strong><strong><strong>कबीर के पाँच दोहे जिन्हें गाता जा रहा हूँ</strong></strong></strong></strong><br /><br />कभी-कभी ऐसा होता है कि आप के मन पर कुछ बातें छा जाती हैं। मेरे मन पर कबीर साहब के कुछ दोहे छाए हुए हैं<br />मैं मन ही मन इन दोहों में भटकता रहता हूँ। मेरी आदत है मुझे शब्दों का सहारा चाहिए। मैं कभी अंदर से खाली रह नहीं <br />पाता। तो मैं कुछ भजता रहता हूँ। मन में मोह है माया है लेकिन मन में कबीर समाया है। तो आजकल कबीर साहेब के इन दोहों को भज रहा हूँ। गुनगुना रहा हूँ। आप भी पढ़ें और डूबे <br />उतराएँ या छोड़ कर पार उतर जाएँ।<br /><br />हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।<br />बूंद समानी समंद मैं,सो कत हेरी जाइ।।<br /><br />हेरत-हेरत हे सखी,रह्या कबीर हिराइ।<br />समंद समाना बूंद मैं,सो कत हेर् या जाइ।।<br /><br />तूं तूं करता तू भया, मुझमें रही न हूं।<br />वारी तेरे नाम पर जित देखूँ तित तूं।।<br /><br />सुख में सुमिरन ना किया,दुख में कीया याद।<br />कह कबीर ता दास की कौन सुने फरियाद।।<br /><br />कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ।<br />नैनूं रमइया रमि रह्या, दूजा कहां समाइ।। <br /><br />मुझे कबीर के और भी दर्जनों पद कंठस्थ हैं। लेकिन इनमें क्या है कह नहीं सकता।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-48189976451196512782010-03-05T12:27:00.000-08:002010-03-05T12:54:09.576-08:00एक सहपाठी से बात चीत का अंश<strong><br />कहाँ बदे निकला रहे कहाँ उतिराने </strong><br /><br /><br />कल अपने एक सहपाठी पुट्टुर से बात हुई। उस बाच चीत का एक अंश यहाँ छाप रहा हूँ। इसके लिए पुट्टुर से अनुमति ले ली है। पुट्टुर और मैं 8वीं तक एक साथ पढ़े हैं। जब मन करता है मैं पुट्टुर से बतियाता हूँ। पुट्टुर और मेरा गाँव पहले एक था। लेकिन अभी पुट्टुर पड़ोस के गाँव में बस गए हैं। गाँव छोड़ने के पीछ पुट्टुर की मजबूरी थी। उन्हें मेंरे गाँव के बाम्हनों ने दर्जन भर मुकदमों में फँसा रखा था। खैर<br /><br />बात चीत हमेशा की तरह ही अवधी में हुई। आप भी पढ़ें।<br /><br />मैं-अउर बताव....<br />पुट्टुर-अउर का बताई, समझ ठीकइ बा<br />मैं-का भ, बड़ा मन दवे बोलत हय<br />पुट्टुर-का बताई भाई.....अइसन लगता... जइसे रस्ता भुलाइ ग हई, जैसे निकला रहे कतऊँ बदेऔर पहुँचि ग होई कतऊँ अउऱ<br />मैं- अइसन काहे कहथ हय...का कुछ नेवर होइ ग का<br />पुट्टुर- न निक भ न नेवर....बस ई लगता कि कुछ कइ नाहीं सके, जनमबे क कवनउ मतलब नाहीं निकला<br />मैं- काहे परेशान होत हय<br />पुट्टुर- भाई 40-42 क भए, मुला एकऊ काम अपने मने क नाहीं किहा....बस जियरा जीयतबा....इहइ बात भीतरइँ भीतर खात जात बा<br />मैं- बहुत सोच जिन<br />पुट्टुर- सोचबे पर त कवनऊँ बल नाहीं परत....का करी...इहीं क कवनऊ दवा बनि जात सरवा छुट्टी होत<br />मैं- निक निक सोच<br />पुट्टुर- हाँ भाइ...कहत त ठीकइ बाट्ये मुला का कही....सोचित थ निक अउर होत थ नेवर....कुछु क कुछु होइ जाथ...<br />मैं- चल आउब त फेरि बतियाब<br />पुट्टुर- अउर ठीक बा...तोहरे कइतीं<br />मैं- ठीकइ बा.....चलता<br />पुट्टुर- चल ....चलता इहई बहुत बा....हम तोहार फोन जोहुब<br />मैं- हाँ हम करब....<br />पुट्टुर- चल....<br />मैं-चल....<br /><br /><em><strong>हमारी बात खतम हुई। मन दिन भर पुट्टुर में उलझा रहा। मैं सोचता रहा। हम सब कहीं न कहीं पुट्टुर की तरह भटके हुए हैं। </strong>निकले थे कहीं के लिए। पहुँचे हैं कहीं। </em>बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-56840229784085716792010-01-13T23:28:00.000-08:002010-01-14T06:12:07.270-08:00अपने अश्क जी याद हैं आपको<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaJVBxclPZOBUt114LMJE2u4uJpZssXzKhtcPwz-jjNbqazHnFaQsREVUxHKpwppDd90UV3-TET0r6G4Sek9n1G7GORPim84_1oTKmbzhcaxeS16amJdsdlpUzHfdLANfTMWMb_nI8TOhK/s1600-h/Unashk.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 147px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaJVBxclPZOBUt114LMJE2u4uJpZssXzKhtcPwz-jjNbqazHnFaQsREVUxHKpwppDd90UV3-TET0r6G4Sek9n1G7GORPim84_1oTKmbzhcaxeS16amJdsdlpUzHfdLANfTMWMb_nI8TOhK/s200/Unashk.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5426502724004812562" /></a><br /><br /><strong>लोग कितने भुलक्कड़ है</strong><br /><br />उपेन्द्र नाथ अश्क जी को आप भूल गए। हाँ वही <a href="http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5_%E0%A4%85%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%95">अश्क जी </a>जो लगातार लिखते रहे। हिंदी उर्दू के बीच पुल बने रहे। वही जो इलाहाबाद की धुरी थे। गौरांग से, तिरछी टोपी लगाए। एकदम अपने घरेलू बुजुर्गों की तरह अपने से दिखते थे। 2010 में उनकी जन्म शती चल रही है, पर कहीं कोई हलचल नहीं है। उनके जन्म शहर जालंधर में तो क्या होगा, लेकिन उनकी कर्म भूमि इलाहाबाद में उनकी उपेक्षा थोड़ी तकलीफ दे रही है। वे जब तक रहे इलाहाबाद के लेखकों के साथ एक पिता एक परिजन की तरह जुड़े रहे। लेकिन आज उन्हें याद करने की जरूरत नहीं रही। देश की राजधानी दिल्ली में कल शमशेर जी के जन्म शती वर्ष की बड़े जोर शोर से शुरुआत हुई है। लेकिन अश्क जी के साथ यह न हो सका। आप कह सकते हैं कि उन्हें न उनके संगठन ने याद किया न उनके नाम पर संस्था बनाने वाले उनके परिजनों ने न उनके लेखकीय शिष्यों ने। न हिन्दी ने न उर्दू ने। <br /> <br /><br />आज भी देश में ऐसे सैकड़ों कवि लेखक होंगे जिनको अश्क जी ने लिखना सिखाया है। कविता या कहानी पर काम कैसे किया जाता है यह बताया है। कैसे केवल शिर्षक बदल देने से कहानी का रंग बदल जाता है यह अश्क जी से सीखा जा सकता है। आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि कहानी कार राजेन्द्र यादव जी की कहानी जहाँ लक्ष्मी कैद हैं का पहले शीर्षक था बड़े बाप की बेटी लेकिन संकेत में जब उसे अश्क जी ने प्रकाशित किया तो उसे शीर्षक दिया जहाँ लक्ष्मी कैद हैं। ऐसे ही अमरकांत जी की प्रसिद्ध कहानी जिंदगी और जोक को अमरकांत जी ने शीर्षक दिया था मौत का कार्ड लेकिन अश्क जी ने उसे नया रूप दे कर बना दिया जिंदगी और जोक। ऐसी एक दो नहीं हजारों कहानियाँ और कविताएँ होंगी जिन्हें अश्क जी ने अपनी छुवन से नया रूप नया रंग नया अर्थ दे दिया। <br /><br />अश्क जी हिन्दी और उर्दू में समान रूप से लिखते रहे।उनका हिंदी और उर्दू के लेखकों से भी समान रूप से लगाव था। इसीलिए दोनों के लेखक उनके नाम पर समान रूप से चुप हैं। यह कितनी सात्विक एक जुटता है। लोग हत्या में ही नहीं उपेक्षा में भी एकजुट हो सकते हैं। <br /><br />मेरी कई कविताएं उनके सुलेख में मेरे पास सुरक्षित हैं। मैं कह सकता हूँ कि वे मेरी नहीं अश्क जी की कविताएँ हैं। क्योंकि उनमें तो आधे से अधिक उनका लिखा है। मैं जब तक जनवादी लेखक संघ से नहीं जुड़ा था तब तक लगभग हर रोज उनके पास उनकी सलाह के लिए जाया करता था। लेकिन जब मैं संगठन से जुड़ा तो धीरे-धीरे अश्क जी मेरे लिए अछूत हो गए। गैर जरूरी हो गए। लेकिन मैं यह बात बार बार कहना चाहूँगा कि अश्क जी मेरे गुरु हैं उन्होंने मुझे कविता लिखना सिखाया। मैं उनकी जन्म शती पर उन्हें श्रद्धा से याद करता हूँ। और कोशिश करूँगा कि उनके हाथ से लिखी सुधारी मेरी जो कविताएँ हैं उन्हें पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित करा सकूँ।<br /> <br />वे जब तक रहे उनका इलाहाबाद में 5 खुशरोबाग रोड का घर लेखकों की शरण स्थली बना रहा। लेकिन पता यह चला है कि उनके पुत्र नीलाभ ने उस का एक हिस्सा बेंच दिया है । लेकिन मैं फिर भी उम्मीद करूँगा कि उस घर में उनको याद करने का एक दिन तो जरूर हो। एक शाम तो हो जो हम अश्क जी की याद में बिता सकें।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-18623177475778190582009-11-17T11:06:00.000-08:002009-11-17T20:19:02.051-08:00शिरीष मौर्य को लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLEgLmdTraBd9OFfspdTWP9ZrfGcTqxZdVl6kK7nAZqIerV2FDKR8xX1rSKL1aXlFtRZ9_JIL_-HyZDcSOZgHaudgt_cYwgJVkrqeZy2uEqkC8T1EeXy8gRX8vHhZIY98cn-wFsNkyQKLW/s1600/140px-Shirishkumarmorya.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5405164173261008194" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 140px; CURSOR: hand; HEIGHT: 184px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLEgLmdTraBd9OFfspdTWP9ZrfGcTqxZdVl6kK7nAZqIerV2FDKR8xX1rSKL1aXlFtRZ9_JIL_-HyZDcSOZgHaudgt_cYwgJVkrqeZy2uEqkC8T1EeXy8gRX8vHhZIY98cn-wFsNkyQKLW/s200/140px-Shirishkumarmorya.jpg" border="0" /></a><br /><br /><div><span class=""></span><br /><strong><span style="font-size:130%;"><span style="color:#cc0000;">पृथ्वी पर एक जगह को मिला सम्मान</span></span></strong><br /><span class=""></span><br />शिरीष कुमार मौर्य हिंदी कविता का एक युवा और सधा स्वर हैं। उनके कई संकलन प्रकाशित हैं। १९९४ में कथ्यरूप ने पहला कदम नाम से उनकी काव्य पुस्तिका प्रकाशित की थी। फिर २००४ में उनका एक और कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। वे वर्तमान युवा कविता के कुछ उन कवियों में से हैं जिनकी कविता <span class="">से<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQzRNtXnIFyPUD0hr0Vcui7GV92_ta6fj4h31O4NDsfLOdDUx2EkzRvoy-IT5GytZn7xiMgotNFbkzZVyRfr5P1Cf_FYwH3ZbRmAOv1vYdrvaVarUQCxz8w0Y1LCjOHLFO7HoLtQ5qJGgC/s1600/prithvi.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5405167208071259474" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 130px; CURSOR: hand; HEIGHT: 200px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjQzRNtXnIFyPUD0hr0Vcui7GV92_ta6fj4h31O4NDsfLOdDUx2EkzRvoy-IT5GytZn7xiMgotNFbkzZVyRfr5P1Cf_FYwH3ZbRmAOv1vYdrvaVarUQCxz8w0Y1LCjOHLFO7HoLtQ5qJGgC/s200/prithvi.jpg" border="0" /></a></span> हिंदी का भविष्य उज्वल दिखता है। युवा कविता के लिए प्रगतिशील वसुधा द्वारा संयोजित तथा लीलाधर मंडलोई द्वारा अपने पिता की स्मृति में स्थापित लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान (वर्ष २००९) शिरीष को उनके तीसरे कविता संग्रह "पृथ्वी पर एक जगह" के लिए दिया गया है। शिरीष को सम्मान देने की अनुशंसा विष्णु नागर, चंद्रकांत देवताले तथा अरुण कमल के तीन सदस्यीय निर्णायक मंडल ने सर्वानुमति से की है। सम्मान समारोह जनवरी माह में छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश में आयोजित होगा। सम्मान संबंधी यह घोषणा वसुधा पत्रिका के संपादक कमला प्रसाद ने की है। शिरीष की कविता पर कुछ न कहना चाहते हुए भी यह कह रहा हूँ कि हिंदी में कम कवि हैं जिनके पास इतनी सुगठित भाषा और विराट भाव संसार है।<br />शिरीष को इस सम्मान के लिए बधाई ।<br />यहाँ शिरीष की एक अप्रकाशित और प्रकाशित कविता पढ़ कर उन्हें बधाई दें।<br /><br /><strong><span style="font-size:130%;color:#ff0000;">मैं ऐसे बोलता हूँ जैसे कोई सुनता हो मुझे !</span></strong><br /><br />रात भर पुरानी फिल्मों की एक पसन्दीदा श्वेत-श्याम नायिका की तरह<br />स्मृतियां मंडराती<br />सर से पांव तक कपड़ों से<br />ढंकींकुछ बेहद मज़बूत पहाड़ी पेड़ों और घनी झरबेरियों के साये<br />में कुछ दृश्य बेडौल बुद्धू नायकों जैसे गाते आते ढलान पर<br /><br />एक निरन्तर नीमबेहोशी के<br />बादमैं उठता तो एक और सुबह पड़ी मिलती दरवाज़े के<br />पारउसकी कुहनियों से रक्त बहाताउसकी<br /><span class=""></span>पीठ के नीचे अख़बार दबा होता उतना ही लहूलुहान<br />वह किसी पिटी हुई स्त्री सरीखी<br />लगातीमेरी पत्नी इसे अनदेखा करती जैसे वह सिर्फ मेरी सुबह हो उसकी नहीं<br />मैं अपनी सुबह के उजाले में अपने सूजे हुए पपोटे देखता<br />ठंडी होती रहती मेज़ पर रखी चाय<br />मेरे मुंह में पुराने समय की बास बसी रहती बुरी तरह साफ़ करने के बाद वह कुछ और गाढ़ी हो जाती<br />मेरे हाथों से उतरती निर्जीव त्वचा की सफ़ेद परत और मेरा बेटा हैरत से ताकता उसे<br />इस तरह अंतत: मैं तैयार होता और जाता बाहर की दुनिया में<br />और वहां बोलता ज़ोर ज़ोर से ऐसे जैसे कि कोई सुनता हो मुझे<br /><br /><span style="font-size:130%;color:#cc0000;"><strong>रात में शहर<br /></strong></span><br />दिन की सबसे ज्यादा हलचल वाली जगहें ही<br />सबसे ज्यादा खामोश हैं<br />अबचौराहे पर अलाव जलायेपान की दुकान के बन्द होते समय<br />नियम से सुरक्षा शुल्क<br />मेंमिलने वाली सिगरेट फूँकते हैंपुलिस बल के दो महाबली सिपाहीएक<br />गठीला गोरखा भी है वहाँजो<br />अकेला ही `जागते रहो´ पुकारता घूमता<br />हैपास ही नेपाल मेंराजा की सुलायी<br />सदियों पुरानी नींद सेअकबका कर जाग रहीअपनी<br />शानदार जनता से बेखबरवह फिलहालरानीखेत की सर्द अक्टूबरी रात<br />और उसके जादू में कहींपोशीदा घूमतेलुटेरों<br />और सेंधमारों से खबरदार भर करता हैआसमान के सीने पर<br />टिमकते हैं तारेकभी-कभीटिमकती हैं यादें<br />उस गोरखे के सीने में भीगाता है जिसके लिएवह<br />अपना बेहद पसन्दीदा मगर गूढ़ नेपाली गानादूर<br />कहीं वह एक लड़की है बहुत सुन्दरफूलों वाला रिबन<br />बाँधेकच्चे दुर्गम पहाड़ी रास्तों से गुज़रतीक्या<br />उस तक भी पहुंचती होंगी ये बेतरतीबमगर मदमस्त स्वरलहरियाँदिन<br />भर की सख़्त मेहनत के बाद बमुश्किल नसीबअपनी<br />थोड़ी-सी नींद में भीजो न जाने किस बेचैनी में रह-रहकरकरवटें बदलती है ?<br />चीड़ों और बाँजों और देवदारों और ढेर सारीपहाड़ी इमारतों पर<br />पसरेअंधियारे मेंउसका यह अबूझ गान ओस की बूँदों-सा साफ़ चमकता<br />हैऔर कहीं जुड़ता है मेरी भी आँखों सेजिन्हें मैंने अभी-अभी पोंछा हैयह<br />मेरा ही शहर हैजिसे मैं बहुत कम देख पाता हूँमैं नहीं देख पाता<br />वो रस्ते जिनसे रोज़ गुज़रता हूँ नहीं मिल पाता उनसेजिनसे मैं रोज़ मिलता हूँ<br />उस चौराहे को तो मैं सबसे कम जानता हूँ रहता हूँ<br />ऐन जिसके ऊपर बनेअपने घर मेंयह जानना कितना अद्भुत है<br />कि उजाले में छुप जाती हैंकई सारी चीज़ेंऔर अंधेरा उन्हें उघाड़ देता<br />हैइस रास्ते पर एक पागल सोया है ऐसी पुरसुकून नींदजो<br />होश वालों की दुनिया मेंकिसी कोशायद ही मिलती हो इस क़दरवह<br />मानोहर चीज़ से फ़ारिग हैउसके सोये चेहरे पर मैल की कई परतों के<br />नीचेमुस्कुराता है एक बच्चावह नींद में भी अपने हाथ बढ़ाता<br />हैमगर कहीं कोई नहीं हैउसके लिएमाँ की कोई गोद नहींऔर<br />न ही आगोश किसी प्रेयसी काजो है तो बस यही रस्ताजिस पर से<br />मैं रोज़ गुज़रता हूँउस<br />परिचित को हृदयाघात हुआ थाजिसे मैंअभी छोड़कर आया अस्पताल तकयह<br />मालूम होते हुए भी<br />कि दरअसल इस शहर का सबसेहृदयहीन आदमी है<br />वहजानता हूँमेरा भी हृदय अब उतना सलामत नहीं रहाउसमें भी आने लगी हैं खरोंचेंउसके<br />और दिमाग़ के बीच तनी हुईकई-कईधमनियों और शिराओं में लगातार जारी हैएक<br />जंगतभी तो मेरी सूजी हुई कनपटियों के भीतरकिसी गुहा मेंकोई रह-रहकर चौंकता हुआ-साकहता है -खोजो ! खोजो उसे<br />वो शिरीषयहीं तो रहता है !<br />अपने ही शहर कीएक अनदेखी रात के बीचोंबीचख़ुद को ही<br />खोजताभटकतासोचता हूँ मैंकि ऐसा ही होता है लगातार<br />खुलती हुई दुनियाऔर बन्द होते जीवन मेंयह<br />बेहद दुखदलेकिनएक तयशुदा तरीका हैरोशनी से भरे किसी भी<br />दिल केअचानक<br />भभक करबुझ जाने का।<br /><br /><strong><span style="color:#ff0000;">नोट- दूसरी कविता के वाक्य मेरे सम्पादन में उलझ गए हैं। शिरीष के ब्लॉग का <a href="http://www.anunaad.blogspot.com/">अनुनाद </a>आप यहाँ देख सुन सकते हैं।<br /><br /></span></strong></div>बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-76775333062786369762009-10-28T00:50:00.000-07:002009-10-28T20:32:36.406-07:00नामवर के होने का अर्थ<strong><span style="color:#ff0000;">नामवर को जानो भाई</span></strong><br /><br /><br />जब 17 अक्टूबर की शाम में नामवर जी से फोन पर बात हुई थी तो यह तय हुआ था कि मैं और वे 23 अक्टूबर को इलाहाबाद में गले लग कर भेटेंगे । भेटने का प्रस्ताव मेरा था जिसे नामवर जी ने भावुकता भरे स्वर में स्वीकार कर लिया था। यह भेटना औपचारिक रूप से गले लगने जैसा न होकर उस तरह से होना था जैसे मायके में बहुत दिनों बाद आई बिटिया अपनों से मिल कर मन का बोझ हल्का करती हैं। भेट अकवार लेती हैं। नामवर जी को हिंदी के तमाम लोग दिल में रखते हैं। मैं अकेला नहीं हूँ जिसके मन में नामवर जी को लेकर यह श्रद्धा का भाव है। लेकिन दुर्योग देखिए कि वहाँ हिंदुस्तानी अकादमी में नामवर जी दिखे भी, दूर से प्रणाम आशीष भी हुआ लेकिन भेटना न हो पाया। ब्लॉगिग पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में उनका भाषण सुनने का मेरा कोई पहला अवसर न था। लेकिन हर बार की तरह वहाँ भी नामवर जी कुछ कह ही गए और लोग यह क्या यह क्या करते रह गए।<br /><br /><br />आज जब ब्लॉग के पिछले पन्नों पर गया तो वहाँ नामवर सिंह के विरोध का एक गुबार सा दिखा। कुछ को उनके बोलने पर आपत्ति है कुछ को उनके वहाँ आने पर कुछ को उनके उद्घाटन भाषण देने पर। मैं नामवर सिंह का प्रवक्ता नहीं लेकिन उनका समर्थक होने और कहलाने में कोई संकोच नहीं। आप मान सकते हैं कि मैं नामवर वादी हूँ। और दावे से कह सकता हूँ कि इलाहाबाद में उन्होंने जो कुछ ब्लॉगिंग पर कहा वह उनकी पिछले 65 सालों की हिंदी समाज की समझ थी, उससे उपजी धारणा थी। जिसे वे बिना लाग लपेट के कह सके।<br /><br />उन्होंने अगर कहा कि ब्लॉगिंग पर भविष्य में नियंत्रण रखने की आवश्यकता होगी तो क्या गलत कहा। उनका यह कथन ब्लॉगिंग को लेकर उनकी गंभीर और दूरंदेश सोच को ही दिखाता है। वे चाहते तो कुछ अच्छी-अच्छी और भली लगने वाली आशीर्वचन टाइप की बातें कह कर खिसक सकते थे। ब्लॉग पर राज्य की निगरानी की बात पर छाती पीटने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि ब्लॉगिंग रेडियो, सिनेमा और टीवी के भी आगे का सामाजिक माध्यम बन कर सामने आया है। और जरा सी बात पर क्या से क्या छप जाता है। ऐसे में आज नहीं तो कल ब्लॉग को मर्यादित बनाए रखने के लिए एक नियंत्रक की आवश्यकता पड़ सकती है। अगर आज के सिनेमा को नियंत्रित न किया जाए तो क्या क्या दिखाएगा अपना सिनेमा जगत जिसे शायद चिपलूणकरादि भी नहीं झेल पाएँगे। कितने लोग गंदे साहित्य को घर-घर की दास्तान बना देंगे और कहेंगे कि मुझे कुछ भी छापने की आजादी दो। क्या जगमग ब्लॉगिंग के पीछे के कलुस और अंधकार को रोकने के लिए एक व्यवस्था के बारे में सोच कर नामवर ने अपराध कर कर दिया। क्या कल ऐसी किसी व्यवस्थापिका की जरूररत न होगी। चिपलूणकर और ईस्वामी जी को न होती तो खुद सुरेश चिपलूणकर ब्लॉग प्रहरी जैसे ब्लॉगजगत को नियंत्रित करने वाले अभियान में शामिल हैं । ब्लॉग प्रहरी यह दावा करता है कि ब्लॉग और ब्लॉग की दुनिया पर शुद्धता केंद्रित नियंत्रण रखेगा। चिपलूणकर का नियंत्रण किस आधार पर जायज हो जाता है और नामवर जी का नाजायज यह बात समझ में नहीं आती। और शास्त्री जेसी फिलिप जी साहित्य बलॉग के बहुत पहले से है जब लिखने का माध्यम नहीं था तब से है साहित्य और आपके ब्लॉग के जवान होने पर यह और परिपूर्ण होगा और एकदिन ऐसा आएगा ब्लॉग साहित्य का उपांग हो जाएगा । वैसे भी यह लिखने का एक माध्यम भर ही है ।<br /><br />इसलिए ब्लॉग पर नियंत्रण की बात नामवर जी को उचित लगती है लगती है तो उसे कहने का उन्हें पूरा हक है। मैं ही नहीं ऐसे तमाम लोग होगें जो नामवर जी की बात का समर्थन करते होंगे।<br /><br />इलाहाबाद में बोलते हुए 23 अक्टूबर को नामवर जी ने एकबार भी यह नहीं सोचा कि यह ब्लॉगिंग तो उनकी दुनिया है नहीं। क्योंकि चिपलूणकरादि उन्हें ब्लॉग समाज का नहीं मानते। फिर वहाँ नामवर जी गए क्यों, गए तो बोले क्यों, बोले तो ऐसा क्यों बोले जो किसी ब्लॉगिए को बेध गया। ब्लॉग पर बोलने के लिए मुनीशों प्रमेंद्रों ईस्वामियों आदि के लिए ब्लॉगर होना जरूरी है। तो क्या सच में ब्लॉग कुछ हजार दो हजार चिट्ठाकारों का प्राइवेट अखाड़ा है, अलहदा दुनिया है। जिसे साहित्य या सिनेमा की तरह आम जन से काट कर रखना है। जिन्हें नामवर जी के इलाहाबाद सम्मेलन में आने और बोलने से आपत्ति है मुझे लगता है कि वे ब्लॉग को अजूबा और पवित्र वस्तु मान कर अपने कब्जे में रखने की साजिश रच रहे हैं । जब नामवर जी जैसे विराट व्यक्तित्व के सहभागी होने से इसके आम जन तक पहुँचने का रास्ता खुल रहा है तो हाय तौबा मचा रहे हैं, बौखला रहे हैं।<br /><br />बेशक नामवर जी पुराने लोग हैं लेकिन कुंद नहीं हैं। उनकी समझ और धार आज भी कायम है । हालांकि वे आज भी कलम से लिखते हैं, कम्प्यूटर के की बोर्ड पर अंगुली फिराकर उनका काम खत्म नहीं हो जाता। यह तो ब्लॉगरों के लिए खुशी की बात है कि नामवर जी जैसे आलोचक ब्लॉग की अहमियत समझ रहे हैं। इसमें आपा खोकर नामवर विरोधी हो जाने की क्या जरूरत है। हिंदी का सबसे पुराना आलोचक अभिव्यक्ति के सबसे आजाद माध्यम पर बोल रहा है। यह कितनी बड़ी घटना है। अमूमन बुजुर्ग लोग नए पर नाक भौ सिकोड़ते हैं। नामवर जी उन सठियाए लोगों में नहीं हैं, तो क्या यह उनका अपराध है।<br /><br />नामवर जी को वहाँ यह खयाल नहीं रहा कि उनके बोलते ही तमाम लोग अगिया बैताल की तरह उन पर लपक पड़ेंगे। वे बेधड़क बोले क्योंकि उनको बेधड़क बोलने की दीक्षा मिली है। वे हमेशा खुल कर बोलते रहे हैं। वे ठीक से समझ रहे हैं कि केवल माध्यम बदला है, माध्यम का सरोकार नहीं। लिखने का तौर तरीका बदला है लिखाई और बातें उनके ही देश समाज की भाषा हिंदी की हिंदी में हो रही है। जिसे वे 65 सालों से जीते लिखते और 80 साल से बोलते आ रहे हैं। क्या ब्लॉग या चिट्ठाकारी की दुनिया पर बोलने के मामले में उनकी हिंदी की 65 साल की सेवा अकारथ हो जाती है। और कोई ब्लॉग लेखक उनसे सवाल पूछने का अधिकारी हो जाता है कि वे किस बिना पर ब्लॉग पर बोल सकते हैं। तो मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि वे आज की हिंदी के जीवित इतिहास और वर्तमान हैं। वे हिंदी हैं, हिंदी के अभिमान हैं। नामवर सिंह का विरोध हिंदी का विरोध है। जो का ऐसा कर रहे हैं वे नामवर के होने का अर्थ नहीं जानते। यदि उन्हें हिंदी की एक नई विधा पर बोलने का अधिकार नहीं है तो किसे है। क्या मूनीश बोलेंगे या प्रेमेंद्र बोलेंगे या शास्त्री जेसी फिलिप या चिपलूणकर या कोई ईस्वामी और अन्य महाशय बोलेंगे। क्या यह अधिकार उसे ही मिलेगा जो ब्लॉग के माध्यम का पंडित हो और सुबह शाम ब्लॉग-ब्लॉग का जाप करता हो।<br /><br />हालाकि किसी के थोथे विरोध से नामवर सिंह पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर किसी को नामवर का खंडन मंडन करना हो तो पहले नामवर को जानो। जानो की उनका अवदान क्या है। जानो कि उन्होंने हिंदी को क्या दिया है। बिना जाने नामवर को नकारने कोशिश एक बेबुनियाद लड़ाई होगी। कुंठा का इजहार ही होगा। नामवर पर थूकना आसमान पर थूकने जैसा है। इस थुक्का फजीहत की कोशिश से उनका तो कुछ न बिगड़ेगा। छींटे आप पर ही पड़नेवाली हैं।<br /><br />मेरा मानना है कि ब्लॉगिंग पर हुई इलाहाबाद संगोष्ठी में उद्घाटन भाषण के लिए नामवर सिंह से बेहतर कोई नाम है ही नहीं हिंदी के पास। यदि कोई नाम हो तो मैं पूछता हूँ कि नामवर सिंह न बोलते तो कौन बोलता ? आपक पास एक नाम हो तो बताने की कृपा करें। और यदि अशोक वाजपेयी को बोलने के लिए बुलाया जाता तो आप स्वागत करते। अगर केदारनाथ सिंह को बुलाया जाता तो आप खुश होते अगर कुँवर नारायाण बोलते तो आप हर्षित होते अगर विष्णु खरे बोलते तो आप तो राहत होती। नहीं साहब आप की अंतरात्मा दुखी है। आप को सिर्फ आपके ही बोलने पर सुख मिलता। चिपलूणकर जी अन्यथा आप को संतोष कहाँ। आप तो नामवर से भिड़ने के लिए उनसे सवाल करने के लिए कटिबद्ध है। गिरोह बद्ध हैं।<br /><br />हम सब मानते हैं कि नामवर जी का साम्प्रदायिकता से विरोध है। उनका ही नहीं हर उस आदमी का साम्प्रदायिकता से विरोध होगा जो कि सचमुच में इंसान होगा। जो हैवान है हम चाहेंगे कि वह भी एकदिन गैर साम्प्रदायिक हो जाए, इंसान हो जाए। इस आधार पर इलाहाबाद में ही नहीं कहीं भी नामवर सिंह के साथ किसी भी आयोजन में साम्प्रदायिक लोगों के लिए, सेक्टेरियन सोच वालों के लिए कोई जगह नहीं है । इसके लिए भूलचूक की भी कोई गुंजायश हम नहीं चाहते। नामवर सिंह जी भी नहीं चाहते। रही बात हिंदी के उदार लोगों के साथ मंच साझा करने में तो उसके लिए किसी भी हिंदी सेवी को कोई गुरेज क्यों हो। इलाहाबाद सम्मेलन में भी नामवर सिंह को कोई दिक्कत नहीं थी। उनके साथ बोलने वाले तमाम लोग वामपंथी नहीं थे क्योंकि वह हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया थी हिंदी वामपंथ की दुनिया नहीं। लेकिन आप यह क्यों चाहते हैं कि नामवर जी जहाँ जाएँ अपनी दृष्टि छोड़ कर जाएँ। अपना नामवरी अंदाज और ठाठ तज कर जाएँ। यह तो एक तानाशाह रवैया दिखता है आप सब का।<br /><br />आप को नामवर जी ब्लॉगिंग के योग्य क्यों दिखेंगे। क्योंकि आपकी दुनिया केवल ब्लॉग तक सिमटी है । लेकिन हिंदी तो केवल ब्लॉग की मोहताज नहीं है। और उसके किसी भी माध्यम पर आपसे अधिक नामवर का हक है। कल को कोई आश्चर्य नहीं अगर नामवर जी अपना बलॉग बना लें। तो आप क्या कहेंगे । शायद यह आपके लिए एक अलग चिंता का कारक होगा।<br /><br />हिंदी के लोग मुझसे बेहतर जानते है कि हिंदी का मामला आते ही नामवर जी को पता नहीं क्या हो जाता है । जहाँ कहीं भी हिंदी के पक्ष में खड़े होने का मौका आता है वे चल पड़ते हैं । वे देसी आदमी हैं। देशज वेश-भूषा धोती-कुर्ता और पैरों में चप्पल पहने वे हिंदी की जय करते रहते हैं। जिन्हें पिछले कई दशकों से लोग पढ़ते सुनते देखते आ रहे हैं। 1986 से तो मैं खुद देख सुन रहा हूँ। अगर शास्त्री जेसी फिलिप साहित्योन्मुखी रहे होते तो 1976 से तो देख सुन रहे होते। जैसे 1966 से मैनेजर पाण्डे देख सुन रहे हैं और 1956 से मार्कण्डेय और केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण ।<br /><br />मुँह में 120 नंबर की पत्ती के साथ पान दबाए वह इस महादेश के इस छोर से उस छोर से पिछले 60 सालों से घूम रहे हैं। वे केवल राजधानी दिल्ली की चकाचौंध में घिर कर नहीं बैठे हैं बल्कि आप उन्हें गाजीपुर बलिया में बोलते पा सकते हैं आप उन्हें इलाहाबाद भोपाल में हाथ उठाकर अपनी बात रखते देख सकते हैं। वे हिंदी से बने हैं और हिंदी के लिए मिटने को तैयार खड़े हैं। 81-82 साल की उमर में भी वे हिंदी के नाम पर कहीं भी पहुँच जाते हैं। लोग उसके पिछले भाषण से ताजे भाषण का मिलान करने में उलझे होते हैं और वे हिंदी के वर्तमान को हिंदी के भविष्य और भूत दोनो को मिला रहा होते हैं। वे नूतनता का इस कदर आदर करते हैं कि ब्लॉगिग जैसी एक बन रही विधा को एक बार सिरे से खारिज कर देने के बाद भी उस पर पुनर्विचार के लिए खम ठोंक कर खड़ा हो जाते हैं । वे ब्लॉगिंग को खतरे उठा कर भी लोकतंत्र का पाँचवा खंभा तक घोषित कर देते हैं।<br /><br />अब अपने नामवर जी कोई कपड़ा या साबुन कि बट्टी तो हैं नहीं कि चिपलूणकर जैसे लोगों को कह दें कि बगल के स्टोर से खरीद कर परख लें। जाँच लें । नहीं भाई यह नामवर सिंह कोई सस्ता और टिकाऊ टाइप सामान तो हैं नहीं । यह तो हिंदी को अपने विशाल चौड़े कंधे पर उठाए फिर रहा एक साधक हैं जो सदा से तन कर खड़ा है। बज्रासन में डटा है। यह उनकी सहजता है कि वे सब जगह जाते रहते हैं। उनके लिए सब अपने हैं। आम से खास तक सबको वे अपना समझते हैं। इसका मतलब नहीं कि आप सब लपक लो और उन्हें उठा कर घूरे पर रख दें। नहीं आप जैसे या कैसे भी लोग नामवर सिंह को कहीं भी नहीं रख सकते । हम नामवर के लोग आपको ऐसा हरगिज न करने देंगे।<br /><br />नामवर सिंह का हिंदी के लिए किया गया कार्य इतना है कि उन्हें किसी भी मंच पर जाने और अपनी बात कहने का स्वाभाविक अधिकार मिल जाता है। उनके चौथाई योगदान वाले कई-कई दफा राज्य सभा घूम चुके हैं। वे कुलाधिपति बाद में है हिंदी अधिपति पहले हैं। हिंदी का एक ब्लॉगर होने के नाते आप सब को खुश होना चाहिए कि हिंदी का एक शिखर पुरुष आपके इस सात-नौ साल के ब्लॉग शिशु को अपना आशीष देने आया था। आप आज नहीं कल इस बात पर गर्व करेंगे कि नामवर के इस ब्लॉग गोष्ठी में शामिल होने भर से ब्लॉग की महिमा बढ़ी है। कम होने का तो सवाल ही नहीं।<br /><br />नामवर सिंह के बारे में कम में कहूँगा तो आप समझेंगे नहीं और अधिक कहूँगा तो बात किताब की शक्ल में दिखेगी। लेकिन सोचनेवाली बात है कि जिस आलोचक नें 15 से अधिक किताबें लिखी हों और सौ से अधिक किताबें संपादित की हों। जिसके आलोचना सिद्धान्त आज हिंदी साहित्य को दिशा देते हैं उसके बारे में एक पोस्ट लिख कर<br />समझाया भी नहीं जा सकता । न एक पोस्ट ...हाँ यदि आपको लगता है कि आप नामवर जी को जाने और तो उनकी ये कुछ किताबें हैं जिन्हें नामवर के समर्थक और विरोधी सब को पढ़नी चाहिए। बकलम खुद, कविता के नए प्रतिमान, वाद विवाद संवाद, छायावाद, साहित्य की प्रवृत्तियाँ, दूसरी परम्परा की खोज, हिंदी के विकास में अपभ्रंस का योग, कहानी नई कहानी, पृथ्वीराज रासो की भूमिका, कहना न होगा, आलोचक के मुख से, इतिहास और आलोचना जैसी कितनी पुस्तकें हैं जो देश के किसी भी पुस्तकालय में आसानी से मिल जाएँगी। इस उम्र में भी वे लगातार बोल कर व्याख्यान देकर वाचिक परम्परा के उन्नायक के रूप में हिंदी को समृद्ध करते जा रहे हैं। यदि नामवर विरोधी लोग उनकी कोई भी किताब पढ़ कर बात करेंगे तो शायद यह कहने की हिमाकत न करेंगे कि नामवर जी ने ब्लॉग संगोष्ठी का उद्घाटन क्यों किया। यह बनारसी आचार्य मुझे नहीं लगता कि भाषण का भूखा है। हाँ यह जरूर है कि वह चाहता है कि हिंदी की उन्नति उस हद तक हो और इतनी हो जहाँ से कोई यह न कह सके कि यह कौन सी गरीब भाषा है।<br /><br />आप को लज्जा आती होगी आपको हीनता का बोध होता होगा लेकिन हमें गर्व है कि हम उस नामवर को फिर-फिर पढ़ गुन और सुन पाते हैं जो अपनी मेधा से हिंदी के हित में लगातार लगा है। हम उसे प्रणाम करते हैं और कामना करते हैं कि वह ब्लॉग ही नहीं आगे के किसी और माध्यम पर बोलने के लिए हमारे बीच उपस्थित रहें।<br />तो भाई नामवर से असहमत हो सकते है लेकिन रद्दी की टोकरी में डाल सकते। आप उनके समर्थक हो सकते हैं विरोधी हो सकते हैं लेकिन उन्हें निरस्त नहीं कर सकते।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com22tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-37723431654717455042009-10-08T10:48:00.000-07:002009-10-08T11:02:38.245-07:00खेल संस्कृति नहीं खल संस्कृति<span style="color:#ff0000;"><strong>उषा क्यों नाराज हो</strong></span><br />पी.टी.उषा तुम्हारे साथ मध्य प्रदेश जो हुआ उसे सुन कर बस एक ही बात ध्यान में आई कि देश में खेल संस्कृति नहीं बल्कि खल संस्कृति का राज है।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-51093009983174009172009-10-04T16:34:00.001-07:002009-10-04T16:54:34.222-07:00श्री कृष्ण बोले तो खानदानी चोर<strong><span style="color:#ff0000;">मोरे अवगुन चोरी करो</span></strong><br /><br />श्री कृष्ण को चोर वे ही कहते हैं जो उन्हें बेहद प्यार करते हैं। तभी तो राजस्थानी के एक कवि ने उन्हें बड़े गौरव के साथ चोर कह कर पुकारा है कि आओ और मेरे अवगुन चुराओ।<br /><br />आजकल एक राजस्थानी किताब पढ़ रहा हूँ वीर विनोद। स्वामी गणेशपुरी(पद्मसिंह) ने इसकी रचना की है। स्वामी जी का जन्म 1826 और मृत्यु 1946 में हुआ था। ग्रंथारम्भ में उन्होंने श्री कृष्ण के साथ ही उनके पूरे कुटुंब की स्तुति की है। उस स्तुति में गणेशपुरी ने कृष्ण को खानदानी चोर कहा है। मैं यहाँ पर राजस्थानी में की गई वंदना और बाद में उसका श्री चंद्र प्रकाश देवल जी द्वारा किया गया गद्यानुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।<br /><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>सकुटुंब नंदनंदन स्तुति</strong></span><br /><span style="color:#009900;">।। मनोहर छंद।।<br /></span>पाहन ससुर चोरे सत्यभामा चोरे तरु,<br />चोरी वंसी राधिका नैं कह्यो फेर डरको।।<br />चोरी कहौं रावरो तौ जीभ नाहीं लंबी चोरी,<br />चोरयो दधि दूध जामैं हिस्सा हलधर को।।<br />चोरन के चोर बसुदेव नंदराय चोर,<br />चोरन को जने परे मात चोर पर को।।<br />जांनों हरि ग्रंथ के अमंगल हू चोरे जेहैं,<br />जैहैं कित चोरी को स्वभाव सब घर को।।<br /><br />" हे कृष्ण आपके ससुर ने मणि चुराई और आपकी पत्नी सत्यभाम ने इंद्र के सुनन्दन बाग से कल्पवृक्ष चुराया। आपकी प्रेयसी राधा ने स्वयं आपकी बांसुरी चुराई और कहा कि इस (चोरी) में डरना क्या । आपकी स्वयं की की हुई सारी चोरियाँ गिनवाऊँ इतनी तो मेरी जिह्वा की औकात नहीं पर कुछ छोटी चोरियाँ ते बता ही देता हूँ। आप जो दूध दही और मक्खन चुराते रहे उसमें हलधर बलराम का भी हिस्सा होता था इसलिए आपके भाई का शुमार भी चोरों में होगा।<br />इसी तरह आपको चोरों की तरह जन्म देने के सबब वसुदेव और माता देवकी भी चोर ठहरे और वहाँ से चोरी पूर्वक आपको ले जाकर पाल ने वाले नन्द बाबा और यशोदा मैया भी चोर हुए।<br /><br />हे कृष्ण मुझे विश्वास है कि आप मेरे इस ग्रंथ के त्रुटि रूपी अमंगल को भी चुरा लेंगे क्योंकि आपकी सपरिवार चोरी की आदत है। और प्रसिद्ध खानदानी चोर से उसकी आदत इतनी आसानी से छूटती नहीं है यही सोच कर ग्रंथ के आरम्भ में आपकी स्तुति कर रहा हूँ।"<br /><br />स्वामी जी ने श्री कृष्ण की अनेक चोरियों को एक ही पंक्ति में निपटा दिया। वे याद नहीं कर पाए कि कैसे बचपन में गोपियों के कपड़े चुराने वाले ने अपनी प्रेयसी रुक्मिणी को चुराया और उसी पैटर्न पर अपनी बहन सुभद्रा और अर्जुन को चोर बनाया। कैसे चोरी से यानी छिप कर द्रौपदी की लाज बचाई। क्या आप गिना सकते हैं ऐसे अनोखे खानदानी चोर श्री कृष्ण और उनके खानदान की कुछ चोरियाँ।<br /><span class=""></span><br /><span class=""></span>बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-19846855694593433722009-10-02T06:02:00.000-07:002009-10-02T06:11:30.668-07:00मैंने अपना नाम फिर बदल लिया है<span style="font-size:130%;color:#ff0000;"><strong>अगर अमर होना है तो नाम बदल लो<br /></strong></span><br />कबीर साहेब को अमर होने के लिए राम के नाम का सहारा था लेकिन भानी तो अपने नाम के सहारे ही अमर होने का सूत्र पा गई हैं। भानी मेरी पाँच साल की बेटी है। कल वह मेरे पास आई और बोली पापा मैं कभी मरूँगी नहीं, क्योंकि जिनका नाम भानी होता है वे कभी मरते नहीं। चाहे मैं फिफ्टी इयर की हो जाऊँ या टू थाउजेंड इयर या ट्वेंटी इयर की मैं कभी भी नहीं मरूँगी। लेकिन तुम सब मर जाओगे। तो न मरना हो तो अपना नाम बदल कर भानी रख लो। मैंने कहा एक घर और चार भानी। कैसा रहेगा। तो भानी ने कहा कि नहीं दादी का भी नाम भानी रखना पड़ेगा। सब का नाम बदलना पड़ेगा।<br /><br />तो भाई अब से मैं भानी हूँ बोधिसत्व या अखिलेश नहीं क्योंकि मैं मरना नहीं चाहता। आप लोग भी अगर अमर होना चाहते हैं तो फटाफट अपना नाम बदल कर अमर हो जाएँ। अमर होने का इतना सस्ता उपाय कभी नहीं मिलेगा। यह सुनहरी मौका चूकिए मत। नहीं तो फछताना पड़ेगा।<br /><br />मेरे पूछने पर भानी ने बताया कि उसे नाम के कारण अमर होने का यह मोहक विचार उसके सहोदर भाई मानस ने दिया है। किसी फिल्म में कोई पात्र मर गया तो भानी ने उदास होकर पूछा कि यह क्यों मरा । भाई साहब जल्दी में थे तो कह दिया कि इसका नाम भानी नहीं था, इसलिए मर गया। इसका नाम भानी रहा होता तो यह न मरता। खैर अभी तो भानी अमर होने की खुशी में खेल रही हैं। मैं उनकी यह खुशी क्यों छीनूँ। मैं तो दुआ ही करूँगा कि वह सच में अमर हो जाए।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com26tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-73274202456591465892009-09-13T02:44:00.000-07:002009-09-13T03:35:16.548-07:00तीस साल तक क्या गुलाम थे विष्णु खरे जी<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDjATNchJ_8cFW6dO8sPvcoaHW3tJ82r3mG2WcEYn9ZvGRGL4cFwU3xioKeowQdsfJPbzqTryNENSIZ2rlWWt4dWRqhyphenhyphensR397sjeSJjWpUNeVfQQSCJAH7VcCP83jdUlwUwbSr_Lu2zrbU/s1600-h/Picture+075.jpg"><img style="MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 200px; FLOAT: right; HEIGHT: 150px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5380896836281774562" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDjATNchJ_8cFW6dO8sPvcoaHW3tJ82r3mG2WcEYn9ZvGRGL4cFwU3xioKeowQdsfJPbzqTryNENSIZ2rlWWt4dWRqhyphenhyphensR397sjeSJjWpUNeVfQQSCJAH7VcCP83jdUlwUwbSr_Lu2zrbU/s200/Picture+075.jpg" /></a><br /><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZN2n39agdOPr2aIl8ptRQBiC3G2m2QxZhGgnIvvtC2Wk340fMWgnZO3epdztfKYjjIXYJISQtyLM7B_7SooDROrakoGxRn4k0EuNMAwEOQnxND4MEtjhlea8BaXc_GzoItuROSNfr34nj/s1600-h/Picture+069.jpg"><img style="MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 200px; FLOAT: left; HEIGHT: 150px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5380896576113614578" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZN2n39agdOPr2aIl8ptRQBiC3G2m2QxZhGgnIvvtC2Wk340fMWgnZO3epdztfKYjjIXYJISQtyLM7B_7SooDROrakoGxRn4k0EuNMAwEOQnxND4MEtjhlea8BaXc_GzoItuROSNfr34nj/s200/Picture+069.jpg" /></a><br /><br /><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiX9qWc6aLbR42MllhWDOh6mXvHuOBHadK2s93uTUG_Csv8BKVTCT0vIiIgwYl0HqFpGL8rshlw7fzImv-swSsP2h8MSxxNPVNE0KfWlgcNhviN6EsUobBoL0r00hmROqOOR9v-DUMpdcYp/s1600-h/vishnu-khare-2+a.jpg"><img style="MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 200px; FLOAT: left; HEIGHT: 174px; CURSOR: hand" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5380891942349765170" border="0" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiX9qWc6aLbR42MllhWDOh6mXvHuOBHadK2s93uTUG_Csv8BKVTCT0vIiIgwYl0HqFpGL8rshlw7fzImv-swSsP2h8MSxxNPVNE0KfWlgcNhviN6EsUobBoL0r00hmROqOOR9v-DUMpdcYp/s200/vishnu-khare-2+a.jpg" /></a><br /><br /><br /><div><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>इतना चुप रहेंगे तो कैसे कहेंगे<br /></strong></span></div><br /><br /><br /><div><span style="color:#000000;">हिंदी में कम ही पुरस्कार हैं जिन्हें भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार के जैसा आला दर्जा हासिल है। किसी के कुछ कहने भर से इस पुरस्कार की मर्यादा कदापि कम न होगी। भले ही पुरस्कार पर सवाल उठाने वाला व्यक्ति इस पुरस्कार की सम्मानित ज्यूरी का सदस्य ही क्यों न हो....मैं बात विष्णु खरे जी की कर रहा हूँ। </span>भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता सम्मान के संदर्भ में संकलित पुस्तक उर्वर प्रदेश की भूमिका में लिखित विष्णु खरे जी की इस प्रतिक्रिया <a href="http://vatsanurag.blogspot.com/2009/09/blog-post_10.html">रूपी टिप्पणी</a> या लेख पर मुझे कुछ नहीं कहना है। क्योंकि इसमें अलग से कहने लायक कुछ है भी नहीं। कुछ निष्कर्ष हैं जो कोई भी निकाल सकता है, उन्होंने भी निकाला है। अगर विष्णु जी को यह लगता है कि कई कविताएँ भारत भूषण पुरस्कार के लायक नहीं थीं या कई कवि पुरस्कार पाने के बाद उचित दिशा में विकसित नहीं हुए तो उन्हें बोलने और कहने का पूरा अधिकार है। वे हमारे साहित्यिक समुदाय के एक एक बुजुर्ग जो हैं।<br /><br />मेरे मन में उनकी छवि एक दबंग और स्पष्टवादी व्यक्ति या कहें कि लट्ठमार आलोचक या आजाद खयाल शहरी की रही है। दशाधिक बार उन्हें उनके विचारों को बेचारे की तरह नहीं बल्कि पूरी दहाड़ के साथ प्रकट करते सुना देखा है। उनकी यह दहाड़ यहाँ इस लेख में भी सुनी जा सकती है। लेकिन पता नहीं क्यों उनकी इस दहाड़ में एक बेचारगी का सुर दिख रहा है। मेरे विचलन का कारण भी उनकी अक्खड़ छवि के पीछे छिपी यही बेचारगी है। मैं इस खयाल से ही व्यथित होता जा रहा हूँ कि उनके जैसा स्वतंत्रता प्रिय व्यक्ति एक पुरस्कार समिति के दायरे में इतने दिनों तक कैसे घुट घुट के कैद रहा और उन तमाम कवियों को बेहतर और उत्कृष्ट कवि होने का प्रमाण पत्र देता है जिनकी कविताएँ उसे कत्तई किसी दर्जे की नहीं दिखतीं। अपने घर में टंगे भारत भूषण सम्मान पत्र पर उनके हस्ताक्षर देख कर उनका मजबूरी में दस्तखत करता अपमानित लज्जित मुख सामने कौंध गया। उनका यह हस्ताक्षर किसी संधि पत्र पर आँसुओं से हस्ताक्षर करने जैसे रूपक की याद दिलाता है। तीस साल, तीस हस्ताक्षर जिनमें कम से कम तेइस हस्ताक्षर तो उन्होंने मजबूरी में किए यानी कम से कम तेईस रातें तो मुँह छिपा कर रोकर काटी होंगी हिंदी के इस ईमानदार पुरस्कार दाता ने।<br /><br />मैंने कल उनसे फोन पर इस बारे में बात करने की सोची । वे लखनऊ में थे, उनसे बात हुई भी। लेकिन मुझे लगा कि उन्हें उनकी गुलामगीरी या मजबूरी की याद दिलाकर उनको दुख देना अन्याय होगा, गए वक्तों के लोग हैं, 70 साला बुजुर्ग है, मान और प्यार न दे सकूँ तो उनकी बाँतों में छिपी वेदना तो समझ सकूँ, उनके मन के नाजुक जख्म को अगर सहला न सकूँ तो उन्हे कुरेदकर कर उन पर नमक भी तो न छिड़कूँ । उनको मुंबई में यारी रोड बरिस्ता पर मिलने के वादे के साथ उनके हाल पर छोड़ना बेहतर समझा।<br /><br />मैं उम्मीद करूँगा कि अपने इस आजादी की अभिव्यक्ति के बाद हम सब के बुजुर्ग विष्णु खरे जी भारत भूषण स्मृति कविता सम्मान के किसी ऐसे प्रमाण पत्र पर दस्तखत न करेंगे, जिसके खिलाफ उन्हें कहीं बोलना या मुँह खोलना पड़े। आखिर वे किसी गुलाम देश, भाषा या संस्कृति के पिछलग्गू नहीं एक सफल अनुवादक, एक कुशल पत्रकार, एक आजाद खयाल आलोचक, एक सख्त कवि, एक संस्कारवान संस्कृति कर्मीं, और एक सच्चे पुरस्कार दाता रहे हैं।<br /><br />मैं उनकी आलोचना पर लहालोट हो रहे तमाम समर्थकों से भी कहना चाहूँगा कि भाई उनकी मजबूरी का बयान करती आलोचना के सत्कार में जब कूदो तो उनके दुत्कार को यूँ चापलूसों की तरह तो न चाटो, बल्कि उनकी बेकली को समझो। यह तो समझने की कोशिश करो कि आखिर हमारे समय का एक समर्पित साहित्यिक तीस साल तक कितने दुखों और अपमान की अंधेरी खूनी नदियों और कीचड़ से सनी बजबजाती कोठरी फंसा रहा। बंधक रहा। भाई उसे बल दो और रास्ता दिखाओ कि वह ऐसे किसी बंधन से आजाद होने का कोई उपाय कर सके। वहाँ से निकल कर खुली हवा में जी सके। मैं व्यक्तिगत तौर पर विष्णु जी के सुख चैन भरी आजादी के लिए दुआ करता हूँ। वे शतायु हों, उनकी आजाद खयाली निर्बंध बनी रहे। और यह प्रार्थना भी करूँगा कि विष्णु जी तीस साल चुप रहेंगे तो बाद वालों से कैसे कहेंगे कि बोलते रहो, विरोध में आवाज लगाते रहो। क्योंकि भारतेंदु जैसे लोगों को कुल 35 साल की उमर ही नसीब हुई। भला सोचिए कि वे 30 साल चुप रहते तो अंधेर नगरी में चौपट राजा को थू...थू कैसे कहते।</div><span style="color:#ff0000;">( ऊपर बाएँ भारत भूषण पुरस्कार का एक प्रमाण पत्र, नीचे विष्णु खरे जी और उनके ऊपर प्रमाण पत्र पर किया गया उनका मजबूरी का हस्ताक्षर)</span><br /><div></div><div>प्रसंग में ग्वालियर में रह रहे एक युवा कवि <a href="http://asuvidha.blogspot.com/">अशोक कुमार पाण्डे</a> की एक टिप्पणी उनके बलॉग <a href="http://naidakhal.blogspot.com/">युवा दखल </a>पर भी देखें। </div></div></div>बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-49027790184376552712009-08-15T08:24:00.000-07:002009-08-15T09:00:43.541-07:00भारतीय साहित्य में क्या खाक रखा है ?<span style="font-size:130%;color:#cc0000;"><strong>पराए पत्तल का भात अच्छा लगता है भाई</strong></span><br /><span style="font-size:+0;"></span><br />मैं अपने साथ के किसी भी लेखक कवि आलोचक से कत्तई नाराज नहीं हूँ। मेरा नाराज होने का कोई हक भी नहीं बनता। यदि भारतीय कविता या साहित्य में कुछ है ही नहीं तो वे क्या करें। बेचारे। विपन्न जो ठहरे। वे लोग यदि बात बात पर अपने लेखों में यदि विदेशी कविता के स्वर नहीं छापेंगे तो क्या देशी कविता छाप कर देशज होने का लांछन अपने सिर लेंगे। वे यदि विदेशी भाषा के आलोचकों के विचारों से ऊर्जा नहीं ग्रहण करेंगे तो क्या देशी घुग्घू पंडितो के अछूत विचारों से प्रभावित होकर अपनी तौहीन कराएँगे। वैसे भी पराए पत्तल का भात अच्छा लगता है। ब्लॉग से लेकर साहित्य तक जिसे देखिए विदेशी कविता की माला फेर कर गदगद है। हर कोई छापे उच्चारे पड़ा है। मैं भी उन सब कवियों कविताओं आलोचक और आलोचनाओं का हार्दिक स्वागत करता हूँ। किंतु वे सभी मेरे लिए न तो आदर्श हैं नही कंठहार बनाने का कोई मन है। मैं तो देशी कविता से ही नहीं उबर पा रहा हूँ। हाँ जब देशी को पढ़ कर तृप्त हो जाऊँगा तो देखूँगा बाहर के महान काव्य स्वरों को। यह मेरा हठ है। क्या करूँ।<br /><br />अभी राहुल सांकृत्यायन का संस्कृत काव्य धारा पढ़ कर मस्त मगन था कि साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित एक दुर्लभ ग्रंथ सदुक्ति कर्णामृत हाथ लग गया। श्री धर दास न इसे 1205 -6 में संकलित सम्पादित किया था। ऐसे प्राचीन ग्रंथ को सुव्यस्थित ढंग से अनूदित और सम्पादित किया है संस्कृत हिंदी के प्रकाण्ड विद्वान राधा वल्लभ त्रिपाठी ने। हर कंटेंट पर पाँच कविताएँ हैं। कुल चार सौ छिहत्तर विषयों पर इस ग्रथ में दो हजार तीन सौ साठ कविताएँ संस्कृत मूल के साथ संकलित है। मैं दावे से कह सकता हूँ कि हर कविता अनमोल है और देशी विदेशी किसी भी कवि या कविता से अपने कथन में कहीं बहुत सुचिंतित और सुगठित है। राधा वल्लभ जी ने हिंदी और संसकृत के बीच एक सुदृढ़ सेतु के रूप में अपनी भूमिका दर्ज कराई है। उनके काम का सत्कार किया जाना चाहिए। आज उनके सदुक्ति कर्णामृत से दो कविताएँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। आगे इसी क्रम में मंगलदेव शास्त्री, राहुल सांकृत्यायन, बशीर अहमद मयूख, नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, गोविंद चंद्र पाण्डे, रघुनाथ सिह, प्रभुदयाल अग्निहोत्री, आचार्य राम मूर्ति, कमलेश दत्त त्रिपाठी, मुकुन्द लाठ, जगन्नाथ पाठक, कपिलदेव दिवेदी इत्यादि विद्वानों द्वारा किए गए अनुवादों को इस कामना के साथ छापूँगा कि मित्रों कभी कभार इधर भी देख लो अपने घर में अपने दरिद्र कोठार में । इसी कोठार से मैं मयूख जी की एक कविता पहले भी <a href="http://vinay-patrika.blogspot.com/2007/08/blog-post_4250.html#linkshttp://">यहाँ छाप </a>चुका हूँ।<br />आज आप पढ़े दरिद्र की ग्रृहणी विषय में संकलित पाँच में से दो कविताएँ।<br /><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>दरिद्र की घरवाली<br /></strong></span><br />पूरी तरह बैरागन बन गई है अब वह<br />गल रहा है उसका तन<br />तन पर के कपड़े<br />हो रहे हैं चिथड़े-चिथड़े<br />भूख से कुम्हलाई आँखों और पिचके पेट वाले<br />उसके बच्चे<br />उससे करते हैं निहोरा<br />कुछ खाने के लिए<br />दीन बन गई है वह<br />लगातार बहते आँसुओं से धुला है उसका चेहरा<br />दरिद्र की घरवाली<br />एक पसेरी चावल से<br />काट लेना चाहती है सौ दिन। <span style="color:#009900;">( कवि वीर)</span><br /><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>गरीब की जोरू<br /></strong></span><br />वह भीग चुके सत्तू का शोक मना रही है<br />वह चिल्ल पों मचाते बच्चों को चुप करा रही है<br />वह चिथड़े से पानी के चहबच्चे सुखा रही है<br />बचा रही है बिस्तर पुआल का<br />इस टूटे टपकते पुराने घर में<br />टूटे सूप के टुकडे से ढंकते हुए सिर<br />क्या-क्या नहीं कर रही है गरीब की घरवाली<br />जबकि देव बहुत जोर से बरस रहे हैं लगातार। <span style="color:#33cc00;">( कवि लंगदत्त)</span><br /><br /><span style="color:#ff6600;">सदुक्तिकर्णामृत, मूल्य-५०० रूपए, पृष्ठ-८००, संपादक राधा वल्लभ त्रिपाठी, साहित्य अकादमी, रवीन्द्र भवन, 35 फिरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली-110001 </span>बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com20tag:blogger.com,1999:blog-921589421577699058.post-11029585891223169072009-08-12T11:21:00.000-07:002009-08-12T11:27:35.204-07:00जीना केहिं बिधि होय<strong><span style="color:#ff0000;">घर में कैद हैं</span></strong><br /><br />पिछले कई महीनों से बड़ी मुश्किल में हूँ। घर परिवार के अलावा भोजन और भटकन के आस-पास जीवन का रस जुटा था। वहाँ भी सेंध लग गई है। मिठाई खाता रहा हूँ लेकिन जब से नकली मावा और खोया बड़े पैमाने पर पकड़े गये मिठाइयों का स्वाद कम हो गया। बेसन के लड्डू को मैं मिठाई में गिनता नहीं था, लेकिन मजबूरी में आज कल वह भी मीठा हो कर इतरा रहा है। छेने की मिठाई भी उसी तरह मिलावट की मार से पराई हो गई है।<br /><br />जलेबी बेहद पसंद करता था लेकिन नकली तेल और मिलावटी बेसन ने उससे भी दूर कर दिया है। यही नहीं इन हरामी नक्कालों ने दो वक्त के भोजन को भी बेस्वाद कर दिया है। जब से समझदार हुआ हूँ, गाढ़ी अरहर की दाल में दो चम्मच घी डाल कर खाता रहा हूँ। लगभग हर दिन गुड़ घी रोटी भी गूलता रहा हूँ, लेकिन हड्डी-चर्बी और पता नहीं क्या क्या मिला कर बेंचे जा रहे घी की खबर ने दाल को भी स्नेह से हीन कर दिया और गुड़ घी रोटी से वंचित । घर के दूध से जितना घी बन पा रहा है उसी से किसी तरह मन को संतोष दे रहे हैं।<br /><br />देर रात में दो से तीन बजे के बीच ठंडे दूध में लाई बिस्किट और थोड़ा सा गुड़ डाल कर खाता था। यह सिलसिला भी पिछले कई सालों से चल रहा है। लेकिन मेरे मुहल्ले चारकोप से ही 1800 लीटर नकली दूध जब से मिला है दूध से दुश्मनी सी हो गई है। मेरे मुहल्ले के मिलावट करने वालों ने तो पानी तक साफ नहीं मिलाया था। जब उन्हें धरा गया तो वहाँ दूध बनाने के लिए लगभग 500 लीटर नाले का गाढ़ा गंदा पानी भर कर रखा मिला। उसके बाद से इस डेरी से उस डेरी भटक रहा हूँ लेकिन किसी भी दूध को ठीक नहीं मान पा रहा हूँ । हर दूध मिलावटी सा दिख रहा है। डर-डर कर चाय पी रहा हूँ। डर-डर कर कॉफी। जीना मुहाल है। मिलावट की मार झेल ही रहा था कि यह आ गया स्वाइन फ्लू। इसने तो रहा सहा भटकने का सुख भी छीन लिया है।<br /><br />सरकार बड़े मजे से कह रही है कि पब्लिक प्लेस पर न जाएँ। अरे भाई घर के अलावा ऐसा कौन सा स्थान बचा है जो पब्लिक प्लेस नहीं है। बच्चों को लेकर पार्क नहीं जा सकता । बेटी को झूले पर नहीं चढ़ा सकता । सिनेमा नहीं दिखा सकता। पसंद की मिठाई नहीं खा सकता। बेफिक्र हो कर दूध और चाय नहीं पी सकता। दाल में घी नहीं डाल सकता, गुड़ घी रोटी नहीं खा सकता। तो कर क्या सकता हूँ। अगर अपने मन का कुछ कर ही नहीं सकता हूँ, बाहर जाकर घूम नहीं सकता केवल घर में कैद हो कर रहना है तो बेहतर है जेल भेज दो वहीं रहेंगे। जो दोगे खा लेंगे। जितने दायरे में रखोगे रह लेंगे। मान लेगें कि मेरी दुनिया इतनी ही रह गई है। इतना ही खाना है इतना ही जीना है।बोधिसत्वhttp://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.com8