Monday, February 18, 2008

विष रस भरा घड़ा था बोधिसत्व

मैं किसी को प्रिय क्यों नहीं हूँ

पिछले कई सालों से लगातार एक बात महसूस कर रहा हूँ....कि मुझे.
चाहने वालों की संख्या में तेजी से कमी आई है । कभी-कभी तो लगता है कि कोई है ही नहीं जो मुझे चाहता हो....।

वे जो चाहने का दावा करते हैं...मजबूर हैं...उनके पास कोई विकल्प नहीं है....मैं बात अपनी पत्नी और बच्चों की कर रहा हूँ...अगर मध्यकाल में मैं रहा होता तो अब तक सब मुझे छोड़ कर चले गए होते...। बेचारे क्या करें...।

कभी-कभी लगता है कि माँ मुझे चाहती है...पर वह अगर मैं फोन न करूँ तो वह कभी फोन नहीं करती...बस चुप रहती है...
उसे मोक्ष चाहिए...वह जीना नहीं चाहती...अगर वह मुझे प्यार कर रही होती तो मोक्ष के बारे में सोचती...। उसे पिता के पास जाना है...। निर्मोही पिता संसार छोड़ कर चले गए हैं..वह भी चली जाना चाहती है....। अब मैं उसका संसार नहीं हूँ...कभी हुआ करता था...
पिता मुझे बहुत चाहते थे....लेकिन अपने अंतिम दिनों में मुझे अपने पास नहीं रहने देते थे...जब मैं उनसे बहुत दुलराता था तो वे मुझे इलाहाबाद भगा देते थे...।
और बहुत साफ-साफ कहते थे मेरे दिन पूरे हुए....।

सच है कि मैं न अच्छा बेटा बन पाया हूँ...न भाई...न पति न पिता न लेखक न कवि...लगातार लग रहा है कि सब अधकचरा है...सारा जीवन....सारा काम ...सारा लेखन....सारे संबंध....
यह बात दोस्तों के बुझे व्यवहार से भी मुझे महसूस होती है...कि मैं कभी अच्छा मित्र नहीं बन पाया.....खोट है मुझमें....मैं कभी पूरी तरह समर्पण नहीं करता....थोड़ा आलोचनात्मक बना रहता हूँ...दिन को रात नहीं कह पाता....या हाँ में हाँ...नहीं कर पाता...तभी तो जिन मित्रों के साथ कभी 22-22 घंटे इलाहाबाद में या गाँव में रमा रहता था...वे बड़ी कठिनाई से बात कर पाते हैं वह भी महीनों-महीनों बाद....।

मैं दावे से कह सकता हूँ...कि अपने परिचितो और मित्रों को सबसे अधिक मैं फोन करता हूँ.....कई बार ऐसा मन करता है कि जाने दो साले को जब वह नहीं कर रहा है तो मैं ही क्यों करूँ....पर करता हूँ....हाल लेता हूँ...देता हूँ...
जो भी मेरे मित्र इस खत को पढ़ें अगर मेरी बात गलत लगे तो....बोलें....मैं उनको सुनने को तैयार हूँ....
अरे चिरकुटों मैं ही नहीं तुम सब भी अजर-अमर नहीं हो....क्या सोचते हो....यहीं रहोगे...और ऐसे ही मुह फुलाकर भटकते रहोगे....और बस। एक दिन एक खबर आएगी बोधिसत्व नहीं....रहा....फिर यह होगा कि तुम नहीं रहोगे....
भाई यह देस बिराना है....।

मगर तुम मेरे लिए दो आँसू बहाने की जगह कहोगे.....बोधिया......नहीं रहा....। मन में कहोगे चूतिया चला गया....। हरामी कभी समझ में ही नहीं आया....जितना बाहर का मिठास था सब दिखावा था उसका...साला अंदर से बड़ा जहर का पीपा था...खूसट ...। विष रस भरा कनक घट था.......कमीना.....। इससे अधिक गाली तो तुम दे नहीं पाओगे...। ब्लॉग जगत में एक गाली विरोधी एक दस्ता है...जो मन की घृणा को अंदर-अंदर पकाता खाता है.... और जब बाहर आती है तो गाली एक दम गुल-गुला हो जाती है....।
पर मैं मानता हूँ....कि मैं बहुत सीधा और सरल नहीं हूँ...या मैं मिट्टी का माधो नहीं हूँ...तुम कह सकते हो...कि मैं बहुत जटिल हूँ...बहुत उलझा हुआ....भी।
हाँ....मैं झगड़ालू हूँ...पर चिरकुट नहीं हूँ...
मैं मक्कार नहीं हूँ....और मेरे लिए भरोसा तोड़ना हत्या से बढ़ कर है....।
मैंने कभी मक्कारी नहीं की है....किसी के भी साथ.....फिर भी आज कल लगातार लग रहा है कि मुझे कोई नहीं चाहता....शायद कुछ लोग हों जो मेरे मरने की हुआ करते हों....उनकी कामना पूरी हो मैं उनके लिए दुआ करूँगा क्यों कि मैं उन्हें प्यार करने की सोचता हूँ....।

34 comments:

  1. बोधि भाई,

    मतलब यह है कि जीवन 'जी' रहे हैं.

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  2. बे महराज, हम सारे भड़ासी हैं न आपके साथ...ढाई सौ लोग तो केवल मेंबर हैं....कभी टेस्ट वेस्ट लिया करिये कि देखें कौन साथ हैं...सब खड़े हो जाएंगे,,,दरअसल बोधि भइया, आजकल हर आदमी अपने में परेशान है रोजी रोटी काम धंधा की कीमत काफी तगड़ी हो चुकी है। पूरे दिन मराने के बाद कुछ मिल पाता है सो हर शख्स कुछ परेशान सा है इसलिए आप खुद को डिप्रेस्ड न करिये और न फ्रस्टेटियाइये....आप जैसों से तो हम लोग ऊर्जा वुर्जा लेते रहते हैं....और आप हैं कि जाने क्या क्या सोच रहे हैं....असल में आप लोग पक्के वाले बुद्धिजीवी हैं न, सोचते ज्यादा हैं, इहे दिक्कत हैं, सुबह कसरत करिये, कड़वा तेल से शरीर मालिश करिये, थोड़ा तेल माथा पर रखकर पच पच रगड़िये...और लंगोट बांध के जुट जाइए पढ़ने लिखने काम करने और बच्चा लोग के साथ खेलने कूदने में...

    कुछ ज्यादा भषणिया रहा हूं मैं, छमा करियेगा....हम मूरख अज्ञानी लोग जब बोलते हैं तो बोलते ही रहते हैं ससुर, बिना इ जाने कि बोल कितना टुच्चा या अनमोल है....
    जय भड़ास
    यशवंत

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  3. गुरुवर यह क्‍या हो गया कि आप अपनी भड़ास निकाल रहे हैं, सब कुशल मंगल तो है

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  4. अबे बौड़िया गए तुम तो बैठे-बैठे..! फोन किया तो ठीक थे.. क्या हुआ क्या?

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  5. mr. bodhij aap achchha bajar bna rhe hain, roiye, roiye, kuchh nhi to free men kuchh rumal to pa hi lenge. jo fun-funkr chlte hai, ve sre-aam aise hi ffak-ffakkr rote hain, lge rhie

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  6. हालत बहुत ही चिंताजनक है.
    कोई योग वगैरह किया करें.
    और हर हाल मे अपने को ही सही माने सब ठीक हो जायेगा.

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  7. हम किसी के लिये प्रिय हैं...कितने प्रिय हैं ..क्यों प्रिय नहीं हैं....इन बातों के इतने अधिक मायने क्यों है?!! हमेशा खुद के होने की स्वीकृति दूसरों से क्यों चाहिये होती है? हर इंसान की सफलता का माप उससे बड़ी और छोटी रेखा पास खींच कर बढ़ाया या घटाया जा सकता है।

    कई बार लगता है कि जब हम स्वयं के अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते तभी आसपास की स्वीकृति तलाशते हैं।

    क्या कुछ है जो बदलना चाहते हैं....और है तो इस विचार से निकल उस दिशा की तरफ क्यों नही?!!

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  8. का गुरु, ई का कहत हुअ मरदे? तोहके चाहे वला के कमी हौ? लगत हौ तोहकै उदय प्रकाशी रंडुवारोदन के बीमारी हो गइल का?

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  9. तबीयत खराब सी होण लाग री है क्या।
    मस्त रहिये। आत्मदया, आत्मरुदन अच्छा है, पर इत्ता नहीं।
    यूं अभी इतने पतित ना हुए कि आपसे कोई प्यार ना करे। अभी तो पतन की अपार संभावनाएं हैं। पूरी खंगाल लें, तब लिखें यह सब।
    आजकल पतनशील समाज की मेंबरशिप बंट रही है, ब्लाग पर।
    मैं तो भौत पहले ही पतित हो चुका हूं, पतित समाज का इमिरेटिस चैयरमैन आपको बनाता हूं। सच्ची का चैयरमैन तो मैं हूं।
    मस्त रहिये।

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  10. गुरुवर आपने मुझे भी कुछ लिखने पर विवश कर दिया है, यहां देखें

    http://ashishmaharishi.blogspot.com/2008/02/blog-post_19.html

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  11. मेरे दिल की बात कह दी आपने.. मैं भी अपने बारे में ऐसा ही सोचता हूं..

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  12. संभावनाऎं अनंत है...उन्ही संभावनाओं में हम जी रहे हैं...आप ऎसा सोच रहे हैं तो अभी आप पतित नहीं हुए...आलोक जी चैयरमैन बना चुके हैं आपको...थोड़ा और पतित होइये..फिर देखिये जिन्दगी कितनी हसीन है...:-)

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  13. बहुत खूब थोड़ा धीरज रखे

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  14. बहुत खूब थोड़ा धीरज रखे

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  15. आत्म-मंथन/विश्लेषण ठीक पर यह आत्मदया/ आत्म-भर्त्सना क्यों ?

    जिसकी कविताओं से पाठक जीने का सलीका सीखते हों और मायने पाते हों,जिसकी रचनाओं के पास वे अपने को जांचने-परखने आते हों, उसे यह सब कहने का हक नहीं होता . नहीं होना चाहिए . उसे बेचैन भी होना होगा तो अपने निजत्व के निबिड़ एकांत में और उसे कोई और वस्तुपरक रचनात्मक शक्ल देनी होगी .

    कहीं मैं फिरी-फोकट वल्लभाचार्यनुमा तो प्रतीत नहीं हो रहा हूं ?

    रही बात अभिन्न मित्रों की उपेक्षा-अनमनेपन और तोताचश्मी की तो फोन उठाइए और जब जिसे जी चाहे कोई ठाठदार-वजनदार,प्रचलनबाह्य होती जा रही देशज गाली दीजिए जिससे पट्ठे के कान के कीड़े झड़ जाएं,दिमाग की सैटिंग दुरुस्त हो जाए और उसका सिस्टम 'रिबूट' हो जाए .

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  16. ये क्या हुआ??

    ये वो बोधि भाई नहीं हैं, जिनसे मैं मिला था-बम्बई में. लगता है पूरा ब्लॉग ही चोरी हो गया. बचोगे नहीं, आज ही असली बोधि भाई को फोन लगा कर उनके ब्लॉग पर हुई इस हरकत की खबर देता हूँ.

    मुझे मालूम है वो हँस देंगे, बस्स्स!!! यही तो खराबी है उनमें.

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  17. काहे री नलिनी तूँ कुम्हलानी
    तेरे ही नाल सरोवर पानी

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  18. यह संसार आग औ झाँखड़, आग लगि बरि जाना है..

    क्या महाराज, काहे प्रेम, लगन, सनेह की फिक्र में दुबले हो रहे हैं। गरियाओ आप तो । ये पक्का मानकर चलें कि हम लोकप्रिय होने नहीं आए हैं। वो तो अपने आप मिलती है। मिलेगी तो वर लेंगे उसे भी। बाकी तो गालियां ही खानी हैं, तो गरियाने से भी न चूकें। दुर्वासा और परशुराम से प्रेरणा लें महाराज।
    रात तक तो अच्छे भले थे आप । ठीक ठीक सी बातें हो रही थी। फिर ये कैसा आत्मज्ञान , कैसी सन्निपाति बातें ? मुंबई में अभी से लू चलने लगी है क्या ?

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  19. झाड़ और झांखर पढ़ें

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  20. भाई, जरा पता कर लो - अगर पूरी समग्रता से बोधिसत्त्व ही हो तो कोई परेशानी नहीं।
    यह बुद्धिविलास तो चलता है। हम भी बूडते उतराते हैं। बस ज्ञानदत्त पाण्डेय का मानसिक चोला नहीं छोड़ते।

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  21. साथी, सच्चाई यही है कि हम "सब" अकेले हैं,

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  22. आपकी पोस्ट पढ़कर मन कुछ विचलित हो गया।

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  23. रे मन काहे धीर ना धरे.ठन्डा पानी पीकर शांत होने का प्रयास कीजीये. ये सभि के साथ होता है यदा कदा ,वो सुना है ना,"चक्के पे चक्का रेले पे रेला,है भीड कितनी पर दिल अकेला,पर दिल अकेला,गम जब सताये सीटी बजाना,पर मसखरे से दिल ना लगाना..:)

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  24. बहुत स्वाभाविक है बोधि भाई यह मन:स्थिति ! कभी कभी हमें भी यही लगता है कि कोई अपना सच्चा दोस्त नहीं ..सब निस्सार है ..और भी अगडम बगडम..! पर सब ठीक ही होता है ! कभी हम भी मिल बांटेगे आपसे यह सब !

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  25. बोधि जी हम तो सोचे थे कि आप जैसे बुद्धजीवीयों को ये रोग नहीं सताता सिर्फ़ हम जैसे कम बुद्धी वालों को ही ये रोग लगता है। आप की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी जो अपने रिसते घाव खोल कर दिखा दिए, हम तो बरसों से इन्हें छिपाने की असफ़ल कौशिश कर रहे थे, बड़ी मुश्किल से अब पपड़ी जमाई है इन पर्। कभी बात किजिएगा आप को भी गुर बता देंगें…।:)

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  26. आत्मविश्लेषण की प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए इस बात से तो सहमत हूं और यह आत्मविश्लेषण अपने प्रति निर्मम हो कर होना चाहिए यह मानता हूं लेकिन यदि अति निर्मम हो गए तो सब कुछ व्यर्थ सा लगने लगेगा, आपके साथ यही होता दिख रहा है, कम से कम इस पोस्ट को पढ़कर तो लग रहा है।

    आशा है जल्द ही इस मन:स्थिति से निकल जाएंगे।

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  27. क्या बोधि भाई
    ये तो वही बात हुई कि पहले सबसे दूर जाने की कोशिश कीजिए। सबसे अलग दिखने-जाने जाने की कोशिश कीजिए। सबसे थोड़ा बड़ा होने की कोशिश कीजिए। जब सब हो जाए तो, कहिए कि अब क्या तो, मैं अकेला हो गया। दिन-दिन भर जिन मित्रों के साथ आप बतियाने औ आज उनके कटियाने की बात कर रहे हैं। जरा बताइए ना उनसे बतियाते समय कित्ती बार अहसास कराते थे कि आप क्यों बंबइया हुए औ ऊ लोग क्यों इलाहाबादै में मरे जाइ रहे हैं। ई सब छोड़िए। जो, आप अच्छा कर सकते हैं। वही करिए। बधाई हो इस तरह की पोस्ट से सब सिर्फ टिप्पणी बटोरते थे। आपको तो, पूरी फौज मिल गई है।

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  28. २८ वीं टिप्पणी सिर्फ़ यह बताने के लिए कि हम भी आपके साथ हैं।

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  29. अरे अरे ..ज़रा ठहरिये तो ...
    वाकई आसपास सब अधकचरा ही है और ऐसा सोचते रहने की नियति है हम सब की ।
    सबके साथ यह कभी न कभी घटता है ..
    अगली पोस्ट में आप फिर सकारात्मक होंगे सवयमेव ही :)

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  30. khoob roomal batora bodhi bhaiya aapne, mhilaen bhi bichhi ja rhi hain lge rhiye.aansu bahane me bade maje re bhaiya...

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  31. रो रो के और इश्‍क में तुम पाक हो गए........

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  32. मुझे तो हमेशा लगता है कि मुझे कोई नही चाहता, तो फिर मै खुश हूँ, कम से कम ये उम्मीद तो न रही, अब सिर्फ अपने लिये जी सकते हूँ, क्यूँकि जब कोई चाहेगा तो उम्मीदे भी लगायेगा जब वो पूरी नही होंगी तो तकलीफ होगा, तो सारी तकलीफो से बच गयी।

    वैसे चाहना ना चाहना एक अजीब सी कशमश, एक दुसरे की जरूरत, हमे करीब लाती है, फिर उस जरूरत मे कुछ अलग सी उम्मीद भे जगती है, उम्मीदो पर जब रिश्ते खरे उतरते हैं तो चाहत बढ़ती है, जिस दिन उम्मीद् टूट जाती है, चाहत भी खत्म।

    ये अलग बात है कि कुछ लोगो कि जरूरत हमे जिन्दगी भर होती है, और जब तक वो रिश्ता हमारी जरूरतो पर खरा उतरता है, हमारी चाहत जिन्दगी भर बनी रहती है, और कई रिश्ते कुछ महीनो मे टूट जाते हैं।


    मेरे ख्याल से ज्यादा हो गया, माफी चाहती हूँ।


    बस इतना कहना है कि खुश रहिये, क्यूँकि हमे सबसे ज्यादा अपनी जरूरत होती है, खुद को प्यार किजिये और मस्त रहिये :)

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  33. "मैं किसी को प्रिय क्यों नहीं हूं" यह लिखना उन लोगों के साथ अन्याय करना है जिनके आप प्रिय हैं। चाहने वाले होंगे, कम या ज्यादा , लेकिन होंगे। हैं जी। इसीलिये हम आपके कहने पर टिपिया रहे हैं और आपके कहने पर एक लम्बी पोस्ट भी लिख दिये। नाम भले न दिया हो वहां लेकिन इस पोस्ट के लिखने के पीछे इस लेख का हाथ रहा। पढिये ये पोस्ट
    हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे!

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  34. यही तत्व है, जिसे हम तलाशते फ़िर रहे हैं:)
    मैं अगर वैसा होता, जैसा होना चाहा था, तो यकीन मानिये ऐसा ही होता।

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