Thursday, April 10, 2008

तिब्बत को देश मानने का साहस है क्या

अनिल कुमार सिंह हिंदी के उन कुछ कवियों में से हैं जो बेहद कम लिख कर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। वे मेरे भूत पूर्व मित्र रहे हैं...और मित्रता का स्मरण रस अभी भी कभी-कभी मित्रता का गाढ़ा नशा पैदा करता है...उन्हें उनकी कविता अयोध्या १९९१ पर भारत भूषण अग्रवाल और उनके कविता संग्रह पहला उपदेश पर केदार नाथ अग्रवाल सम्मान प्राप्त है और आजकल वे फैजाबाद के एक महाविद्यालय में हिंदी की बिंदी ठीक कर रहे हैं...। उनके संग्रह पहला उपदेश की एक झलक यहाँ देख सकते हैं... चाह कर भी मैं अनिल की कोई फोटू नहीं साट पा रहा हूँ...पढ़े उनकी एक कविता जो कि तिब्बत पर उनका अपना पक्ष रखती है। वैसे आजकल वे अपनी इस कविता से सहमत नहीं है। ऐसा उन्होंने फोन पर हुई बात में बताया है।

तिब्बत देश

आम भारतीय जुलूसों की तरह
ही गुजर रहा था उनका हुजूम भी
‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे
लगाता हुआ हिन्दी में

वे तिब्बती थे यक़ीनन
लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का
विदेशी तरीका था शायद
नारों ने भी बदल ली थी
अपनी बोली

एक भिखारी देश के नागरिक को
कैसे अनुभव करा सकते थे भला
वे बेघर होने का सन्ताप ?

अस्सी करोड़ आबादी के कान पर
जुओं की तरह रेंग रहे थे वे
पकड़कर फेंक दिए जाने की नियति से बद्ध
दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का
यही हश्र होना था आखिर !

दर-बदर होने का दुख उन्हें भी है
जो गला रहे हैं अपना हाड़
तिब्बत की बर्फानी ऊँचाइयों पर
उन्हें दूसरी बोली नहीं आती
और इसीलिए उनकी आहों में
दम है तुमसे ज़्यादा
दलाईलामा !

वे मुहताज नहीं है अपनी लड़ाई के लिए
तुम्हारे या टुकड़े डालने वाले
किन्हीं साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के
वे लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए तिब्बत में रहकर ही
जो धड़कता है उनकी पसलियों में
तुम्हारे जैसा ही
कोई क्या बताएगा उन्हें
बेघर होने का सन्ताप दलाईलामा !

11 comments:

  1. वैसे यह सवाल जवाहर लाल नेहरू और उनके उत्तराधिकारियों से भी किया जाना चाहिए.

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  2. इस समय में, जिसमें हिन्दी के तमाम वरिष्ठ व युवा लेखक आत्ममुग्धता से भरे हुए हैं, अगर थोड़ा अलग हटकर अनिल जी अपने ही लिखे हुए से असहमति जताते हैं तो यह बात मायने रखती है
    मैं उनका समर्थन करता हूं

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  3. पता नहीं, मैं कल्पना करता हूं - ल्हासा में तेल अवीब की। इज्राइल उठ सकता है सपनों में से - दुनियां में फैले यहूदियों के स्वप्नों से। और जब बन जाता है तो तेल पर तैरते बादशाहों को कंपकंपी छूटती है।

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  4. ज़बर्दस्त है कविता,आपका सधन्यवाद

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  5. दमदार कविता, परिवर्तन में अन्दरूनी ताकत ही मुख्य भूमिका अदा करती है। दलाई लामा केवल स्वायत्तता मांगते हैं। वे नहीं मांगते एक देश।

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  6. बोधि जी, अगर अपनी टिपण्णी में आप यह भी बताते की अनिल जी अपनी इस पुरानी कविता के किन मुद्दों पर आज असहमत हैं और उसकी वजह क्या है तो तो एक कवि के विकास को समझाने में मदद मिलती।

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  7. अरुण भाई
    आप सही कह रहे हैं...किंतु अपनी कविता से सहमति असहमति के बिंदु तो अनिल सिंह ही ठीक से रख सकते हैं...उन्हें ही ऱखने दिया जाए...

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  8. पेचीदा मसला है - इस तरह का आन्दोलन / संघर्ष - मैं भी असहमत हूँ वैचारिक तौर पर, अगर यह "तुमसे भले वो" कहती है - लेकिन उन्होंने अपनी तब की बात अपने तर्क से ज़ोर से कही है, उसकी प्रशंसा - कविता कोष पते का शुक्रिया- . क्या "हम उम्र दोस्त के प्रति कविता" आपके लिए लिखी है ? [हैं तो आपके हम उम्र ही ]. - साभार - मनीष

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  9. मनीष भाई
    तिब्बत कविता के बारे में सवालों का और एक हम उम्र दोस्त कविता किसके लिए है इसका उत्तर भी इसके कवि ही देंगे...

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  10. एक भूतपूर्व मित्र की भूतपूर्व कविता पढ़वाने का शुक्रिया। यह कविता भी कवि की भूतपूर्व पसंद थी यह भी जाना।
    कविता अच्छी थी, पर इसकी भूमिका को पढ़ चुकने के बाद कदम कदम पर ठिठकता रहा- इस और उस ओर के तिब्बतियों के चेहरे जो पढ़ने थे । पर हर बार कुछ स्वार्थी चेहरे बीच में ख़लल डालते रहे।
    कोई अभूतपूर्व टिप्पणी लिख डालूं इससे पहले ही नमस्कार कर लूं...

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  11. बोधि दादा,कवि कोई स्थिर तालाब तो है नहीं जो बहेगा नहीं और हमेशा अपनी पुरानी सोच पर छिपकली की तरह चिपका रहे यदि अनिल जी की राय उनके अनुभवों से बदली है और वे स्वीकारते हैं तो ये उनकी निजता है उन्हें कटघरे में न लाया जाए कि पहले ऐसा क्यों लिखा था इसका स्पष्टीकरण दीजिये.....

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