Sunday, April 20, 2008

याद आई वह लड़की


चिंह्न बचे होंगे क्या

याद आई वह लड़की
जिसकी अभिलाषा की थी कभी
याद आया
एक पेड़ के पैरों में जलता
निर्बल दिया ।

वे रातें
जिन्हें हम भुने आलू की तरह
जेबों में भरकर सो जाया करते थे
वे जगह-जगह जली हुई
चटख रातें
नमकीन धूल से भरी हमारी नींद
और वे तारे जो गंगा के पानी में
ठिठुरकर जलते रहते थे ।

कहीं गवाँ आया हूँ
इन सबको ।

ऎसा लगता है कि मेरे पास
कभी कुछ था ही नहीं
ऎसे ही खाली थी जेब
जी ऎसे ही फटा है पहले से ।

गंगा से इतना विमुख हो चला हूँ
कि जैसे उससे कोई नाता ही न हो
उसका रस्ता तक भूल गया हूँ
जैसे उसके तट तक
मझधार तक जाना न होगा कभी !

और वह लड़की
जो मेरे लिए थी स्लेट की तरह काली-कोरी
पड़ी होगी कहीं
किसी घर के कोने में
किसी विलुप्त हो चुके बस्ते की स्मृति में,
टूटकर उस पर
जो कुछ मैंने लिखा था कभी
उसके चिह्न बचे होंगे क्या
अब तक ।

नोट- इस कविता में कुछ संशोधन कवि-पत्रकार और अब ब्लॉगर विजय शंकर चतुर्वेदी के सुझाव पर किए गए थे। यहाँ मैं इसे कविता कोश से साभार छाप रहा हूँ।

10 comments:

  1. यादें ही हैं। दुख बहुत देती हैं। न चाहने पर भी चली आती हैं।
    हमें भी ये कष्ट बहुत होते हैं।

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  2. 'नमकीन धूल से भरी हमारी नींद
    और वे तारे जो गंगा के पानी में
    ठिठुरकर जलते रहते थे ।'

    वाः!वाः! कलावादियों को इन पंक्तियों से सीखना चाहिए कि श्रम और कला को किस तरह सांड को गिराकर नमक खिलाने की तरह साधा जाता है.
    मुझे यह मुगालता हरगिज नहीं है कि अशोक वाजपेयी एंड संस मेरी इस पंक्ति से झुककर दोहरे हो जायेंगे. बहरहाल...

    और भाई तुमने मुझे विलावजह इतना श्रेय दे दिया है. तुम समझो कि मैंने चंद अल्फाज़ ही सुझा दिए थे. यह तुम्हारा बड़प्पन है.

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  3. मत याद करो भाई इतनी शिद्दत से...हमें भी तो तकलीफ होती है...ये जानते हो न!!!

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  4. कविता कोष में ही पढी थी -पहली बार शिरीष के ब्लॉग से जा कर - बड़ी अकेली कविता रही, खाली को उकेर कर देने वाली - जैसे आस पास घनी भीड़ हो तब भी हाल चाल समझने का कोई न हो - धन्यवाद - मनीष

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  5. विजय तुम्हें याद होगा यह कविता मैंने तुम्हें कांदिवली स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर एक पर रात के करीब 2 बजे सुनाई थी...बात है अप्रैल 1999 की...तुमने कहा कि काली स्लेट की जगह कोरी कर दो ...मैंने काली भी रखी और कोरी भी....
    और भाई आभारी तो हूँ...लेकिन धन्यवाद नहीं दे रहा हूँ...

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  6. ये काली कोरी स्लेटें चाहे जहाँ भी बस रही हों, अपनी चाहत करने वाले के बस्तों में या फिर किसी और के, रह तो सदा ही कोरी ही जाती हैं । अब उन्हें स्वयं ही स्वयं को रंगना सीखना होगा, अन्यथा सबकुछ होकर भी कोरेपन से सदा अभिशप्त रहेंगी ।
    घुघूती बासूती

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  7. और वह लड़की
    जो मेरे लिए थी स्लेट की तरह काली-कोरी
    पड़ी होगी कहीं
    किसी घर के कोने में
    किसी विलुप्त हो चुके बस्ते की स्मृति में,
    टूटकर उस पर
    जो कुछ मैंने लिखा था कभी
    उसके चिह्न बचे होंगे क्या
    अब तक ।

    बहुत खूबसूरत पंक्तियां हैं बोधि जी

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  8. घुघूती जी रंगना तो और के ही रंग में होगा....तभी चलेगा....बिना श्याम रंग रंगे...तो किसी की भी जिंदगी में एक अलग कथा शुरू हो जाएगी...अपने रंग रंग के क्या होगा...

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  9. अद्भुत कविता बोधि भाई !
    हम सबकी जिंदगियां शायद कहीं न कहीं एक जैसी ही हैं और ऐसा ही उन्हें होना भी है !

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  10. आपका लिखा पढ़ने का मौका नहीं मिला कभी, मगर नाम सुना था… जबतक दिल्ली में था पत्रिकाओं से बचता रहा और वर्तमान में जो भी लिखा जा रहा है उससे जुड़ नहीं पाया इस कारण से। अब ब्लोग्स पर आने के बाद ढूंढ-ढूंढकर अच्छे पोस्ट पढ़ता हूँ। आपकी तरह शास्त्रीय या लोकप्रिय के फ़ेर में नहीं पड़ूंगा मगर हाँ स्तरहीन कुछ भी पड़ने से मुझे सख़्त गुरेज़ है, फ़िर चाहे वो आप जैसा सम्मानित लेखक ही क्यों न लिखे। इसी मौज में एक बार मोहन राकेश की डायरी उठाकर पटक दी थी… यह सब इस पोस्ट पर इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि मुझे यह कविता विशेष रूप से पसंद आयी… सोचा सारी बातें एक ही जगह कहता चलूं। कुछ एक आपके पोस्ट पढ़कर मुझे मोहन राकेश की डायरी वाली खीझ हुई। विशेषकर साहित्य और ब्लोगिंग वाली पोस्टस पढ़कर। किसी की छीछालेदर के लिये न तो ब्लोग का अविष्कार हुआ है न ही लेखन का… राजेन्द्र यादव को पढ़ने से इसीलिये हिचकता हूं कि वहां लेखन के दम पर कईयों के कपड़े उतारे जाते हैं। कहीं पढ़ा था बरसों पहले, "Never argue with a fool. People might not know the difference." क्या आप वे पोस्टस डालने से पहले इस वाक्य पर विचार नहीं करते? क्षमा चाहता हूँ… पहली बार आकर ही कटघरे में खड़ा कर रहा हूँ। आपकी वे सारी पोस्टस और दूसरे लोगों की सम्बंधित पोस्टस पढ़ता रहा हूँ और टिप्पणी करने से बचता रहा हूँ, फ़िर भी आपसे कह रहा हूँ। मुझे लगा ऐसा करके आप अपना कद छोटा कर रहे हैं।
    आपसे उम्र में पाँच-एक साल छोटा हूँ और अनुभव में संभवत: उससे भी छोटा किंतु फ़िर भी मुझे लगा कहने में कोई हर्ज़ नहीं है। क्षमा पहले से ही प्रार्थनीय है यदि आपको मेरे कथन में कोई गलती लगती हो तो।
    शुभम।

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