Tuesday, May 20, 2008

ब्लॉग जगत में भी दुर्दशा के शिकार साहित्यकार

साहित्यकारों की दुर्दशा क्यों भाइयों...

हिंदी के जमें जमाए साहित्यकार ब्लॉग की दुनिया में भी पटखनी खाए पड़े हैं...तो दूसरी ओर वे ब्लॉगर जम कर पढ़े और सराहे जा रहे हैं जो साहित्यकार नहीं रहे हैं...यहाँ किसी साहित्यकार ब्लॉगर का नाम लेकर मैं किसी का दिल नहीं दुखाना चाहता लेकिन जितना तीन ब्लॉगर यानी फुरसतिया, उड़नतश्तरी और शिव कुमार मिश्र का ब्लॉग पढ़ा जाता है उतने ही पाठक संख्या में सारे साहित्यिक ब्लॉगर सिमट जाते हैं....आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है...एक से एक धुरंधर लेखक जब ब्लॉग पर अपनी पोस्ट छापता है तो उसे पाठकों के लाले क्यों पड़ जाते हैं...टिप्पणियाँ उसकी पोस्ट का रास्ता भूल जाती है...पसंद होना तो सपना है...
मुझे निजी तौर पर यह लगता है कि साहित्यकार ब्लॉगर अपने अतीत के गौरव से इतना दबा होता है कि वह मुस्कराना तक भूल जाता है....हर पल उसे यह लगता रहता है कि मैं तो फलाँ हूँ और मुझे सामान्य या सहज सरल बात करना शोभा नहीं देता....मैं तो गंभीर लेखन के लिए ही अवतरित हुआ हूँ....और वह अपने जबड़े को भींच कर लगातार एक से बढ़ कर एक उबाऊ पोस्ट ठेलता जाता है....और उसके आसपास कुछ गिने चुने पुराने परिचित पाठक ही फर्ज अदायगी में आते रहते हैं....और बह साहित्यकार ब्लॉगर गदगद भाव से अपने ब्लॉग को निहारता रहता है.......
मन में आया तो कभी कोई कविता छाप दी....फिर कुछ गद्यनुमा लिख दिया फिर कुछ पद्य नुमा छाप दिया .....साहित्य की दुनिया की तरह उसे असल में अपने पाठकों की पड़ी ही नहीं है.....पाठक गए भाड़ में मैं तो अपने मन की ही करूँगा......कुछ ऐसे ही भाव लेकर डूबता-उतराता रहता है...साहित्यकार ब्लॉगर.....
यह मेरा अपना आकलन है हो सकता है मैं पूरी तरह सही न भी होऊँ....पर मुझे लगता है कि ब्लॉग जगत में साहित्यकारों की दुर्दशा का कारण ऐसा ही कुछ होगा...

19 comments:

  1. बोधि भाई

    आभार के सिवा क्या कहूँ. आप ही से सब बना हुआ है और आभा भाभी की दुआयें तो हैं ही. :)

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  2. बड़ा लफ़ड़े वाली बात कह दी। :)

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  3. बड़ा लफ़ड़े वाली बात कह दी। :)

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  4. नाम ले लेते तो थोड़ा और मज़ा आता. फ़िर भी बात खरी है.

    और हाँ, नया लेआउट तो धाँसू लग रहा है भाई! कैसे किया?

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  5. आपका कथन सत्य तो है किंतु इसका कारण यह भी है कि हिन्दी ब्लॉगिंग में लीक पर लिकने वाले लेखक हैं और लीक पर पढने वाले पाठक भी...जितनी आवश्यकता अच्छे ब्ळोग्स का इस जमात में सम्मिलित होना है उतनी ही आवश्यकता हिन्दी के पाठको को खींचना भी है इस जगत की ओर...धीरे धीरे माहौल सुधरेगा।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

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  6. आपने कहाः
    "साहित्य की दुनिया की तरह उसे असल में अपने पाठकों की पड़ी ही नहीं है.....पाठक गए भाड़ में मैं तो अपने मन की ही करूँगा......कुछ ऐसे ही भाव लेकर डूबता-उतराता रहता है...साहित्यकार ब्लॉगर....."
    मैं आपकी बातो से आंशिक सहमत हूँ।उपर लिखी बात सत्य नहीं,ज्ञानरंजन जी कहते है,"साहित्यकार समय के प्रवाह में डूबता उतराता है,रचता है,तभी पढा जाता है।"अतः पहली बात तो यह कि, या तो साहित्यकारो के ब्लाँग (हाँलाकि आपने किसी का नाम नहीं लिखा) इस प्रक्रिया का पालन नहीं करते? और किसी अन्य मनोभावो में डूबते उतराते है।दुसरी बात उडनतश्तरी के पढे जाने की तो,समीर जी न सिर्फ ज्ञान जी की बताई प्रक्रिया का पालन करते है।जो कुछ वह लिखते है,साहित्य ही तो है।साहित्य कोई आसमानी चीज तो है,नही।इसके अतिरिक्त समीरजी एक आदोलन है,नए ब्लागर्स के लिए मापदंड भी।फुरसतिया अभी नही पढा।हाँ,आप जिन साहित्यकारो की बात कर रहे है,अलबत्ता वो "आसमानी साहित्यकार"हो सकते है।

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  7. अच्छी बहस है। और सत्य भी।
    बाकी "पटखनी खाने वाले" तो शब्द का व्यंजन बना रहे हैं।
    ब्लॉग शब्द की पाकशाला नहीं, शब्द की लिंकशाला है - मेखला या नेटवर्क!

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  8. सत्य बात कह रहे हैं।

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  9. बड़ी दारून स्थिति है..हंसी भी नहीं आ रही..साहित्यकार के नाम पर ब्लॉग जगत में कुछ ही तो हैं जो उंगली पर गिने जा सकते हैं.... यहां पर पाठक आम तो नहीं ही है, एक पढ़ा लिखा वर्ग ही तो आपका लिखा पढ़ता है....जिनका अपना ब्लॉग भी है....तब तो साथी सरल साहित्य के चक्कर में मुक्तिबोध का नाम मिटा मत दीजियेगा क्यौकि मुक्तिबोध कभी मुझे आसान नहीं लगे तो क्या उनको समझना छोड़ दें?समाज और ज़्यादा जटिल होता जा रहा है...तो बहुत से संदर्भों में जटिलता भी अपेक्षित है...अभिव्यक्ति के स्तर पर अगर आप मार्डन आर्ट को भी देखें तो एक स्तर के बाद वो भी जटिल दिखाई देता है,अरे बहुत सी फ़िल्में, बहुत नाटक बहुत सी रचनाएं समझ में नहीं आती ...तो क्या हम उसे नकार दें...आपका ब्लॉग भी तो एक अभिव्यक्ति का माध्यम है, कोई अभिव्यक्ति अगर क्लिष्ट होती भी है तो, वो हमारी व्यक्तिगत समस्या भी हो सकती है ज़रूरी नहीं कि समान्यीरण किया जाय....

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  10. किस साहित्यकार की फिक्र कर रहे हैं बोधि भाई ?
    उसे अपने दंभ के गली-मोहल्ले में ही जीने दीजिए...
    उतना मासूम नहीं है ये साहित्यकार नाम का जीव , अक्सर जितना उसे समझ लिया जाता है। एक बार साहित्यकार का ठप्पा लगने (या लगवाने के बाद) काफी टेढ़ा-टेढ़ा हो जाता है ये।

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  11. जो हित सहित हो वो ही साहित्य है .पर हितकर बातें समझ से परे हो तो इसे साहित्य नही आहित्य कहा जाना चाहिए क्योंकि आहत करता है . आपकी सोलह आने सही बातों [ब्लॉग समाज का दर्पण } को साहित्य क्यों न माना जाय ! बड़का लोग कहे हैं कि "साहित्य समाज का दर्पण होता है " .

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  12. बोधि भाई, हमारे ब्लॉग को भी पढ़ा जाता है, ये जानकर प्रसन्नता हुई. सबकुछ आप तथा अन्य बंधुओं की कृपा है.
    जहाँ तक साहित्यकारों के ब्लॉग पर पाठक संख्या कम होने वाली बात है तो शायद ये इसलिए भी हो सकता है कि साहित्यकार बहुत बड़े दायरे, बहुत बड़े समय और आनेवाली कई पीढ़ियों को प्रभावित करने की धारणा लिए लिखते हैं. उनका लिखा हुआ वर्तमान से आगे जाकर कई युगों तक चलता है. और ये बात एक सामान्य ब्लॉगर के लिए नहीं कही जा सकती. ब्लॉगर वर्तमान को ध्यान में रखकर लिखता है.

    लेकिन यहाँ एक बात जरूर कहना चाहूंगा. शास्वत लिखने की धारणा को त्यागना भी कभी-कभी वर्तमान युग के लिए अच्छा होता है. साहित्यकार को एक बार ऐसा करने पर विचार करना चाहिए.

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  13. main in sabhi ke katahn se sahmat hun---

    1-ज्ञानरंजन जी कहते है,"साहित्यकार समय के प्रवाह में डूबता उतराता है,रचता है,तभी पढा जाता है।"

    2-gyan dutt ji--ब्लॉग शब्द की पाकशाला नहीं, शब्द की लिंकशाला है - मेखला या नेटवर्क!

    3- shiv kumar ji-ब्लॉगर वर्तमान को ध्यान में रखकर लिखता है.

    4-vimal verma ji--
    ब्लॉग भी तो एक अभिव्यक्ति का माध्यम है, कोई अभिव्यक्ति अगर क्लिष्ट होती भी है तो, वो हमारी व्यक्तिगत समस्या भी हो सकती है ज़रूरी नहीं कि समान्यीरण किया जाय...

    har blog ke apne padhne wale hain--har kisi ka apna taste aur ruchi hai---
    sahityakaron ke blogs yahan khuub padhey jaate hain.aur haann main to samjhti hun ki sirf pathak sankhya se aap ka mulyankan nahin hota---dekhna yah hota hai ki--pathak kaun hai--kya wakyee mein us ne aap ko padha bhi ya bas--dhnywaad kah kar chal diye???

    Sahitykaar ucch shreni ke vyakti hote hain we quality dekhte hain pathakon ki quantity nahin--'' AISA MERA MANna hai....
    dhnywaad...

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  14. बहुत सही विश्लेषण किया है आपने!!
    सहमत हूं!!

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  15. बोधि जी, आत्म-साक्षात्कार बड़ा मुश्किल काम है। शायद आपकी पोस्ट पढ़कर साहित्यकारों को आत्म-निरीक्षण की प्रेरणा मिले। अगर उनमें संवेदना बची होगी तो हो सकता है आत्म-साक्षात्कार भी हो जाए। वैसे, एक पत्रकार जो नेता नहीं बन पाए, एक ऐसा उपन्यास लिख रहे हैं जिसमें हर पैराग्राफ में उनके सामने महिलाएं बिना कपड़े के आ जाती हैं और उनकी नजर में ये पत्रकार महोदय बड़ी जानी-मानी शख्सियत हैं। उपन्यास गांधीवादी विचारधारा का गुणगान करता है। लेकिन इसे पढ़कर उल्टी आती है।

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  16. सही है . अभी-अभी एक टिप्पणी दे के आ रहा हूं . वही फिर से चेपता हूं . प्रासंगिक है . ब्रेख्त ने अपनी एक छोटी-सी कविता में लिखा है :

    " जनता सरकार का विश्वास खो चुकी है अब यही होगा आसान और सरकार के हित में भी कि वह जनता को भंग कर कोई दूसरी चुन ले।"

    अब जनता को चुनौती कौन दे . हाथीदांत की मीनार पर बैठे लेखकों को या तो नीचे उतर आना चाहिए या फिर नई जनता चुन लेनी चाहिए .

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  17. बोधिसत्व जी,
    आपकी चिंता का सबब साफ़ है,
    लेकिन आपने जिस गंभीर मुद्दे पर
    ये साहित्यिक चर्चा की है उसे पढने की तो
    होड़-सी देख रहा हूँ मैं !
    मेरे पहले क़रीब डेढ़ दर्जन
    टिप्पणियाँ दर्ज हो चुकी हैं.
    आपका लेखन तो
    साहित्य-संसार में सुपरिचित है.
    रहा सवाल ब्लॉग-जगत का
    तो मेरा स्पष्ट मत है कि
    साहित्यकार भी अगर विषय-चयन और
    प्रस्तुतीकरण के प्रति सजग हों
    आत्ममुग्ध होकर संतुष्ट न हो जाएँ,
    पाठकीयता का भी ध्यान रखें
    तो कोई वज़ह नहीं है कि लोग
    उनकी बस्ती से न गुजरें.
    और यह भी कि कोई गंभीर होकर
    हास्य का मज़ा ले सकता है
    तो कोई हास्य में भी गंभीर संदेश
    खोज निकलता है.
    ========================
    बहरहाल आपने बात पते की कही.
    आभार
    डा.चंद्रकुमार जैन

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  18. पते की बात कही है ।
    सवाल आत्‍ममुग्‍धता से बाहर निकलकर रोचकता का हाथ पकड़ने का है बोधि भाई ।
    हम आपके डेरे पर इसीलिए तो आते हैं ।
    कि आप जब जब आते हैं
    दूर की कौड़ी लाते हैं ।

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  19. क्षमा कीजिये, परन्तु साहित्यकारों के ब्लॉग की दुर्दशा के जितने भी कारण आपने गिनाये हैं वे सभी एक आम ब्लॉग के बारे में भी उतने ही सच हैं.

    और यह भी सच है कि एक आम साहित्यकार कंप्यूटर तकनीक विशेषकर "सर्च इंजन ओप्टीमाइज़ेशन" व ऑन-लाइन नेट्वर्किंग (मैं तुझसे लिंक करूं - तू मुझसे - भले ही टिप्पणी के द्वारा) से अपरिचित हैं. ऊपर से वे अपने प्रभाव की बदगुमानी में भी डूबे हुए हैं.

    वैसे भी हिन्दी में अगर अच्छा साहित्य पढा ही जाता होता तो सनसनीखेज़ पत्रिकाएं साहित्यिक साप्ताहिकों को मार न पातीं.

    सद्भावना सहित,
    एक अनुज.

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