गाँव की बात
वह बहुत पुरानी एक रात
जिसमें सम्भव हर एक बात,
जिसमें अंधड़ में छुपी वात,
सोई चूल्हे में जली रात,
वह बहुत पुरानी बिकट रात ।
जिसमें हाथों के पास हाथ,
जिसमें माथे को छुए माथ,
जिसमें सोया वह वृद्ध ग्राम,
महुआ,बरगद,पीपल व आम,
इक्का-दुक्का जलते चिराग
पत्तल पर परसे भोग-भाग ।
वह बहुत पुरानी एक बात,
जिसमें धरती को नवा माथ,
वो बीज बो रहे चपल हाथ,
वो रस्ते जिन पर एक साथ
जाता था दिन आती थी रात
वह बहुत पुरानी एक रात ।
Wednesday, February 28, 2007
कबित्त-बोधिसत्व
छोटा आदमी
छोटी-छोटी बातों पर
नाराज हो जाता हूँ ,
भूल नहीं पाता हूँ कोई उधार,
जोड़ता रहता हूँ
पाई-पाई का हिसाब
छोटा आदमी हूँ
बड़ी बातें कैसे करूँ ?
माफी मांगने पर भी
माफ़ नहीं कर पाता हूँ
छोटे-छोटे दुखों से उबर नहीं पाता हूँ ।
पाव भर दूध बिगड़ने पर
कई दिन फटा रहता है मन,
कमीज पर नन्हीं खरोंच
देह के घाव से ज्यादा
देती है दुख ।
एक ख़राब मूली
बिगाड़ देती है खाने का स्वाद
एक चिट्ठी का जवाब नहीं
देने को
याद रखता हूं उम्र भर
छोटा आदमी
और कर ही क्या सकता हूँ
सिवाय छोटी-छोटी बातों को
याद रखने के ।
सौ ग्राम हल्दी,पचास ग्राम जीरा
छींट जाने से
तबाह नहीं होती ज़िंदगी,
पर क्या करूँ
छोटे-छोटे नुकसानों को गाता रहता हूँ
हर अपने बेगाने को
सुनाता रहता हूँ
अपने छोटे-छोटे दुख ।
क्षुद्र आदमी हूँ
इन्कार नहीं करता,
एक छोटा सा ताना,
एक मामूली बात,
एक छोटी सी गाली
एक जरा सी घात
काफी है मुझे मिटाने के लिए,
मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ
हल्की हवा भी
बहुत है मुझे बुझाने के लिए।
छोटा हूँ, पर रहने दो,
छोटी-छोटी बातें
कहता हूँ-कहने दो ।
छोटी-छोटी बातों पर
नाराज हो जाता हूँ ,
भूल नहीं पाता हूँ कोई उधार,
जोड़ता रहता हूँ
पाई-पाई का हिसाब
छोटा आदमी हूँ
बड़ी बातें कैसे करूँ ?
माफी मांगने पर भी
माफ़ नहीं कर पाता हूँ
छोटे-छोटे दुखों से उबर नहीं पाता हूँ ।
पाव भर दूध बिगड़ने पर
कई दिन फटा रहता है मन,
कमीज पर नन्हीं खरोंच
देह के घाव से ज्यादा
देती है दुख ।
एक ख़राब मूली
बिगाड़ देती है खाने का स्वाद
एक चिट्ठी का जवाब नहीं
देने को
याद रखता हूं उम्र भर
छोटा आदमी
और कर ही क्या सकता हूँ
सिवाय छोटी-छोटी बातों को
याद रखने के ।
सौ ग्राम हल्दी,पचास ग्राम जीरा
छींट जाने से
तबाह नहीं होती ज़िंदगी,
पर क्या करूँ
छोटे-छोटे नुकसानों को गाता रहता हूँ
हर अपने बेगाने को
सुनाता रहता हूँ
अपने छोटे-छोटे दुख ।
क्षुद्र आदमी हूँ
इन्कार नहीं करता,
एक छोटा सा ताना,
एक मामूली बात,
एक छोटी सी गाली
एक जरा सी घात
काफी है मुझे मिटाने के लिए,
मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ
हल्की हवा भी
बहुत है मुझे बुझाने के लिए।
छोटा हूँ, पर रहने दो,
छोटी-छोटी बातें
कहता हूँ-कहने दो ।
Saturday, February 24, 2007
मेरी पसंद
कुछ शेर
भगवान तो बस चौदह बरस घर से रहे दूर
अपने लिए बनबास की मीआद बहुत थी । ज़फ़र गोरखपुरी
मुहब्बत, अदावत, वफ़ा, बेरुख़ी
किराए के घर थे, बदलते रहे । बशीर बद्र
भगवान तो बस चौदह बरस घर से रहे दूर
अपने लिए बनबास की मीआद बहुत थी । ज़फ़र गोरखपुरी
मुहब्बत, अदावत, वफ़ा, बेरुख़ी
किराए के घर थे, बदलते रहे । बशीर बद्र
साल भर में क्या उखाड़ा...पता नहीं...
ब्लॉगमारी के एक साल
(सब दोस्तों को सलाम, कल से मैं अपनी विनय-पत्रिका शुरू कर रहा हूँ.......पढ़ो और बताओ...... इसे शुरू करवाने के पीछे हैं अविनाश, अभय तिवारी, चैताली केलकर,अनिल रघुराज....और मैं खुद...नामकरण आभा ने किया है.......)
2 टिप्पणियाँ:
अभय तिवारी said...
स्वागत है...अंदर की छपास की आग को फ़टाफ़ट ठंडा करते हुये ब्लॉग की दुनिया मे आग लगाते रहो।
February 24, 2007 2:48 AM
Sanjeet Tripathi said...
ब्लॉग-जगत में आपको देखकर खुशी । शुभकामनाएँ
यह मेरी पहले दिन की पहली पोस्ट थी...और उसपर मिली थी अभय भाई और संजीत जी की टिप्पणियाँ...आज एक साल पूरा हो गया....है विनय पत्रिका शुरू किए...। ऐसे दिन मैं अपनी पहले दिन प्रकाशित कुछ चिंदियों को फिर से छाप रहा हूँ...आपने उन्हें फिर से पढ़ें...।
कुछ दोहे
( ये दोहे कभी किसी ने मुझे भेंजे थे, नाम उसका शायद नवल किशोर था । आप भी इन्हें पढ़ें और .....)
उठते हुए गुबार में, काले - दुबले हाथ,
बुला-बुला कर कह रहे, चलो हमारे साथ ।
घुलते- घुलते घुल गई, कैसे उसकी याद,
कौन सुने किससे करें, सुनने की फरियाद ।
दिन डूबा गिरने लगी, आसमान से रात,
एक और भी दिन गया, बाकी की क्या बात ।
सूरज के आरी-बगल, धरती घूमें रोज,
अपने कांधे पर लिए मेरा-तेरा बोझ ।
पसंद के कुछ शेर
भगवान तो बस चौदह बरस घर से रहे दूर
अपने लिए बनबास की मीआद बहुत थी । ज़फ़र गोरखपुरी
मुहब्बत, अदावत, वफ़ा, बेरुख़ी
किराए के घर थे, बदलते रहे । बशीर बद्र
विनय पत्रिका का मूल्यांकन आज नहीं कभी फिर....हाँ आप कर सकते हैं...कि मैंने क्या किया क्या करूँ...
(सब दोस्तों को सलाम, कल से मैं अपनी विनय-पत्रिका शुरू कर रहा हूँ.......पढ़ो और बताओ...... इसे शुरू करवाने के पीछे हैं अविनाश, अभय तिवारी, चैताली केलकर,अनिल रघुराज....और मैं खुद...नामकरण आभा ने किया है.......)
2 टिप्पणियाँ:
अभय तिवारी said...
स्वागत है...अंदर की छपास की आग को फ़टाफ़ट ठंडा करते हुये ब्लॉग की दुनिया मे आग लगाते रहो।
February 24, 2007 2:48 AM
Sanjeet Tripathi said...
ब्लॉग-जगत में आपको देखकर खुशी । शुभकामनाएँ
यह मेरी पहले दिन की पहली पोस्ट थी...और उसपर मिली थी अभय भाई और संजीत जी की टिप्पणियाँ...आज एक साल पूरा हो गया....है विनय पत्रिका शुरू किए...। ऐसे दिन मैं अपनी पहले दिन प्रकाशित कुछ चिंदियों को फिर से छाप रहा हूँ...आपने उन्हें फिर से पढ़ें...।
कुछ दोहे
( ये दोहे कभी किसी ने मुझे भेंजे थे, नाम उसका शायद नवल किशोर था । आप भी इन्हें पढ़ें और .....)
उठते हुए गुबार में, काले - दुबले हाथ,
बुला-बुला कर कह रहे, चलो हमारे साथ ।
घुलते- घुलते घुल गई, कैसे उसकी याद,
कौन सुने किससे करें, सुनने की फरियाद ।
दिन डूबा गिरने लगी, आसमान से रात,
एक और भी दिन गया, बाकी की क्या बात ।
सूरज के आरी-बगल, धरती घूमें रोज,
अपने कांधे पर लिए मेरा-तेरा बोझ ।
पसंद के कुछ शेर
भगवान तो बस चौदह बरस घर से रहे दूर
अपने लिए बनबास की मीआद बहुत थी । ज़फ़र गोरखपुरी
मुहब्बत, अदावत, वफ़ा, बेरुख़ी
किराए के घर थे, बदलते रहे । बशीर बद्र
विनय पत्रिका का मूल्यांकन आज नहीं कभी फिर....हाँ आप कर सकते हैं...कि मैंने क्या किया क्या करूँ...
भिखारी रामपुर के किस्से
पहला बयान
बात पुरानी है पर, तब की जब मैं कोई 6 या 7 साल का था यानि 1975-76 की, तब मैं हर चीज से डरता था, रात से रास्तों के सन्नाटे से, ऊँचे पेड़ों से,यहाँ तक कि अंधेरे और घने बगीचे तक डराते थे मुझे । कोई नहीं था जो इन तमाम डरों से मुझे बचाता.....मैं एक डरा हुआ बच्चा था....तभी मुझे मेरा हनुमान मिल गया, मेरे तमाम डरों को खाक में मिलाते हुए मेरे जीवन में आए बबलू भैया...। वे मेरे पहले हीरो थे...मेरे पहले मसीहा....उन्होने मुझे रात के अंधेरे में दूर तक देखना सिखाया, रास्तों के सन्नाटे को अपनी चीख पुकार से भरने की जुगत बताई, ऊँचे पेडों पर चढ़ने और उतरने का गूढ़ ज्ञान दिया, अंधेरे और घने बगीचों को छुपने और घरवालों की पिटाई से बचने के लिए एक दुर्ग में बदलने का मंतर दिया,
बबलू भैया की तमाम सीख आज भी दुनिया के अंधेरे में निडर घूमने की ताकत देते हैं । सो आदि गुरु बबलू भैया की जय हो....
बबलू भैया मुझसे 18 महीने बड़े थे, लेकिन वे मुझसे एक ही दर्जा आगे थे, स्कूल में उनका नाम था सत्य प्रकाश मिश्र और और स्कूल के पहले और बाद में सिर्फ एक ही एजेंडा होता था उनका, किसी एक टीचर को पीटना । इस पिटाई को वे एक खेल की तरह लेते थे, और खुश रहते थे ।
यह बात शायद पहलीबार जगजाहिर हो रही है बबलू भैया इस रहस्य को खोलने की जो भी सजा देंगे मंजूर करूंगा......
पहला बयान
बात पुरानी है पर, तब की जब मैं कोई 6 या 7 साल का था यानि 1975-76 की, तब मैं हर चीज से डरता था, रात से रास्तों के सन्नाटे से, ऊँचे पेड़ों से,यहाँ तक कि अंधेरे और घने बगीचे तक डराते थे मुझे । कोई नहीं था जो इन तमाम डरों से मुझे बचाता.....मैं एक डरा हुआ बच्चा था....तभी मुझे मेरा हनुमान मिल गया, मेरे तमाम डरों को खाक में मिलाते हुए मेरे जीवन में आए बबलू भैया...। वे मेरे पहले हीरो थे...मेरे पहले मसीहा....उन्होने मुझे रात के अंधेरे में दूर तक देखना सिखाया, रास्तों के सन्नाटे को अपनी चीख पुकार से भरने की जुगत बताई, ऊँचे पेडों पर चढ़ने और उतरने का गूढ़ ज्ञान दिया, अंधेरे और घने बगीचों को छुपने और घरवालों की पिटाई से बचने के लिए एक दुर्ग में बदलने का मंतर दिया,
बबलू भैया की तमाम सीख आज भी दुनिया के अंधेरे में निडर घूमने की ताकत देते हैं । सो आदि गुरु बबलू भैया की जय हो....
बबलू भैया मुझसे 18 महीने बड़े थे, लेकिन वे मुझसे एक ही दर्जा आगे थे, स्कूल में उनका नाम था सत्य प्रकाश मिश्र और और स्कूल के पहले और बाद में सिर्फ एक ही एजेंडा होता था उनका, किसी एक टीचर को पीटना । इस पिटाई को वे एक खेल की तरह लेते थे, और खुश रहते थे ।
यह बात शायद पहलीबार जगजाहिर हो रही है बबलू भैया इस रहस्य को खोलने की जो भी सजा देंगे मंजूर करूंगा......