Wednesday, March 26, 2008

मुंबई में इलाहाबाद की खोज

मुंबई में इलाहाबाद की खोज

जब तक इलाहाबाद में रहा तब तक वहाँ अपने गाँव को खोजता रहा...अब मुंबई में हूँ तो यहाँ गाँव और इलाहाबाद दोनों को खोज रहा हूँ....और दोनो नहीं मिलते...।
इलाहाबाद से गाँव नजदीक था तो मौका मिलते ही चंपत हो लेता था...मेरे लिए गाँव जाना घरूमोह की तरह नहीं था...मैं गाँव जाता था....क्योंकि वहाँ गए बिना कोई चारा नहीं था....मैं यहाँ किसी तरह की सफाई देने नहीं आया हूँ कि मैं बड़ा गाँव भक्त और देशी टाइप का आदमी हूँ....मेरी आत्मा पल -पल गाँव के लिए तड़पती है यह कहने के लिए भी यहाँ हाजिर नही हुआ हूँ....

बस गाँव की याद आ रही है....गाँव के वो पेड़ याद आ रहे हैं जो एक-एक कर गिरते जा रहे हैं....मिठवा भी गिर गया, माँ बता रही थी.....संतरहवा भी कभी भी गिर सकता है....सेन्हुरहवा भी सूख गया....अमवारी लगभग खाली हो गई है...वही हाल महुआरी का भी है...सब कुछ सूख रहा है गाँव में और मैं लगभग १५०० किलोमीटर दूर बैठा केवल गाँव को याद कर रहा हूँ....उसके बारे में लिख रहा हूँ...
कभी। मैंने अपनी एक कविता में लिखा था कि मेरी कजरारी सीपी सी आँखों में बसा है मेरे गाँव का नक्शा...२२ साल बीत गए हैं गाँव को छोड़े पर आज भी मेरी आँखों में बसा है मेरा गाँव। १९८६ के मार्च अप्रैल में गाँव से विदा विदाई की स्थिति बननी शुरू हुई थी....जून में जाकर यह तय हो गया कि मैं इलाहाबाद जाऊँगा...पढ़ने....और गाँव छूट गया....

और जो चीज अनचाहे छूटती है वह बहुत याद आती है...

इस समय वहाँ आम बौरा गए होंगे....टिकोरे हवा की मार रहे से कभी कदा धरती पर आभी जाते होंगे...कोयल की कूक गूँजती होगी.....उस कूक की हूक मैं यहाँ तक सुन रहा हूँ....खलिहान में साफ सफाई हो रही होगी....गेहूँ कटेंगे....मड़ाई के उत्साह से मन मगन होगा और खलिहान के ऊपर बादल का एक छोटा टुकड़ा भी सब को डरा जाता होगा....

किसान का बेटा हूँ....हल चलाया है ....बीज बोए हैं...खेत तक अपनी मेहनत से पानी पहुँचाया है...जाग कर अपने खेतों की रखवाली की है...छुट्टे साड़ों को खेतों से खदेड़ा है...मेंड़ पर खड़े रह कर सिर्फ खेतों के नजारे नहीं लिए हैं....हंसुआ पकड़ कर गेहूँ-धान और गड़ासे - दराती से गन्ना अरहर काटा है....अरहर की खूठियों ने पैरों में न जाने कितने घाव किए....और हमने सब सहा.....

भाषा के व्याकरण से अधिक जीवन के छंद से लड़ना पड़ा है....और गा की याद उस लड़ाई की याद है जो अभी भी जारी है....वह मेरे अतीत की समाधि अभी नहीं बनी है....अभी उसको श्रद्धांजलि देने का समय नहीँ आया है....कोयल की कूक यहाँ भी सुनाई पड़ जाती है....पर वह किस पेड़ पर है यह नहीं समझ में आता....कल भोर में यहाँ कोई कोयल कूकती रही....मैं परेशान हो गया कि यह कहाँ कूक रही है...क्या यहाँ भी.....कोई गाँव है....अगर मैं परदेशी हूँ तो यह गाँव किसी का तो होगा....वे कौन लोग हैं....जिनके गाँव में मैं बस गया हूँ....मुंबई में मेरा घर चारकोप गाँव में पड़ता है.......पर यहाँ तो अब केवल कागज में गाँव लिखा है....मुंबई में कई गाँव हैं....जैसे गोरे गाँव, नाय गाँव, तो ठाकुर विलेज है...

रात में कूकने वाली उस कोयल को नहीं पता होगा कि वह जहाँ कूक रही है...वह अब गाँव नहीं एक महानगर का भाग है....और उसके इलाके में बहुत सारे परदेशी आ बसे हैं....नागरिकता ले ली है...और भगाए जाने पर भी भागने को राजी नहीं हैं....शायद चारकोप गाँव के मूल लोग जान पाते होंगे कि वह कोयल किस पेड़ पर हूक रही थी....या कूक रही थी....

सच बात है अपने गाँव के हर कोने अतरे से हम परिचित होते हैं....यहाँ तो दूसरी बिल्डिंग के लोगों को अब तक नहीं जान पाया हूँ और शायद जान भी न पाऊँ.....पर गाँव भिखारी राम पुर या इलाहाबाद तक में ऐसा नहीं था.....वहाँ भी अल्लापुर के बाघम्बरी गद्दी में पंछियों के कलरव अपने थे...वहाँ भी...बहुत सारे घरों की छौकन बघारन पहचानी सी थी...किस लड़की को देखने किस शहर से कोई आया है यह तक पता चलता रहता था....लेकिन यहाँ कुछ भी नहीं नहीं समझ में आता.....

मेरे गाँव में पिछले ३०० साल से कोई बाहरी आदमी नहीं बसा है....लेकिन बनारस में बाहर से लोग बसे हैं और बसेंगे....इलाहाबाद में बसेंगे....भिखारी राम पुर में कोई क्यों बसेगा....जब वहाँ का होके मैं वहाँ नहीं रह रहा हूँ....

तो भाई लोंगो...गाँव की याद आ रही है....और मैं यहाँ फंसा हूँ...जैसे बंदर चने की हाँड़ी में मुट्ठी बाँद कर फंसता है....यहाँ न इलाहाबाद मिल रहा है न गाँव...बस दोनों की याद दिलाने वाली कोयल किसी अनजान पेड़ पर कूक रही है....चाह कर अभी गाँव नहीं जा सकता...

24 comments:

  1. भाई, मन व्याकुल हो गया पढ़ कर। भिखारी रामपुर में तो क्या , बरसों बरस हो गए , किसी गांव में अब कोई आनगांव का आकर नहीं बसता। सच कहूं तो सुख मिल सकता है गांव में , बस हिम्मत चाहिए थोड़ी। मैं तो ग्रामीण पृष्ठभूमि का भी नहीं हूं , अधकचरा सा हूं। पर लगता है कि कभी ये हिम्मत दिखा सकूंगा...मंसूबा तो बांधा है।

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  2. बड़ा जटिल दर्द है। गांव में अब कोई आनगांव का आकर नहीं बसता।

    कविता पंक्तियां अनायास याद आ गयीं-

    उस शहर में कोई बेल ऐसी नहीं जो इस देहाती परिंदे के पर बांध ले।
    जंगली आम की जानलेवा महक, जब बुलाती है वापस चला आता हूं।

    ये पंक्तियां हमने अपने मामाजी कन्हैयालाल नंदन से कई बार सुनी हैं।

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  3. जहां मिलती हैं दो रोटी उसी को ठांव मानिये
    जहां गिरकर सोते हैं, उसी को गांव मानिये

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  4. बीते दिन तो प्रिय लगते हैं और हमेशा याद आते हैं

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  5. बोधि भाई, आप पहली पीढ़ी के थे जिसने गांव छोड़ा, हमारे तो पिताजी ने गांव छोड़ा था । और मुझे अब उम्र के तीसरे दशक में जाकर गांव की विकल याद आती है । पहले गांव बोरिंग लगता था । ईमानदारी से कह रहा हूं । मेरी बातचीत में अकसर गांव का नाम तो आ ही जाता है । लेकिन लगता नहीं है कि हमारी अगली पीढि़यां गांव से कोई राग-रंग जोड़ पाएंगी ।

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  6. बहुत बड़ा दर्द है. कैसे निजात मिलेगी, पता नहीं.....निदा फाजली साहब ने लिखा है न;

    एक छोटा सा गाँव
    जिसमें पीपल की छाँव
    गाँव में आशियाँ था
    एक छोटा मकां था
    छोड़कर गाँव को
    उस घनी छाँव को
    शहर के हो गए हैं
    भीड़ में खो गए हैं

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  7. गुरुदेव परदेस में जब भी मन भटकते तो हमारे जैसे लोगों को याद कर लिया किजीए। हम हाजिर हो जावेंगे

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  8. क्या करियेगा..सभी तो कहीं न कहीं परदेशी हैं..मन भटकता है, व्याकुल होता है..मगर फिर शायद हमारी मजबूरियाँ जान जाता है.स्थिर और शांत हो जाता है. आपकी अवस्था लेखनी में उभर कर मेरी अपनी सी लग रही है..शायद सभी ने महसूस किया हो!!

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  9. जब से मुंबई आया हूं तब से (करीब 4 साल) गांव मैं भी नहीं गया हूं। इस बार अप्रैल में छुट्टियों में इलाहाबाद जाने के साथ ही प्रतापगढ़ अपने गांव भी जाने का पक्का इरादा है। ये मुश्किल हमेशा हर किसी के साथ होती है जो, दो-चार कदम आगे चल चुका होता है।

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  10. सीने में इलाहाबाद और अपना गाँव लिये फिर रहे हैं यही क्या कम है...आपने तो विभोर कर दिया,गाँव भी शहरों की शर्त पर उजड़ रहे हैं,यहाँ तो अपने को बचाए रहें यही सबसे बड़ी उपलब्धि है..

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  11. बहुत ही विचलित सा आपका मन लग रहा है। पर सच्चा तो यही है की जीवन की भाग दौड़ मे हम ख़ुद ही गाँव को पीछे छोड़ आए है।

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  12. मन है तो अकुलाहट होगी ही न,
    कभी उस माटी के लिए
    तो कभी उन संगियों के लिए।
    मानव मन अजीब है कितना
    वर्तमान की बोझिलता मे
    अतीत के कष्ट से भी
    खुशनुमा एहसासात याद रह जाते हैं।

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  13. इलाहाबाद की माटी का अपनी ही खुशबू है, इलाहाबाद की माटी आपको बुला रही है। जब भी इलाहाबाद में आइयेगा।

    इलाहाबाद में आपका स्‍वागत है, यह इलाहबाद आपकी प्रतीक्षा कर रहा है। सूचित कीजिऐगा।

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  14. हमें भी अपने गांव की याद आने लगी। वैसे तो इलाहाबाद में हैं, पर गांव के मुकाबले यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है।

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  15. बहुत ही बढ़िया - आप ने तो जैसे उन सबकी लिख दी जो अपने अपने पिंजरों में बैठे अपना अपना घर याद करते हैं पर भले से लिख नहीं पाते हैं - वाह

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  16. दिल से निकली बात सीधे दिल पर असर करती है. हमने भी महसूस की आपकी व्याकुलता.

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  17. mai abhi gawn se lauta, mere yhan bhi dher aam ke ped sukh gaye...ha is bar gawn gya to mahuva binne bhi gya adhratiye me uthkr....dar lg rha tha ki koi chudnail pkd li to kya hoga ji...pr sahi-slamt lauta bhaiya....n bhut mila n pret sb bila gye ji..

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  18. एक शेर 'दीवान-ए-सराय' से उधार...

    "तुम्हारा शहर क्या इसका बदल दे पायेगा मुझको,
    मैं अपने गाँव में सावन बरसता छोड़ आया हूँ."

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  19. बोधि भाई, कभी इलाहाबाद पर कुछ लिखिए. मैंने महसूस किया है कि इलाहाबाद एक भुला दिया गया शहर है. जो लोग इलाहाबाद से जुड़े हैं उन सबको मैं बार-बार इसी सवाल से कुरेद रहा हूं कि इलाहाबाद एक विस्मृत कर दिया गया शहर क्यों हो गया.. जब मैं बंगलौर आया तो यहां की सड़कें, हरियाली और मौसम ने इलाहाबाद की ही याद दिलाई. इस सवाल ने सबसे ज्यादा तब स्ट्राइक किया जब एक पत्रकार साथी ने इसलिए इलाहाबाद में नौकरी का प्रस्ताव इसलिए ठुकरा दिया कि किसी ने उससे कहा इलाहाबाद जाओगे तो मेनस्ट्रीम से कट जाओगे. जब मैंने यही सवाल अपने एक और साथी से किया तो उन्होंने कहा कि इलाहाबाद का हाशिए पर जाना ह्यूमेन साइंसेज के हाशिए पर जाने क प्रतीक है. आज पैसा बनाने और कमाने वाले शहर चमक रहे हैं. कुछ लिखिए...
    दिनेश श्रीनेत

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  20. दिनेश भाई मैं इलाहाबाद पर वैसे भी लिखने की सोच रहा था...पीछे मैंने लक्ष्मी कान्क वर्मा जैसे बड़े लेखकों के बहाने वहाँ की कुछ झलक ली थी...मैं गंभीरता से कुछ लिखूँगा....कभी देवी प्रसाद ने कहा था कि इलाहाबाद चुका हुआ नहीं है पर चुका हुआ लगता है।इलाहाबाद कभी नहीं चुकेगा...।

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  21. bodhi bhaiya, itne dinan-dinan pr post kahe ho, kya aapko bhi vhi bimari huee, jo mujhe ho gyi hai?

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  22. बोधि दादा,आज आपने और हर्षवर्धन ने रुला दिया,मुम्बई में तो आंसू भी अजनबी हो चले थे आज कहीं जाकर मिले हैं आंखो से। प्रतापगढ़ और इलाहाबाद की मिट्टी,धूप,हवा,पानी सब तो बह रहा है वजूद में बस एक गर्द की पर्त आ गई थी आपने धौल जमा कर उड़ा दी। आपसे मिल कर सचमुच लगा था कि इलाहाबाद मूर्तरूप में सामने आ गया हो.....

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  24. रूपेश भाई
    आपकी टीप ने नम को छत्साह से भर दिया
    आपका आभारी हूँ

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