Sunday, June 24, 2007

मेरी एक और कविता

टैगोर और अंधी औरतें

(कलकत्ता में मिले बंगाली विद्वान परिमलेंदु ने यह वृत्तांत सुनाया)

बरस रहा था देर से पानी
भीगने से बचने के लिए मैं
रुका था दक्षिण कलकत्ता में
एक पेड़ के नीचे,
वहीं आए पानी से बचते-बचाते
परिमलेंदु बाबू।

परिमलेंदु बाबू
टैगोर के भक्त थे
बात-चीत के बीच
उन्हों नें बताया टैगोर के बारे में एक किस्सा
आप भी सुनें।

कभी बीरभूम में चार औरतें रहतीं थीं
उन्हें देख कर लगता था कि वे या तो
किसी मेले में जा रहीं हैं
या लौट रहीं हैं किसी जंगल से।

वे चारों हरदम साथ रहतीं थीं
उनकी आँखें नहीं थीं
वे बनीं थीं मिट्टी में कपास और भूँसी मिला कर
उनसे आती थी भुने अन्न की महक।

चारों दिखतीं थी एक सी
एक सी नाक
एक से हाथ-पांव-कान
एक सी थी बोली उनकी।

कौन था उनका जनक
कौन भर्ता, कौन पुत्र कौन जननी कौन पुत्री
नहीं जानतीं थीं वे
उन्हें तो यह भी नहीं पता था ठीक-ठीक
कि किसने छीन
लीं उनकी आँखें।

पर उन्हें यह पता था कि
उनके पीछे-पीछे चलते हैं ठाकुर
वही ठाकुर जिन्हें सब
गुरुदेव कह कर बुलाती है
वही द्वारका ठाकुर का आखिरी बेटा
वही जिसे हाथी पाव है
तो वे चारों औरतें
टैगोर के लिए थोड़ा धीमें चलतीं थीं वे।

उन औरतों की आवाज के सहारे
टैगोर खोजते-पाते थे रास्ता
टैगोर भी हो चले थे अंधे
लोग हैरान थे
टैगोर के अचानक अंधेपन पर।

लोग टैगोर को उन औरतों से अलग
ले जाना चाहते थे
गाड़ी में बैठा कर
पर टैगोर
उन औरतों की आवाज के अलावा
सुन नहीं रहे थे और कोई आवाज।

जब कभी टैगोर छूट जाते थे बहुत पीछे
किसी बहाने रुक कर वे चारों
उनके आने का इंतजार करतीं थीं।

जोड़ा शांको और बीरभूम के लोग बताते हैं
कि जीवन भर टैगोर चलते रहे
उन चारों औरतों की आवाज के सहारे
जब बिछुड़ जाते थे उन औरतों से तो
आव-बाव बकने लगते थे
बिना उन औरतों के उन्हे
कल नहीं पड़ता था
अब यह सब कितना सच है
कितना गढ़ंत यह कौन विचारे।

यह जरूर था कि
अक्सर पाए जाते थे
टैगोर उन अंधी औरतों के पीछे-पीछे चलते
उनके गुन गाते
बतियाते उनके बारे में।

बूढ़े परिमलेंदु की माने तो
वे औरते जीवन भर नहीं गईं कहीं ठाकुर
को छोड़ कर
ठाकुर ही उन औरतों का जीवन थे
और वे औरतें ही ठाकुर के चिथड़े मन की
सीवन थीं।

जब नहीं रहे टैगोर
तो महीनों वे चारों ठाकुर की खोज में
घूमती रहीं बीरभूम के खेतों में
रुक-रुक कर चलतीं थी रास्तों में कि
आ सकता है अंधा गुरु
पर न आए ठाकुर
और वे अंधी औरतें पहुँच गईं
पता नहीं कब
सोना गाछी की गलियों में,

उन्हें तो यह भी पता नहीं चल पाया
कि उनका ठाकुर कब कहाँ
खो गया
कहाँ सो गया उनका सहचर
कल सुबह आता हूँ कह कर
नहीं आया वह
जिसके होने से वे सनाथ थीं।

पानी बरसना बंद हुआ जान कर परिमलेंदु बाबू
बात अधूरी छोड़ गए
मैंने शलभ श्रीराम सिंह से पूछा तो वे
रोने लगे
कहा सारी बात सच है
पर हुआ था यह सब
राम कृष्ण परम हंस के साथ,
वे चारों अंधी नहीं थीं
वहाँ के किसी जमींदार ने फोड़ दीं थीं
उनकी आँखें काट लिए थे हाथ
खेतों की रखवाली ठीक से ना करने पर।
अंधी होने के बाद वे
हरदम रहीं बेलूर मठ में
परम हंस के साथ।
उसके बाद परम हंस ही थे
उनकी आँखें और हाथ।

6 comments:

मसिजीवी said...

रुक-रुक कर चलतीं थी रास्तों में कि
आ सकता है अंधा गुरु
पर न आए ठाकुर
और वे अंधी औरतें पहुँच गईं
पता नहीं कब
सोना गाछी की गलियों में,


हुम्‍म..
बहुत अच्‍छा लिखा।
कृपया लिखते रहा करें हमें प्रतीक्षा रहती है।

Sanjeet Tripathi said...

बढ़िया!!!!

बड़े दिन बाद दर्शन हुए आपके!!

बोधिसत्व said...

भाई
देर के लिए माफी चाहता हूँ
कोशिश करूँगा कि दोबारा जल्दी लौटूँ

अभय तिवारी said...

कैसी अनोखी स्त्रियां.. कैसे अनोखे टैगोर..एक दिलचस्प दुनिया दिखाती है आप की कविता.. कई सवाल उठाती है.. कई जवाब साफ़ साफ़ देने से मुकर जाती है.. टैगोर को रास्ता दिखाने वाली औरतें अंधी क्यों थी.. और क्यॊं अंधे हो गये टैगोर उनके दिखाये रास्ते पर चलने के बाद.. क्यों नहीं पड़ता था कल टैगोर को उनके बिना.. आदि आदि..

फिर कितनी सही है शलभ श्री राम सिंह की सोच.. कितना सही है उनका आकलन.. मुझे तो लगता है वे बेवजह ही भावुक हो कर आँसू बहा रहे हैं..

बात कुछ और है.. हुँ?

बोधिसत्व said...

टैगोर के अंधे पन की बात तो मुझे भी हजम नहीं हुई थी, पर क्या करें
कभी-कभी वह सब दर्ज करना पड़ता है
जो बात बहुत नागवार हो
क्यों कि मेरे लिए एक कवि कचहरी के बाहर बैठे मुहर्रिर से ज्यादा कुछ नहीं होता।
रही बात शलभ श्रीराम सिंह के हवाले की तो
अब हम हर किसी से यह तो नहीं कह सकते कि
हलफ ले कर बयान दे।
हर आम भारतीय ना सिर्फ आचार-व्यवहार बल्कि चेहरे-मोहरे में भी एक सा होता है
जहाँ निजता के लिए कोई जगह नहीं बचती
और रास्ता तो कोई भी दिका सकता है
क्या अंधा क्या गूँगा बहरा
और कोई भी किसी से सीख सकता है
अगर उपनिषदों में कुत्ता गुरु हो सकता है
भागवत में गवांर ग्वालिनें उद्धव को सीख दे सकती हैं
तो अंधी औरतें टैगोर को राह क्यों नहीं सिखा सकतीं ?

आभा said...

achchi koshish hai, sadhuvad