अशोक वनिका में खुश थे राम-सीता
यह प्रसंग बड़ा ही रोचक, जगानेवाला और दुख दाई है । कथाओं से ऐसा लगता है कि राम और सीता ने सुख के दिन देखे ही नहीं। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं था। रामायण में ऐसा लिखा है कि राम और सीता लंका से लौट कर बड़े आनन्द से रह रहे थे। सब ठीक-ठाक चल रहा था...। जीवन पटरी पर आ गया था। लेकिन जैसे की हर युग में पर दुख संतापी होते हैं राम राज्य में भी थे...उनके पेट में बात पची नहीं....।
समय बीता ....देवी सीता पेट से हुईं....और उन्हें साथ लेकर राम अयोध्या की अशोकवनिका ( अन्त:पुर में विहार योग्य उपवन) में गए। वहाँ राम पुष्पराशि से विभूषित एक सुंदर आसन पर बैठे। जहाँ नीचे कालीन भी बिछा हुआ था।
फिर जैसे देवराज इंद्र शची को मधु मैरेय ( एक प्रकार बहु प्रचलित मद्य) का पान कराते हैं उसी प्रकार कुकुत्स्थकुल भूषण श्री राम ने अपने हाथ से पवित्र पेय मधु मैरेय लेकर सीता जी को पिलाया।
फिर सेवकों ने राजोचित भोज्य पदार्थ जिसमें मांसादि थे और साथ ही फलों का प्रबंध किया और उसके बाद राजा राम के समीप नाचने और गाने की कला में निपुण अप्सराएँ और नाग कन्याएँ किन्नरियों के साथ मिल कर नृत्य करने लगीं।
इसके बाद हर्षित राम ने गर्भवती सीता से पूछा कि मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ..बरारोहे मैं तुम्हारा कौन सा मनोरथ पूरा करूँ...। माता बनने जा रही खुश सीता ने राम से कहा कि मेरी इच्छा एक बार उन पवित्र तपोवनों को देखने की हो रही है ...देव मैं गंगा तट पर रह कर फल मूल खाने वाले जो उग्र तेजस्वी महर्षि हैं, मैं उनके समीप कुछ दिन रहना चाहती हूँ...। देव फल मूल का आहार करनेवाले महात्माओं के तपोवन में एक रात निवास करूँ यही मेरी इस समय सबसे बड़ी अभिलाषा है।
पत्नी सीता की इच्छा जान कर राम को बड़ी खुशी हुई और उन्होंने कहा कि तुम कल ही वहाँ जाओगी....इतना कह कर श्री राम अपने मित्रों के साथ बीच के खंड में चले गए।
फिर आगे वह हुआ जिसने सीता के जीवन की दिशा बदल दी । राम अपने तमाम 10 सखाओं से घिरे बैठे थे...उन्होंने कहा कि राज्य में आज कल किस बात की चर्चा विशेष रूप से है । उनके सखाओं में एक भद्र ने बताया कि जन समुदाय में सीता जी का रावन के द्वारा हरण होने और क्रीडा कानन अशोक वनिका में रखने के बाद भी आप द्वारा स्वीकार किया जाना सबसे अधिक चर्चा में है .....लोग अचंभित और परेशान है कि हम लोगों को भी स्त्रियों की ऐसी बातें सहनी पड़ेगी...लोग जानना चाह रहे हैं कि आप ने कैसे स्वीकार कर लिया सीता को....बस.....सीता माता के सुख के दिन समाप्त हो गए........राम ने एक तरफा फैसला करके सीता को एक दिन नहीं सदा-सदा के लिए वन में त्याग देने का आदेश दिया .....वह भी लक्ष्मण को....
वन जाकर भी सीता को तो यही पता था कि वह तो अपनी इच्छा से घूमने आई है....गंगा के पावन तट पर.....बस उनकी खुशी के लिए....उसके प्यारे पति ने भेजा है......
देखें- गीता प्रेस गोरखपुर का श्री मद्वाल्मीकीय रामायण, द्वितीय भाग, उत्तर काण्ड के अध्याय 42 से 50 तक की पूरी कथा । .
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18 comments:
बहुत रोचक लेख है। बेचारी सीता को क्या पता था कि उनके मनसा,वाचा को राम तथास्तु कह कर्मणा में बदल देंगे। यह एकतरफा निर्णय लेने की पुरुषों की बीमारी बहुत पुरानी है।
घुघूती बासूती
फिर सेवकों ने राजोचित भोज्य पदार्थ जिसमें मांसादि थे और.............
क्या रामजी व उनके परिवारजन मांस खाते थे??? अगर यह सच है तो मांसाहारी राम किसी दानव से कम क्रूर नहीं थे.
अखिलेश जी,
काश! यह प्रसंग पहले मिल जाता तो हमारे हिन्द-युग्म लोग यूँ न झगड़ते। आप भी पढ़िए बस १५ दिन पुरानी बहस है। कहिए तो आपका यह प्रसंग वहाँ चस्पा दूँ और पुनः चर्चा छेड़ दूँ। वैसे यह प्रसंग किस पुस्तक से लिया है आपने?
" समय बीता ....देवी सीता पेट से हुईं...."
बोधिसत्व जी,आपके लेख की शीर्षक से बंधी जब लेख तक पहुँची तो पढ़कर मन इतना आहत और अफ़सोस से भर गया कि लगा हिन्दी लिख पाने वाला कोई व्यक्ति असंख्य आस्तिक लोगों के सम्मुख ' देवी सीता पेट से हुईं' कैसे और क्या सोचकर लिख गया???.
और आपने जिस प्रसंग का उल्लेख किया है और जिस तरह से किया है,पता नही कहाँ किस ग्रन्थ से आपको यह जानकारी मिली.कृपया यदि शंशोधित कर सकते हैं तो अपने लेख को एकबार पुनः पढ़ें और तनिक शिष्ट शब्दों का प्रयोग करें.
अच्छी कहानी सुनाई सर आपने..
शुक्रिया..
राम जी का यह पक्ष आजतक समझ नहीं आया।
जन विचारों की इतनी कद्र की जानी चाहिये, इसपर मुझे संशय है।
शैलेश जी आप मेरे इस लेख का समुचित उपयोग कर सकते हैं...
रंजना जी सीता जी को गर्भवती कहने के लिए मैं कैसे शब्दों का प्रयोग करूँ । हो सके तो आप बता दें...
यह प्रसंग मेरा गठा हुआ नही बल्कि वाल्मीकिय रामायण से लिया गया है....अगर आप लोग चाहें तो देखें- गीता प्रेस गोरखपुर का श्री मद्वाल्मीकीय रामायण, द्वितीय भाग, उत्तर काण्ड के अध्याय 42 से 50 तक की पूरी कथा ।
राम इत्यादि मांसाहार करते थे....सुरा का पान भी करते थे...वहीं अध्याय 42 के श्लोक संख्या 18, 19 और 20 को देखें....
यह तो कही नही पढा था.. वास्तव मे इस लेख को सबको पढाना चाहिये।
बोधिसत्व जी,
मैं और मेरे एक मित्र हैं जैनेन्द्र प्रताप सिंह। हमलोग पिछले ९ वर्षों से राम के चरित्र पर बहस करते आ रहे हैं। जैनेन्द्र ने ही बताया था (जब मैं इलाहाबाद में था) मुझे, कि उनके गाँव के किसी विद्वान ने उन्हें शांता वाला प्रसंग सुनाया था। आज जब मैंने आपका आलेख पढ़ा तो मुझे एक और पॅवाइंट और मिल गया राम के विरोध में। मैंने कमेंट करने से पहले जैनेन्द्र को फोन लगाया और आपका पूरा आलेख पढ़कर सुनाया। वे भी बहुत खुश हुए। आपके बारे में पूछा। आपने संदर्भ बताकर बड़ी कृपा की।
एक और जानकारी दे दीजिए कि महर्षि अगस्त्य ने सीतावचनामृतम कोई पुस्तक लिखी है जिसमें सीता प्रमुख चरित्र है, कहानी रामायण से मिलती-जुलती है? मैंने महाकुंभ इलाहाबाद के दौरान गीताप्रेस गोरखपुर पर इस पुस्तक के बारे में पता किया, नहीं मिली। अभी २-१० फरवरी २००८ , विश्व पुस्तक मेला, प्रगति मैदान में सभी धार्मिक पुस्तक स्थलों पर पता किया, नहीं मिली। यहाँ तक कि कई लोग कान खड़े कर लेते हैं, जैसे पहली बार सुन रहे हों। मुझे लगता है आप अध्ययन के मामले में बहुत जागरूक हैं। आपक ज़रूर बता पायेंगे।
हम थोड़ा और नया ज्ञान पाकर मुग्ध हुए। गीताप्रेस की पुस्तकों पर भरोसा करना पड़ता है। ...लेकिन इनका ‘नित्य-कर्म पूजा प्रकाश’ पढ़कर मोहभंग होने लगता है।
बोधी जी इस लेख के लिए आपको कोटि कोटि बधाई..... मुझे यह बताये की हम और हमारा समाज राम जी को मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं? इस घटना के बाद तो क्या यह कहना बेमानी है.... आपकी टिप्पणी
फिर जैसे देवराज इंद्र शची को मधु मैरेय ( एक प्रकार बहु प्रचलित मद्य) का पान कराते हैं उसी प्रकार कुकुत्स्थकुल भूषण श्री राम ने अपने हाथ से पवित्र पेय मधु मैरेय लेकर सीता जी को पिलाया।
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गर्भवती सेताजी ने भी मध्यपान किया जब श्री राम भी जानते थे उनकी गर्भवती अवस्था के बारे मेँ ? ये भी ठीक बात नहीँ लग रही -- गीता प्रेस की किताब मेँ अक्शरश: लिखा होगा अगर आप कह रहेँ हैँ तो - और क्शत्रिय माँसभक्षी ही होते थे - ब्राह्मण माँसाहार कदापि नहीँ करते थे ये भी ज्ञात है --
- लावण्या
सब बाते सही हैं.. अगर ये राम के चरित्र का दोष है तो कृष्ण के चरित्र का क्या होगा..? राम ने तत्कालीन नैतिकता के आधार से अपना निर्णय लिया.. और कृष्ण की तो क्या कहा जाय.. उन्होने तो कह दिया कि मैं जो चाहे कर सकता हूँ; नैतिकता का कोई मापदण्ड मुझ पर लागू नहीं होता.. मैं भगवान हूँ.. बात ही खत्म हो गई..
इसीलिए मुझे वाल्मीकि के नहीं तुलसी के राम प्रिय हैं.. वही हैं असली मर्यादा पुरुषोत्तम!
मॆं बचपन से ही गीताप्रेस,गोरखपुर की धार्मिक पुस्तकें पढती आयी हूं। वाल्मीकि रामायण में राम को भगवान नहीं माना गया हॆ, बल्कि एक प्रतिभाशाली प्रखर व्यक्तित्त्व के रूप में प्रस्तुत किया गया हॆ। इसलिये उनमें कमियां भी हॆं। जो भी अंश राम को भगवान बताते हॆं, उन्हें विद्वज्जन प्रक्षिप्त मानते हॆं ऒर जहां तक तुलसी के राम की बात हॆ वह समय के साथ परिष्क्रत चरित्र हॆ जिसे जनमानस पूजता हॆ। ऒर सीता के साथ हुए स्लूक का सवाल: बार बार कहूंगी- अनुचित, अनुचित, अनुचित।
पल्लवी जी सीता के साथ जो हुआ उसके लिए मैं हजार बार कहूँगा....अनुचित अनुचित ....
हाँ बिल्कुल अनुचित / अन्याय - लेकिन एक धोबी वाला किस्सा भी तो सुना था उसका क्या उद्गम होगा ?
धोबी का चरित्र मध्यकाल के कवियों ने खड़ा किया है ....वाल्मीकि की राम कथा में वह नदारद है
बाबा त्रिलोचन ने बाल्मीकि रामायण का सहज बातचीत में भी जैसा उपयोग किया है वह प्रेरणास्पद है. लेकिन जनमानस में जो राम बैठा है उससे यही साबित होता है कि भारत की जनता कितनी भोली है. तुलसी ने इस इरादे से तो ऐसा कदापि नहीं किया था. अब तो भरत की जनता धूर्त भी हो गयी है. वह कहती है कि उसके पास कोई विकल्प ही नहीं है. उसे अयोध्या और अब रामसेतु के मुद्दे पर संघ परिवार सरेआम उल्लू बना देता है और वह इसे आस्था का सवाल कहती है. उसे बिना कुछ जाने समझे वामपंथी खलनायक नजर आते है.
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