Friday, March 5, 2010

एक सहपाठी से बात चीत का अंश


कहाँ बदे निकला रहे कहाँ उतिराने



कल अपने एक सहपाठी पुट्टुर से बात हुई। उस बाच चीत का एक अंश यहाँ छाप रहा हूँ। इसके लिए पुट्टुर से अनुमति ले ली है। पुट्टुर और मैं 8वीं तक एक साथ पढ़े हैं। जब मन करता है मैं पुट्टुर से बतियाता हूँ। पुट्टुर और मेरा गाँव पहले एक था। लेकिन अभी पुट्टुर पड़ोस के गाँव में बस गए हैं। गाँव छोड़ने के पीछ पुट्टुर की मजबूरी थी। उन्हें मेंरे गाँव के बाम्हनों ने दर्जन भर मुकदमों में फँसा रखा था। खैर

बात चीत हमेशा की तरह ही अवधी में हुई। आप भी पढ़ें।

मैं-अउर बताव....
पुट्टुर-अउर का बताई, समझ ठीकइ बा
मैं-का भ, बड़ा मन दवे बोलत हय
पुट्टुर-का बताई भाई.....अइसन लगता... जइसे रस्ता भुलाइ ग हई, जैसे निकला रहे कतऊँ बदेऔर पहुँचि ग होई कतऊँ अउऱ
मैं- अइसन काहे कहथ हय...का कुछ नेवर होइ ग का
पुट्टुर- न निक भ न नेवर....बस ई लगता कि कुछ कइ नाहीं सके, जनमबे क कवनउ मतलब नाहीं निकला
मैं- काहे परेशान होत हय
पुट्टुर- भाई 40-42 क भए, मुला एकऊ काम अपने मने क नाहीं किहा....बस जियरा जीयतबा....इहइ बात भीतरइँ भीतर खात जात बा
मैं- बहुत सोच जिन
पुट्टुर- सोचबे पर त कवनऊँ बल नाहीं परत....का करी...इहीं क कवनऊ दवा बनि जात सरवा छुट्टी होत
मैं- निक निक सोच
पुट्टुर- हाँ भाइ...कहत त ठीकइ बाट्ये मुला का कही....सोचित थ निक अउर होत थ नेवर....कुछु क कुछु होइ जाथ...
मैं- चल आउब त फेरि बतियाब
पुट्टुर- अउर ठीक बा...तोहरे कइतीं
मैं- ठीकइ बा.....चलता
पुट्टुर- चल ....चलता इहई बहुत बा....हम तोहार फोन जोहुब
मैं- हाँ हम करब....
पुट्टुर- चल....
मैं-चल....

हमारी बात खतम हुई। मन दिन भर पुट्टुर में उलझा रहा। मैं सोचता रहा। हम सब कहीं न कहीं पुट्टुर की तरह भटके हुए हैं। निकले थे कहीं के लिए। पहुँचे हैं कहीं।

18 comments:

अभय तिवारी said...

अब कछु आपन मन का करि डारो.. इ सम्देसा हमार पुट्टुर का दै दो और बाकी जिन-जिन का जरूरत होय कौपी पेस्ट कर देत रहो..

Udan Tashtari said...

चलता इहई बहुत बा!!! इहे मान जिवत हईं....

Ashok Kumar pandey said...

'भाई 40-42 क भए, मुला एकऊ काम अपने मने क नाहीं किहा....बस जियरा जीयतबा....इहइ बात भीतरइँ भीतर खात जात बा'
यह दर्द अकेला पुट्टुर भाई का है क्या? अगर हम इमानदार हैं और ख़ुद को भी कटघरे में खड़ा करना जानते हैं तो क्या यही हमे भी नहीं बेधता?

** सबक 2- ताला लगावे से कुछु ना होई…देख ल हम कईसे कापी पेस्ट कइ लेहलीं!

प्रज्ञा पांडेय said...

पुत्तूर भाई से हुई बात हर आम आदमी के दिल की बात है .. हम कहाँ जाने के लिए जा रहें हैं यह भी स्पष्ट नहीं होता बस जा रहें हैं . !

शिरीष कुमार मौर्य said...

जीवन के ठहरते जाने की बतकही .... जो नहीं हो पाया एक हूक उसकी भी....गाँव और शहर के बीच के सूक्ष्म संवेदना तंतुओं से बनी, जो भारत में अब भी बचे हुए हैं... ....मार्मिक ...पढने वाले को अपना भी ऐसा ही बहुत कुछ याद दिलाती....चुपके से किसी कविता में बदलती जाती....

कथाकार said...

काश मुझे आपकी बोली बानी बोलनी भी तो इस संवाद को उसी में कहता1 हम सब पुटृटुर ही तो हैं जो भटके हुए हैं और सिर्फ जीने की रस्‍म अदायगी कर रहे हैं1 आप अपने गांव के पुट्टुर से बात‍ करके परेशान हैु1 इसी महानगर में जो लाखों पूट्टुर आ बसे हैं और न टिक पाये हैं और न वापसी का रास्‍ता जानते हैं, उनकी बात कौर छापेगा1
इस संवाद को आगे बढाइये ताकि सब का दुख सांझा हो
सूरज

Kumar Gautam said...

बात वजह है..

बसंत आर्य said...

पढा . जाते थे जापान पहुंच गये चीन. पहुचे भी कहाँ . सब रास्ते मे भटक रहे हैं. देश हो या जनता.

varsha said...

dil ki baat....

Anil Pusadkar said...

har aadmi ki kahaani hai ye.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

मार्मिक कथ्य...।

शरद कोकास said...

".बस ई लगता कि कुछ कइ नाहीं सके, जनमबे क कवनउ मतलब नाहीं निकला "
(और ई बोधि भैया दू-चार कविता लिख के कहत है हमरा जनम तो सार्थक हुई गवा ।)
काहे बोधि भैया हम ठीक कहत है ?
भाई मन तो अपना भी कैसा कैसा हो रहा है यह सम्वाद सुनकर ।

बोधिसत्व said...

शरद भाई
न हमार जिनगी बनी हउ न पुट्टुर क....हम सबइ पुट्टुर हई..हमहूँ-तुहऊँ....करोड़न क जिनगी अकारथ होत बा...चार किताब लिखे से का होथ .....केतना कवि गएन जे 40 किताब लिखेन...तबउ वोनके केउ पूछत नाहीं बा....अन्हिआरे में पड़ा हएन....हमार तोहार का औकाति बा

प्रदीप कांत said...

का कहिन? कछु बचा ही नाहीं।

Unknown said...

बहुतई अच्छो लिखो ? मजा आई गओ।

Satya Vyas said...

सब सोचले काम होये जाईत त का बात रहे बोधि भैया.

अरुणेश मिश्र said...

उत्कृष्ट ।

Ramesh Pandey said...

badhiya lagaa..