Monday, June 28, 2010

बिहारी के दोहे यानी सायक सम मायक नयन

शब्द-चर्चा

सायक सम मायक नयन, रँगे त्रिविध रँग गात।
झखौ बिलखि दुरि जात जल लखि जल जात लजात।।


बिहारी के इस दोहे पर और खास कर शायक या सायक शब्द को लेकर शब्द-चर्चा में लगातार बात हो रही है। बहस शुरू की थी कवि विशाल श्रीवास्तव ने। मैं यहाँ मैं इस दोहे का एक अर्थ करने की कोशिश कर रहा हूँ। कोई दावा नहीं कि मैं सबसे सार्थक अर्थ कर रहा हूँ। यदि अनर्थ लगे तो टोकिएगा

सायक बराबर कटार या तलवार के अर्थ में

सम्मोहित करने वाले मायावी नैन कटार अपने गात को यानी शरीर को तीन प्रकार से रंगे हुए हैं। जिनके जादुई प्रभाव से मछली भी मोह ग्रस्त हो जाती है और कमल भी। मछली तो दुखी होकर जल में छिप जाती है और कमल लज्जित हो जाते हैं।

जो जैसा है उस पर वैसा प्रभाव है इस त्रिरंगे नेत्रों का। मछली की समझ से वे मोहक मीनाक्षी हैं और कमल की समझ में वे पद्म नेत्रा या पद्म नेत्र हैं। दोनों की समझ पर मायक की माया प्रभावी है।

कटार में तीन रंग मिल सकते है। मूठ का रंग, कटार का अपना रंग और रक्त का रंग। नेत्रों के भी त्रिरंगी होने का वर्णन मिलता है-स्वेत, स्याम, रतनार।

सायक बराबर संध्या के अर्थ में

इस अर्थ में मेरे हिसाब से बात थोड़ी उलझ जाती है।
फिर भी यह अर्थ बनता सा दिखता है।

संधिकाल के समान मायावी नेत्र अपनी देहों को तीन रंगों में ऱँगे हुए हैं। उनके जादुई असर से मछली भी जल के पर्दे में छिप जाती है और कमल भी लजा जाते हैं। यह संधिकाल सुबह और साँझ दोनों हो सकती है। दोनों संधिकाल को संध्या कहा और माना जाता है। गाँधी जी का एक भाषण सुना था जिसमें वे दोनों शाम के खाने की बात करते हैं। दोनों वक्त। हिंदू माइथोलॉजी में दोनों संध्याओं में पूजा-वंदना की जाती है। तो इन संधिकाल में सुबह या शाम दोनों की रंगीनी हो सकती है। मेरे हिसाब से सुबह की संध्या है जिसमें कमल और मछली दोनों को दिन के ढल जाने का आभास होता है। यह है मायक का असर। जो दिन में भी रात का अहसास करादे।

शाम होते ही पद्म मुर्झा जाते हैं और मछलियाँ भी जल के तह में चली जाती हैं। और यह सब जादुई नेत्रों का कमाल है।

अब रामबृक्ष बेनीपुरी जी की टीका

यह दोहा बेनीपुरी की बिहारी-सतसई का 53वाँ दोहा है। मैं वहाँ जो-जो जैसा-जैसा लिखा है यहाँ लिख रहा हूँ।
सायक सम मायक नयन, रँगे त्रिविध रँग गात।
झखौ बिलखि दुरि जात जल लखि जल जात लजात।। 53।।

अन्वय- सायक सम मायक नयन त्रिविध रँग गात रँगे, लखि झखौ बिलखि जल दुरि जात जलजात लजात।

सायक=सायंकाल। मायक=माया जाननेवाले, जादूगर,। त्रिविध=तीन प्रकार,। गात=शरीर।
झखौ=मछली भी। बिलखि=संकुचित होकर। जलजात=कमल।
संध्याकाल के समान मायावी आँखे अफनी देहों को तीन रंग में रँगे हुई हैं। उन्हें देख कर मछली भी संकुचित या दुखी हो कर जल में छिप जाती है और कमल भी लज्जित हो जाते हैं।
नोट- नेत्रों में लाल, काले और उजले रंग होते हैं। देखिए-
अमिय, हलाहल मद भरे, स्वेत, स्याम, रतनार।
जियत,मरत,झुकि-झुकि गिरत, जिहिं चितवत इकबार।।

अंत में- यह जान लेना अच्छा रहेगा कि बेनीपुरी जी की बिहारी-सतसई की टीका 1925 में प्रकाशित हुई थी और रत्नाकर जी की 1926 में।

7 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत आभार इस ज्ञावर्धक आलेख के लिए.

Unknown said...

मायक कि जगह मारक भी तो हो सकता था लेकिन पूरा कैसे मिलता ? व्याख्या दोनों बड़ी मायावी हैं,प्रकृति की पलक झपकने का भाव या प्रिय की ? भाव करें गंभीर समझा दिया - आनंद - जय हो

Narendra Vyas said...

इस दोहे में बिहारी ने संध्या सुंदरी के नैनों की सुन्दरता का अतिरेक चित्रण अपने अध्यात्मिक ज्ञान के पांडित्य प्रदर्शन से किया है.. चूंकि बिहारी रीतिकाल के कवि थे और रीतिकाल में पांडित्य प्रदर्शन तथा अलंकारों का भरसक प्रयोग एक आम बात थी और बिहारी भी इससे अछूते नहीं थे. नायिका की उपमा संध्या सुंदरी से कर उसके नयनो के सौन्दर्य का वर्णन अपने आध्यत्मिक पांडित्य और अलंकार प्रदर्शन से किया है. जो मुझे इस दोहे की जो व्याख्या प्रतीत हुई आप प्रबुद्धजनो के समक्ष रख रहा हूँ, हो सकता है आप सहमत ना हो या मैं कही त्रुटि भी कर गया हूँ , आप सभी से और अधिक जानकारी की अपेक्षा रहेगी.

''सायक सम मायक नयन''
शायक का ही अपभ्रंश रूप है सायक, जिसको निम्न अर्थों में समझा जा सकता है-
सायक
प्रथम:- इस शब्द का प्रयोग अमूमन प्राचीन काव्य जैसे रामचरितमानस आदि में बाण अथवा तीर अथवा शर के रूप में हुवा है इसके साथ-साथ ये शब्द कामदेव के पाँच बाणों के आधार पर पाँच की संख्या का वाचक शब्द भी है.
इस आधार पर उक्त दोहे में प्रयुक्त 'सायक'' शब्द कामदेव के पाँच बाणों के आधार पर पाँच की संख्या का वाचक अर्थ में अधिक सार्थक प्रतीत होता है.
मायक
इस शब्द का अर्थ है - मायावी या जादूगर |
इस आधार पर प्रथम पंक्ति का अर्थ हुवा-
कामदेव के मायावी बाण की तरह मायावी सम्मोहन से युक्त है नयन |
अब आगे की पंक्ति में बिहारी जी ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान का प्रदर्शन करते हुवे इन सुन्दर नयन के रंगों की तुलना इस प्रकार की है:-
रँगे त्रिविध रँग गात
यहाँ आदरणीय बोधिसत्व जी की व्याख्या जो आपने क़तर के रूप में की है, उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि आपने जो व्याख्या की है वो नयन को कटार मान कर की है और जो रंगों का सम्बन्ध कटार से किया है, वो भी उचित और यथार्थ प्रतीत नहीं होता. इसके साथ ही उस कटार के प्रयोग में भी विरोधाभास व्यक्त हुवा है कि पहले तो मछली और कमल मोहित होते हैं और फिर दुखी हो जाते हैं, अगर मोहित है तो दुखी होकर मछली का पुनः पानी में जाने और कमल के लज्जित होना, कुछ असामान्य सा लगता है. ऐसा मेरा मानना है. कृपया अन्यथा ना लें.
मुझे जो अर्थ उचित प्रतीत हुवा - यहाँ श्री बिहारी जी ने अपने अध्यात्मिक ज्ञान प्रदर्शित करते हुवे ये वर्णन किया है कि 'सत' रुपी श्वेत, 'रज' रुपी लाल, 'तम' रुपी काले रंगों से युक्त (त्रिविध) नयनो को जिसकी देह धारण किये हुवे है | मुझे ये भावार्थ अधिक सार्थक और करीब प्रतीत होता है.
अब द्वितीय पद की प्रथम पंक्ति का अर्थ इस प्रकार है:-
झखौ बिलखि दुरि जात जल लखि जल जात लजात
१. अर्थात जिस मछली की आँखों की उपमा सुन्दर नयनो के लिए 'मीनाक्षी' कह कर की जाती है, ऐसी आँखों से युक्त स्वयं मछली भी नायिका की इन सुन्दर आँखों को देख द्रवित हो, मारे जलन के पुनः जल में विलीन हो जात है |
उसी प्रकार कमल या पद्म को भी सुन्दर आँखों की उपमा के लिए 'कमल नयन' और 'पद्मनेत्रा' कह कर प्रयुक्त किया जाता है, वह कमल स्वयं नायिका की त्रिविध रंगों (सत, रज, तम) के त्रिविध ताप (दैहिक, दैविक और भौतिक) से युक्त आँखों के सम्मुख शर्मिंदा होकर जल जाता है या पानी-पानी हो जाता है |

२. दुसरे भाव में भ्रांतिमान है. नायिका की आँखों के तीन रंगों में (श्वेत, लाल और कला) मछली को तीन रंगों से युक्त संध्या (त्रिकाल संध्या) का भ्रम होता है और इसी भ्रमवश संध्या हुई जान मछली पुनः पानी में चली जाती है और कमल मुरझा कर शिथिल हो जाता है. ये अर्थ श्री बोधिसत्व जी का सटीक प्रतीत होता है. इस दोहे में श्लेष और भ्रांतिमान प्रयुक्त हुवा है. बाकी अर्थ श्री बोधिसत्व जी का सार्थक.
मुझे जैसा प्रतीत हुवा अपने अल्प ज्ञान से वर्णित करने की कोशिश की, कुछ कमी और त्रुटि या अधूरा रह गया हो तो क्षमा करते हुवे मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ.
सादर

Narendra Vyas said...

इस दोहे में बिहारी ने संध्या सुंदरी के नैनों की सुन्दरता का अतिरेक चित्रण अपने अध्यात्मिक ज्ञान के पांडित्य प्रदर्शन से किया है.. चूंकि बिहारी रीतिकाल के कवि थे और रीतिकाल में पांडित्य प्रदर्शन तथा अलंकारों का भरसक प्रयोग एक आम बात थी और बिहारी भी इससे अछूते नहीं थे. नायिका की उपमा संध्या सुंदरी से कर उसके नयनो के सौन्दर्य का वर्णन अपने आध्यत्मिक पांडित्य और अलंकार प्रदर्शन से किया है. जो मुझे इस दोहे की जो व्याख्या प्रतीत हुई आप प्रबुद्धजनो के समक्ष रख रहा हूँ, हो सकता है आप सहमत ना हो या मैं कही त्रुटि भी कर गया हूँ , आप सभी से और अधिक जानकारी की अपेक्षा रहेगी.

''सायक सम मायक नयन''
शायक का ही अपभ्रंश रूप है सायक, जिसको निम्न अर्थों में समझा जा सकता है-
सायक
प्रथम:- इस शब्द का प्रयोग अमूमन प्राचीन काव्य जैसे रामचरितमानस आदि में बाण अथवा तीर अथवा शर के रूप में हुवा है इसके साथ-साथ ये शब्द कामदेव के पाँच बाणों के आधार पर पाँच की संख्या का वाचक शब्द भी है.
इस आधार पर उक्त दोहे में प्रयुक्त 'सायक'' शब्द कामदेव के पाँच बाणों के आधार पर पाँच की संख्या का वाचक अर्थ में अधिक सार्थक प्रतीत होता है.
मायक
इस शब्द का अर्थ है - मायावी या जादूगर |
इस आधार पर प्रथम पंक्ति का अर्थ हुवा-
कामदेव के मायावी बाण की तरह मायावी सम्मोहन से युक्त है नयन |
अब आगे की पंक्ति में बिहारी जी ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान का प्रदर्शन करते हुवे इन सुन्दर नयन के रंगों की तुलना इस प्रकार की है:-
रँगे त्रिविध रँग गात
यहाँ आदरणीय बोधिसत्व जी की व्याख्या जो आपने क़तर के रूप में की है, उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि आपने जो व्याख्या की है वो नयन को कटार मान कर की है और जो रंगों का सम्बन्ध कटार से किया है, वो भी उचित और यथार्थ प्रतीत नहीं होता. इसके साथ ही उस कटार के प्रयोग में भी विरोधाभास व्यक्त हुवा है कि पहले तो मछली और कमल मोहित होते हैं और फिर दुखी हो जाते हैं, अगर मोहित है तो दुखी होकर मछली का पुनः पानी में जाने और कमल के लज्जित होना, कुछ असामान्य सा लगता है. ऐसा मेरा मानना है. कृपया अन्यथा ना लें.
मुझे जो अर्थ उचित प्रतीत हुवा - यहाँ श्री बिहारी जी ने अपने अध्यात्मिक ज्ञान प्रदर्शित करते हुवे ये वर्णन किया है कि 'सत' रुपी श्वेत, 'रज' रुपी लाल, 'तम' रुपी काले रंगों से युक्त (त्रिविध) नयनो को जिसकी देह धारण किये हुवे है | मुझे ये भावार्थ अधिक सार्थक और करीब प्रतीत होता है.
अब द्वितीय पद की प्रथम पंक्ति का अर्थ इस प्रकार है:-
झखौ बिलखि दुरि जात जल लखि जल जात लजात
१. अर्थात जिस मछली की आँखों की उपमा सुन्दर नयनो के लिए 'मीनाक्षी' कह कर की जाती है, ऐसी आँखों से युक्त स्वयं मछली भी नायिका की इन सुन्दर आँखों को देख द्रवित हो, मारे जलन के पुनः जल में विलीन हो जात है |
उसी प्रकार कमल या पद्म को भी सुन्दर आँखों की उपमा के लिए 'कमल नयन' और 'पद्मनेत्रा' कह कर प्रयुक्त किया जाता है, वह कमल स्वयं नायिका की त्रिविध रंगों (सत, रज, तम) के त्रिविध ताप (दैहिक, दैविक और भौतिक) से युक्त आँखों के सम्मुख शर्मिंदा होकर जल जाता है या पानी-पानी हो जाता है |

२. दुसरे भाव में भ्रांतिमान है. नायिका की आँखों के तीन रंगों में (श्वेत, लाल और कला) मछली को तीन रंगों से युक्त संध्या (त्रिकाल संध्या) का भ्रम होता है और इसी भ्रमवश संध्या हुई जान मछली पुनः पानी में चली जाती है और कमल मुरझा कर शिथिल हो जाता है. ये अर्थ श्री बोधिसत्व जी का सटीक प्रतीत होता है. इस दोहे में श्लेष और भ्रांतिमान प्रयुक्त हुवा है. बाकी अर्थ श्री बोधिसत्व जी कासार्थक.
मुझे जैसा प्रतीत हुवा अपने अल्प ज्ञान से वर्णित करने की कोशिश की, कुछ कमी और त्रुटि या अधूरा रह गया हो तो क्षमा करते हुवे मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ.
सादर

प्रदीप कांत said...

गहन गम्भीर विवेचना

जय हो ....

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

आपकी व्याख्या रोचक और ज्ञानवर्धक है। शुक्रिया !

शरद कोकास said...

बढ़िया विश्लेषण है भाई ।
कभी कभी सोकर उठने के बाद हमे भी शाम को सुबह का भ्रम हो जाता है ।