Thursday, September 16, 2010

इलाहाबाद जिंदाबाद है

इलाहाबाद शांत हो गया शहर नहीं है, हाँ शांत लगता जरूर है

कभी-कभी लगता है कि इलाहाबाद शांत हो गया शहर है, अभी वहाँ कुछ रहा नहीं। कई साल पहले कवि देवी प्रसाद मिश्र ने इलाहाबाद छोड़ने के बाद इलाहाबाद के बारे में एक लेख में लिखा था कि इलाहाबाद चुका हुआ नहीं है, चुका हुआ लगता है। उन्हीं के शब्दों के सहारे कहूँ तो इलाहाबाद शांत हो गया शहर नहीं है हाँ शांत लगता जरूर है। लेकिन सच्चाई यह है के इलाहाबाद में हिंदी और उर्दू एक साथ न केवल सक्रिय हैं बरन साथ साथ आगे भी बढ़ रहे हैं।

आज भी इलाहाबाद में एक साथ चार पीढ़ियाँ सक्रिय है। यदि कथाकार शेखर जोशी, शिवकुटी लाल वर्मा, अजित पुष्कल, अकील रिजवी और दूधनाथ सिंह वहाँ की वरिष्ठतम पीढ़ी के लोग हैं तो अंशु मालवीय, विवेक निराला और अंशुल त्रिपाठी, युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि स्वर हैं।

इसी 13 सितम्बर को हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर इलाहाबाद ने अपनी शांत दिखती छवि को नकारते हुए अपने सक्रिय स्वरूप को एक बार फिर उजागर,किया। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के इलाहाबाद स्थित क्षेत्रीय विस्तार केंद्र में इलाहाबाद के अपने शब्द शिल्पी अपने कवियों-लेखकों ने अपनी रचनाओं से यह बताया कि यह शहर अभी भी सक्रिय है, रचनारत है, हिंदी विश्वविद्यालय के इस आयोजन ने इलाहाबाद की साहित्यिक सक्रियता को स्वर दिया है।


इस कविता पाठ के आयोजन में इलाहाबाद के रचनाकारों ने अपनी कविताओं के जरिए समय और समाज के सच को, जिंदगी की सच्चाइयों को दर्ज किया। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता उर्दू के जाने माने रचनाकार एवं प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) के जुड़े प्रो. अकील रिज़वी ने कहा कि विभिन्न भाव बोध की पढ़ी गयी कविताएं, निश्चित रूप से हिंदी कविता के एक समृद्ध संसार को रूपायित करती हैं। इस अवसर पर नया ज्ञानोदय के संपादक और धुर इलाहाबादी वरिष्ठ कथाकार रवीन्द्र कालिया मुख्य अतिथि थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि आज इस कार्यक्रम में पढ़ी गयी सभी रचनाएं हिंदी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं।

इस गोष्ठी में लखनऊ से पहुँच कर सबको चकित किया एक और पुराने इलाहाबादी कथाकार ने और तद्‌भव के संपादक अखिलेश ने। कम लोग जानते होंगे कि अखिलेश मूल रूप से इलाहाबादी है। उन्होंने इलाहाबाद की समृद्ध साहित्यिक परम्परा के लिए इस गोष्ठी के महत्व को रेखांकित किया। इस मौके पर कथाकार ममता कालिया ने भी संगोष्ठी के महत्व को रेखांकित किया।

काव्य-पाठ में शहर के युवा एवं वरिष्ठ रचनाकारों ने भागीदारी की जिनमें हरिश्चन्द्र पाण्डे, बद्रीनारायण (प्रलेस), एहतराम इस्लाम (अध्यक्ष-प्रलेस, इलाहाबाद), यश मालवीय़ (नवगीतकार), अंशु मालवीय, सुरेश कुमार शेष (प्रलेस), नंदल हितैषी (इप्टा), जयकृष्ण तुषार, श्रीरंग पांडेय, संतोष चतुर्वेदी (जनवादी लेखक संघ), अजामिल (इलेक्ट्रॊनिक मीडियाकर्मी) अंशुल त्रिपाठी, संध्या निवेदिता आदि प्रमुख हैं। गोष्ठी मे कथाकार शेखर जोशी (जलेस) अनिता गोपेश (कथाकार एवं प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस) ए.ए. फ़ातमी, (प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस), असरार गांधी (प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस), सुरेन्द्र राही- सचिव प्रलेस,इलाहाबाद, अनिल रंजन भौमिक (नाट्य कर्मी- समानांतर-इलाहाबाद), अनुपम आनंद- नाट्य कर्मी, सुभाष गांगुली-कथाकार, , प्रेमशंकर- जन संस्कृति मंच, रामायन राम (प्रदेश सचिव – आइसा), प्रकाश त्रिपाठी (सह संपादक-बहु वचन), रेनू सिंह, अल्का प्रकाश, हितेश कुमार सिंह, गोपालरंजन (वरिष्ठ पत्रकार), फखरुल करीम (उर्दू रचनाकार), शलभ भारती, श्लेष गौतम, के अतिरिक्त बड़ी संख्या में इलाहाबाद के साहित्यप्रेमी, संस्कृतिकर्मी एवं छात्र इलाहाबादी ओजस्विता के साथ उपस्थित थे।

कवयित्री और ब्ल़ॉगर कविता वाचक्नवी ने भी अपनी उपस्थिति से संगोष्ठी को अर्थपूर्ण बनाया।

इलाहाबाद ने एक बार फिर यह जता दिया है कि हिंदी और संस्कृति के प्रश्न पर वह संगठित है और उसमें अभी भी कुछ कर गुजरने की ऊर्जा शेष है। जो हम भटके और इलाहाबाद को खो चुके इलाहाबादियों के मन को शांति देता है।

9 comments:

Narendra Vyas said...

बहुत ही अच्छा आलेख. सही कहा आदरणीय बोधिसत्व जी कि इलाहबाद शांत लगता जरूर है पर है नहीं..साहित्य के क्षेत्र में इलाहाबाद का योगदान सर्वोपरि रहा है..और अभी सतत रूप से अपने स्वाभाविक रंग में ही प्रतीत हो रहा है..जिसकी सौंधी-सौंधी साहित्यिक खुशबू हर वक्त सुवासित होती प्रतीत होती है. आपके इस आलेख से कई और नए-नए लेखकों के बारे में भी जानकारी मिली..जिसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं..वर्मान में जबकि सभी अपनी-अपनी ढपली लेकर बैठे हैं..ऐसे में आपका आलेख सुखद अहसास है..आपका आलेख परिकथा में भी पढ़ा, जो आँखें खोल देने वाला था..! आपके कृतत्व को नमन !

नीरज गोस्वामी said...

बहुत जानकारी पूर्ण लेख...अच्छा लगा इलाहाबाद में हो रही साहित्यिक गतिविधियों को जान कर...

नीरज

समयचक्र said...

अच्छा लगा गतिविधियाँ जानकर.... बढ़िया जानकारीपूर्ण आलेख प्रस्तुति....आभार

समयचक्र said...

बढ़िया जानकारीपूर्ण आलेख प्रस्तुति....आभार

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

पिछले एक-दो साल से इलाहाबाद की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रमुख केंद्र के रूप में हिंदी विश्वविद्यालय-वर्धा का क्षेत्रीय विस्तार केंद्र को पहचान मिली है। वहा~म का डॉ.सत्यप्रकाश मिश्र सभागार अनेक उत्कृष्ट कार्यक्रमों का साक्षी बना है। इलाहाबाद में ऐतिहासिक ब्लॉगर गोष्ठी की गर्मागरम बहस भी इसी केंद्र पर हुई थी।

हिंदुस्तानी एकेडेमी जैसी संस्थाओं के सरकारी उदासीनता की भॆंट चढ़ जाने के बाद यहाँ के बुद्धिजीवियों व साहित्यानुरागियों को एक ठौर की कमी महसूस होने लगी थी। वर्धा वि.वि. ने एक अनुकूल वातावरण सृजित करके स्तुत्य प्रयास किया है।

प्रदीप कांत said...

साहित्य्क गतिविधियाँ हमेशा रहेंगी, कम या ज़्यादा पर रहेंगी।

बोधिसत्व said...

किसी भी शहर की सांस्कृतिक सक्रियता में उस शहर की संस्थाओं की अहम भूमिका होती है। इलाहाबाद के सन्नाटे को तोड़ा है महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के इस केन्द्र ने। इसे स्वीकार करना ही होगा।

विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन said...

बिलकुल सही और सार्गर्भित रिपोर्ट। इसकी सच्चाई क मैं भी साक्षी हूं।

विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन said...

बिलकुल सही और सार्गर्भित रिपोर्ट। इसकी सच्चाई क मैं भी साक्षी हूं।