Sunday, December 18, 2011
अदम जी मुझे लौकी नाथ कहते थे
जयपुर में अदम जी मंच संचालन कर रहे थे। मुझे कविता पढ़ने बुलाने के पहले एक किस्सा सुनाया। किसी नगर में एक बड़े ज्ञानी महात्मा थे। उनका एक शिष्य था नाम था उसका लौकी नाथ। एक दिन लौकी नाथ मठ छोड़ कर भाग गया। ज्ञानी गुरु ने खोज की लेकिन लौकी नाथ का कुछ पता न चला। सालों के बाद उसी नगर में एक नए संन्यासी आत्मानंद पधारे। उनके प्रवचन की धूम मच गई। ज्ञानी गुरु जी अपने शिष्यों के साथ आत्मानंद का प्रवचन सुनने गए। वहाँ अपार जनसमूह था। नजदीक जाने पर गुरुजी ने देखा तो बोल बड़े यह तो लौकी नाथ है। किस्सा खत्म कर अदम साहब ने कहा कि मैं बोधिसत्व हो गए अपने लौकी नाथ उर्फ अखिलेश कुमार मिश्र को कविता पढ़ने के लिए बुलाता हूँ।
मैं अचानक लौकी नाथ बन जाने से थोड़ा हिल-डुल गया था। लेकिन पढ़-पढ़ा के बाहर आया। दोस्तों ने कुछ ही दिनों तक मुझे लौकी नाथ कह कर बुलाया लेकिन अदम जी तो हर मुलाकात में बुलाते का हो लौकी नाथ का हाल बा।
उन्होंने कभी बोधिसत्व नहीं कहा। और सच कहूँ तो मुझे उनकी अपनापे भरी बोली में का हो लौकी नाथ सुनना अच्छा लगता था। अपने बड़े भाई या काका दादा की की पुकार की तरह। सोच रहा हूँ कि अब कौन कहेगा मुझे लौकी नाथ। वे ही कहेंगे। और कोई सुने या नहीं मैं सुन लूँगा।
हिंदी विश्वविद्यालय की अयोध्या कार्यशाला में बड़े उछाह से सबसे मिलने आए। कभी लगा नहीं कि एक बड़े कवि के साथ बैठे हैं। न वे बदले न उनकी कविता बदली, न उनका पक्ष बदला। जबकि बदलने और बिकने के लिए कितना बड़ा बाजार मुह बाए खड़ा है। कह सकता हूँ कि जो बदल जाता है वो अदम गोंडवी नहीं होता। अदम जी को प्रणाम-सलाम।
और बाते हैं- फिर कभी।
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8 comments:
उस महान आत्मा को हार्दिक श्रद्धांजलि
याद उन्हें हम भी कर रहे हैं। सलाम।
अदम जी को हमारी श्रद्धांजलि।
इलाहाबाद के त्रिवेणी महोत्सव में उन्हें सुनने का सौभाग्य मिला था।
अदम गोंडवी को समर्पित एक कविता. शायद कभी प्रत्यक्ष मिलता तो यही कहता जो कविता कह रही है
पता है
तुम नहीं रहे
और कोई खबर नहीं बनी
किसी भी सर्च इंजन में
तुम्हारा नाम , परिचय
तुम्हारी कवितायेँ, ग़ज़ल नहीं आती हैं
तुम किसी लेट्रेरी फेस्टिवल के अतिथि भी नहीं बने
कहो फिर क्यों बनती कोई खबर
तुम मंच से कविता कहते थे
तो सच लगता था
रोये खड़े हो जाते थे
मुट्ठियाँ भिंच जाती थी
लेकिन क्या उस से बदल जाती है
लोकतंत्र की प्रणाली
तुमने कहा था
फाइलों के जाल में उलझी रौशनी
सालो साल नहीं आएगी गाँव में
चीख चीख कर गाते रहे तुम
ग़ज़ल लिखने से बेहतर होता
मांग लिया होता
कोई लोकपाल
कह दिया होता सरकार से
बनाने को सिटिज़न चार्टर
तुम भी रहते खबर में
रोज़ मापा जाता
तुम्हारा भी रक्तचाप
एम्बुलेस खड़ी होती
तुम्हारे मंच के पीछे
लेकिन तुम तो
पीछे ही पड़ गए थे
विधायक के
जो भुने हुए काजू और व्हिस्की के जरिये
चाहता था रामराज लाना
अदम साहब
तुम तो चले गए
वे विधायक अब भी हैं
व्हिस्की और भुने हुए काजू के साथ
तरह तरह के गोश्त परोसे जाने लगे हैं
अब भी फाइलों में उलझी है रौशनी
ठन्डे चूल्हे पर अब भी चढ़ती है
खाली पतीली
दीगर बात है कि
लोकसभा और विधान सभा क्षेत्रो के परिसीमनो के बाद
बढ़ गई है इनकी संख्या
कुछ मंत्री बन गए हैं
और जो मंत्री नहीं बन सके
बना दिए गए हैं आयोगों और समितियों के सदस्य
उधर ठन्डे चूल्हों की संख्या भी बढ़ गई है
यदि आप लिखे होते
अपने गाँव के पकौड़ो और जलेवियों के बारे में
या फिर अपने जीवन में आने वाली महिलाओं के बारे में
थोडा सच थोडा झूठ
आये होते लोग आपकी भी शोक सभा में
छपी होती आपकी तस्वीर भी
किसी अंग्रेजी अखबार में
लेकिन आपकी गजले तो उतारू थी हाथापाई पर
इस व्यवस्था के साथ
एक बात कहूँगा फिर भी
सिंह साहब
आपके जाने के बाद भी
गरजेंगी आपकी ग़ज़लें और
डरेगी यह व्यवस्था !
अदम गोंडवी को विनम्र श्रद्धांजलि!
अदमजी को शृद्धांजलि
पढा। अदम साहब पर अरुण जी ने अच्छी कविता लिखी है। लौकीनाथ का किस्सा भी पसन्द आया।
६ अक्टूबर २०१०, फिर ११ सितम्बर २०११ और उस के बाद १८ दिसंबर २०११ - अरे ई तो बहुत नाइंसाफी है आ. बोधिसत्व जी| आप तो पोस्ट डाल के जैसे कहीं बिजी हो जाते हैं|
अदम जी को ठाले बैठे परिवार ने भी याद किया है| कभी समय मिले तो अवश्य पधारियेगा|
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