Saturday, August 25, 2007

लूटो और बदनाम करो






धर्मपाल जी का समग्र

मित्रों कुछ भी उपहार के रूप में पाना हर एक को आनन्द देता है। पिछले दिनों विचारक चिंतक धर्मपाल जी की समग्र रचनाएँ मेरे शुभचिंतक और मित्र श्री चंदन परमार ने मुझे भेंट की। वह भी कुल चार सेट। जिसमें से तीन जो मैंने अपने मित्रों को देकर पुस्तक दान का आनन्द पाया और एक सेट अपने पास रख लिया।

गाँधीवादी विचारक धर्मपाल जी की रचनाएँ समग्र रूप से प्रकाशित हो गई हैं। इसके पहले वाणी प्रकाशन से अंग्रेजी राज में गोहत्या नाम से एक किताब छपी थी जिसका अनुवाद कवि पंकज पराशर ने किया था। ऐसा मुझे याद आ रहा है। धर्मपाल जी मूल रूप से अंग्रेजी में लिखते थे। उनके लेखन का क्षेत्र भारत के गौरव और सभ्यता संस्कृति से खास कर सत्रहवीं और अठारहवी सदी के भारत और उसकी उथल-पुथल से जुड़ा है।

गाँधी के विचारों को समझने के लिए तो धर्मपाल जी का यह लेखन काफी काम का हो ही सकता है। यहाँ धर्मपाल जी ने अपने खास नजरिये से अंग्रेजों की भारत पर लूट और संस्कृति पर किये हमलों को भी उजागर किया है। अगर अंग्रेजों की लूट का कच्चा चिट्टा देखना हो तो इस समग्र का सातवाँ खंड पढ़ना होगा। अपने लेखन से मान्य लेखक ने यह बताने की कोशिश की है कि अंग्रेजों के पहले और उनके राज में भारतीय शिक्षा और विज्ञान की क्या स्थिति थी। इस ग्रंथ में भारत में लोहा से लेकर गारा बनाने का इतिहास दर्ज है तो बनारस की वेधशाला और ब्राह्मणों के खगोलशास्त्र का भी पूरा ब्योरा है।

धर्मपाल जी का जन्म (1922-2006) का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में हुआ था जो आज उत्तराखंड में पड़ता है . धर्मपाल जी के अध्ययन का क्षेत्र काफी फैला है। उन्होंने अंग्रेजों के पहले के भारत को समझने में अपना काफी समय दिया जिसका परिणाम हैं ये पोथियाँ। धर्मपाल के लेखन से भारत की दो छवि बनती है वह हमारे मन पर अंकित तस्वीर के सर्वथा अलग है. धर्मपाल जी का विवाह एक अंग्रेज महिला फिलिप से 1949 में हुआ था।

हिंदी के पहले धर्मपाल जी की सब रचनाएँ गुजराती में छप चुकी हैं। धर्मपाल जी के समग्र लेखन में किस जिल्द में क्या है आज यह बता रहा हूँ, आगे धर्मपाल जी के लेखन का कुछ हिस्सा चिपकाने की कोशिश करूँगा। किस खंड में क्या है-

खंड एक- भारतीय चित्त, मानस एवं काल
खंड दो- अठारहवीं शताब्दी में भारत में विज्ञान एवं तंत्रज्ञान
खंड तीन- भारतीय परंपरा में असहयोग
खंड चार- रमणीय वृक्ष- अठारहवी शताब्दी में भारतीय शिक्षा
खंड पाँच- पंचायत राज एवं भारतीय राजनीति तंत्र
खंड छ- भारत में गो हत्या का अंग्रेजी मूल
खंड सात- भारत की लूट और बदनामी
खंड आठ- गाँधी को समझें
खंड नौ- भारत की परम्परा
खंड दस- भारत का पुनर्बोध।

मैंने अभी तक कोई भी खंड पूरा नहीं पढ़ा है लेकिन इन पोथियों के विषय-अनुक्रम पर गौर करने से यह बात साफ-साफ दिखती है कि इन्हें पढ़ कर हम एक और भारत को देख पाएँगे। जो शायद धर्मपाल का भारत होगा । इस समग्र के प्रकाशक हैं-

पुनरुत्थान ट्रस्ट
4, वसुंधरा सोसायटी, आनन्द पार्क, कांकरिया, अहमदाबाद-380028
फोन नं. 079- 25322655

Sunday, August 19, 2007

मुहल्ले की लड़कियों का हाल-चाल

( मित्रों हाल-चाल शीर्षक से मेरा चौथा कविता संग्रह शीघ्र ही राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाला है। शायद महीने दो महीने लगें । तब तक आप यह कविता पढ़े। वैसे यह जनवरी 2007 के नया ज्ञानोदय में छप चुकी है ।)

हाल-चाल

अल्लापुर
इलाहाबाद का वह मुहल्ला
जहाँ सायकिल चलाते या
पैदल हम घूमा करते थे।

वहीं रहती थीं वो लड़कियाँ
जिन्हें देखने के लिए
फेरे लगाते थे हम दिन भर।

मटियारा रोड पर रहती थीं
पूनम, रीता, ममता, वंदना
नेताजी रोड पर
चेतना, कविता, शिवानी।
कस्तूरबा लेन में रहती थीं
ऋचा, सुमेधा, अंजना, संध्या।

बाघम्बरी रोड पर रहती थी
एक लड़की
जो अक्सर आते-जाते दिखती थी
वह शायद प्राइवेट पढ़ती थी।

बड़ी आँखे-बड़े बाल
अजब चेहरा मंद चाल।

दिन भर खड़ी रहती थी छत पर
कपड़े सुखाती अक्सर,
हजार कोशिशों के बाद भी
नहीं पता चला
उसका नाम - पोस्ट ऑफिस में करता था उसका पिता काम
हालाँकि
यह वह वक्त था जब हम
लड़कियों के नोट बुक के सहारे
जान लेते थे उनके सपनों को भी।

हजार कोशिशों पर
पानी फिरा यहाँ......

बाद में पता चला
वह ब्याही गई एक तहसीलदार से
शिवानी की शादी हुई वकील से
वंदना की दारोगा से, रीता की बैंक क्लर्क से,
चेतना की कस्टम इंस्पेक्टर से,
संध्या विदा हुई रेल टी.टी. के साथ
सुमेधा किसी डॉक्टर के साथ
ऋचा किसी व्यापारी की हुई ब्याहता
अंजना किसी कम्पाउंडर की,
पूनम की शादी हुई किसी दूहाजू कानूनगो से।

ममता की शादी नहीं हुई
बहुत दिनों.....
देखने-दिखाने के आगे बात नहीं बढ़ी...।

कई साल बीत गये हैं
टूट गया है इलाहाबाद से नाता
छूट गया है अल्लापुर....
दूर संचार के हजारों इंतजाम हैं पर
नहीं मिलती ममता की कोई खबर,
उसकी शादी हुई या बैठी है घर,
अब तो किसी से पूछते भी लगता है डर।

कैसा समाज है, कैसा समय है,
जहाँ मुहल्ले की लड़कियों का
हाल-चाल जानना गुनाह है,
व्यभिचार है,
पर क्या ममता के हाल-चाल की
मुझे सचमुच दरकार है ?

Saturday, August 18, 2007

जो प्यार नहीं करता सड़ जाता है


दुनिया सड़ गई है

इलाहाबाद की बात है। कई साल हो गये हैं पर हम झूरी को नहीं भूल पाये हैं। इलाहाबाद की सड़कों पर अक्सर एक दुबला-पतला सूखा सा युवक दौड़ता हुआ दिखता । उसके दाढ़ी बाल और शकल सूरत काफी कुछ ईसा मसीह की याद दिलाते थे। हम कह सकते हैं वह इलाहाबाद की सड़कों पर भटकता ईसा था। बहुत सुंदर और सलोना रहा होगा वह कभी। वह वैसे कटरा के आस पास अधिक दिखता। असली नाम का तो पता नहीं पर लोगों ने नाम रखा था झूरी। झूरी को बंद मक्खन बहुत पसंद था। अक्सर वह दौड़ते-दौड़ते रुक जाता और किसी से भी बुदबुदा कर कहता कि बंद मक्खन खिलाओ। समझदार इतना कि पल भर में समझ जाता कि यह बंदा खिलाएगा या नहीं। बिना समय जाया किए तुरत दूसरे का रुख करता। जिद्दी इतना कि बंद मक्खन के अलावा कुछ भी नहीं खाता था। चाहे भूखा रहना पड़े। बंद मक्खन के लिए उसका लगाव उसमें स्वाति बूँद के लिए प्यासे पपीहा की छवि दिखती थी। हालाकि वह काफी गंदा रहता था। जैसा कि अक्सर बेघरबार अशांत मन अस्थिर दिमाग लोग हो जाया करते हैं।

झूरी रातें अक्सर सर गंगा नाथ झा हॉस्टल में लगी गंगानाथ जी की प्रतिमा के आसपास बीताता था। पर सबेरा होते ही वह तेज गति से भागता हुआ नजर आता। उसी हॉस्टल के लड़कों की उतरन पहनने को मिल जाती थी।
कभी कभार चायवाले या कुछ श्रद्धालु लड़के झूरी को गरम चाय इत्यादि से स्नान भी करवा देते थे । जिसकी शिकायत तत्काल या अगले दिन किसी भली सूरत इंसान से किया करता।

वह गुणी था। उसके गुणों मे इजाफा तब और हो जाता था जब किसी ने उसके लिए बंद-मक्खन का ऑर्डर दिया होता था। खुशी के मारे वह मुह से ढोल बजाने लगता। बीच-बीच में गाने भी लगता। गाने तो अक्सर फिल्मी होते। वह आये दिन जब प्यार किया तो डरना क्या गाता था। पूछने पर कहता मुझे कोई प्यार नहीं करता....और गंदा चेहरा और उतर जाता।

एक बार हम कई दोस्त सर विलियम हॉलैंड हाल छात्रावास से निकल रहे थे । गेट के सामने झूरी अपने दोनो हाथों से नाक बंद किये खड़े थे। झूरी को खड़े पाकर लोग अचंभित हो गये। पूछने पर झूरी ने बताया कि पूरी दुनिया सड़ गई है। सब कुछ सड़ गया है। बदबू के मारे साँस लेना मुश्किल है। कहाँ जाऊँ। इसीलिए मुह से साँस ले रहा हूँ। किसी ने प्रतिवाद किया तो झूरी ने उसे भी समझाया कि तुम सब सड़ गये हो। क्योंकि तुम लोग मुझे प्यार नहीं करते। जो प्यार नहीं करता सड़ जाता है। उसकी बातों सुन कर हम सन्न रह गये थे।

दस बारह साल बाद आज यहाँ मुंबई में एक दूसरा झूरी मिला। दौड़ता चला जा रहा था। किसी ने कहा कि साहब इसे पागल ना समझें। बहुत गुणी है। मुह से ढोल बजा लेता है। बहुत अच्छा गाता है। दुबला है तो लोग सूखा बुलाते हैं। झूरी नाम का भी तो मतलब वही हुआ सूखा। मैं सूखा का मुरझाया चेहरा नहीं देख पाया। दुविधा में हूँ कहीं झूरी ही तो नहीं था। वैसे इस देश के हर शहर का अपना एक झूरी या सूखा होता है। कभी कभी तो हर पीढ़ी और हर इलाके का होता है। और कभी कभी तो हर आदमी के भीतर अपना एक एक झूरी या सूखा होता है। कहाँ से आते हैं झूरी और सूखा। हमें सोचना होगा।

Thursday, August 16, 2007

हम तमाशाई हैं क्या ?

बाबा नागार्जुन कहते थे कि वे कविताएँ सुहागन या सधवा होती हैं जो कहीं पाठ्यक्रम में लग जाएँ। इसका मतलब यह नहीं कि बाकी कविताएँ अभागन या विधवा होती हैं। यहाँ चिपकी मेरी कविता तमाशा बाबा के उस कथन के आधार पर फिलहाल सुहागन कविता है। मेरी दो कविताएँ विश्वविद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में 1993-94 में लगाई गई थीं । पता नहीं अभी है या नहीं। आप भी पढ़ें ।

तमाशा

तमाशा हो रहा है
और हम ताली बजा रहे हैं

मदारी
पैसे से पैसा बना रहा है
हम ताली बजा रहे हैं

मदारी साँप को
दूध पिला रहा हैं
हम ताली बजा रहे हैं

मदारी हमारा लिंग बदल रहा है
हम ताली बजा रहे हैं

अपने जमूरे का गला काट कर
मदारी कह रहा है-
'ताली बजाओ जोर से'
और हम ताली बजा रहे हैं।

Wednesday, August 15, 2007

दूबे मेरी इज्जत लूटना चाहता था


बच्चों को बचाएँ

बचपन की बहुत सारी बाते ऐसी हैं जिन्हे नहीं लिखा या कहा जा सकता। कुछ इसलिये कि जरूरत नहीं है और कुछ इसलिए कि शायद अभी समय नहीं आया है। पर एक वाकया उसी सुरियाँवा का है जिसका जिक्र मेरी कई कविताओं और ज्ञानदत्त की मानसिक हलचल और अभय तिवारी के निर्मल आनन्द में भी कुछ एक बार आया है। बात 1982 के सितंबर की है। मैं आठवीं पास कर नौवीं में गया ही गया था। एक दम कच्चा कोमल सुंदर सुकुमार पर मिलनसार था । मुझे नहीं याद आता कि बचपन में मैं कहीं या कभी हिचकिचाया होऊँ। यह खुल कर मिलना और बेधड़क पेश आना तब से अब तक तो चला ही आ रहा है। आगे भी शायद चलता रहे।

उस साल अकेले मेरे गाँव से कुल 21 लड़के सुरियाँवा के सेवाश्रम इंटर कॉलेज में दाखिल हुए थे। कुछ उसके पहले से भी पढ़ रहे थे। पर उस दिन पता नहीं क्या बात थी कि जब कॉलेज से निकला तो बाकी लड़के जा चुके थे। पर डर भय की कोई बात नहीं थी। अपनी पुरानी रेले सायकिल पर आरूढ़ दनदनाता चला जा रहा था । स्टेशन के पास वाली क्रासिंग पर पहुँचे कि मेरी सायकिल का फ्रेम टूट गया । गिरे पर चोट नहीं आई।

अब क्या करें। पिता जी के परिचित कराए हुआ बुद्धू मिस्त्री की दूकान पर गये तो वह बोले कि सायकिल तो कल ही मिल पाएगी । अब क्या करूँ। घर कैसे जाऊँ। बाजार में आस पास के गाँव वाले भी आते थे । उसी में एक थे मल्हे दूबे। पड़ोस के गाँव के एक बड़े बाप के बेटे। वे दिख गये अपनी बुलट मोटर सायकिल पर। मेरे पास आये और बड़े प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेर कर पूछा कि यहाँ क्यों बैठे हो। मैंने सायकिल की बात बताई तो वे बोले कि चलों मैं तुम्हें पहुँचा देता हूँ। मैं खुश कि मजे से घर पहुँच जाऊँगा।

वे मुझसे काफी बड़े थे। मेरे एक पड़ोसी के यहाँ आते थे। मैं उन्हे भैया बोलता था। और वे मुझे हमेशा प्यार दुलार करते थे। जब भी मिलते चूमा-चाटी की कोशिश जरूर करते। कुछ ना कुछ खिलाते। जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि तब मैं काफी कोमल और फिल्मी भाषा में कहूँ तो चिकना सा बच्चा था। भाभियाँ नहला कर स्कूल भेजती थी। कभी-कभी काजल भी लगा देती थीं। न भी लगाती तो भी मेरी आँखे थोड़ी कजरारी वैसे भी थीं आज भी हैं। मैं मल्हे के पीछे स्कूटर पर बैठ गया। मोटर सायकिल गाँव की तरफ चल पड़ी। लेकिन अचानक मल्हे ने कहा कि उनकी कोई दवा सरकारी अस्पताल के डॉक्टर के पास रह गई है। मल्हे ने मोटर सायकिल मोड़ दी । और सीधे डॉक्टर के घर पहुँचे। साथ में मैं भी लगा था। मजेदार बात यह कि उनके पास डॉक्टर के घर की चाभी थी। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि उनके पास डॉक्टर के घर की चाभी कैसे थी किस वजह से थी। फिलहाल मैं भी दवा उठाने मल्हे के पीछे अंदर गया।

इस बीच में दूबे जी मुझसे कुछ अपने घर और कुछ बनने वाले सिनेमा हाल की बात कर चुके थे। उन्होने यह वादा भी कर दिया था कि मेरे लिए हर फिल्म का हर शो फ्री रहेगा। बात कुछ ऐसी थी कि मुझे बहुत अच्छी लग रही थी। उसके पहले मैंने सिर्फ एक फिल्म देखी थी जय संतोषी माँ । वह भी अपनी माँ कि गोद में बैठ कर।

दवा उठाने के बाद दूबे जी का पेट खराब हो गया। फिर उन्होने पानी पिया और दवा भी खाई। फिर उन्होने कहा कि क्या वे थोड़ी देर आराम कर सकते हैं। मुझे क्या दिक्कत हो सकती थी मैंने कहा कि कर लें । फिर दूबे जी वहीं सोफे पर लेट गये। फिर उनकी आँखों पर धूप पड़ने लगी तो उन्होने मुझसे कहा कि क्या मैं खिड़की बंद कर सकता हूँ। मैंने खिड़की बंद कर दी। दरवाजा दूबे जी घर में घुसते ही बंद कर चुके थे।

जब सब कुछ बंद हो गया तो दूबे जी खुले। पहले उनका दिल खुला फिर जबान खुली। फिर उनका पायजामा खुला। फिर उनका हाथ खुला। आज भी मुझे याद है कि कैसे दूबे जी ने प्यार से मेरा सिर फिर माथा फिर गालों को सहलाया फिर उनका हाथ मेरे हाफ पैंट के बटन पर गया। मामला अब तक मैं पूरा समझ गया था। पर यह नहीं समझ पा रहा था कि करूँ क्या। मैं उससे लड़ नहीं सकता था। वह पूरा पहलवान था। मुझे मेरी इज्जत लुटती सी दिखी। मैं बचाव का रास्ता खोजने में उलझा था और वे मेरे बटन में। वह एक दो बटन ही खोल पाए थे कि मेरे मुह से निकला कि मुझे टीबी है। मैंने अपने डॉक्टर ताऊ से टीबी के बारे में सुन रखा था। और यह जानता था कि यह खतरनाक छूत की बीमारी है। मेरे मुँह से टीबी का नाम सुनते ही दूबे जी का श्रृंगार रस भंग हो गया। वे मुझे एक दम से छोड़ कर अलग हो गये। बेमन से अपना पायजामा चढ़ाने लगे। किसी तरह इतना ही पूछ पाए कि कब से है यह बीमारी और दवा ले रहे हो कि नहीं। मैंने कहा कि एक शादी में गया था वहीं खराब खाना खा लिया था तब से ही है। अब तक मैं अपना बटन बंद कर चुका था। न हुई टीबी ने मेरी लाज रख ली। दूबे जी हाथ धोने चले गये और मैं बिना कुछ बोले बाहर निकल गया।

6 किलोमीटर पैदल चल कर बाकी बच्चों से दो घंटे देर से घर पहुँचा। माँ परेशान थी कि कहाँ रह गया। घर पहुँचते ही उसने पूछा कहाँ रह गये थे। मैंने सायकिल के टूटने और पैदल आने की बताई। लेकिन दूबे जी की बात नहीं बोल पाया। माँ ने मेरे थके पैरों में तेल लगाया । बाद में मेरी मझली भाभी ने भी मेरा देह मर्दन किया और यह वादा किया कि कल तुझे नई सायकिल मिलेगी। मैं थका था सो जल्दी सो गया। अगले दिन मेरे बड़े भैया मुझे लेकर बाजार गये। नई रेले सायकिल मेरे सामने कसी गई। तब करीब 1120 रुपये में पड़ी थी। पुरानी सायकिल भी बन चुकी थी। पर उस दिन मैं अपनी चमचमाती रेले से घर लौटा।

दो एक दिन बाद दूबे जी दिखे कुछ डरे कुछ परेशान से । पर न वो बोले न मैं। दस साल के बाद एक दिन एक रामायण के आयोजन में दूबे जी बरामद हो गये। तब तक उनका सिनेमा घर बन चुका था और मैं शरीर बल में दूबे जी से कुछ बढ़ चुका था। दूबे जी तब तक बड़े नेता बन गये थे। सब उनकी आव भगत में लगे थे । कि मैंने उनसे पूछा कि मुझे पहचान रहे हैं कि नहीं। दूबे ने काफी लिर्लज्ज सा हाँ में उत्तर दिया और मैंने उन्हे कस कर एक तमाचा मारा। हाँ-हाँ के बीच से दूबे जी ने रास्ता लिया। पिता जी ने पूछा कि क्या बात थी । मैंने कहा कि एक हिसाब बाकी था।

उस प्रसंग को लेकर लज्जित मैं तब भी नहीं था अब भी नहीं हूँ। हो सकता है कि आप का सामना ऐसे किसी दूबे जी से न पड़ा हो। पर आप के आस पास बच्चे होंगे जिनके फेर में कोई ना कोई दबा हुआ दूबे आस-पास चक्कर काट रहा होगा। मेरा इतना ही निवेदन है कि आप अपने अंदर किसी दूबे को न पैदा होने दें साथ ही अपने मासूम बच्चे के आस-पास भी दूबे जैसे किसी को न फटकने दें। बस ।
नोट- ऊपर के दो चित्र जब मैं आठवीं और नौवीं में पढ़ता था। पहला प्रकाश स्टूडियो और दूसरा रूपतारा स्टूडियो, सुरियाँवा में खिचे हैं।

Tuesday, August 14, 2007

ले लो तिरंगा प्यारा




तिरंगा प्यारा


आज पंद्रह अगस्त
ईसवी सन दो हजार सात है
मैं घर से अंधेरी के लिए निकला हूँ
कुछ काम है
अभी मिठ चौकी पर पहुँचा हूँ भीड़ है
ट्रैफिक जाम है
घिरे हैं गहरे काले बादल आसमान में
कुछ देर पहले बरसा है पानी
सड़क अभी तक गीली है।


बहुत सारे बच्चों
छोटे-छोटे बच्चों के साथ
एक बुढ़िया भी बेच रही है तिरंगे।
एक दस साल का लड़का
एक सात साल की लड़की
एक तीस पैंतीस का नौ जवान बेच रहा है झंडा
इन सब के साथ ही
यह बुढ़िया भी बेच रही है यह नया आइटम।


उम्र होगी पैंसठ से सत्तर के बीच
आँख में चमक से ज्यादा है कीच
नंगे पाँव में फटी बिवाई है
यह किसकी बहन बेटी माई है ?
यह किस घर पैदा हुई
कैसे कैसे यहाँ तक आई है ?


परसों तक बेच रही थी
टोने-टोटके से बचानेवाला नीबू-मिर्च
उसके पहले कभी बेचती थी कंघी
कभी चूरन कभी गुब्बारे।


कई दाम के तिरंगे हैं इसके पास
कुछ एकदम सस्ते कुछ अच्छे खास

उस पर भी तैयार है वह मोल-भाव के लिए
हर एक से गिड़गिड़ाती
कभी दिखा कर पिचका पेट
लगा रही है खरीदने की गुहार
कभी दे रही है बुढ़ापे पर तरस की सीख
ऐसे जैसे झंडे के बदले
मांग रही है भीख।


मैं आगे निकल आया हूँ
पीछे घिरे हैं काले-काले बादल
बरस सकता है पानी
भीड़ में अलग से सुनाई दे रही है
अब भी बुढ़िया की गुहार थकी पुरानी।

सड़क के कीचड़ पांक में सनी बुढ़िया
कलेजे से लगा कर
बचा रही रही होगी झंडे की चमक को
और पुकार रही होगी लगातार
हर एक को-

‘ले लो तिरंगा प्यारा ले लो’

Monday, August 6, 2007

हम सब चिड़िया हैं


जूर गगन की छाँव में











मैंने पिछले किसी चिट्ठे में अपने बेटे मानस की गतिविधियों के बारे में लिखा था। आज मैं अपनी बेटी भाविनी या भानी के बारे में लिख रहा हूँ। वह 22 सितंबर को तीन साल की होगी। महीने भर पहले तक वह लड़का थी। लेकिन जब से खेल-कूल जाने लगी है तबसे वह खुद को लड़की कहने लगी है।
उसे फोन रिसीव करना अच्छा लगता है। पिछले कई महीने से शायद ही मैंने कोई फोन रिसीव किया हो। अगर किसी और ने फोन रिसीव कर लिया तो मुश्किल है। कई बार तो फोन कट करके सामने वाले से फिर फोन करने को कहना पड़ता है। वह फोन पर आवाजों को पहचानने लगी है। अपने अभय अंकल की आवाज बहुत ठीक से पहचानती है। अभय कहते हैं कि मैं भानी बोल रहा हूँ और वह डटी रहती है कि नहीं मैं भानी हूँ।
कुछ दिन पहले मेरा बेटा गूगल पर चिड़ियों के चित्र खोज रहा था स्कूल के किसी काम से









अचानक बीच में भाविनी कूद पड़ी। फिर मानस का प्रोजेक्ट पीछे और उसका अपना काम शुरू। उसने गूगल से ही कुछ चिड़ियों में खुद और अपने भाई और मम्मी-पापा के रूप में नामकरण किया । मैं चिड़ियों की पहचान कम ही रखता हूँ। यहाँ हारिल या नीलकंठ जैसा पंछी उसका भाई मानस है। कैरोलीना उडडक उसकी मां और यह सोन चिड़िया जैसी दिख रही bugun liocichla खुद भाविनी है। यह रेयर चिड़िया है और केवल भारत में ही पाई जाती है । अभी तक ज्ञात संख्या सिर्फ 14 है।
उसने मुझे भी खोजा । यहाँ ऊपर उड़ रहा पंछी मैं हूँ। यानी पापा चिड़िया। इन चिड़ियों में उसके अभय अंकल भी है यहाँ ऊपर श्याम-नील रंग में अकेले में हैं निर्मल आनन्द प्राप्त करते ।

भानी दिन में कई बार इन चिड़ियों को देखती है । उसके पास भाविनी या भानी चिड़िया के कई किस्से हैं जिनमें वह लंबी उड़ानों पर जाती है। कभी मुश्किल में पड़ती है तो मानस मम्मी या पापा चिड़िया उसकी मदद में आ जाते हैं।कहानी में रोज-रोज नया कुछ जुड़ता रहता है जैसे कल से उसे बुखार है। और अब कहानी में बुखार जुड़ गया है । वह बहुत ऊपर उड़ गई थी। पानी में भीग गई थी। इसलिये भानी चिड़िया को बुकार है। यहाँ लिखा शीर्षक भानी के एक गाने का अपना ही रूप है। वह गाती है-
जूर गगन की छाँव में
उड़ गई भानी गाँव में ।
सबसे ऊपर भाई मानस चिड़िया की गोद में भानी चिड़िया।




Saturday, August 4, 2007

नागार्जुन बाबा का गुरु मंत्र



बाबा मेरे कनफुकवा गुरु







नागार्जुन बाबा पर हिंदी में बहुत सारी कविताएं लिखी गई हैं। वे शमशेर जी के अली बाबा हैं तो किसी के लिए फक्कड़ । मैंने भी बाबा पर कभी एक कविता लिखी । वह कविता परमानन्द जी जैसे आलोचकों को बहुत पसंद आई । कई आलोचकों ने उसी कविता के आधार पर नागार्जुन जी को समझने की कोशिश की तो मुझे लगा कि काश यह कविता मैं बाबा को सुना पाता । 1990 या 91 की बात होगी बाबा का इलाहाबाद आना हुआ। साहित्य सम्मेलन के किसी समारोह में । मौका अच्छा पा कर जलेस की इलाहाबाद इकाई ने एक गोष्ठी रखी शेखर जोशी जी के लूकर गंज वाले घर में । मैंने हिलते-कांपते हुए अपनी कविता बाबा के सामने पढ़ी। बाबा ने ऐसे सुना जैसे सुना ही न हो । मैं एक दम बुझ गया। पर मन की एक साध तो पूरी हुई ।

उस यात्रा में बाबा चंद्रलोक के सामने होटल पूर्णिमा में ठहरे थे । हमारे एक और मित्र धीरेंद्र तिवारी ने बाबा के पूर्णिमा होटल में रुकने को ही मुद्दा बना लिया था। उसने उस बाबा को अपने व्यंग का निशाना बनाया जो हर किसी पर व्यंग करते थे । उसने बाबा के ऊपर आक्षेप करते हुए एक कविता भी लिख मारी थी और जिद किए था कि वह अपनी कविता बाबा को सुनाएगा। कविता की पहली पंक्ति थी-

सारा देश अमावस में है
कवि तुम बसे पूर्णिमा में ।

धीरेंद्र को इस बात की भी शिकायत भी कि बाबा अगर जनता के कवि हैं तो उन्हे ट्रेन में एसी क्लास में सफर नहीं करना चाहिए।

एक दो दिनों बाद बाबा को दूध नाथ जी के यहाँ भोजन पर जाना । हम भी पहुँचे। बाबा से न जाने कितनी बातें हुईं । पर हिम्मत नहीं हुई कि बाबा से जान लूँ कि उन्हे मेरी कविता कैसी लगी। दूधनाथ जी के यहाँ ही अचानक बाबा ने कहा आओ मैं तुम्हें गुरु मंत्र देता हूँ । फिर वे मेरे कान में कुछ बोले जो मैं आप सब को नहीं बता सकता । कहते हैं कि गुरुमंत्र को जाहिर नहीं किया जाता। जाहिर कर देने से गुरु द्वारा दी गई शक्ति खतम हो जाती है।

बाबा के बारे में बहुत सारी बातें लिखी जानी बाकी है । उनके जैसे व्यक्ति पर तो पोथियों के पन्ने भी कम पड़ेंगे। वे कैसे बच्चों की तरह खुश रहते थे, कैसे अपनी घुच्ची निगाहों से दुनिया को देखते थे । कैसे एकदम बुढ़ापे में भी जीवन के प्रति एक मिठास से भरे थे। वे सच में हम सब के बाबा थे । हिंदी कविता के आखिरी बाबा ।
क्या मैं जीवन भर यह भूल पाऊंगा कि मैं एक दिन नहीं कई दिन बाबा के साथ भटकता रहा था। क्या बाबा को छू पाना, उनके गले लगना कोई भी भुला सकता है। बाबा से मिलना इस धरती के सबसे महान इंसान से मिलना था ।

बाद में बाबा ने मेरी कविता की तारीफ भी कि।कहा कि तुमने मेरी नाक की तुलना चीलम से की है, यह अच्छा है । और फिर अपनी नाक को एक दो बार छुआ भी ।

उसके बाद हमें बाबा का दर्शन कभी नहीं मिला । तब हम नादान थे । बाबा के साथ का महत्व अब कुछ अधिक समझ में आ रहा है। आप बाबा के साथ हमें देख ही चुके हैं अब बाबा पर लिखी मेरी कविता पढ़ें।

घुमंता-फिरंता

बाबा नागार्जुन !
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
कब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में लाई-नून चबाके।

तुम्हारी यह चीलम सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुई चमड़ी के नीचे
घुमड़े खूब तरौनी गाथा।

तुम हो हमारे हितू, बुजुरुक
सच्चे मेंठ
घुमंता-फिरंता उजबक्–चतुर
मानुष ठेंठ।

मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।
बाबा के साथ में हैं सुधीर सिंह और दूधनाथ जी बेटी और हम सब की रचना दीदी।

Friday, August 3, 2007

मथुरा में बुद्ध की दुर्दशा

मथुरा नहीं जाना !


इस घटना का पूरा पाठ मैंने भगवान बुद्ध की किसी जीवनी में पढ़ा था। याद नहीं आ रहा है कि कहाँ पर वाकया पूरा याद है। बुद्ध बूढ़े हो गये थे। शरीर हड्डी का ढ़ांचा भर रह गया था। जरा ने उन्हे थका दिया था। उनके साथ बाकी शिष्य थे और आनन्द भी । आप सब तो जानते ही हैं कि आनन्द महात्मा बुद्ध के मौसेरे भाई भी थे और मुह लगे शिष्य तो वे थे ही । वे हमेशा बुद्ध के साथ रहे। बिल्कुल छाया की तरह। आनन्द बुद्ध के इतने करीब थे कि वे कैसे भी सवाल उनसे कर लेते थे। और बुद्ध उनका उत्तर देते ही थे।

वर्षा बीत चुकी थी। दोनों भाई या गुरु शिष्य वैशाली के पास किसी वन में विश्राम कर रहे थे। साँझ हो गई थी और चलते-चलते बुद्ध थक भी गये थे। आनन्द के लिए यह थकान दुखी करने वाली थी। दर असल वे बुद्ध की थकान में उनका अंत करीब आया देख रहे थे। हमेशा की तरह आनन्द ने एक अटपटा सवाल किया। आनन्द ने पूछा भगवन ऐसा भी कोई नगर या राज्य है जिसमें आप न जाना चाहते हों। जिसमें जाना निषेध करते हों। बुद्ध आँखें बंद किये लेटे रहे। कुछ देर बाद बोले कि मैं मथुरा नहीं जाना चाहूँगा आनन्द। आनन्द चौंक पड़े और पूछा कि मथुरा से परहेज क्यों। बुद्ध ने कहा कि मथुरा न जाने के कई कारण हैं। एक तो वहां के रास्ते पथरीले और ऊबड़-खाबड़ हैं दूसरे वहाँ के लोग भिक्षा नहीं देते। तीसरे स्त्रियाँ परछत्ते से गंदा पानी और कूड़ा-कर्कट फेंकती हैं। मामला यही तक रुक जाता आनन्द तो कुछ नहीं था। मथुरा के बच्चे और लोग पीछे से पत्थर मारते हैं और कुत्तों को लुहकार देते हैं । ऐसे में ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्ते पर दौड़ कर भागना मुश्किल हो जाता है। कभी–कभी कुत्ते काट भी लेते हैं। इसलिए आनन्द मैं मथुरा नहीं जाना चाहूँगा।

आपबीती सुना कर बुद्ध मथुरा में हुई दुर्दशा को भुलाने का यत्न करने लगे। उनकी आपबीती सुन कर आनन्द का अंतर्मन बिलख उठा। उनकी आँखे भर आईं। बुद्ध ने कहा कि रात इसी वन में बिताएंगे । आनन्द वन में बाकी का इंतजाम करने में लग गये।

Thursday, August 2, 2007

आफत में धर्म

दूसरी लोक कथा

मैंने अपनी एक पोस्ट में एक लोक कथा पढ़वाई थी । आज दूसरी लोक कथा पढ़े । इसमें भी मैं श्रोता हूँ और आदरणीय लक्ष्मी कान्त वर्मा जी सुना रहे हैं।

बात 1997 की है। मेरे पास कोई काम नहीं था और पैसों की कुछ खास दरकार थी। पर कुछ उपाय नहीं दिख रहा था कि लक्ष्मी कान्त जी फिर मिल गये । हालचाल के बाद मैंने बताया कि किसी संकट में हूँ । उन्होने किसी प्रकाशक से 6 हजार का एक काम और उस काम का पूरा दाम तत्काल दिलाया। मेरा काम हो गया और मैं उस प्रकाशक को बहुत उम्मीद से देखने लगा। मेरी निगाह का खोट लक्ष्मी कान्त जी ने पढ़ लिया और बोले इसके चक्कर में मत पड़ना। जोंक है। मैं कुछ बोल नहीं पाया । कुछ देर की चुप के बाद उन्होने कहा कि एक कथा सुनों।

यह कथा आपद् धर्म पर है।

किसी राज्य में एक विद्वान ब्राह्मण रहा करता था। सब कुछ ढीक-ठाक चल रहा था कि उसके राज्य में अकाल पड़ गया । प्रजा भूखी थी तो धर्म के सभी काम रुक गये। दान दक्षिणा का सवाल ही नहीं उठता था। ब्राह्मणी ने ब्राह्मण से कहा कि आप ही के किसी पूर्वज का कहना है कि जिस राज्य में जीविका का उपाय न हो उसे छोड़ देना चाहिए।

ब्राह्मण ने राज्य और ब्राह्मणी को छोड़ कर दूसरे राज्य की ओर रुख किया । वह परदेश की ओर लपक पड़ा। ब्राह्मणी दुखी थी की रास्ते में खाने के लिए कुछ सीधा नहीं दे पाई । आगे जा कर ब्राह्मण को भूख लगी पर क्या करता कुछ मिले तब ना खाए। दूसरे राज्य की सीमा में घुसते ही उसने देखा कि एक पीलवान अपने हाथी को नहला रहा था। पास ही में एक कड़ाहे में हाथी का रातिब उड़द रखा था। रातिब जानवरों के खाने को कहते हैं। अन्न देख कर ब्राह्मण की भूख जाग पड़ी। उसने पीलवान से ब्राह्मण यानी खुद को भोग लगवाने को कहा और गंगा में घुस कर नहाने लगा। तब तक पीलवान ने पत्तल पर ब्राह्मण के लिए दो किलो उड़द परोस दिया था।

नहाने के बाद सूर्य को अर्ध्य देकर ब्राह्मण खाने बैठ गया । थोड़ा रातिब अगले दिन के लिए बचा कर ब्राह्मण ने भोग लगाया। श्रद्धालु पीलवान तब तक ब्राह्मण के सामने पीने के लिए एक लोटा पानी भी रख दिया। खा लेने के बाद ब्राह्मण ने लोटे को लात मार कर नदी में फेंक दिया और बोला कि तुम मेरा अपमान कर रहे हो। पीलवान ने कहा कि आप हाथी का खाना खा रहे हैं यह अपमान नहीं है और एक लोटा पानी दे रहा हूँ तो यह आप का अपमान है। ब्राह्मण ने कहा कि रातिब इसलिए का रहा हूँ कि और कुछ खाने को मिल नहीं रहा मूर्ख । पानी मैं लोटे से क्यों पीऊँगा, जब सामने गंगा जी बह रही हैं। रातिब मेरा आपद् धर्म है पानी नहीं।

पीलवान पता नहीं आपद् धर्म का कुछ मतलब समझ पाया कि नहीं पर उसे यह जरूर लगा होगा कि ब्राह्मण की सेवा करके उसने कोई आफत मोल ले लिया है।

इतना कह कर ब्राह्मण ने अपनी राह ली, पीलवान उसे जाते देखता रहा। बाद में अपना लोटा खोजने नही में उतरा ही होगा बेचारा।
लक्ष्मी कान्त जी ने कहा कि प्रकाशक से मिली यह मदद सिर्फ आपद् धर्म है। देश में बहुत सारी द्रव्य. की बड़ी नदियाँ बह रही हैं।

पाठकों
दिक्कत हो तो पीलवान को फीलवान या महावत पढ़े और रातिब को चारा या कुछ भी। पर प्रकाशक को प्रकाशक ही पढ़े। क्योंकि हिंदी के सभी प्रकाशक जोंक नहीं हैं।

Tuesday, July 31, 2007

सफलता के लिए सुर जरूरी !

टंच जी को मेरा प्रणाम

मुझे 20 साल से अधिक हो गया है लिखते। 1986 से लिखना शुरू किया। तब मैं ज्ञानपुर में बारहवीं में पढ़ता था। बाद में वहीं के काशी नरेश राजकीय महाविद्यालय में बीए में दाखिला लिया। लेकिन घर वालों ने धक्का देकर इलाहाबाद भेज दिया। ज्ञानपुर में मेरी कुछ क्षणिकाएँ छपी थीं। वहाँ एक बाल संपादक थे, अमिय देव शंकर, जो मेरे नातेदार भी थे, उन्होने ही अपनी पत्रिका आलोक डाइजेस्ट में मेरी दो क्षणिकाएं छापी थीं। उस प्रकाशन का असल मजा यह था कि मेरा नाम और पता छपा था जिसने मुझे गाँव लड़कों में हीरो बना दिया था। उस समय ज्ञानपुर में मंचीय कविता का बहुत तगड़ा माहौल था। वहाँ के प्रधान कवि हुआ करते थे टंच जी । वे जिसके सिर पर हाथ रख देते वही कवि हो जाता। मैंने बड़ी कोशिश की पर टंच जी का आशीष नहीं मिला।

उनका आशीष न पाकर भी मैं डटा रह जाता पर उन्होने मुझे मंच से धकेला और निकाला दोनों एक साथ दे दिया। आरोप यह कि मेरी आवाज में दम नहीं है। मेरी वही आवाज जिस पर मेरी भाभियाँ फिदा थीं, मेरी ताई जिसमें रामायण सुनती थी टंच जी ने उसे बेसुरा करार दिया। उन्होने कहा तुम्हारी आवाज में न सुर है न खनक । सुन कर लगता है कि रो रहे हो। प्यार की भावनाएं भी लगता है कर्ज मांग रहे हो। वीर रस में लगता है कि रेक रहे हो। कुछ विचार हैं पर सिर्फ भाव या विचार से क्या बनता है। सफलता के लिए आज सुर जरूरी है। बार-बार हूट होना पड़ेगा।

उनकी बातें बहुत बुरी लगी थीं। मन में आया कि उन्हे पटक दूँ और छाती पर बैठ कर कव्वाली जैसा कुछ गाऊँ। यह खयाल भी आया कि कहीं ये लोग मेरी काव्य प्रतिभा से जल तो नहीं रहे हैं। जो हो मैं मंच से जो उतरा तो फिर नहीं चढ़ा।

टंच जी की सुर सिद्धि गजब की थी और वे खुद को तुकाचार्य भी कहते थे। पानी भी मांगते तो तुकों में। बात करते तो लगता कि गा रहे हैं। किसी किशोरी से प्रणयावेदन करते तो वह कविता समझ कर खिल पड़ती। कभी टंच जी को कविता के लिए कंटेंट का टोटा नहीं पड़ा। कभी उनको काव्य वस्तु खोजते नहीं पाया। वे पहले तुक बैठाते फिर लिखते। लिखते क्या वे गा-गा कर अपनी कविता पूरी कर लेते थे। उनकी एक कविता जो आज भी मुझे याद है, वह कुछ यूँ थी-

मैं हूँ सुंदर तुम हो सुंदरि,
तुम हो सुंदर जग से सुंदरि
हम दोनों हैं सुंदर सुंदरि
आओ प्यार करें
नैना चार करें।

ज्ञानपुर से जो रास्ता गोपी गंज की तरफ जाता है उसी पर उनका एक छोटा सा घर था। जहाँ वे अपने दो चार चेलों के साथ रमें रहते थे। पार्ट टाइम एक धँधा और था गाने का। शादियों में रात भर गाने का ठेका लेते थे खूब रंग जमाते थे। जिस बारात में गाने का बयाना नहीं मिला होता था उसमें खुद से ऐसा माहौल बनाते कि महीने भर के भांग का प्रबंध तो हो ही जाता।

उनके कमाने का एक तय तरीका था। वे खर्च के हिसाब से कमाते। किसी शिष्य का फीस भरना होता तो किसी महाजन को कवित्त सुना आते। निकलने लगते तो खुश सेठाइन कुछ ना कुछ दक्षिणा दे जाती । चेले खुश और टंच जी अपने सुर की साधना में लगे रहते। मुह में खैनी या पान दबा कर। पान की लाली में रंगे उनके होठ लगता लिपिस्टिक लगाए हैं। वैसा सुंदर सुकुमार कवि मैंने फिर नहीं देखा। उनकी याद में मीर का एक शेर अर्ज करता हूँ-

वो सूरतें इलाही किस देश बस्तियाँ हैं
जिन्हे देखने को अपनी आँखे तरस्तियाँ है।

टंच जी से तभी की मुलाकात है। उस दिन जो विछुरा आज तक सामने नहीं पड़ा। पता नहीं कहाँ होंगे टंच जी जहाँ भी हों उन्हे हमारा प्रणाम पहुँचे।

Monday, July 30, 2007

काम से काम रखनेवालों सावधान

लक्ष्मीकान्त वर्मा जी ने सुनाई यह कथा


अपने इलाहाबाद की बात है। एक दिन किसी वजह से मैं बहुत चटा हुआ कॉफी हाउस गया पर वहाँ भी राहत नहीं मिली । आनन्द नहीं आया । बाहर निकल रहा था कि नई कविता वाले लक्ष्मीकान्त वर्मा जी मिल गये। पूछा कि मैं उदास क्यों हूँ। मैंने कुछ गोलमोल बताया तो वे अपने साथ फिर अंदर ले गये। कॉफी और इडली का ऑर्डर दिया और कहा कि एक लोक कथा सुनो।

एक राज्य में एक किसान रहता था। वह सिर्फ काम से काम रखता था। उसके पास काम भर की खेती लायक जमीन थी, एक गाय थी जो दूध देती थी। कोठार में थोड़ा अन्न बचा कर रखा था, भुसौल में जानवरों के लिए थोड़ा भूसा था । तभी उसके राज्य में भयानक अकाल पड़ा। उसने अपने परिवार वालों को अपने एक दूर के नातेदार के यहाँ भेज दिया। राज्य में लोग और पंछी पखेरू सब भूख प्यास से मरने लगे। पर वह वह दूध दही मक्खन रोटी में मस्त था। लोग पूछते कि कैसे हो तो बताता कि सब अच्छा है। वह अकाल की छाया से बाहर था। उस पर लोगों के दुख दर्द का कोई असर नहीं था। पर अकाल की छाया उस पर भी पड़ी। पहले भूसा खतम हुआ, फिर गाय मरी, फिर अनाज चुक गया। भूखों मरने लगा। फिर किसी ने पूछा कि क्या हाल है तो उसने कहा बड़ा भारी अकाल पड़ा है। लोग बेहाल हैं, भूखों मर रहे हैं। बड़े बुरे दिन हैं भैया। और वह रोने लगता पर लोग चुपचाप खिसक जाते।

कथा खतम होने तक मेज पर सब कुछ रखा जा चुका था। पेट भर जाने के बाद उन्होने कहा कि जो सिर्फ अपने से काम रखते हैं उनके दुख और सुख दोनो को लोग अपना नहीं मानते।
लक्ष्मीकान्त जी के कई कविता संग्रह और उपन्यास छपे हैं। जिनमे एक काफी प्रसिद्ध हुआ था अतुकांत। यह ज्ञानपीठ दिल्ली से छपा है। उनकी कुछ पंक्तिया पढ़े, जो आज के माहौल पर एक दम लागू होती हैं-

गणेश बिस्कुट चबा रहे हैं
वृहष्पति ट्यूशन पढ़ा रहे हैं
वीरों की पोशाकें पहन ली हैं बाजेवालों ने।

होड़ लेता बेटा

वह मेरे जैसा क्यों दिखना चाहता है ?

अभी पिछले दिनों पहलू पर चंदू भाई ने अपने बेटे को लेकर अपनी कुछ उलझने छापी थीं। मेरी भी अपने बेटे को लेकर कुछ छोटी-छोटी उलझने हैं। चौबीस साल की उमर में यानी 18 मई 1994 को मेरी शादी हो गई थी । मैं पच्चीस पूरे नहीं कर पाया था कि 17 अक्टूबर 1995 को एक बेटे का बाप बन गया । मेरा वह मरियल सा बेटा आज कल ठीक-ठाक हो गया है। नाम उसका मानस है । दिखावा खूब करता है। मौका मिलने पर वह यह जताने से नहीं चूकता कि उसे बहुत कुछ आता है।

वह अकेले जाकर सामान खरीद लाता है। खरीदारी करने मैं उसे बिना सूची के भेजता हूँ और वह पूरे सामान लेकर आता है। अपनी बातें मनवाने की पूरी कोशिश करता है। उसकी माँ और मुझमें किसी मुद्दे पर तकरार होने पर अच्छे पंच की भूमिका निभाता है और हमेशा निर्गुट रहता है।

भयानक बातूनी और किस्सेबाज है। कोई बात छिपाता नहीं है। यहाँ तक कि सुनी हुई गालियाँ तक उद्धृत कर जाता है। पढ़ने से बचने की पूरी कोशिश करता है। पर मरते जीते काम पूरा करता है।

आजकल उस पर एक अलग ही धुन सवार है । वह मुझ जैसा दिखने के लिए बेताब है। मेरी ऊँचाई तक पहुँचने की पूरी कोशिश कर रहा है। कंधे के ऊपर पहुँच भी गया है। कुछ काम कर रहा होता हूँ । वह अचानक आ कर धमका जाता है कि अब मेरे कपड़े खतरे में हैं । वह कोशिश कर रहा है कि मेरे कपड़े उसे फिट हो जाएँ । सीधे सामने खड़े होकर नापने की बात तो कम ही करता है पर बगल में खड़े होकर कहाँ तक पहुँचा है इसका अंदाजा लगाता रहता है।

एक दिन आया और पंजे लड़ाने की बात करने लगा। एक दिन कोशिश करके मुझसे ज्यादा खाना खाने पर डटा रहा। हालांकि पेटू नहीं है पर मुझसे आगे निकल जाने को तैयार है।

वह यह जानने की कोशिश करता है कि मेरा बचपन कैसा था। वह जिस उमर में हैं उस उमर में मेरी गतिविधियाँ क्या थी। मेरी मेरे पिता जी से कैसी और किस तरह कि बनती थी। क्या मैं पिटता था। वह जब भी मुझे देख रहा होता है मैं उलझन में पड़ जाता हूँ । समझ नहीं पा रहा हूँ कि वह आखिर मेरी तरह क्यों बनना चाहता है जबकि वह मेरी सफलता असफलता से परिचित है। मैं उसकी निगाह में कोई बहुत काम का नहीं हूँ। मेरी उलझन यह है कि मैं उससे यह भी नहीं कह सकता कि वह क्यो मेरे जैसा दिखना या बनना चाहता है।

Tuesday, July 24, 2007

दिवंगत कवि शरद बिल्लौरे की एक कविता

जो नहीं हो सके पूर्णकाम, उनको प्रणाम

क्या हमारी दुनिया सिर्फ जीवितों के भरोसे चल रही है। जो नहीं हो सके पूर्णकाम, क्या उनका इस धरती की सजावट में कोई योगदान नहीं है। मेरा मानना है कि ऐसा नहीं है। इसीलिए आज विनय पत्रिका में प्रस्तुत है स्वर्गीय शरद बिल्लौरे की एक कविता।
शरद बिल्लौरे का जन्म 1955 में मध्य प्रदेश के रेहट गाँव में हुआ था। 3 मई 1980 को मात्र 25 साल की उम्र में शरद की लू लगने से कटनी में मौत हो गई। तब तक शरद की कोई किताब नहीं छपी थी। बाद में राजेश जोशी ने शरद की कविताओं का संकलन “तय तो यही हुआ था” नाम से परिमल प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित कराया।शरद का “अमरू का कुर्ता” नामक एक नाटक भी छपा है। आज दोनों किताबें बाजार में नहीं हैं ।
शरद को मरणोपरांत 1983 का भारत भूषण सम्मान दिया गया । सम्मान के निर्णायक थे नामवर सिंह जी । पहले आप शरद की वह कविता पढ़े फिर नामवर जी का मत।

तय तो यही हुआ था

सबसे पहले बायाँ हाथ कटा
फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए
टुकड़ों में कटते चले गए
खून दर्द के धक्के खा-खा कर
नशों से बाहर निकल आया था


तय तो यही हुआ था कि मैं
कबूतर की तौल के बराबर
अपने शरीर का मांस काट कर
बाज को सौंप दूँ
और वह कबूतर को छोड़ दे


सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था
शरीर का एक बड़ा हिस्सा तराजू पर था
और कबूतर वाला पलड़ा फिर नीचे था
हार कर मैं
समूचा ही तराजू पर चढ़ गया


आसमान से फूल नहीं बरसे
कबूतर ने कोई दूसरा रूप नहीं लिया
और मैंने देखा
बाज की दाढ़ में
आदमी का खून लग चुका है।


इस कविता पर नामवर जी ने अपने मत में कहा था-

“जब तक शरद बिल्लौरे जीवित रहे उनका लिखा हुआ बहुत कम प्रकाशित हो पाया था, किन्तु उनकी कुछ छिटपुट कविताओ से उनकी विलक्षण प्रतिभा का अहसास होता था। केवल पच्चीस वर्ष की अल्पायु में उनकी दुखद मृत्यु के दो वर्ष बाद जब उनका संग्रह तय तो .ही हुआ था प्रकाशित हुआ तब हिंदी जगत् इस अपूरणीय क्षति का पूरी तरह अंदाजा लगा सका। स्पष्ट है कि स्वर्गीय शरद बिल्लौरे आज के युवा कवियों में एकदम अलग मिजाज, भाषा और शैली रखते थे। उनकी इस कविता में आज के भूखे आदमी के यातनापूर्ण संघर्ष तथा सब कुछ दे चुकने के बाद भी रक्त मांस की भूख न मिटा पाने की मर्मान्तक मोहभंग को जिस तरह एक पौराणिक आख्यान में केवल संकेत से जोड़ा गया है वह वर्तमान और अतीत के संबंधों और अर्थों को नए और प्रासंगिक ढंग से आलोकित करता है।”

Monday, July 23, 2007

जिया जरत रहत दिन रैन

ऐसे थे ओम प्रकाश


इलाहाबाद में मेरे एक मित्र थे ओम प्रकाश सिंह। कहाँ के रहने वाले थे यह ठीक-ठीक नहीं याद आ रहा। शायद जौनपुर या प्रताप गढ़ के थे । उनके बड़े भाई उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में काम करते थे, और ओम प्रकाश अपने भैया और भाभी के साथ रहते थे। भैया-भाभी तो अपने थे ओम प्रकाश दीवारों के साथ भी रह सकते थे। बल्कि वह दीवारों के साथ ज्यादा सुख से रह सकते थे।

मेरे पास उनकी कोई फोटो होती मैं छाप कर आप को उन तीर्थ स्वरूप मित्र का दर्शन करवा देता । पर क्या करूँ नहीं है। तो शाव्दिक खाका देखिए । ओम प्रकाश की देह पर उतना ही मांस था जितने से उन्हे सुई लगाई जा सके । पतले-पतले हाथ, लंबी दुबली काया, ऊंची लंबी नाक उठा हुआ माथा, और चमकती हुई अंदर को धंसी सी आँखें, सिर पर कंघी किये बाल, मांग एक दम कोरी, सिंदूर भरने लायक और दाहिनी कलाई पर मैहर या विन्ध्याचल की देवियों के धाम से लाया हुआ कलावा हर दम बधा रहता था। वह कलावा भी ओम प्रकाश के शरीर का हिस्सा बन चुका था। कभी ऐसा नहीं हुआ कि ओम प्रकाश बिना कलावा के दिखे हों ।

ओम प्रकाश की कुछ आदतें थी। जैसे कि सब की कुछ ना कुछ होती हैं। वे कभी अपनी बात नहीं रखते थे। यानि कभी उनका कोई पक्ष नहीं होता था। कैसा भी संगीन मामला हो ओम प्रकाश बीच का कोई ना कोई रास्ता निकाल लेते थे। आप मान सकते हैं कि ओम प्रकाश हर एक के साथ थे, हर एक बात के समर्थन में थे । जब तक हम साथ रहे हमने कभी ओम प्रकाश को किसी से उलझते नहीं पाया।

साफ साफ लिखते थे। नंबर पाने की कोशिश करते थे। हर किताब पर कवर चढ़ा होता था। किताब में कभी भी पेन या पेंसिल से निशान नहीं तगाते थे। समय पर आते थे समय पर जाते थे । किसी से उधार नहीं लेते थे ना ही किसी को उधार देते थे । पर कोई उनसे नाराज नहीं था । वे किसी से झगड़ा नहीं करते थे और ना ही कभी ऐसी कोई स्थिति ही पैदा करते थे कि किसी को उनके लिए झगड़ा करना पड़े । पर हम आज तक नहीं समझ पाए कि उनके पक्ष में क्लास की सारी लड़कियाँ क्यों खड़ी रहती थीं। यही नहीं वे हमारे और क्लास की तमाम लड़कियों के बीच एक पुल की तरह थे। एक कमजोर दिखते से पुल की तरह थे, जिसे देख कर ऐसा लगता है कि यह अब गिरा कि तब गिरा, लेकिन नहीं, ओम प्रकाश नाम का वह पतला पुल कभी नहीं गिरा। वो अपनी ही गति में चलते रहे।

कैसा भी माहौल हो कैसा भी समारोह ओम प्रकाश गोदान फिल्म का गाना जरूर गाते थे-
जिया जरत रहत दिन रैन
और कभी मुकेश की आवाज में गाने की कोशिश नहीं की। इस गाने के लिए कभी भी ओम प्रकाश ने किसी से इजाजत नहीं मांगी, एक कलाकार के उतरने और दूसरे के मंच पर चढ़ने के बीच के अंतराल में ओम प्रकाश गाना शुरू कर देते और पूरी क्लास उन्हे सुन कर ही आगे के कार्यक्रम पर जाती थी। अपना गाना गाने के पहले और बाद भी ओम प्रकाश एक दम यथावत रहते। कोई फर्क नहीं देखा जा सकता था।

उसी बीच हल्ला हुआ कि ओम प्रकाश की शादी हो रही हैं। लड़की क्या थी हूर थी। क्लास की ही किसी लड़की ने यह शादी तय कराई थी। पूरी क्लास एक्साइटेड है, पर ओम प्रकाश आते हैं क्लास में बैठते हैं । लड़कियों से बात करते हैं । पढ़ते हैं ।
संगठन के दफ्तर जाते हैं । फीस बढ़ाने के विरोध में पोस्टर बनाते हैं । चिपकाने के लिए लेकर निकलते हैं। पर शादी पर कोई बात नहीं । रास्ते में दूसरे संगठन के लोग मिल गये तो उनका भी दो पोस्टर चिपका दिया या उनके पक्ष में भी दो नारे लगा दिए। वो भी खुश। ओम प्रकाश को किसी कोई खतरा नहीं ओम प्रकाश का कोई दुश्मन नहीं।
कैंपस में आग लगी हो, गोलियाँ चलीं हो, कोई मर गया हो या घायल हुआ हो। ओम प्रकाश आते, माहौल देखते पढ़ाई होगी या नहीं होगी पता करते और चलते बनते । वे कभी पुलिस की लाठियों की जद में नहीं आए। कभी कोई गोली उन्हे छूकर नहीं निकली। कबी उन्हे खोजते हुए कोई नहीं आया। कभी उन्होने खुद को खोजने का सुअवसर ही नहीं दिया।ओम प्रकाश से किसी को कोई तकलीफ नहीं थी। वे किसी के लिए दुख, तनाव या परेशानी के कारक नहीं थे।

एक वक्त आया कि हम सब को लगा कि अब हम बिखर जाएंगे। एम ए की पढ़ाई खतम हो गई थी। सब लोग एक दूसरे का स्थाई पता ठिकाना दर्ज कर रहे थे। पर ओम प्रकाश ने न किसी से पता लिया न दिया। बस एक किनारे बैठे रहे। सब के चले जाने के बाद उठे और घर चले गये। पलट कर एक बार भी दरो दीवार को नहीं देखा , बस जाते रहे जाते रहे।
आज लगभग 15 साल हो गये हैं पर मैं अब भी नहीं समझ पाया हूँ कि आखिर ओम प्रकाश इतना शांत कैसे रह लेते थे । औवल तो वो मिलने से रहे, पर अगर वह मिलेंगे तो पूछूँगा कि भाई इतना निर्लिप्त कैसे रह लेते हैं। हमे भी तो बताइये। पर मुझे नहीं लगता कि वो कुछ बताएंगे।

Saturday, July 21, 2007

मेरे गुरु नागार्जुन बाबा

बाबा मेरे कनफुकवा गुरु


नागार्जुन बाबा पर हिंदी में बहुत सारी कविताएं लिखी गई हैं। वे शमशेर जी के अली बाबा हैं तो किसी के लिए फक्कड़ । मैंने भी बाबा पर कभी एक कविता लिखी । वह कविता परमानन्द जी जैसे आलोचकों को बहुत पसंद आई । कई आलोचकों ने उसी कविता के आधार पर नागार्जुन जी को समझने की कोशिश की तो मुझे लगा कि काश यह कविता मैं बाबा को सुना पाता । 1990 या 91 की बात होगी बाबा का इलाहाबाद आना हुआ। साहित्य सम्मेलन के किसी समारोह में । मौका अच्छा पा कर जलेस की इलाहाबाद इकाई ने एक गोष्ठी रखी शेखर जोशी जी के लूकर गंज वाले घर में । मैंने हिलते-कांपते हुए अपनी कविता बाबा के सामने पढ़ी। बाबा ने ऐसे सुना जैसे सुना ही न हो । मैं एक दम बुझ गया। पर मन की एक साध तो पूरी हुई । उसके बाद उसी दिन बाबा को मेरे गुरु दूध नाथ जी के यहाँ भोजन पर जाना था । उन्हे वहाँ पहुचाने का जिम्मा हम मित्रों ने अपने ऊपर ले लिया । उस समय मैं और आजकल अयोध्या वासी कवि अनिल सिंह दिन में 20-20 घंटे साथ रहते थे। तो हाथ रिक्शे पर मैं दाहिने और अनिल बाँए और हम दोनों के बीच में दुबले- पतले नागार्जुन बाबा । हम बाबा का साथ पाकर पगला से गए थे । इलाहाबाद की सड़कों पर वे दो दिन दीवानगी भरे थे ।
बाबा से न जाने कितनी छोटी-बड़ी बातें हुईं । समोसे से लेकर चटनी तक की चर्चा रही । अचानक पानी बरसने लगा जो रुक रुक कर दो तीन दिन बरसता ही रहा । वहीं बाबा ने बादलों को देख कर कहा कि मेघों को प्रमेह हो गया है। फिर उन्होने दारागंज की किसी पनवाड़िन का हाल-चाल जानने की उत्सुकता जताई । जब नागार्जुन जी इलाहाबाद में रहते थे दारागंज में ही डेरा था उनका ।
पनवाड़िन के किराना की दुकान से बाबा की रसोंई का तार जुड़ा था ।
उस यात्रा में बाबा चंद्रलोक के सामने होटल पूर्णिमा में ठहरे थे । हमारे एक और मित्र धीरेंद्र तिवारी ने बाबा के पूर्णिमा होटल में रुकने को ही मुद्दा बना लिया था। उसने बाबा के उपर व्यंग करते हुए एक कविता भी लिख मारी थी और जिद किए था कि वह अपनी कविता बाबा को सुनाएगा। कविता की पहली पंक्ति थी-


सारा देश अमावस में है
कवि तुम बसे पूर्णिमा में ।


धीरेंद्र को इस बात की भी शिकायत भी कि बाबा को एसी में सफर नहीं करना चाहिए।
मेरी हिम्मत नहीं हुई कि बाबा से जान लूं कि उन्हे मेरी कविता कैसी लगी। दूधनाथ जी के यहाँ अचानक बाबा ने कहा आओ मैं तुम्हें गुरु मंत्र देता हूँ । फिर वे मेरे कान में कुछ बोले जो मैं आप सब को नहीं बता सकता । कहते हैं कि गुरुमंत्र को जग जाहिर नहीं किया जाता। जाहिर कर देने से गुरु द्वारा दी गई शक्ति खतम हो जाती है। यही बता हूँ कि मेरे काव्य गुरु दो रहे हैं एक पूज्य उपेंद्र नाथ अश्क जी और दूसरे आदरणीय दूधनाथ जी ।


बाबा के बारे में बहुत सारी बातें लिखी जानी बाकी है । उनके जैसे व्यक्ति पर तो पोथियों के पन्ने भी कम पड़ेंगे। वे कैसे बच्चों की तरह खुश रहते थे, कैसे अपनी घुच्ची निगाहों से दुनिया को देखते थे । कैसे एक दम बुढ़ापे में भी जीवन के प्रति एक मिठास भरी थी। वे सच में हम सब के बाबा थे । हिंदी कविता के आखिरी बाबा ।


क्या मैं जीवन भर यह भूल पाऊंगा कि मैं एक दिन नहीं कई दिन बाबा के साथ भटकता रहा था। क्या बाबा को छू पाना, उनके गले लगना कोई भी भुला सकता है। बाबा से मिलना इस धरती के सबसे महान इंसान से मिलना था । क्या बाबा ने मेरे कान जो मुझसे कहा वह कभी मैं भुला पाऊंगा।
यहीं यह बताना अच्छा लगेगा कि बाबा ने मेरी कविता की तारीफ भी कि वह भी इस लिए कि मैंने उनकी नाक की तुलना चीलम से की थी । वे बोले थे चीलम सी नाक और फिर अपनी नाक को एक दो बार छूकर भी देखा ।

उसके बाद हम बाबा से कभी नहीं मिल पाए। हम बच्चे थे। बाबा के साथ का महत्व अब कुछ अधिक समझ में आ रहा है। आप भी बाबा के साथ हमें देखें और बाबा पर लिखी मेरी वह कविता पढ़ें। साथ में हैं सुधीर सिंह ।

घुमंता-फिरंता

बाबा नागार्जुन !
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
कब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में लाई-नून चबाके।

तुम्हारी यह चीलम सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुई चमड़ी के नीचे
घुमड़े खूब तरौनी गाथा।

तुम हो हमारे हितू, बुजुरुक
सच्चे मेंठ
घुमंता-फिरंता उजबक्–चतुर
मानुष ठेंठ।

मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।

Friday, July 20, 2007

मैं तिकड़मी हूँ

तीन तिकट महा विकट

भारतीय परंपरा में तीन का बहुत महत्व है। तीन नेता या ग्रंथ नहीं अंक की बात कर रहा हूँ। तीन ऋण होते हैं, तीन ही ताप होते हैं और लोक भी तीन ही कहे या माने जाते हैं। लोकमान्य तिलक जी तो वेदों की संख्या भी तीन ही गिनाले हैं । कभी भारतीय राजनीति के धुरंधर खिलाड़ियों की एक तिकड़ी थी। ये नेता गरम दल के थे और नाम था लाल,बाल,पाल। हिंदू धर्म के बड़े देवताओं की गिनती भी तीन के पद में की जाती हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे प्रतिभावान त्रिदेवों के बीच चौथे के लिए कोई जगह वैसे भी कैसे बच सकती है। और अगर बवी भी तो त्रिनेत्र भूत भावन शंकर उसे खाक में मिला देंगे।

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि रेणु का हीरा तीन ही कसमें क्यों खाता है । वो चाहता तो और कसमें खा सकता था। आज कल कविता में भी एक त्रयी का हवाला आप पाते होंगे। मेरी पत्नी ने याद दिलाया कि गाँधी जी के बंदर भी तो तीन ही थे। संस्कृत व्याकरण में तीन पुरुष होते हैं, प्रथम, उत्तम और मध्यम। आप चाहें तो चौथे श्रेणी में कापुरुष जोड़ दें । काल भी तीन ही होते हैं भूत, भविष्य और वर्तमान काल । यहाँ मैं अकाल को जोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। जबकि वह हर कहीं छाया हुआ है । शरीर की अवस्था भी तीन हैं । आप अभी किसमें हैं बचपन, जवानी या बुढ़ापे में ।

अंकों में ऐसा नहीं कि सिर्फ तीन का ही महत्व है। हर अंकों से जुड़े ऐसे ही पद प्रचारित है। मसलन दो जहान हैं, तीन काल हैं, चार आश्रम और पाँच अग्नियाँ हैं, षट कर्म हैं, सप्त सरिताएं हैं, अष्ट-छाप भी हैं ( कछुआ छाप नहीं कवियों का मध्यकालीन जोरदार गुट था) नव दुर्गाएं हैं, तो दशावतार भी है, वैसे नवधा भक्ति के सहारे कितने ही चापलूसों की नाव पार लगी है, नहीं तो दशों दिशाओं से कभी भी उन्हें धिक्कार की ध्वनि सुनाई पड़ सकती थी । कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि हर अंक से कुछ ना कुछ विशेष शव्द-पद बनता है। मैं तो यहाँ तीन की ही बात करुँगा । क्योंकि मैं तिकड़मी हूँ और तीन-पाँच से अधिक तिकड़म में यकीन करता हूँ। अपना यह तीन तिगाड़ा बडे- बडों का काम बिगाड़ा करता है ।
आज कल में इस तीन तिगाड़ा के कुछ नये रूपों पर विचार कर रहा हूँ, मर्यादावादी क्षमा करेंगे।
मुंबई में लोग कहते हैं कि -
बुड़बक यानी बेवकूफ तीन तरह के होते हैं....
विधवाएं भी तीन तरह की होती हैं
और सरकार भी तीन तरह से काम करती है।
तो व्याख्या पहले बुड़बकों से से शुरू करते हैं।
देश में बेवकूफों की भरमार है। उसमें पहले दर्जे बेवकूफ वह हुआ जिसके चेहरे को देखते ही आवाज आए मिल गया बेवकूफ यानि
1- शकल बेवकूफ,
कथाकार होते हैं
2- अकल बेवकूफ और समीक्षक होता है तीसरे दर्जे का बेवकूफ यानी
3- नसल बेवकूफ
ऐसे ही विधवाएं भी तीन तरह की होती हैं, जिनमें
पहली होती हैं-
आस विधवा - यानि ऐसी विधवा जिसका पति परदेशी है । जो लौट भी सकता है और नहीं भी। ऐसे परदेशी की पत्नी सधवा हो कर भी विधवा है। उसकी दुनिया उम्मीद पर कायम है।
दूसरी होती है,

पास विधवा - ऐसी विधवा जिसके पति के होने ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
और तीसरी होती हैं,

खास विधवा- यानि सचमुच में जिसका सुहाग उजड़ गया हो । इनमें सब का दुख अलग तरह का होता है।हमें सब के प्रति संवेदना रखनी चाहिए।

अब बात सरकार के काम के तीन तरीकों पर।
सरकार या व्यवस्था अपना काम थ्री डी से करती है । वह पहले काम को डिले यानी देर करती है, फिर डायलूट यानी ढीला करती है घोल देती है, इसके बाद डिलीट कर देती है यानी मिटा देती है ।
अब आप चाहें तो इसी तर्ज पर या जैसे मन हो इस तीन या बाकी संख्याओं के साथ खेल सकते हैं ।

Thursday, July 19, 2007

आज कोई नहीं है महाकवि !



कैसे-कैसे कवि !

कल की बात है, किसी का फोन आया कि बता सकते हो कवि कितने तरह के होते हैं । पहले तो मैंने सोचा कि यह कपि यानी बंदरों की बात कर रहा है पर उसने फिर कवियों के बारे में पूछा । मुझे ठीक-ठीक पता तो था नहीं सो यूँ ही बता दिया कि तीन तरह के होते हैं । एक पाठ्यक्रम और पुरस्कार वाले, दूसरे छप-छप कर मर जाने वाले और तीसरे सिर्फ लिख कर मर जाने वाले । उन्हे कहीं भाषण देना था उनका काम बन गया। वे मस्त रहे पर मैं उलझ गया कि आखिर कवि कितने तरह के होते हैं । एक दूसरे मित्र ने कहा यह भी कोई उलझन की बात हुई । हुआ करें तुम्हारा क्या । कौन पढता है कविता- फबिता। कौन पूछता है हिंदी कवियों को । अभी तो हर कोई तुक्कड़ है, तुकें भिड़ा कर कई महाकवि हो गये हैं । एक ने कहा कि अपने को कविता से चिढ़ है, अपना अंग प्रत्यंग सुलग उठता है कवि और कविता के नाम पर । फिर जिसके नाम से आग लगती हो उसे जानने का क्या फायदा। मैने कहा पर जान ही लेने में क्या बुरा है। हो सकता है कभी काम ही आ जाए। ज्ञान बढ़ा लेने से क्या दिक्कत।
सो हम जुटे कवियों का प्रकार जानने में । संस्कृत और हिंदी की पोथियों में विद्वानों ने कवियों को तीन समुदायों में विभाजित किया है। पहले समुदाय में है शास्त्र कवि, दूसरे खेमे में हैं काव्य कवि और तीसरे गुट में गाल फुला कर बैठे हैं उभय कवि। इनमें क्रमानुसार एक दूसरे से बड़ा है।

यह विभाजन अपनी बही में लिख तो लिया पर कुछ समझ में आया नहीं । तो संस्कृत के परम विद्वान राज शेखर से पूछा । आज कल वो मेरे पड़ोस में रहते हैं। उन्होने बता कर मेरी उलझन सुलझा दी । आप भी जाने और अपने परिचित कवियों को उस कोटि में रख कर कविता का आनन्द लें। कोटि के अनुसार कवि का हवाला देने का रिस्क मैं नहीं ले रहा । कवि के श्रद्धान्ध भक्त मुकदमा कर दें तो।

(1) काव्य-विद्यास्नातक- जो व्यक्ति कवित्व के संगीन इरादे से काव्य विद्याओं यानी व्याकरण, छंद, अलंकार तथा उपविद्याओं अर्थात चौंसठ कलाओं को सीखने के लिए गुरुकुल यानी विद्यालय में दाखिला लेता है, वही काव्य-विद्यास्नातक की उपाधि पा जाता है।

(2) हृदय-कवि- यह बड़ी खतरनाक कैटेगरी है। जो भी कविता बनाता है परंतु संकोचवश छिपा कर रखता है । बेचारा ना तो किसी को पढ़ कर सुनाता है न पत्रृपत्रिकाओं में छपाता है। कुल मिलाकर उसकी महान कविता का प्रचार-प्रसार उसके दिल की डायरी में दफ्न हो कर रह जाती है।

(3) अन्यापदेशी- यह थोड़ा चतुर होता है। यह कविता तो धड़ाधड़ लिखता है पर लोग कमजोर रचना कह कर खिल्ली ना उड़ाई जाए इसलिए दुसरे की रचना कह कर सुनाता है। अनेक कवि शुरू में यही उपाय करते हैं। लोगों ने तारीफ की तो मेरी नहीं तो दूसरे की ।

(4) सेविता- ऐसे कवियों की जमात बड़ी तगड़ी है। ये प्राचीन कवियों की छाया लेकर कविता करते हैं । नकल नहीं केवल छाया। आप इनके सामने वही रचना सुनाएं जो प्रकाशित हो गई हो। अन्यथा आप के पलटते ही छाया लेकर रच लेगा यह नई कविता और आप के पहले कहीं छपा भी लेगा । फिर आप हो जाएंगे सेविता । इलाहाबाद में कुछ ऐसे सेविता कवि आज भी हैं । आप के शहर में भी होंगे। बचिएगा।

(5) घटमान- वह कवि जो फुटकर कविता तो अच्छी कर लेता है पर कोई प्रबंध काव्य नहीं रच पाता। इस आधार पर आज के सारे कवि इसी घटमान की कोटि में आते हैं। लेकिन कहलाना चाहते हैं सब महा कवि। है ना कलयुग का जोर।

(6) महाकवि- वह कवि जो प्रबंध काव्य की रचना में समर्थ हो । इस हिसाब से न आज कोई तुलसी है न सूरदास। न कोई रामचरितमानस है ना सूर सागर । प्रश्न- हिंदी का आखिरी प्रबंध काव्य कौन (अ) कामायनी (ब) प्रिय प्रवास (स) राम की शक्ति पूजा (य) अन्य।

(7) कविराज- यह कवियों का सरताज है। कविराज वही होगा जो सब प्रकार की शैलियों और भाषा में कविता लिख सके। आप की निगाह में है कोई कवि।

(8) आवेशिक-मंत्र तथा तंत्र आदि की उपासना से काव्य रचना में सिद्धि पानेवाला व्यक्ति आवेशिक कवि कहलाता है। लेख पढ़ने के बाद उपासना में मत लग जाइयेगा। कुछ होना नहीं है। पर आप कहाँ मानने वाले।

(9) अविच्छेदी- जो जब जी चाहता है तभी बिना किसी दिक्कत के कविता कर सके वही अविच्छेदी कवि कहलाएगा। आजकल यही आशुकवि है। इनकी हर युग में डिमांड रही है।

(10) संक्रामयिता- ऐसे कवि जो दूसरों में कविता का वायरस डाल देते हैं। यानी सरस्वती का संक्रमण करते फिरते हैं। इलाहाबाद में एक वक्त पर ऐसे कई अखाडे और मठ थे जिनमें ऐसे समर्थ कई कवि धूनी रमाते थे। जिस शिष्य के सिर पर हाथ रख देते उसी के रोम-रोम से काव्य की निर्झरिणी फूट पड़ती थी । आज कल सुनते हैं वहाँ सूनेपन का राज है । कहावत हैं ना ज्यादा जोगी मठ उजाड़।


तो भाइयों और बहनों आज हमारी हिंदी में ना कविराज है ना महाकवि बस घटमान कवियों का साम्राज्य है। हमने चौर्य-कवि और कूड़ा कवि को नहीं गिना है । बेचारे चोर कवि तो अक्सर पकड़ ही लिये जाते हैं और कूड़ा कवि तो कूड़ा ही करेगा । यहाँ उनका ही हवाला है जिनमें रचने की कैसी भी क्षमता हो। अब अगर आप किसी और तरह के कवि को जानते हों जो यहाँ दर्ज होने से रह गये हों तो टिप्पणी करके मुझे बता दें । आखिर ज्ञान कभी तो काम आएगा ही । यह विभाजन शास्त्रानुसार है, गप्प नहीं। आप इससे संस्कृत आलोचना की शक्ति का अंदाजा लगा सकते हैं।

अगली कड़ी में कैसे कैसे आलोचक

Wednesday, July 18, 2007

त्रिलोचन की दो कविताएँ

अपने त्रिलोचन जी
आज की हिंदी के शिखर कवि त्रिलोचन का जन्म 20 अगस्त 1917 को चिरानीपट्टी, कटघरापट्टी, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। अंग्रेजी में एम.ए.पूर्वार्ध तक की पढ़ाई बीएचयू से । इनकी दर्जनों कृतियाँ प्रकाशित हैं जिनमें धरती(1945), गुलाब और बुलबुल(1956), दिगंत(1957), ताप के ताए हुए दिन(1980), शव्द(1980), उस जनपद का कवि हूँ (1981) अरधान (1984), तुम्हें सौंपता हूँ( 1985) काफी महत्व रखती हैं।
इनका अमोला नाम का एक और महत्वपूर्ण संग्रह है। त्रिलोचन की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह राजकमल प्रकाशन से छप चुका है। वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह के शव्दों में “उनका जितना प्रकाशित है उतना या कदाचित उससे अधिक ही अप्रकाशित है”।हिंदी में सॉनेट जैसे काव्य विधा को स्थापित करने का श्रेय मात्र त्रिलोचन को ही जाता है। आप त्रिलोचन को आत्मपरकता का कवि भी मान सकते हैं। भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल जैसी आत्मपरक पंक्तियाँ त्रिलोचन ही लिख सकते हैं। परंतु ऐसा नहीं है कि त्रिलोचन का काव्य संसार केवल आत्म परकता तक ही सीमित है। शब्दों का सजग प्रयोग त्रिलोचन की भाषा का प्राण है । चंदू भाई अभी ऐसा ही कर पाया हूँ । हमें कोशिश कर के पिछली पीढी की कविताएं ब्लॉग पर छापनी होगी। त्रिलोचन जी शतायु हों और उनका आशीष हम सब पर बना रहे इसी कामना के साथ प्रतुत हैं त्रिलोचन की दो कविताएँ।
पहली कविता

उनका हो जाता हूँ

चोट जभी लगती है
तभी हँस देता हूँ
देखनेवालों की आँखें
उस हालत में
देखा ही करती हैं
आँसू नहीं लाती हैं

और
जब पीड़ा बढ़ जाती है
बेहिसाब
तब
जाने-अनजाने लोगों में
जाता हूँ
उनका हो जाता हूँ
हँसता हँसाता हूँ।

दूसरी कविता

आज मैं अकेला हूँ

(1)

आज मैं अकेला हूँ
अकेले रहा नहीं जाता।

(2)

जीवन मिला है यह
रतन मिला है यह
धूल में
कि
फूल में
मिला है
तो
मिला है यह
मोल-तोल इसका
अकेले कहा नहीं जाता

(3)

सुख आये दुख आये
दिन आये रात आये
फूल में
कि
धूल में
आये
जैसे
जब आये
सुख दुख एक भी
अकेले सहा नहीं जाता

(4)

चरण हैं चलता हूँ
चलता हूँ चलता हूँ
फूल में
कि
धूल में
चलता
मन
चलता हूँ
ओखी धार दिन की
अकेले बहा नहीं जाता।

सीता ने कहा, राम से मन न मिलेगा


सीता का अपार-दुख

कुछ दिनों पहले पहलू में सीता के लोक रूप की चर्चा चंदू भाई ने चलाई थी। मैंने उस गीत का पूरा पाठ देने को कहा था। पता नहीं यह वही गीत है या कोई और । यहाँ एक अवधी जाँत गीत का जस का तस रूपांतर प्रस्तुत है। इसमें सीता अपने मन का दुख प्रकट करते हुए कहती हैं कि अब मेरा मन राम से सपने में भी न मिलेगा। सीता का यह रूप ग्रंथो में न गूँथा गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं । अयोध्या के इक्ष्वाकुओं ने स्त्रियों पर हर संभव जुल्म किये हैं । इस अत्याचार को लोक ने सहेजा है क्योंकि वह अपनी थाती को सहेजना जानता है । तभी तो सीता का यह संवाद आज भी सुरक्षित है। गीत का आद्यंत “जेठै की दुपहरिया .......त विधि न मिलावैं हो राम” है। सीता से जुड़ा अगला जाँत गीत अगली कड़ी में । यह पाठ पंडित राम नरेश त्रिपाठी के “ग्राम गीत” में संकलित है।

1-जेठ की दुपहरी है। धूल जल रही है। राम ने सीता को ऐसे समय में घर से
निकाला जब वे गर्भ भार से शिथिल थीं।
2-वन में सीता बिसुर-बिसुर कर रोती और कलपती हैं - हाय राम, बच्चा होने पर कौन मेरे आगे पीछे होगा? कौन देख भाल करेगा? कौन धगरिन बच्चे का नाल काटेगी?
3-सीता का विलाप सुन कर वन की तपस्विनियाँ निकलीं । वे सीता को समझाने लगीं कि हे सीता चिंता मत करो। हम तुम्हारी देख भाल करेंगी। हम तुम्हारी धगरिन होंगी।
4-सीता विलाप करती हैं कि हे राम ! बेल की लकड़ी कौन लाएगा? रात बड़ी विपत्ति की होगी।
5-हाथ में कलश लिए ऋषि-मुनि सीता को समझाते हैं कि हे सीता हम बेल की तकड़ी ता देंगे। रात सुहावनी हो जाएगी।
6-दूसरी ओर चैत महीने की नवमी तिथि को राम ने अयोध्या में यज्ञ आरंभ किया । हे राम सीता को ले आओ सीता के बिना यज्ञ सूनी रहेगी।
7-आगे के घोड़े पर वशिष्ठ मुनि, उनके पीछे भरत और अल्हड़ बछेडे पर लखव सीता को मनाने पहुँचे।
8-पत्ते का दोना बना कर, उसमें गंगाजल लेकर सीता गुरु जी के पैर धोती है और माथे चढ़ाती हैं ।
9-गुरुजी कहते हैं- हे सीता तुम तो बुद्धि की आगार हो, भला तुमने राम को कैसे भुला दिया ? अयोध्या को तुमने छोड़ ही दिया ?
10 सीता कहती हैं- हे गुरु राम ने मुझे सोने की तरह आग में डाला, तपाया जलाया और भूना । मुझे ऐसा डाहा कि सपने में भी अब उनसे मन न मिलेगा।
11- पर हे गुरु ! आप का कहना मानूँगी। अयोध्या चलूँगी। पर जब पुरुष का ऐसा ही प्रेम है, तो ब्रह्मा उससे न मिलावें, तभी ठीक है।