Friday, November 30, 2007

हम न मरब मरिहैं संसारा

हिंदी मरते नहीं......

तीस दिनों से ब्लॉग पर लेखन-रस नहीं चखा पर उसका नशा लगातार छाया रहा। कितनी बार सोचा कि लिखूँ , छापूँ , टिप्पणियाँ दूँ, लेकिन पता नहीं क्यों नहीं लिख पाया। मैं जीवन में कभी इतना व्यस्त नहीं रहा हूँ कि लिखने के लिए समय न निकले। और न ही इतना व्यस्त रहना चाहूँगा कि न लिख पाऊँ। न लिखने का कारण और लिखने का बाहाना महान लेखकों को शोभा दे सकता है हम टुटपुँजिया लेखकों को नहीं। हमारी तो जिंदगी ही लेखन पर आधारित है।

इस बीच मैं कहीं कुछ और लिखने में लगा था। एक फिल्म की स्क्रिप्ट में कुछ लिखता रहा और एक किताब संपादित की। 25 के करीब फिल्में देखीं और हप्ते भर नदी के जल में स्नान किया। तीन दिन पेड़ की छाया में बैठा और खेत से मूलियाँ उखाड़ कर खाता रहा। कुल मिलाकर मस्त रहा। बस ब्लॉग पर लिख नहीं पाया। बाकी सब चकाचक रहा।

आज कुछ लिखने के लिए नहीं बस आप लोगों के सामने हाजिर होने के लिए लिख रहा हूँ....। यह बताने के लिए कि मैं मरा नहीं हूँ क्योंकि गाँवों से जुड़े लोग मरते नहीं। वे धूल झाड़ कर उठ खड़े होते हैं और मैं गाँव वाला ही हूँ....मारने से नहीं मरूँगा। साथ ही मुझे जिलाने वाला साहित्य संजीवनी भी मिली हुई है। मैं बनारसी हूँ और एक बनारसी कवि कबीर के शब्दों में दावे से कह सकता हूँ कि -

हम न मरब मरिहैं संसारा
हमकू मिला जियावन हारा।

मैं जिंदा हूँ तो हिंदी के कारण । मैं जिंदा रहूँगा तो हिंदी के चलते। हिंदी मेरी माँ है मेरी जननी। यह मुझे बचाए रखेगी। हम खुद भी हिंदी हैं.....और हिंदी मरना नहीं जानता या जानती।

आज और कुछ नहीं लिख रहा हूँ। क्योंकि लिखते नहीं बन रहा है । फिर भी लिख रहा हूँ क्योंकि नवंबर महीने से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। मैं नहीं चाहता कि विनय पत्रिका के इतिहास में यह लिखा जाए कि मैंने इस माह को लेखन के लायक नहीं पाया। मैं नहीं चाहता कि नवंबर के खाते में कुछ न दर्ज हो। आखिर यह महीना मेरे जीवन में बहुत महत्व रखता है । इसी माह में मुझे मेरी पत्नी के प्रथम दर्शन हुए। तब वह मेरी सहपाठिनी थी। इसी माह में मैंने 1997 में अपने प्यारे पिता को खोया अर्ध-अनाथ हुआ। बीते तीस दिनों में बहुत कुछ किया जो कि मैं आप सब को बताना नहीं चाह रहा। हालाकि बता देने से कुछ घट नहीं जाएगा पर बताने का मन नहीं है।

मित्रों कल शायद कुछ और लिखूँ या शायद महीने भर के लिए फिर गायब हो जाऊँ.....पर आप लोग यह बात गाँठ में बाध लीजिए कि मैं कुछ दिनों के लिए गुम हो सकता हूँ मर नहीं सकता।

17 comments:

काकेश said...

आप मस्त रहें यही कामना है.जब मन हो लिख दें ताकि हम जैसे पाठकों का भी भला हो जाये.

36solutions said...

स्‍वागत, बोधित्‍सव जी ।
हमें आपके जमीन से जुडे लेखन को पढने का अधिकार है और आपका कर्तव्‍य है कि महीने में कम से कम एक दो पोस्‍ट तो हम लोगों के लिए लिखें ।

आरंभ : शिवरीनारायण देवालय एवं परंपराएं

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

अरे भाई
साकत मरें संत जन जीवैं
छकि-छकि राम रसायन पीवैं
भला आप क्यों मरेंगे.
लेकिन एक बाट जान लीजिए. लिखिए चाहे न लिखिए, पर सरबत दे भले दी सोचते रहिये. क्योंकि
u think, therefore u r.

Ashish Maharishi said...

गुरु देव कम से कम यह तो बता दें कि आप हैं कहाँ..और किसके खेत की मूली खा रहे हैं.. .

Nitin Bagla said...

"...25 के करीब फिल्में देखीं और हप्ते भर नदी के जल में स्नान किया। तीन दिन पेड़ की छाया में बैठा और खेत से मूलियाँ उखाड़ कर खाता रहा..."
बडी शानदार लाइफ है आपकी...

Gyan Dutt Pandey said...

सर्दी का मस्त मौसम है। मूली से मन भर जाये तब भी मरण जरूरी नहीं - गाजर पर टूट पड़ा जा सकता है।
ब्लॉग-स्लॉग तो सेकेण्डरी है। प्रसन्नता प्राथमिक है। उसे देखो-खोजो-पकड़े रहो।

Shiv Kumar Mishra said...

बोधि भाई,

मूली बड़ी शक्तिदायक होती है. भीम मूली का सेवन करते थे. सुनते हैं राक्षसों को मारने के लिए निकलते थे तो मूली खाना नहीं भूलते थे.

आपको तो पेड़ की छाया, नदी में स्नान, लेखन और फ़िल्म देखने से मिलने वाली शक्ति ऊपर से मिली है. ऐसे में मरने का सवाल कहाँ है. आप तो लिखें, मस्त लिखें और हजारों साल जियें.

यशवंत सिंह yashwant singh said...

जुग जुग जियें और खूब लिखें.....
यशवंत

अभय तिवारी said...

चलो गुरु लौट कर आ गए हो अब जमे रहना..

ALOK PURANIK said...

कहां प्रभो इत्ती इत्ती देर में आयेंगे, तो कैसे काम चलेगाजी। मस्ती चलती रहे, काम भी चलता रहे। शुभकामनाएं आपकी फिल्मों के लिए।

Sanjeet Tripathi said...

नदी जल में स्नान किए, पेड़ की छाया में बैठे, मूली उखाड़कर खाए यह तो सही किया आपने, मन अब कैसा है यह जानना चाहूंगा अब, पहले से शीतल ना?
आप लिखते रहा कीजिए, रुका न कीजिए, माटी की गंध सी आती है आपके लेखन से!!

अफ़लातून said...

मौजूद रहें , मेरे भाई ।

manglam said...

बखूबी अपने दिल की सारी बातें बता दीं आपने, शुक्रिया, गांव पर आपका इतना गवॅ वंदनीय है, अभिनंदनीय है, इस आत्मसम्मान बोध के लिए आप वाकई साधुवाद के पात्र हैं।

अनूप शुक्ल said...

जियो रजा बनारस। लिखत-पढ़त बनाये रखें।

बोधिसत्व said...

1- काकेश भाई भला तो मेरा भी होगा
2-संजीव भाई कोशिश करूँगा....
3-इष्ट भाई अच्छा सोचा आपने
4-यही हूँ आशीष, पर मूली अपने खेत की नहीं है...
5-नीरज भाई आपका स्नेह बना रहे....
6-ज्ञान भाई प्रसन्ता का आशीष दें..
7-शिव भाई मूली बिन सब सून .....
8-यशवंत भाई आपका भारी हूँ....
9-अभय भाई कोशिश करूँगा कि जमा रहूँ...
10-आलोक भाई अब देर नहीं होगी...
11-संजीत भाई अच्छी लगी आप की प्रतिक्रिया
12-अफलातून जी को मेरा प्रणाम
13-मंगलम का मंगल हो
14-अनूप जी आपका आभारी हूँ....

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

जो रचता है, वही बचता है. फिर आप तो बड़े अच्छे रचयिता हैं. मरने की बात अचानक कहाँ से आ गयी? दुआ करता हूँ कि जिस प्रकार कार्टून चरित्र 'पोपोये' पालक खाते ही अफलातून बन जाता है उसी प्रकार मूली खा-खाकर आप इस असार संसार में सारगर्भित और अफलातून रचनाएँ करते रहें. जय हो!

अजित वडनेरकर said...

जो सबने कही , सो अपनी भी।
मस्ती में रहें, जुटे रहें , वक्त मिले तो ही न आएंगे इधर....सो आ जाइयेगा कभी कभी
शुभकामनाएं ।