Wednesday, December 31, 2008

क्या होगा कल नया जो अब तक नहीं था

२००८ विदा

2009 से कुछ घंटे की देरी पर हूँ। आप भी उतनी ही दूरी पर है। हम सब के जीवन से ३६५ दिन या यूँ कहें कि एक और साल गया।
अगले साल को लेकर न कोई बड़ी उलझन है न कोई बड़ी योजना। बस कुछ छोटी योजनाएँ हैं कुछ छोटे सपने जिन्हें पूरा करने की फिराक में जा सकता है यह 2009।

मैं कोई धंधेबाज तो हूँ नहीं कि एक-एक दिन का एक-एक काम का हिसाब रखूँ। लेकिन यह तो कह ही सकता हूँ कि 2008 में ऐसा क्या नहीं हुआ जो 2009 में हो जाएगा। मेरे लिए यह साल का बदलाव केवल कैलेंडर का पन्ना पलट जाना । बल्कि मैं सोचता हूँ कि पंछियों का कोई नया साल होता होगा क्या। क्या पेड़ पौधे भी अपना नया साल मनाते होंगे। क्या नदियों के पास भी उनके पानी का, बहने का कोई हिसाब होता होगा कि नहीं।
तो कल को एक नया दिन नहीं बल्कि पिछले तमाम दिनों का एक सिलसिला मान कर खुश रहें....और करते रहे अपने रोज मर्रा के काम। कल सुबह कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो कि आज या बीते कल या 2001 या 1968 की किसी 1 जनवरी को नहीं हुआ होगा।
लेकिन आप सब को यह साल अच्छा रहे.....शुभ कामनाएँ।

Sunday, November 30, 2008

मैं बचा हूँ कुशल से हूँ

मैं सही सलामत हूँ

मैं इसलिए बचा हूँ
क्योंकि मैं घर में बैठा हूँ.....
यदि मैं भी वहाँ होता गेटवे या ताज पर तो
आप सब मेरा शोक मना रहे होते।
मैं इसलिए बचा हूँ क्योंकि मैं
वहाँ नरीमन हाउस में नहीं था
ओबरॉय में नहीं था जहाँ गोलियाँ चल रही थीं....
जहाँ मौत का महौल था।
मैं सच में केवल इसलिए बचा हूँ क्योंकि
मैं बच-बच कर रह रहा हूँ
मैं बच-बच कर जीने का अभ्यासी हो गया हूँ
जब से पैदा हुआ यही सिखाया गया
सब यही कहते पाए गए हैं कि बच के रहना
उधर नहीं जाना, उससे नहीं लड़ना
घर में रहना
सावधान रहना
अपना ध्यान रखना....
और मैं
घर में हूँ
अपना ध्यान रख रहा हूँ
किसी से नहीं लड़ रहा हूँ
बच कर रह रहा हूँ
इसीलिए अब तक
बचा हूँ।

Friday, October 31, 2008

प्रभु जी काहे दिए गुरु कपटी

गुरु महिमा

हर किसी के जीवन में गुरु का बहुत महत्व है...मेरे जीवन में भी है....मैं अपने गुरुओं का बहुत ऋनी हूँ....और सदैव श्रद्धा से स्मरन करता हूँ.....किन्तु बहुत से चेले ऐसे होते हैं जिन्हें अच्छे गुरु नहीं मिलते। एक कहावत है पानी पिओ छान के , गुरु करो जान के। पानी छानने के लिए तो भाँति-भाँति के फिल्टर मिलते हैं...किन्तु गुरु को जानने के लिए कोई हिल्टर नहीं मिलता...मैं तमाम बड़ी कंपनियों से निवेदन करूँगा कि वे एक गुरु जाँचक यंत्र बनाएँ....जिससे चेलों को ऐसा कष्ट न हो जैसा निचे लिख रहे चेले को हुआ है.....
यह मेरा नहीं एक पिछे रह गए चेले का दुख है....उसके दुख को समझें....उसे अच्छा गुरु मिलो यह दुआ करों...

चेला चौपदी

प्रभु जी काहे दिए गुरु कपटी
जात हैं जब गुरु से ग्यान माँगन को, मारत डंडा झपटी।। प्रभु जी।।
जात हैं जब गुरु की सेवा करन को , देत उठाइके रपटी।। प्रभु जी।।
जात हैं जब गुरु से मुक्ति माँगन को, गर धरत हैं लपटी।। प्रभु जी।।
जब गुरु कहत मौन रहन को, गुरुनी गारी देत है डपटी ।। प्रभु जी।।

Friday, October 24, 2008

भानी हिंदी हैं.....



तुमको सुनना पड़ेगा....

भानी की छुट्टियाँ हैं...दीपावली की.....मेरा घर में काम करना मुश्किल हो गया..है...। थोड़ी-थोड़ी देर पर वह यमदूत की तरह हाजिर होती है और अपनी बात सुनने को कहती है...मेरी मजाल की मैं भानी की बात न सुनूँ....न सुनने पर कहती है कि तुमको सुनना पड़ेगा नहीं तो घर से निकाल दूँगी....।

परसों उन्होंने डरा-धमका कर जो बात सुनाई आप भी पढ़ें...
भानी से उनकी किसी दोस्त ने पूछा कि तू क्या है....उसका प्रश्न न समझते हुए भानी ने कहा कि तू क्या है...। उस लड़की ने कहा कि मैं गुजराती हूँ....भानी ने साथ में खड़ी दूसरी लड़की से पूछा कि तू क्या है...उस लड़की ने कहा कि मैं मराठी हूँ.....अब बारी थी भानी के उत्तर की । जब भानी को कोई बात ना सूझी तो भानी ने कहा कि वह हिंदी है....। लड़कियों ने उनकी बात मान ली । यह किस्सा बता कर भानी ने मुझसे यह जानना चाहा कि उन्होनें सही बताया या गलत । मैंने कहा कि तुमने सही बताया....।

भानी खुश होकर खेलने चली गईं....मैं उसके उत्तर से और जल्दी चले जाने से बहुत खुश हुआ....कि चलो गई ....लेकिन थोड़ी ही देर में वह फिर हाजिर थी.....पापा तुम्हें गुजराती आती है....मुझे आती है...बताऊँ...बैठ जाओ को क्या बोलते हैं....फिर उन्होंने अपना गुजराती ज्ञान पूरा सुनाया.....और मुझे अज्ञानी पाकर विजेता सी बाहर चली गई....।
विजय दशमी पर गरबा के लिए जाती भानी का चित्र......

Tuesday, October 7, 2008

शायर बेटे को खुसरो की नसीहत

आम लोगों के रूह की आवाज सुनो

शायर कवि संगीतज्ञ सूफी संत अमीर खुसरो ने अपने जीवन के अंतकाल में अपने बेटे गयासुद्दीन अहमद को कुछ नसीहतें दी थीं...हो सकता है खुसरो की नसीहतें आपके भी काम आए...

पहली नसीहत यह है गयास बेटे मैंने हिंद की खाक को अपनी आँखों का सुरमा बना लिया है, इसलिए तू भी हिंद को ही अपना सब कुछ समझना ।

दूसरी नसीहत यह है क्योंकि तू भी शायरी करने लगा है, इस लिए मैं चाहूँगा कि हिंदवी जुबान में ही शायरी करना।

तीसरी नसीहत यह है कि गयास अपनी शायरी का कोई भी हिस्सा शाहों की खुशामद में बर्बाद मत करना , जैसा कि मैंने किया है...। मैं चाहता हूँ कि तू हिंद के आम लोगों में घुल मिल कर उनकी रूहों की आवाज सुन और फिर उस रूह की आवाज को ही अपनी शायरी की रूह बना लेना।

अब गयास ने अपने प्यारे अब्बा की किस नसीहत पर कितना अमल किया मैं कह नहीं सकता ना ही यह बता सकता हूँ कि आज वह कौन शायर कवि है जो आम लोगों के रूह की आवाज सुन रहा है और उस आवाज को अपनी शायरी की रूह बना रहा है...मुझे तो कोई नहीं दिख रहा है...आप को दिखे तो बताएँ...

Tuesday, August 26, 2008

मेरी मदद करो....

मित्रों मेरी मदद करो

कल रात पता नहीं क्यों मुझे अपना पासवर्ड बदलने की धुन सवार हुई....और मैंने शब्दाचार्य अजित बडनेकर जी से दिशा निर्देश लेते हुए मैंने अपना पासवर्ड बदल भी दिया....

लेकिन पता नहीं क्या और कहाँ चूक हो गई....और मेरा मेल पता बदले हुए पासवर्ड से नहीं खुल रहा है और पुराना पासवर्ड भी अभी काम नहीं कर रहा है....कुल मिलाकर यह बदलाव मुझे मुश्किल में डाल गया है...मेरा प्यारा मेल पता मेरी ही पहुँच के बाहर हो गया है.....

ऐसी दशा में मैं बोधिसत्व ...जो कि हिंदी का चाकर हूँ....मेल और ब्लॉग की दुनिया के तमाम समझदारों से तहे दिल से अपील कर रहा हूँ कि वे पासवर्ड पाने और मेल बॉक्स तक पहुँचने में मेरी मदद करें...मैं मरते दम तक उनका आभारी रहूँगा....

भरोसा न हो तो मदद करके देख लें....मेरे जैसा नमक हलाल खोजने पर भी नहीं मिलेगा....

Wednesday, July 30, 2008

राम और सीता के जीवन में किसने आग लगाई........

अशोक वनिका में खुश थे राम-सीता


यह प्रसंग बड़ा ही रोचक, जगानेवाला और दुख दाई है । कथाओं से ऐसा लगता है कि राम और सीता ने सुख के दिन देखे ही नहीं। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं था। रामायण में ऐसा लिखा है कि राम और सीता लंका से लौट कर बड़े आनन्द से रह रहे थे। सब ठीक-ठाक चल रहा था...। जीवन पटरी पर आ गया था। लेकिन जैसे की हर युग में पर दुख संतापी होते हैं राम राज्य में भी थे...उनके पेट में बात पची नहीं....।

समय बीता ....देवी सीता पेट से हुईं....और उन्हें साथ लेकर राम अयोध्या की अशोकवनिका ( अन्त:पुर में विहार योग्य उपवन) में गए। वहाँ राम पुष्पराशि से विभूषित एक सुंदर आसन पर बैठे। जहाँ नीचे कालीन भी बिछा हुआ था।

फिर जैसे देवराज इंद्र शची को मधु मैरेय ( एक प्रकार बहु प्रचलित मद्य) का पान कराते हैं उसी प्रकार कुकुत्स्थकुल भूषण श्री राम ने अपने हाथ से पवित्र पेय मधु मैरेय लेकर सीता जी को पिलाया।

फिर सेवकों ने राजोचित भोज्य पदार्थ जिसमें मांसादि थे और साथ ही फलों का प्रबंध किया और उसके बाद राजा राम के समीप नाचने और गाने की कला में निपुण अप्सराएँ और नाग कन्याएँ किन्नरियों के साथ मिल कर नृत्य करने लगीं।

इसके बाद हर्षित राम ने गर्भवती सीता से पूछा कि मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ..बरारोहे मैं तुम्हारा कौन सा मनोरथ पूरा करूँ...। माता बनने जा रही खुश सीता ने राम से कहा कि मेरी इच्छा एक बार उन पवित्र तपोवनों को देखने की हो रही है ...देव मैं गंगा तट पर रह कर फल मूल खाने वाले जो उग्र तेजस्वी महर्षि हैं, मैं उनके समीप कुछ दिन रहना चाहती हूँ...। देव फल मूल का आहार करनेवाले महात्माओं के तपोवन में एक रात निवास करूँ यही मेरी इस समय सबसे बड़ी अभिलाषा है।

पत्नी सीता की इच्छा जान कर राम को बड़ी खुशी हुई और उन्होंने कहा कि तुम कल ही वहाँ जाओगी....इतना कह कर श्री राम अपने मित्रों के साथ बीच के खंड में चले गए।

फिर आगे वह हुआ जिसने सीता के जीवन की दिशा बदल दी । राम अपने तमाम 10 सखाओं से घिरे बैठे थे...उन्होंने कहा कि राज्य में आज कल किस बात की चर्चा विशेष रूप से है । उनके सखाओं में एक भद्र ने बताया कि जन समुदाय में सीता जी का रावन के द्वारा हरण होने और क्रीडा कानन अशोक वनिका में रखने के बाद भी आप द्वारा स्वीकार किया जाना सबसे अधिक चर्चा में है .....लोग अचंभित और परेशान है कि हम लोगों को भी स्त्रियों की ऐसी बातें सहनी पड़ेगी...लोग जानना चाह रहे हैं कि आप ने कैसे स्वीकार कर लिया सीता को....बस.....सीता माता के सुख के दिन समाप्त हो गए........राम ने एक तरफा फैसला करके सीता को एक दिन नहीं सदा-सदा के लिए वन में त्याग देने का आदेश दिया .....वह भी लक्ष्मण को....

वन जाकर भी सीता को तो यही पता था कि वह तो अपनी इच्छा से घूमने आई है....गंगा के पावन तट पर.....बस उनकी खुशी के लिए....उसके प्यारे पति ने भेजा है......

देखें- गीता प्रेस गोरखपुर का श्री मद्वाल्मीकीय रामायण, द्वितीय भाग, उत्तर काण्ड के अध्याय 42 से 50 तक की पूरी कथा । .



Monday, July 28, 2008

दिमाग के दीमकों का क्या करूँ

मोहित मुर्दाबाद जयंत जिंदाबाद

दीवार में लगे दीमक को तो हटाया जा सकता है लेकिन दिमाग में लगे दीमक का क्या करें...किसी को एक सिरे से बुरा कहना भी दिमाग में दीमक लगने की निशानी है। क्या आप नहीं मानते।

मामला थोड़ा उलझा हुआ है । तो जाने और बताएँ कि मुझे क्या करना चाहिए। मेरे मुहल्ले में मोहित चाय वाला है । उसके बगल में जयंत की भी एक दुकान है। जयंत की चाय हर दम फीकी रहती है लेकिन मोहित की चाय लगातार अच्छी रहती है। दोनों एक ही धन्धे में हैं...एक ही तरह की पत्ती और मशाले का प्रयोग करते हैं॥लेकिन एक सुस्त है और एक चुस्त है। एक के यहाँ से लगातार चाय बनने की आवाज आती रहती है लेकिन उसी समय दूसरे के यहाँ से गप्प और अनर्गल बातों की बदबू उफान मार रही होती है । जयंत के यहाँ यह बड़ा मुद्दा होता है कि देखो मोहित के यहाँ क्या हो रहा है ....जयंत की मानसिकता मोहित की निंदा और अपनी सडांध को खुश्बू बताने की बन चुकी है ऐसी बातों के अलावा उसकी दुकान में और किसी बात का दर्शन नहीं होता। यानी चाय तो अच्छी बने दूर की बात है कुछ भी बेहतर नहीं होता। हालांकि जयंत अपने धंधे का पुराना खिलाड़ी है....। कभी साल छ महीने उसने भी अच्छी चाय बेंची है......।
जयंत और उसके कुछ परिचित जो कि एक छोटा गिरोह भी चलाते हैं वे चाहते है कि मोहित की दुकान बंद हो जाए और केवल उनकी दुकान ही चले। बाजार में केवल उनकी ही चाय की बात हो। जो उनके पक्ष में बात करेगा उसे वे चाय भी पिलाएँगे और उसे सच्चे चाय कर्मी के रूप में भी प्रचारित करेंगे। वे न सिर्फ मोहित की दुकान उजाड़ना चाहते हैं बल्कि उनकी कोशिश है कि अगर मोहित वाला फार्मूला भी हाथ लग जाता तो मजा आ जाता।

मित्रों मैं कभी कभार जयंत के यहाँ जब वह आर्त स्वर में पुकारता था चाय पीलो भाई तो जाता था...या जब सारी दुकाने बंद होती थीं....तब वहाँ जाता था चाय पीने । लेकिन वहाँ अच्छी चाय के अलावा सब कुछ मिलता है । जिसमें मोहित की चाय को सिरे से नकार देने की एक अजीब हत्यारी मनोदशा भी शामिल है। मोहित की चाय बुरी, मोहित की बेंच गंदी, मोहित की गिलास गंदी, मोहित की दुकान गंदी...और जयंत की जय हो...

अब मैं क्या करूँ। मैं जयंत के यहाँ नहीं जा रहा। उसके लोग चाह रहे हैं कि या तो मैं चाय छोड़ दूँ या फिर केवल जयंत की सड़ांध और तंग दुकान में बैठा रहूँ.....जहाँ की दीवारों पर न सिर्फ अँधेरा और घुटन था बल्कि जयंत के दिमाग में दीमक है....वह अपने दिमाग के दीमक को भी चाय कर्म का एक नायाब रत्न बता कर मेरे भेजे में भरना चाह रहा है..........
मैं क्या करूँ....
नया ठीहा खोजूँ....या चाय पीना छोड़ दूँ या फिर जयंत और उसके लोगों के कहे पर फिर उसकी सड़ी और फीकी चाय को आह...आह करके पीऊँ...और दिमाग में दीमक रख लूँ....
आप लोग बताएँ मैं क्या करूँ.....

Wednesday, June 18, 2008

कौन बनाता है छिनाल...

छिनाल के साथ कौन जन्मा उर्फ छिनरा

छिनाल के जन्म की चर्चा हुई । अजित भाई के शब्दों का सफर में । लेकिन वहाँ छिनाल के साथ जन्म लेने वाले छिनरा पुरुष की चर्चा रह गई । लावण्या जी ने छिनाल की तरह ही पुरुषों के लिए प्रयुक्त होनेवाले समानार्थी शब्द की चर्चा की थी। अवध में जहाँ मैं पैदा हुआ वहाँ जिस और जिन संदर्भों में छिनाल की चर्चा होती है उन्हीं संदर्भों में छिनरा व्यक्ति की भी चर्चा होती है। छिनाल के साथ जो छिनरई करते धरा जाता है सहज ही वह छिनरा होता है। वहाँ दोनों का कद बराबर है-

छिनरा छिनरी से मिले
हँस-हँस होय निहाल।

मेरा कहना है कि किसी भी समाज में अकेली स्त्री छिनाल नहीं हो सकती। उसे सती से छिनाल बनाने में पहले एक अधम पुरुष की उसके ठीक बाद एक अधम समाज की आवश्यकता होती है। छिनाल शब्द की उत्पत्ति पहले हुई या छिनरा की यह एक अलग विवाद का विषय हो सकता है । साथ ही समाज में पहले छिनरा पैदा हुआ या छिनाल। क्योंकि बिना छिनरा के छिनाल का जन्म हो ही नहीं सकता। एक पक्का छिनरा ही किसी को छिनार बना सकता है। तत्सम छिनाल का पुलिंग शब्द भले ही न मिले लेकिन तद्भव छिनरी का पुलिंग शब्द छिनरा जरूर मिलता है...।

छिनरा का शाब्दिक अर्थ है लंपट, चरित्रहीन और परस्त्रीगामी। वहीं छिनाल या छिनार का अर्थ है व्यभिचारिणी, कुलटा,पर पुरुषगामी। रोचक बात यह है कि लोक ने उस स्त्री में छिपे छिनाल को खोज लिया जिसके गालों में हँसने पर गड्ढे पड़ते हों-
हँसत गाल गड़हा परै, कस न छिनरी होय।
क्यों नहीं लोक ने छिनरे के लिए भी कोई पद रच दिया...।
अपने गाँव के चचेरे भाई मटरू की दूसरी शादी में सुनी एक गारी याद आ रही है, यह गारी बाद में मुझे भी संबोधित थी -
मटरू क बहिन बड़ी पक्की छिनार चल देखि आई।

संस्कृत का एक और शब्द है छिन्ना। इसके मायने भी छिनाल ही है। आचार्य राम शंकर शुक्ल रसाल इसका अर्थ व्यभिचारिणी स्त्री ही बताते हैं। उस शब्द के पक्ष में उन्होंने एक पद भी उद्धृत किया है-
छिन्ना शिवा पर्पट तोय पानात।

इसी छिनार और छिनरा से बना है छिनारा....यह व्यभिचार के बदले प्रयोग होनेवाला आम शब्द है। कर्म का पतन अगर और हुआ तो हो गया कुकुर छिनारा।
महाभारत में कुलटा के बराबर का जो शब्द बार-बार सुनाई पड़ता है वह है पुंश्चली। पुंश्चली का अर्थ होता है-त्रपारंडा और स्वैरिणी। कुलटा और व्यभिचारिणी तो होता ही है। वहाँ सूर्य पुत्र कर्ण द्रौपदी को कहता है पुंश्चली। वहाँ भी वह अकेले छिनरी नहीं है साथ में उसके पाँच पति भी तो फुंश्चला हैं...छिनरा हैं।
छिन्न से ही एक और शब्द की याद आती है। वह है उच्छिन्न। इस शब्द का प्रयोग अवध में लिर्मूल हो जाने या चलन खत्म हो जाने के खास संदर्भ में किया जाता है। पूर्णतया उन्मूलित या नष्ट।
नोट- निहाल वाला पद मेरा अपना लिखा है..

Tuesday, June 17, 2008

मैं काशीवाला नहीं हूँ

काशी के घाट बुलाते हैं...

काशी यानी बनारस से मेरा थोड़ा अजीब सा नाता है....
वैसे मैं पैदाइशी बनारसी यानी काशीवाला नहीं हूँ....लेकिन काशी जनपद का तो हूँ....जीवन में पहलीबार किसी शहर गया तो वह था बनारस......बनारस के घाट नदी का चौड़ा पाट...पतली गलियाँ....और उनमें सुहाग और पूजा के सामानों की दुकाने ....अपने लिए चूड़ियाँ और सिंदूर खरीदती सुहागिनें और उन्हें ताकती विधवाएँ....और बिसाती...नदी के तट से बँधी हिलती डोलती नावें....जैसे मोक्ष के लिए छटपटाता संन्यासी संसार के बंधन से छूट जाने को व्याकुल हो....।

यह सब मैं बालपन से देखता निरखता आया हूँ....लेकिन पिछले बीस सालों से काशी से दूर हूँ....फिर भी काशी की यही छवि मेरे मन में छपी है......
मैंने ठीक से तैरना काशी की गंगा में सीखा....मैंने जीवन के कई सारे विकट अनुभव बनारस की सीढ़ियों पर पाए....इसलिए काशी जाने और वहाँ सीढ़ियों पर बादलों की छाँव में बैठने और नदी के गंदले प्रवाह को देखने का मन करता है...और जैसे ही मौका मिलता है मैं काशी का रुख कर लेता हूँ....।

कहने को तो कहा जा सकता है कि काशी में क्या रखा है.....मैं कहूँगा कि यदि काशी में कुछ नहीं रखा है तो दुनिया में ही क्या रखा है....पतन किसका नहीं हुआ है....काशी का भी हुआ होगा....समय और बदलाव का दबाव काशी पर भी पड़ा है....लेकिन काशी का नशा मेरे मन से तनिक भी कम नहीं हुआ है.....।

मुझे सबसे अधिक आनन्द काशी की गंगा में नाव से भटकने में आता है....मैं काशी की गंगा का आनन्द लेने के लिए भादौं में जाना पसंद करता हूँ...तब गंगा में खूब पानी होता है....और भीड़ कम....नाव से भटकने के बाद बाद काशी के घाटों पर परिक्रमा करना अच्छा लगता है........वहाँ के घाटों में मणिकर्णिका घाट मुझे बहुत प्रिय है....वहीं पर मेरे बाबा की अंत्येष्ठि हुई....वहीं मेरी आजी भी जलाई गईं....इसलिए भी मैं वहाँ घंटों बैठा करता था....अब भी जब भी बनारस जाता हूँ और कही जाऊँ न जाऊँ...मणिकर्णिका घाट जरूर जाता हूँ....।

बचपन से ही बनारस के घाटों पर जाना और माथे पर चौड़ा तिलक लगाना और पूजा में चढ़ाई गई इलायची और नारियल मिला कर खाना एक नित्य क्रिया थी....घरवालों का दबाव न होता तो भाँग खाने की भी आदत पड़ी ही होती...यह सोचना बड़ा अच्छा लगता है कि अगर मैं भंगड़ होता तो कैसा होता मेरा जीवन.....आज भी पूजा का प्रसाद हो या वैसे ही इलायची और नारियल खाना अच्छा लगता है....यह बनारस को जीना है बनारस को अपने साथ रखना है....।

Friday, June 13, 2008

वैशाली जाने का मन है....


पहली बीड़ी की याद और यायावर मन

कितनी बार सोचा और तय किया कि बिहार और उत्तर प्रदेश के एक-एक गाँव और छोटे बाजारों और कस्बों तक जाऊँगा...लेकिन जाना नहीं हो पाया....कितनी-कितनी मुश्किल से बिहार में पटना, गया, हजारीबाग, मुजफ्फरपुर और एकाध शहरों के आगे नहीं जा पाया । उत्तर प्रदेश के 15 से 20 जिलों तक ही गया होऊँगा...जिनमें बलिया, गाजीपुर, देवरिया, आजमगढ़, मऊ, मीरजापुर, सोनभद्र, गोरखपुर, बस्ती, अकबरपुर, फैजाबाद, सुल्तानपुर, सिद्धार्थनगर, कौशांबी, इलाहाबाद, बाँदा, चित्रकूट, जौनपुर और प्रतापगढ़ शामिल है..। हो सकता है कि एकाध और जिलों में गया होऊँ...पर इससे क्या मैं कह सकता हूँ कि मैं हिंदी इलाके को जानता हूँ......।

मध्य प्रदेश राजस्थान के कई जिले तो मेरे लिए इतने अपरिचित हैं जैसे वे भारत में नहीं कहीं अफ्रीका या अरब में हो...हम लोग देश के राष्ट्रीय एकता की बात करते हैं...और करना भी चाहिए...लेकिन क्या यह नहीं होना चाहिए कि हमें अपने देश के सब नहीं तो कुछ इलाकों तक तो पहुँच ही लेना चाहिए....।

मेरा मन बार-बार वैशाली जाने को करता है...मैं....सच में वैशाली जाना चाहता हूँ....क्या वहाँ आम्रपाली के होने का कोई निशान मिलता है ... सुनता हूँ कि अभी वैशाली बिहार में नहीं है...अगर हो तो भी न हो तो भी वैशाली जाना है....वैसे मैं झूमरी तलैया भी जाना चाहता हूँ....कभी रेडियो पर रोज वहाँ से फरमाइशें होती थीं...वे गाने सुनने वाले अभी भी वहाँ होंगे क्या...

राजगीर भी जाना चाहता हूँ....देखना चाहता हूँ कि क्या वहाँ अभी भी पांडव पर्वत है जहाँ सिद्धार्थ और बिंबिसार की पहली मुलाकात हुई थी....जहाँ मगध नरेश ने सिद्धार्थ को अपना सेनापति बनने के प्रस्ताव रखा जिसे...सिद्धार्थ ने ठुकरा दिया था...क्या वह गड्ढा अभी भी वहाँ के राजपथ पर होंगे जिसे ह्वेन सांग ने अपने यात्रा विवरण में दर्ज किया था...

फुलवारी शरीफ यह नाम मुझे बहुत पुकारता है....पलामू....डाल्टनगंज....कभी जा पाऊँगा क्या....गोमो स्टेशन कितनी बार गुजरा ....पर एक बार चाय पीने भर का समय ही यहाँ बिता पाया हूँ...यही वह स्टेशन है जहाँ से नेता जी अंग्रेजों की पकड़ से निकल भागे थे...ऐसा याद आता है कि इसी स्टेशन से मैंने चंपा नाम की पहाड़ी को देखा था... कोहरे पेड़ों और भाफ से ढंकी पहाडी ....उसी पहाड़ी को देखते हुए मैंने पहली बार बीड़ी पी थी...और फूट-फूट कर रोया था...बीड़ी का नाम था हिंद सवार . सामने की सीट पर बैठे एक दढ़ियल से माँग कर पी थी ....और मेरी रुलाई पर वह बुड्ढा बहुत परेशान हो गया था....एक बार गोमो की तरफ वहाँ जहाँ ऐसे पहाड़ हैं..जाना चाहता हूँ...

अगले दो-तीन महीने में देशांतर की संभावना है.......लेकिन उसके पहले..एकबार न बिहार अपने बनारस तो जा ही सकता हूँ....जाऊँगा....

Thursday, May 29, 2008

बछड़े और बेटियों का वध कर देते हैं वे

देखने में यह बात अजीब है। लेकिन उन लोगों को बेटियों और बछड़ों की जरूरत नहीं है...। उनके लिए वह महिला कुलबोरन है कुलक्षिनी है जो बेटियाँ पैदा करती है...ऐसी बहुए अक्सर दुरदुराई जाती हैं लात खाती हैं....जो बेटियाँ पैदा करती हैं...वहीं वे बहुए लक्ष्मी हैं जिनकी कोख से लगातार बेटे जन्म लेते हैं...।
बेटियों के अस्वागत या दुत्कार का यह आलम है कि लोग आम बात-चीत में भी यह नहीं कहते की फलाँ को बच्ची होने वाली है...सभी यही कहते पाए जाते हैं कि उसे बच्चा होने वाला है।
आप वहाँ बेटी-बेटे के कोख में बनने और पैदा होने के वैज्ञानिक आधारों को समझने-समझाने की बात नहीं कर सकते....बेटा बेटी एक समान की बात....दीवारों पर अच्छी लगती है घर के आँगन में नहीं॥

अगर बेटी हो जाती है तो पहले उसको कम रख रखाव से मारने की कोशिश होती है, उसके बीमार पड़ने पर कहा जाता है कि ठीक हो जाएगी...बेटियाँ मरती नहीं हैं...। दुख की बात यह है कि ऐसी बातें औरतें भी आराम से करती पाई जाती है...। लेकिन जब बेटा बीमार होता है या जब बेटा मरता है तो लोग छाती पीट कर रोते हैं उसका पैदा होना और मरना दोनों हाहाकार लेकर आता है...वहीं जब बेटी मर रही होती है या मर जाती है तो लोग धीरे से बल्कि कहूँ तो चेहले पर एक मुस्क्यान लाकर केवल बताते हैं कि उसकी बेटी जो अभी हुई थी मर गई...फिर कोई कहेगा कि मरना ही था तो पहले मर जाती...। और बात आई-गई खतम सी हो जाती है...।

यह सारी स्थितियाँ मैं ने खुद देखी हैं...यह देश के अन्य हिस्सों का सच भी हो सकता है फिलहाल मैं भदोही, मीरजापुर और बनारस की बात कर रहा हूँ...यहाँ अगर गाय या भैंस को बेटी हो यानी बछिया और पड़ियाँ हो तो सब खुश होते हैं....लेकिन अगर बछड़ा या पड़वा हो जाए तो उसका दूध बंद...। उसके मुह पर एक खोल चढ़ा दिया जाता है...कोशिश की जाती है कि वह बछड़ा या पड़वाँ जल्द से जल्द मर जाए । जिससे उसके हिस्से का भूसा-चारा भी बचे । दैव- दुर्योग से अगर वह गाय-भैंस पुत्र अपने आप नहीं मरता तो जरा सी उम्र बढ़ते ही उसे काटने के लिए कसाई को बेच दिया जाता है...।
बेटी बोझ है क्योंकि उसे विदा करना है, उसकी पढ़ाई पर खर्च नहीं करना है क्योंकि उसे पढ़ाने का वैसा सीधा फायदा नहीं जैसा बेटे को पढ़ाने का है...

वहीं बछड़े को बदलते समय में ट्रैक्टरों ने फालतू बना दिया है....एक दो हल बैल की खेती हो बड़े किसान सब ट्रैक्टर पर निर्भर करने लगे हैं...इसलिए बछड़े और पड़वे की कोई आवश्यकता नहीं रही...
बछिया गाय होगी दूध देगी....बेटी दहेज लेगी दूर होगी...इस लिए बछिया चाहिए बेटी नहीं...
बेटा चाहिए बछड़ा नहीं...।
ऐसे माहौल में बेटियाँ रोज मर-मर कर बड़ी होती है...
हो सकता है पिछले महीने भर में स्थितियाँ बदली हों...क्योंकि सुना है दुनिया तेजी से बदल रही है पर लगभग यही हालत है...बेटी को मारो या मरने दो....बछड़े को मरने दो या मारो...। बेटा जिलाओ....बछिया जिलाओ....।

Saturday, May 24, 2008

प्रमोद और प्रत्यक्षा उर्फ साधु वचन का मर्म

वो एक बात बहुत नागवार गुजरी है.....जिसका फसाने में कोई जिक्र नहीं था....मेरी कुछ बातों के जरिए प्रमोद जी और प्रतयक्षा जी को अपनी हीनता उजागर करने का मौका मिला है और दोनो बुद्धिजीवी मित्र निकाल भी रहे है....साहित्यकारों की ब्लॉग में दुर्दशा पर उठाये गए मेरे सवाल इन दो साहित्यकारों को रास नहीं आए और बात मेरे चरित्रांकन पर आ गई........प्रमोद जी और प्रत्यक्षा जी ने मिल कर उखाड़-पछाड़ शुरू कर दी मैं भी ....उन दोनों ब्लॉगर लेखकों की तमाम जुगलबंदी पढ़ने पर बहुत सारी बातें मुझे निकलती दिख रही हैं.....जैसे-

1-मुँहफट होने और खरी-खरी कहने का पैदाइशी हक सिर्फ प्रमोद जी को है, अगर और कोई ऐसा करता है तो गलत करता है ......प्रमोद जी की मुँह फटई उनका गुन है...उनकी खरी, खरी है...बाकी की खरी, में खोट है....
2-मैंने किसी प्रत्यक्षा को कभी फोन नहीं किया है और अगर मेरे फोन से उन्हें फोन गया होगा तो उस संदर्भ को वे मुझसे बेहतर समझ सकती हैं....
3-मैंने किसी सलेक्ट सर्किल में कभी प्रत्यक्षा का नाम लिया हो ऐसा मुझे याद नहीं...यह उनका भ्रम है कि लोग उनके बारे में बात करके दिन बिताते हैं...
4- हो सकता है जब प्रत्यक्षा ब्लॉगगिंग का बी कर रहीं थी मैं गाँव में बथुआ बो रहा होऊँ....तो क्या मुझे अभी ब्लॉगर बनने का हक या कुछ कहने का अधिकार नहीं रह जाता.....क्या ब्लॉग वेद हैं....जिस पर केवल प्रत्यक्षा का ही हक है....किसी बोधिसत्व का नहीं...
5-लोगों को फोन करने और बात करने का हक भी सिर्फ प्रमोद और प्रत्यक्षा को है....बाकी कोई करे तो गलत है...हालाकि मैंने किसी को फोन नहीं किया है....साहित्यकारों की दुर्दशा वाली पोस्ट को छोड़ कर

6-किसी बूढ़े प्रकाशक को खुश करने की बात मैंने सामान्य संदर्भ में कही थी...जिस पर बिदक कर ये दोनों साहित्यकर्मी अपनी दाढ़ी के तिनके नोच रहे हैं...और उस नोच-खसोट का प्रदर्शन कर रहे हैं....
7-मैं परिपक्व इंसान नहीं हूँ.... यह तो मैं भी जानता हूँ... .कोई नहीं होता ...बस दो ही लोग परिपक्व है.... प्रत्यक्षा जी और प्रमोद जी...आप दोनों परिपक्व होने की बधाई स्वीकार करें....
8-मित्रता वही है जो प्रमोद और प्रत्यक्षा की है...बाकी दुनियादारी है....स्वार्थ का गठबंधन है...अगर अभय तिवारी मेरे बारे में कुछ लिखते हैं या मुझे खलनायक नहीं मानते तो यह भी उनका अपराध है..
9-कोई यदि बोधिसत्व का समर्थन करेगा तो वह अकेला पड़ जाएगा.....यह धमकी देकर प्रत्यक्षा जी क्या कहना चाहती है.....क्या किसी ब्लॉगर को अकेला करने की सोचना कुंठित और तानाशाही चरित्र की निशानी नहीं है....
.
10-किसी की बात को छिछला कहने का डीग्रेड आदि शब्दों से नवाजने का हक सिर्फ प्रत्यक्षा को है.....क्योंकि वे ही ऐसा कर सकती है....
10- मेरी पत्नी आभा की किताब अगर किसी को साध के छपानी होती जैसा की आप संकेत कर रही है....तो भी अभी नहीं छपती क्यों कि उसे ढ़लती उमर ( यह शब्द मेरे नहीं आदरणीय प्रमोद जी के हैं) का अपराधबोध नही है...जैसा कि प्रमोद जी के मुताबिक आपको है...
11- अगर आभा लेखन में दम नहीं होगा और छपास बलवती होगी तो हो सकता है कि आभा को भी किसी को साधना ही पड़े...
...
12-लीद, लड़ियाना, लथर-पथर...होना सब प्रमोद जी की बपौती है....वह उन्हीं के पास रहे....
14- प्रत्यक्षा काम-काजी महिला हैं.....लोगों को हैंडिल करना जानती हैं.... खास कर कर्मचारी या मजदूर वर्ग को....मैं उनसे आग्रह करूँगा कि किसी को बदले की भावना और संदेह के आधार पर हैंडिल न करें......
15- प्रमोद जी से उम्मीद करूँगा कि उनके मन में मेरे प्रति जो भी घृणा या हिकारत होगी मेरी इस पोस्ट पर ही निकाल लेंगे.....क्योंकि मैं हो सकता हैं आगे खुद पर थूकने का कोई भी मौका उन्हें न दूँगा..
16- मेरी पत्नी को निशाना बनाने के बाद अब मेरे परिवार में केवल भानी और मानस यानी मेरी बेटी और बेटा ही खल पात्र बनने से रह गए हैं....प्रत्यक्षा और प्रमोद जी मौका मत चूकिए । प्रमोद जी आप तो परसों-चौथा दिन मुझे देखने और बच्चों से मिलने घर भी आए थे....कोई न कोई धारणा तो बनाई होगी....उनके बारे में भी उसे भी लिख दीजिए...दबाकर दस बरस बाद निकालने से बेहतर होगा कि आज और अभी निकालें...हम सपरिवार आपकी राय का स्वागत करेंगे......

Friday, May 23, 2008

चपे रहो प्रहरी प्रमोद जी


मैं लिखना नहीं चाहता था लेकिन लिख रहा हूँ

अजदकेश प्रमोद जी करुणा के अवतार हो गए है....अवधर दानी हो गए हैं.....मुंबई में रहते हैं सिनेमा टीवी के लिए लिखते भी हैं.....और न लिख पाने पर छटपटाते भी हैं....खुद दुखी रहते हैं...लेकिन इस महाद्वीप में किसी का दुख उनसे न सहा जाता है न देखा....और जब दूसरों को दुख से उबार रहे होते हैं तो सामने वाले को बिना दुख में डुबाए उनको सुख नहीं मिलता....। शिव तो सर्व कल्याणक थे..लेकिन प्रमोद जी केवल दुख दाता हैं......मोटे शब्दों में वे प्रतिशोधी सखा है....।

मेरी एक - दो पोस्ट से ही नहीं उन्हें मेरे समूचे लेखन और खुद मुझसे अपार तकलीफ है.....और तकलीफों के कम से कम तीन अनुभव तो उन्होंने सहेज कर रखे ही हैं.....अपने अजदकी चरित के मुताबिक वो पूरी तरह से अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष साबित करने में लग गए हैं.....सामान्य रूप से कही गई मेरी बातों को वे पता नहीं किस-किस से जोड़ कर देख रहे हैं....।

हिंदी प्रदेश की यही दिक्कत है आप एक काम की या कैसी भी बात करते हैं.....तो सामनेवाला उस पर लड़ियाने याने नंगे होकर कूदने लगता है॥ लड़ियाने में और नंगई में प्रमोद जी सबके सरदार हैं....और कम से कम मुझे उनसे अच्छाई का कोई प्रमाण पत्र नहीं चाहिए.....और नहीं मैं उनसे नंगई का कोई गुर सीखना चाहूँगा।

रही बात प्रमोद जी के सवालों पर चुप रहने की तो यही कहा जा सकता है कि फालतू टाइप के आमोदी-प्रमोदी यानी बचकाने सवालों के उत्तर देने की फुर्सत में मैं नहीं हूँ....और हर महान प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है....... और जब महा महान प्रश्न सामने होते हैं....तो हींहीं करने या दाँत चियारने के अलावा कुछ करने का मन नहीं करता.....लेकिन अगर प्रमोद जी इतने उत्तराकांक्षी हैं तो मैं सार्वजनिक रूप से उनके सभी प्रश्नों का उत्तर देने को तैयार हूँ....वो करें सवाल.....।

जवानी में आदमी सामना करता है....ढलती उमर में चुगलखोर हो जाता है....वह लगाने बुझाने लगता है....बुढ़ापे में आदमी पर दुख कातर हो जाता है....किसी के लिए भी रोने लगता है....मैं यह नहीं कहूँगा कि प्रमोद भाई ढल गए हैं या बुढ़ा गए हैं....पर लक्षण सही नहीं हैं....उन्हें. अपना धीरज नहीं खोना चाहिए.....प्रहरी प्रमोद की भूमिका की उमर नहीं रही.....उनकी.....अब....। अंग रक्षक बनने का खेल हम लोग तो पढ़ाई के दिनों में खेलते थे...पर प्रमोद जी अभी भी मौका तलाश ही लेते हैं....इलाहाबादी लत जो लगी है...।
मैं उम्मीद रखूँगा कि इस पोस्ट के बाद भी प्रमोद जी लड़ियाते हुए.....बिना किसी राग-विराग के ढलती संझा में अर्थ का अनर्थ करने और औरों के घाव सहलाने या दुख को कम करने का व्रत छोड़ नहीं देंगे.....चपें रहेंगे.......।

Thursday, May 22, 2008

पर उपदेस कुसल बहुतेरे........

कहाँ जा रहे हैं साहित्यकार और ब्लॉगर

मेरा दिल बहुत साफ है.....इतना साफ है कि आर पार दिखता है....पर दर्पण बनने के लिए आर-पार देखना बंद करना पड़ता है तो क्या करूँ....बंद करूँ या संन्यासी सा बना रहूँ.....कम से कम अभी इस वक्त मेरे मन में कोई कामना या महत्वाकांक्षा या लालसा नहीं है.....मुझे पाठक नहीं चाहिए...मुझे लोकप्रियता नहीं चाहिए, मुझे शास्त्रीयता से बेहद प्यार है.....जहाँ-जहाँ शास्त्र या शास्त्रीयता देखता हूँ.....बलखाने लगता हूँ.....लांगूल हिलाने लगता हूँ.....वहीं... लोकप्रियता के प्रत्यक्ष होते ही इतना डर जाता हूँ कि आँखे बंद कर शास्त्रीयता-शास्त्रीयता का जाप करने लगता हूँ....

क्यों न करूँ....बंद आँखे.....जब शास्त्रीयता का लोकप्रियता से इतना बड़ा बैर साबित कर दिया गया है....तब तो सावधान होकर ही जीना पड़ेगा......क्योंकि हमें तो कहीं जाना है....जहाँ सिर्फ शास्त्रीय हो कर ही मैं जा सकूँगा.....लोकप्रिय हो कर नहीं.....मैं वह परम् पद इस ससुरी लोक प्रियता के झाँसे में कैसे कुर्बान कर दूँ.....लोकप्रियता का भी कोई चरित्र होता है.....

लोकप्रियता तो एक दिन की लाली है....शास्त्रीयता तो सार्वकालिक है...कुछ नए साहित्यिक साधु और साध्वियों से सुनते हैं जो मजा शास्त्रीयता का है वह लोकप्रियता में कहाँ है......हाँ गाहे बगाहे दोनों का मजा लेने में गुरेज नहीं....बस सावधानी जरूरी है...

अब गार्गी, व्यास, बाल्मीकि, कालीदास, तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, मीर,गालिब, भारतेंदु, इकबाल, प्रसाद, पंत, महादेवी, निराला, परसाई, श्रीलाल शुक्ल क्या खाक शास्त्रीयता के पद का मजा पा सकेंगे....भूल से लोक प्रिय जो हो लिए....कितना पछता रहे होंगे सब अनाड़ी, छाती पीट रहे होंगे कि काश पहले पता चल गया होता तो लोकप्रिय होने की चिरकुटई से बच लिए होते.....इतना ओछा काम क्यों करें जिससे जीवन भर की कमाई खाक हो जाए....धिक्कार है लोकप्रियता धिक्कार है....सब वहीं से लौट आते जहाँ से लोक प्रियता की गंदी गली शुरू होती है....गली के कोने पर भले ही मजार बन जाता या समाधि पर उस गली में दाखिल न होते....पर क्या करें.....अब पछताने से क्या होता है.....हाथ मचते हैं और रोते हैं....इश्क पर समझाते थे साले सब लोकप्रियता....पर चुप रह जाते थे...

आज के सच्चे उपदेशक तब कहाँ थे....गलती हो गई....तो हो गई...।
पाठकों की चिट्ठियों का न सही तो साधुओं के सिर हिलने का इंतजार किया.....इसका ध्यान रखा कि जो कह रहा हूँ वह सब समझ तो रहे हैं न.....यहीं तो महान अपराध हुआ...... जिस पाठक की बुद्धि संकुचित है उसकी परवाह करोगे तो क्या रचोगे.....

इसलिए हे ब्लॉगरों अगर साहित्यकारों वाले महान स्थान पर या उसके आगे का मुकाम, ऊँचाई, मंजिल, पाना चाहते हो वहाँ अपना झंडा गाड़ना या फहरना चाहते हो तो पाठकों की प्रतिक्रिया, उनकी राय पर लात मारो और अपने मन की लीद बिखेरो.....वह कागज के पन्नों ब्लॉग पर छपते ही प्रसाद हो जाएगी....तो लीद करो और मस्त रहो....जैसे साहित्य की दुनिया में आज कवि-कथाकार मस्त है.....
बस एक काम करो....कुछ कविता कथा नुमा लिखो....किसी प्रकाशक को साधो और उनके एकाध बूढ़े मालिकान को बाकी तो सध ही जाएगा....
भाइयों मैं भी वहीं जाना चाहता था जहाँ सब साहित्यकार ब्लॉगर जा रहे थे...पर साहित्यकार भी कहाँ पहुचे हैं समझ नहीं पा रहा हूँ......उसके आगे कहाँ जाऊँ....कोई है जो राह दिखाए.....कहाँ जाऊँ....क्या करूँ....कोई साधू-साध्वी हो तो बताए.....कहाँ पहुँचे हैं....ब्लॉगर या जो साहित्यकार ब्लॉग कर रहे हैं वो जहाँ पहुँच गये हैं......और वह पवित्र स्थान कहाँ हैं जहाँ हम सब जाना चाहते हैं और उसके आगे भी

Wednesday, May 21, 2008

खली बना खबरिया चैनल का हेड !

लिखी जा रही है खली-चालीसा

अगर किसी खबरिया चैनल में काम पाना हो तो यह जानना बेहद जरूरी है कि खली कितना खाता है
खली कितने किलो का है....उसका वजन कितना है....उसकी छाती कितनी चौड़ी है और वह लंबा कितना है......अगर आपके पास यह सारी जानकारी नहीं है तो आप चिरकुट हैं....आप का कुछ होता सा मुझे नहीं दिख रहा है....।
क्योंकि खली को लेकर एक खबर आई है अब यह खबर कितनी पक्की है कितनी नहीं पर है तो। सुनने में आया है कि कई हिंदी खबरिया चैनलों में बाहुबली खली को अपने यहाँ सीईओ बनाने की होड़ लगी हुई है...एक चैनल के बड़े कर्ता-धर्ता ने तो खली से यह तक कहा कि वह बाबा रामदेव के योग की जगह खली कैसे बनें जैसा कार्यक्रम भी बना सकते हैं...
रोचक बात यह है कि खली भी तैयार है लेकिन वह चाहता है कि उस कार्यक्रम में संवाद का प्रयोग कम हो और शरीर का संदर्शन अधिक.....चैनल तो इस बात के लिए भी राजी है कि वह खली के रसोईं से लेकर शौंचालय तक में उसकी हरकतों गतिविधियों के लाइव फुटेज भी दिखा कर अपना काम कर लेंगे....एक चैनल के ईपी ने तो खली के कार्यक्रमों के लिए कुछ शीर्षक भी बना लिए हैं....जो कुछ इस तरह है-
१-खुले में खली
२-खली के साथ खेल
३-खली को खोल के खेलो
४-शौंचालय में खली की खलबली
कल से खली, टॉप टीआरपी वाले तीन चैनलों में से किसी पर भी अपने शौंचालय में घुसता,धोता या सुखाता पोंछता दिखे तो इसे आप अपना सौभाग्य समझिएगा.....वह कहाँ से चलकर यहाँ तक आया है और चैनल के लोग उसके यथार्थ रूप का साक्षात दर्शन कराए बिना नहीं मानेंगे....और माने भी क्यों ऐसा मौका बार-बार कहाँ आता है......
खली को चैनल का प्रमुख बनाने वालों का मानना है कि बुद्धि और स्क्रिप्ट से बहुत दिन चल गया चैनल अब थोड़ा बल से चला लिया जाए हो सकता है कि बल से कुछ भला हो ही जाए....
दिल्ली के एक और संपादक ने तो खली की स्तुति में बिहार से चालीसा लेखकों की एक टीम बुला ली है...और सुनने में आया है कि चालीसा लेखकों ने अपना हाथ उठा दिया है । उनका कहना है कि खली जैसे बली की महिमा का बखान चालीस पंक्तियों में हो ही नहीं सकता। इतने विराट शरीर का बारीकी से अंकन करने के लिए यानी गुणगान के लिए कम से कम खली-पुराण या खलायण की रचना करनी होगी....चालीसा रचने वालों की बातों से चैनल सहमत है और उसने बिदर्भ और बुंदेलखंड के कुछ लोक गायकों को भी खलायण प्रोजेक्ट में जोड़ लिया है....कल से ही तमाम भूखे किसान खली की आरती, खली -चालीसा और खलायण के लिए लोक धुने बनाने में लग गए हैं....
खली खुश है, चैनल खुश हैं....चैनल के मालिकान खुश हैं....और सब की खुशी में मैं भी दाँत चियार कर खली-खली का जाप कर रहा हूँ। आप भी मेरे साथ बोलें जय खलीश्वर की।

Tuesday, May 20, 2008

ब्लॉग जगत में भी दुर्दशा के शिकार साहित्यकार

साहित्यकारों की दुर्दशा क्यों भाइयों...

हिंदी के जमें जमाए साहित्यकार ब्लॉग की दुनिया में भी पटखनी खाए पड़े हैं...तो दूसरी ओर वे ब्लॉगर जम कर पढ़े और सराहे जा रहे हैं जो साहित्यकार नहीं रहे हैं...यहाँ किसी साहित्यकार ब्लॉगर का नाम लेकर मैं किसी का दिल नहीं दुखाना चाहता लेकिन जितना तीन ब्लॉगर यानी फुरसतिया, उड़नतश्तरी और शिव कुमार मिश्र का ब्लॉग पढ़ा जाता है उतने ही पाठक संख्या में सारे साहित्यिक ब्लॉगर सिमट जाते हैं....आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है...एक से एक धुरंधर लेखक जब ब्लॉग पर अपनी पोस्ट छापता है तो उसे पाठकों के लाले क्यों पड़ जाते हैं...टिप्पणियाँ उसकी पोस्ट का रास्ता भूल जाती है...पसंद होना तो सपना है...
मुझे निजी तौर पर यह लगता है कि साहित्यकार ब्लॉगर अपने अतीत के गौरव से इतना दबा होता है कि वह मुस्कराना तक भूल जाता है....हर पल उसे यह लगता रहता है कि मैं तो फलाँ हूँ और मुझे सामान्य या सहज सरल बात करना शोभा नहीं देता....मैं तो गंभीर लेखन के लिए ही अवतरित हुआ हूँ....और वह अपने जबड़े को भींच कर लगातार एक से बढ़ कर एक उबाऊ पोस्ट ठेलता जाता है....और उसके आसपास कुछ गिने चुने पुराने परिचित पाठक ही फर्ज अदायगी में आते रहते हैं....और बह साहित्यकार ब्लॉगर गदगद भाव से अपने ब्लॉग को निहारता रहता है.......
मन में आया तो कभी कोई कविता छाप दी....फिर कुछ गद्यनुमा लिख दिया फिर कुछ पद्य नुमा छाप दिया .....साहित्य की दुनिया की तरह उसे असल में अपने पाठकों की पड़ी ही नहीं है.....पाठक गए भाड़ में मैं तो अपने मन की ही करूँगा......कुछ ऐसे ही भाव लेकर डूबता-उतराता रहता है...साहित्यकार ब्लॉगर.....
यह मेरा अपना आकलन है हो सकता है मैं पूरी तरह सही न भी होऊँ....पर मुझे लगता है कि ब्लॉग जगत में साहित्यकारों की दुर्दशा का कारण ऐसा ही कुछ होगा...

Friday, May 16, 2008

मनीष जोशी उर्फ जोशिम कहाँ हो तुम


मनीष जोशी को मैं लगातार पढ़ता रहा...लेकिन पिछले १८ अप्रैल से हरी मिर्च पर कुछ नया तीखा नहीं छप रहा है...मुझे उनकी यह कविता बहुत अच्छी लगी थी...वे ऐसी और इससे भी अच्छी कविताएँ लिखें इसी निवेदन के साथ उनकी यह कविता विनय-पत्र पर छाप रहा हूँ....।

आशा का गीत : आशा के लिए
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
वह संग चलते मरमरी अहसास के दिन
जो अंत से होते नहीं भी ख़त्म होकर सच
ठीक वैसे मृदुल के परिहास के दिन
हल्के कदम की धूप के, टुकड़े रहें जी
सरगर्म शामों के धुएँ, जकड़े रहें जी
राजा रहें साथी मेरे, जो हैं जिधर भी
बाजों को अपनी भीड़ में, पकड़े रहें जी
हो मनचले नटखट, थोड़े बदमाश के दिन
बस ना धुलें, अच्छे समय के वास के दिन
दूब हरियाली मिले, चाहे तो कम हो
रोज़े खुशी में हों, खुशी बेबाक श्रम हो
राहें कठिन भी हों, कभी कंधे ना ढुलकें
पावों में पीरें गुम, तीर नक्शे कदम हो
मैदान में उस रोज़ के शाबाश के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
कारण ना बोलें, मुस्कुरा कंधे हिला कर
झटक कर केशों को, गालों से मिला कर
पानी में मदिरा सा अनूठा भास दे दें
हल्के गुलाबी रंग से भी ज़लज़ला कर
कुछ अनकही, भरपूर तर-पर प्यास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
दीगर चलें, चलते रहें राहे सुख़न में
प्यारे रहें, जैसे जहाँ में, जिस वतन में
जो आमने ना सामने हों, साथ में हों
क्लेश के अवशेष बस हों तृप्त मन में
मिलते रहें, चम-चमकते विश्वास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन।।

नोट-हो सकता है कि कुछ पंक्तियाँ ऊपर नीचे हो गई हों....जोशिम जी के अपनों माफ करना।

Saturday, May 10, 2008

पत्नी की पोस्ट पति के ब्लॉग पर

मेरी पत्नी आभा चुपचाप अपना पोस्ट टाइप कर रही थीं...मैंने कहा लाओ मैं टाइप कर देता हूँ...उसने कहा कि तुम बहुत टोका-टाकी करते हो टाइप कम करते हो दिमाग ज्यादा खाते हो..मुझे करने दो...और ....बात दूसरी दिशा में चली गई...उसके बाद जो बातें हुईं...सब यहाँ जस का तस दर्ज है....एक दो पंक्तियों के बाद बात एकालाप सी हो गई....मैं चुप रहा और रंज सी मेरी पत्नी बोलती रही...फिर चली भी गई....बिना उसकी इजाजत के उसकी बातें छाप रहा हूँ....छपना तो इसे अपना घर में था लेकिन अभी विनय पत्रिका में छाप रहा हूँ...जो हो देखा जाएगा...।


सब दिखावा है....
कुछ भी सच नहीं है....
दिखावे पर दुनिया कायम है...
तो क्या हम भी दिखावा कर रहे हैं...
सच्ची....बक्क
मत करो न
मिटाओ सब....बंद करो बंद करो इसको मिटाओ....मिटाओ
इसे मिटा दो...मिटा दो यार....
(एक लंबी हंसी)
क्या यार मेरी पोस्ट लिखने दो छोड़ो की बोर्ड
लिखने दो या जाने दो
इतने दिन बाद लिखने आई हूँ तो बोर कर रहे हो....
तुमने मेरा हाथ दर्र दिया.....
(एक न रुकने वाली हँसी)
मैं जाऊँ....
अब जाऊँगी तो हाथ मत पकड़ना
मैं कह देती हूँ...ठीक नहीं होगा
देख लो लाल पड़ गया
हाथ है कि लकड़ा है...
हाथ....मत पकड़ना...
अच्छी मुसीबत है...कमाल हो
मैं की बोर्ड पकड़ कर ....समझ लो...
ये कबाड़खाने पर क्या बज रहा है...
अब न बजाओ श्याम....बंद करो
बच्चे सो रहे हैं...
ये तुम्हारी पोस्ट है क्या ....कुछ भी...छाप दोगे
हिंदी कविता है क्या...
कुछ भी चार लाइन लिख दिया
कैसी गंदी आत्मा हो तुम यार
मैं सोने जाऊँ...
मुझे सबेरे उठ कर बहुत सारा काम करना है...
नल खुला है...बंद करो....पानी बह रहा है...
पानी मत बरबाद करो....तुम तो नहाने जा रहे थे...जाओ...चलो.....
यह आदमी न जीने देता है न मरने देता है...
ये सब क्या लिख रहे हो....
(फिर हँसी)
अब या तो मैं खुद से टाइप करूँगी या कभी ब्लॉग नहीं लिखूँगी
चाहे साल भर हो जाए
अपने या
फिर तुम ही टाइप करो...अब मैं जाती हूँ...
लिखो ब्लॉग....
तुम क्यों अपना टाइम बरबाद कर रहे हो...जाओ पढ़ो...

Thursday, April 24, 2008

सज्जनता का नाश हो

सिर्फ चाहने से क्या होता है

हममें से बहुत सारे लोग इस गलत फहमी में जी रहे होते हैं कि दुनिया अच्छाई की कद्र करती है...भले मानुष का बहुत महत्व होता है......नेकदिल लोगों की इबादत की जाती है.....साधुता एक बहुत जरूरी गुण होता है .....दया माया ममता स्नेह सौहार्द्र सौम्यता सब की बडी आवश्कता होती होगी....पर किसी और समाज में ....आज तो टुच्चई ही पूज्य है वरेण्य है....। जो सीधा और शान्त है लोग उसे कायर और नाकारा समझते हैं....किसी ने कहा है-
बड़ो बड़ो कह त्यागिए छोटे ग्रह जप दान
यहाँ भी छोटे का अर्थ वही है टुच्चा। यानी अगर आप सीधे सरल हैं तो आप पिसने के लिए, लात खाने के लिए तैयार रहे.....कोई आप की सिधाई और सरलता को माला फूल लेकर पूजने नहीं आ रहा है....।

इलाहाबाद की याद बुरी तरह आती है....रोज ही या कहें कि हर पल याद करता हूँ....आजकल वहाँ के एक लेखक की जिंदगी साहित्य के इतर कारणों से चर्चा में है.... जीवन भर जम कर हिंदी की सेवा करनेवाले एक शानदार लेखक अमरकांत आर्थिक तंगी से जूझ रहे है....लेकिन उनकी दिक्कतों की किसे पड़ी है....जितने साल इस महालेखक ने साहित्य में दिए हैं उतने राजनीति में दिए होते तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि और कुछ होता या न होता अर्थ का अभाव तो शायद न होता....।
तो क्या अमरकांत जी यह आर्थिक बदहाली उनकी सिधाई और सरलता का परिणाम है.....अगर नहीं तो दर्जनों किताबों से हिंदी कथा साहित्य को समृद्ध बनाने वाला एक लेखक किन्हीं भी कारणों से परेशान क्यों है....।

मेरा दृढ़ मत है कि हाँ अमरकंत जी ही नहीं किसी भी लेखक कलाकार की बदहाली उसकी सरलता का कुपरिणाम है....वैसे भी हिंदी समाज में लेखक का मतलब ही है फालतू जीव.....एक लेखक की कौन सुनता है...उसके कहे से कितनों को नौकरी मिल जाती है....कितनों का रुका हुआ काम बन जाता है....मन माफिक शहर में दबादला हो जाता है....वह एक ऐसा प्राणी होता है जो पैदा होते ही बोझ सा हो जाता है....
क्या होगा अमरकांत जी का कुछ लोग थोड़े दिनों तक हूँ....हाँ करेंगे....फिर चुप हो जाएँगे.....क्यों कि एक लेखक की मुश्किल कभी समाज की मुख्य चिंता नहीं बन पाती है.....और
उसके विचार उसे समाज में फैली लूट में शामिल नहीं होने देते और वह अपनी सैद्धान्तिक पिनक में समाज को सही दिशा में लाने के लिए कलम घिसता रहता है....व्यास, बाल्मीकी, कालिदास, तुलसी, कबीर , सूर, मीरा, निराला, प्रेमचंद, त्रिलोचन, नागार्जुन, मुक्तिबोध......सब ने यही किया उचित अनुचित का सवाल खड़ा किया...लूट में टूट कर शामिल नहीं हो गए.....और बिललाते रहे....रोते रहे....
जो भी बदलाव चाहेगा.....बहुत विचार-विचार करेगा....रोएगा....जिसे तर माल खाना हो.....दारोगा बनो....एक पंक्ति ठीक ने लिखना जानते हुए किसी चैनल या अखबार के संपाजक बनो....सत्ता की गलियों में पूछ हिलाने का अभ्यास करो.....विचार से बचो.....दुविधा से दूर रहो......न्याय का मान न लो....साधुता को दूर से सलाम करो.......फिर चाहे कहानी लिखो चाहे कविता....हर मंजिल पूछ से बधी रहेगी.....हर समारोह में जयकार होगी....

मैं निजी तौर पर हमेशा फालतू की सज्जनता को खारिज करता रहा हूँ....क्योंकि आज मेरा या हमारा समाज बहुतायत में बेइमान है.....अभय भाई का कहना सही है कि ऑटो रिक्शा वाले बेइमान है....पर वे अकेले नहीं है जो दाएँ-बाएँ से अपनी झोली भरना चाह रहे है...आज लूट एक राज धर्म है......और पकड़े न जाना एक सामाजिक कला.....जो पकड़ा नहीं गया वह चोर नहीं है....

इसीलिए कहता हूँ कि आज सारी नैतिकताएँ बोझ हैं.....जो सीधा सरल है वह दरअसल आत्म घाती है....सरलता शत्रु है.....सिधाई दुशमन है........समय है अपनी कोहनियों में खंजर बाँध कर दौड़ने का.....अगल-बगल वालों को न सिर्फ घायल कके पीछे छोड़ने का बल्कि लंगी मार कर गिराने का वक्त है...यह क्योंकि सिर्फ चाहने से कुछ नहीं होता.....साहित्य के विचारों को लागू करने वाले लेखक जब तक नहीं आएँगे.....तब तक यही होगा....विचार विचारणीय और सोचनीय बन कर रह जाएँगे....और लोग कहेंगे कि आदमी अच्छा था लेकिन बड़ा सीधा और विचारक टाइप का था....कुछ-कुछ साधुता से भरा.....
तो साधुता का नाश हो
सिधाई का नाश हो
सज्जनता का नाश हो.......

Sunday, April 20, 2008

याद आई वह लड़की


चिंह्न बचे होंगे क्या

याद आई वह लड़की
जिसकी अभिलाषा की थी कभी
याद आया
एक पेड़ के पैरों में जलता
निर्बल दिया ।

वे रातें
जिन्हें हम भुने आलू की तरह
जेबों में भरकर सो जाया करते थे
वे जगह-जगह जली हुई
चटख रातें
नमकीन धूल से भरी हमारी नींद
और वे तारे जो गंगा के पानी में
ठिठुरकर जलते रहते थे ।

कहीं गवाँ आया हूँ
इन सबको ।

ऎसा लगता है कि मेरे पास
कभी कुछ था ही नहीं
ऎसे ही खाली थी जेब
जी ऎसे ही फटा है पहले से ।

गंगा से इतना विमुख हो चला हूँ
कि जैसे उससे कोई नाता ही न हो
उसका रस्ता तक भूल गया हूँ
जैसे उसके तट तक
मझधार तक जाना न होगा कभी !

और वह लड़की
जो मेरे लिए थी स्लेट की तरह काली-कोरी
पड़ी होगी कहीं
किसी घर के कोने में
किसी विलुप्त हो चुके बस्ते की स्मृति में,
टूटकर उस पर
जो कुछ मैंने लिखा था कभी
उसके चिह्न बचे होंगे क्या
अब तक ।

नोट- इस कविता में कुछ संशोधन कवि-पत्रकार और अब ब्लॉगर विजय शंकर चतुर्वेदी के सुझाव पर किए गए थे। यहाँ मैं इसे कविता कोश से साभार छाप रहा हूँ।

Thursday, April 10, 2008

तिब्बत को देश मानने का साहस है क्या

अनिल कुमार सिंह हिंदी के उन कुछ कवियों में से हैं जो बेहद कम लिख कर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। वे मेरे भूत पूर्व मित्र रहे हैं...और मित्रता का स्मरण रस अभी भी कभी-कभी मित्रता का गाढ़ा नशा पैदा करता है...उन्हें उनकी कविता अयोध्या १९९१ पर भारत भूषण अग्रवाल और उनके कविता संग्रह पहला उपदेश पर केदार नाथ अग्रवाल सम्मान प्राप्त है और आजकल वे फैजाबाद के एक महाविद्यालय में हिंदी की बिंदी ठीक कर रहे हैं...। उनके संग्रह पहला उपदेश की एक झलक यहाँ देख सकते हैं... चाह कर भी मैं अनिल की कोई फोटू नहीं साट पा रहा हूँ...पढ़े उनकी एक कविता जो कि तिब्बत पर उनका अपना पक्ष रखती है। वैसे आजकल वे अपनी इस कविता से सहमत नहीं है। ऐसा उन्होंने फोन पर हुई बात में बताया है।

तिब्बत देश

आम भारतीय जुलूसों की तरह
ही गुजर रहा था उनका हुजूम भी
‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे
लगाता हुआ हिन्दी में

वे तिब्बती थे यक़ीनन
लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का
विदेशी तरीका था शायद
नारों ने भी बदल ली थी
अपनी बोली

एक भिखारी देश के नागरिक को
कैसे अनुभव करा सकते थे भला
वे बेघर होने का सन्ताप ?

अस्सी करोड़ आबादी के कान पर
जुओं की तरह रेंग रहे थे वे
पकड़कर फेंक दिए जाने की नियति से बद्ध
दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का
यही हश्र होना था आखिर !

दर-बदर होने का दुख उन्हें भी है
जो गला रहे हैं अपना हाड़
तिब्बत की बर्फानी ऊँचाइयों पर
उन्हें दूसरी बोली नहीं आती
और इसीलिए उनकी आहों में
दम है तुमसे ज़्यादा
दलाईलामा !

वे मुहताज नहीं है अपनी लड़ाई के लिए
तुम्हारे या टुकड़े डालने वाले
किन्हीं साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के
वे लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए तिब्बत में रहकर ही
जो धड़कता है उनकी पसलियों में
तुम्हारे जैसा ही
कोई क्या बताएगा उन्हें
बेघर होने का सन्ताप दलाईलामा !

Friday, April 4, 2008

लौट गए पिता, मैं जवानी सेता रहा

परसों अभय भाई आए थे...बातों-बातों में पिताओं का जिक्र आया। हम दोनों पिता हीन हैं...और माँ से दूर हैं...परसों की बात के दौरान मैंने अपने पिता के मरन की बात की...। उसी संदर्भ में एक ताजी और दो पुरानी कविताएँ छाप रहा हूँ...पिताओं को श्रद्धांजलि हैं यह।

(१)
कोई चिह्न नहीं है
पिता
अब घर में कोई चिह्न नहीं है तुम्हारा
सब धीरे धीरे मिट गया
कुछ चीजों को ले गए महापात्र
कुछ जला दीं गईं
तुम्हारा चश्मा पड़ा रहा तुम्हारे तहखाने में
कई महीने
फिर किसी ने उसे
गंगा में प्रवाहित कर दिया ।

तुम्हारे जूते
तुम्हारी घड़ी
तुम्हारी टोपियाँ सब कहाँ खो गईं जो
खोजने पर भी नहीं मिलतीं।

जब तुम थे
तब घर कैसे भरा था तुम्हारी चिजों से
हर तरफ तुम होते या तुम्हारी चीजें होतीं....
कितने तो गमछे थे तुम्हारे
कितने कुर्ते
कितनी चुनदानियाँ
कितने सरौते...
पर खोजता हूँ तो कुछ भी नहीं मिलता घर में कहीं
जैसे किसी साजिश के तहत तुम्हारी चीजों को
मिटा दिया गया हो।

ले दे कर बस एक चीज बची है
जो लोगों को दिलाती है तुम्हारी याद
वो मैं हूँ....तुम्हारा
सबसे छोटा बेटा।

पता नहीं क्यों लोग मुझे नहीं करते प्रवाहित
नहीं कर देते किसी को दान।
(४ अप्रैल २००८)

(२)
लौट गए पिता
आए थे पिता
कुछ-कुछ उदास
कुछ-कुछ हताश।

लौट गए पिता
बिल्कुल उदास
बिल्कुल हताश।

(2)
क्यों
गाँव में
पड़ा होगा सोता
बेराते होंगे पिता
धान में पानी

मैं यहाँ पर
बंद घर में
से रहा हूँ
जवानी !
-सिर्फ कवि नहीं से दो कविताएँ ।
रचना समय- १९८७-८८ में कभी।
शब्दार्थ-
सोता=जब सब सो जाएँ, बेराना=सींचने की प्रक्रिया, से रहा हूँ=पोस रहा हूँ, जैसे मुर्गी अंडे सेती है।

Wednesday, March 26, 2008

मुंबई में इलाहाबाद की खोज

मुंबई में इलाहाबाद की खोज

जब तक इलाहाबाद में रहा तब तक वहाँ अपने गाँव को खोजता रहा...अब मुंबई में हूँ तो यहाँ गाँव और इलाहाबाद दोनों को खोज रहा हूँ....और दोनो नहीं मिलते...।
इलाहाबाद से गाँव नजदीक था तो मौका मिलते ही चंपत हो लेता था...मेरे लिए गाँव जाना घरूमोह की तरह नहीं था...मैं गाँव जाता था....क्योंकि वहाँ गए बिना कोई चारा नहीं था....मैं यहाँ किसी तरह की सफाई देने नहीं आया हूँ कि मैं बड़ा गाँव भक्त और देशी टाइप का आदमी हूँ....मेरी आत्मा पल -पल गाँव के लिए तड़पती है यह कहने के लिए भी यहाँ हाजिर नही हुआ हूँ....

बस गाँव की याद आ रही है....गाँव के वो पेड़ याद आ रहे हैं जो एक-एक कर गिरते जा रहे हैं....मिठवा भी गिर गया, माँ बता रही थी.....संतरहवा भी कभी भी गिर सकता है....सेन्हुरहवा भी सूख गया....अमवारी लगभग खाली हो गई है...वही हाल महुआरी का भी है...सब कुछ सूख रहा है गाँव में और मैं लगभग १५०० किलोमीटर दूर बैठा केवल गाँव को याद कर रहा हूँ....उसके बारे में लिख रहा हूँ...
कभी। मैंने अपनी एक कविता में लिखा था कि मेरी कजरारी सीपी सी आँखों में बसा है मेरे गाँव का नक्शा...२२ साल बीत गए हैं गाँव को छोड़े पर आज भी मेरी आँखों में बसा है मेरा गाँव। १९८६ के मार्च अप्रैल में गाँव से विदा विदाई की स्थिति बननी शुरू हुई थी....जून में जाकर यह तय हो गया कि मैं इलाहाबाद जाऊँगा...पढ़ने....और गाँव छूट गया....

और जो चीज अनचाहे छूटती है वह बहुत याद आती है...

इस समय वहाँ आम बौरा गए होंगे....टिकोरे हवा की मार रहे से कभी कदा धरती पर आभी जाते होंगे...कोयल की कूक गूँजती होगी.....उस कूक की हूक मैं यहाँ तक सुन रहा हूँ....खलिहान में साफ सफाई हो रही होगी....गेहूँ कटेंगे....मड़ाई के उत्साह से मन मगन होगा और खलिहान के ऊपर बादल का एक छोटा टुकड़ा भी सब को डरा जाता होगा....

किसान का बेटा हूँ....हल चलाया है ....बीज बोए हैं...खेत तक अपनी मेहनत से पानी पहुँचाया है...जाग कर अपने खेतों की रखवाली की है...छुट्टे साड़ों को खेतों से खदेड़ा है...मेंड़ पर खड़े रह कर सिर्फ खेतों के नजारे नहीं लिए हैं....हंसुआ पकड़ कर गेहूँ-धान और गड़ासे - दराती से गन्ना अरहर काटा है....अरहर की खूठियों ने पैरों में न जाने कितने घाव किए....और हमने सब सहा.....

भाषा के व्याकरण से अधिक जीवन के छंद से लड़ना पड़ा है....और गा की याद उस लड़ाई की याद है जो अभी भी जारी है....वह मेरे अतीत की समाधि अभी नहीं बनी है....अभी उसको श्रद्धांजलि देने का समय नहीँ आया है....कोयल की कूक यहाँ भी सुनाई पड़ जाती है....पर वह किस पेड़ पर है यह नहीं समझ में आता....कल भोर में यहाँ कोई कोयल कूकती रही....मैं परेशान हो गया कि यह कहाँ कूक रही है...क्या यहाँ भी.....कोई गाँव है....अगर मैं परदेशी हूँ तो यह गाँव किसी का तो होगा....वे कौन लोग हैं....जिनके गाँव में मैं बस गया हूँ....मुंबई में मेरा घर चारकोप गाँव में पड़ता है.......पर यहाँ तो अब केवल कागज में गाँव लिखा है....मुंबई में कई गाँव हैं....जैसे गोरे गाँव, नाय गाँव, तो ठाकुर विलेज है...

रात में कूकने वाली उस कोयल को नहीं पता होगा कि वह जहाँ कूक रही है...वह अब गाँव नहीं एक महानगर का भाग है....और उसके इलाके में बहुत सारे परदेशी आ बसे हैं....नागरिकता ले ली है...और भगाए जाने पर भी भागने को राजी नहीं हैं....शायद चारकोप गाँव के मूल लोग जान पाते होंगे कि वह कोयल किस पेड़ पर हूक रही थी....या कूक रही थी....

सच बात है अपने गाँव के हर कोने अतरे से हम परिचित होते हैं....यहाँ तो दूसरी बिल्डिंग के लोगों को अब तक नहीं जान पाया हूँ और शायद जान भी न पाऊँ.....पर गाँव भिखारी राम पुर या इलाहाबाद तक में ऐसा नहीं था.....वहाँ भी अल्लापुर के बाघम्बरी गद्दी में पंछियों के कलरव अपने थे...वहाँ भी...बहुत सारे घरों की छौकन बघारन पहचानी सी थी...किस लड़की को देखने किस शहर से कोई आया है यह तक पता चलता रहता था....लेकिन यहाँ कुछ भी नहीं नहीं समझ में आता.....

मेरे गाँव में पिछले ३०० साल से कोई बाहरी आदमी नहीं बसा है....लेकिन बनारस में बाहर से लोग बसे हैं और बसेंगे....इलाहाबाद में बसेंगे....भिखारी राम पुर में कोई क्यों बसेगा....जब वहाँ का होके मैं वहाँ नहीं रह रहा हूँ....

तो भाई लोंगो...गाँव की याद आ रही है....और मैं यहाँ फंसा हूँ...जैसे बंदर चने की हाँड़ी में मुट्ठी बाँद कर फंसता है....यहाँ न इलाहाबाद मिल रहा है न गाँव...बस दोनों की याद दिलाने वाली कोयल किसी अनजान पेड़ पर कूक रही है....चाह कर अभी गाँव नहीं जा सकता...

Friday, March 21, 2008

हिंदी के ब्लॉगर सभी हिंदी के सौभाग।।

होली आज हो या कल उससे क्या फरक पड़ना। सब सबके गले मिलें लेकिन गला दबाने के लिए नहीं...सब सब से बात करें लेकिन गाली देने के लिए नहीं...आज .सब सब याद करें लेकिन सुपारी देने के लिए नहीं...होली मुबारक हो।

होली के होहे।।

होली आई देख के फुरसतिया हैरान
शिव जी भी हैरान है हलचल में हैं ज्ञान।।
निर्मल ज्ञान बिख्रेर कर सोते अभयानन्द
अजदक की गठरी फटी, ठुमरी पड़ गई मंद।।
हिंदुस्तानी डायरी रचें अनिल रघुराज
पौराणिक के पृष्ठ पर किसका झंडा आज।।
अनहद नाद अलोप हैं, सुन्न पड़े इरफान
शब्द खोजते थक गए बडनेकर बलवान।।
युनुस का बाजा बजे, सुनते अफलातून
कौन कबाड़ी ले रहा कविता एवज नून ।।
रतलामी के राज में खोए से संजीत
न काहू के शत्रु हैं दुनिया भर के मीत।।
अ आ करके मस्त है अरुणादित्य महान
कविता-सविता छापते हरे पराशर ज्वान।।
उड़न तश्तरी फिर रही भारत औ ब्रह्मांड
अवधिया फैला रहे मुफ्त हकीमी कांड।।

हल्ला था आशीष का, निकला वहाँ भड़ास
आठ आने की आस थी मिली चवन्नी खास।.
चोखेर बाली में छपे बेदखली के बचन
वांगमय में खो गए लाल विशाले-बयन
।।
लिंकित मन में घुल गया मसिजीवी का इंक
ममता अनिता से बना अपना घर का लिंक।।
घुघूती के घर में गया बेजी का पैगाम
बचते-बचते हो गया विनय-पत्र बदनाम।।

भूले-बिसरे मित्र सब शत्रु हो गए आज
होली आई देख के विष्णु-शिव भए आज।।
लावन्यान्तर्मन हो या विस्फोटी संजयान
पहलू बदल-बदल कर बिखर रहे इरफान।।
सबके मन में जल रही बड़ी होलिका आग
हिंदी के ब्लॉगर सभी हिंदी के सौभाग।।


नोट-
जो लोग यहाँ नामांकित होने से रह गए हों वो अपना समझ कर होली की गोली मार सकते हैं...आज सब कुछ झेलने के लिए तैयार हूँ...।

Tuesday, March 18, 2008

माँ की चुप्पी


मैंने माँ पर करीब दर्जन भर कविताएँ लिखी हैं....और अभी भी लगता है कि माँ के दुख को और संघर्ष को रत्ती भर भी नहीं कह पाया हूँ....कई साल पहले पिता जी और माता जी को लेकर एक उपन्यास लिखना शुरू भी किया था...करीब छब्बीस अध्याय लिखे भी हैं...पर अभी साल दो साल उसे पूरा कर पाने की स्थिति नहीं दिख रही है....इस बीच में माँ से जुड़े साहित्य का संपाजन किया है जिसमें कविता के दो खंड और विचार और निबंध आदि का एक खंड यानी कुल तीन खंड बने हैं....मातृदेवोभव नाम से यह सब संकलन इन दिनों प्रकाशन की प्रक्रिया में है.....आज पढ़ें मेरी एक पुरानी धुरानी कविता। यह कविता उस संकलन में नहीं है....

विदा के समय

विदा के समय
माँ मेरा माथा नहीं चूमती

चलते समय
कोई विदा-शब्द नहीं बोलती
न ही मेरे चल देने पर
हाथ हिलाती है।

जब मैं
कहता हूँ कि
जा रहा हूँ मैं-
माँ के पास
करने और कहने को
कुछ नहीं होता

और वह
और चुप हो जाती है।

नोट- यह कविता मेरे पहले संग्रह "सिर्फ कवि नहीं" से है।

Saturday, March 8, 2008

झंड़ा ऊँचा रहे तुम्हारा....

पत्नी को आजादी मुबारक

कल का दिन मेरे लिए बड़ी अजीब खुशी देनेवाला और दुविधा भरा था....खुशी की बात यह थी कि मेरी पत्नी आभा ने अपनी कविता न सिर्फ पूरी खुद से टाइप की बल्कि अपने से अपने ब्लॉग अपनाघर पर उसे प्रकाशित भी किया....दुविधा की बात यह थी कि उसने इस काम में मेरी कोई मदद नहीं ली....इस पोस्ट के पहले वह अक्सर मेरी मदद लेती थी कम से कम टाइप करने में....मैं उसकी पोस्ट टाइप करने में एक बुद्धिजीवी या कहें कि पति या मित्र या पुरुष की हैसियत से टोका-टाकी किया करता था.....और अक्सर उसे मेरी बेवजह की अड़ंगेवाजी झेलनी पड़ती थी....लेकिन कल उसने भूल और गलतियों की परवाह न करते हुए अपनी पोस्ट चढ़ा दी और मुझे बताया भी नहीं....

पता नहीं किस दुविधा के चलते मैंने कभी उसके लेखन को बहुत मन से उत्साहित नहीं किया...जबकि वह मुझसे पहले से लिखती रही है....यही नहीं...पिछले पंद्रह सालों से मैं अपनी हर कविता उसे सुनाकर उसके सहज सुलभ सुझावों से अपनी रचनाशीलता को बेहतर बनाता रहा हूँ....

लेकिन कल दिन में आभा ने खुद मुख्तारी का ऐलान कर दिया....और मुझे पता भी नहीं चला....जब हमेशा की तरह मैंने ब्लॉग का पन्ना खोला तो उसकी कविता देख कर चकित रह गया.....और मेरे मन में पहला सवाल आया कि गुरू यह तो सच में क्रांति हो गई....लेकिन मैं सच कहूँ....मैं.बहुत खुश हुआ....उसे फोन करके बधाई दी....उसकी पोस्ट को पसंद भी किया....वह बहुत खुश थी....
उसकी बातों में स्वतंत्रता की खुशी और खनक थी....मैं फोन पर उसके चमकते अनार दाना दंत पंक्तियों को देख रहा था....मैं उसकी आँखों में एक आत्मबल की चमक महसूस कर रहा था....एक ऐसी चमक जो यह उद्घोष करती है कि हम तुम्हारे आधीन अब नहीं हैं.... हम तुम्हारे साथ हैं सहचर हैं....गुलाम नहीं हैं....पत्नी हूँ....बोझ नहीं हूँ.....मैं भी हूँ....सिर्फ तुम ही तुम नहीं हो....बच्चू....

मुझे ऐसी ही खुशी और दुविधा तब भी हुई थी....जब मैंने आभा को पहली बार गाड़ी चलाते हुए देखा था...मैं सच कहूँ जब हम इलाहाबाद में साथ पढ़ते थे....और हमरा प्यार एकदम नया था..... तब मेरी बड़ी इच्छा .थी आभा को सायकिल चलाते देखने की...पर वहाँ उसने सायकिल चलाकर नहीं दिखाया......
सायकिल न सही कार ही सही...मित्रों अपने से अपनी गति और दिशा तय करना बड़ी विलक्षण बात होती है....और मेरी पत्नी मेरी एकमात्र सखी ने उस विलक्षणता को पा लिया है....और मैं अपनी सब दुविधाओं को दूर करके उसे बधाई देता हूँ......मैं कामना करता हूँ कि वह और अच्छा और बेहतर लिखे....वह अपने उन तमाम अनुभवों को लिखे जो कि वही लिख सकती है....मुझे उसके लिखे का इंतजार रहेगा.... वह उड़ान भरे ...गिरने की परवाह....न करे....या यह कि आभा .....
झंड़ा ऊँचा रहे तुम्हारा....

चलते-चलते अपने ब्लागर मित्रों से पूछना चाहूँगा कि भाई....तुम्हारे ब्लॉग पर कभी तुम्हारी पत्नी का नाम-चेहरा-दुख-सुख क्यों नहीं झलकता...क्या उसकी स्वतंत्रता को लेकर कोई दुविधा है तुम्हारे सामंती मन में.....क्या ब्लॉग की अनंत खिड़की पर भी तुमने अपना पैत्रिक अधिकार समझ लिया है....क्या यहाँ भी तुम्हारी बपौती है....

भाई...अगर अपनी पत्नी को स्वतंत्र नहीं कर सकते तो...समाज के तमाम तबकों की आजादी समता समन्वय की बातें खोखली नहीं हैं....तुम्हारा सारा प्रगतिबोध आत्मोत्थान का उपादान या सोपान भर नहीं है....या यह तुम्हारा प्राचीन पर्दा प्रथा को शहर के कमरों में जिंदा रखने का एक सोचा-समझा खेल है....क्या है भाई...बताओ....मैं तुम्हारा पक्ष सुनना चाहता हूँ....

आगे.........लगातार.....

Thursday, March 6, 2008

किसका भारत, किसकी भारती ?

कुछ दिन हुए मुंबई में चर्चगेट की तरफ गया था....वहीं हुतात्मा चौक की ओर जा रही सड़क के कोने पर यह दृश्य दिखा...जिस पर मैं अभिशप्त हूँ लिखने को....कभी-कभी लगता है लिखने से कुछ बदलने वाला नहीं....फिर भी हम लिखते हैं....इस उम्मीद पर कि शायद लिखने से कुछ बदल ही जाए। आप पढ़ें...।

भारत-भारती

उधड़ी पुरानी चटाई और एक
टाट बिछाकर,
छोटे बच्चे को
औधें मुँह भूमि पर लिटा कर।

मटमैले फटे आँचल को
उस पर फैला कर
खाली कटोरे सा पिचका पेट
दिखा कर।

मरियल कलुष मुख को कुछ और मलिन
बना कर
माँगने की कोशिश में बार-बार
रिरिया कर।

फटकार के साथ कुछ न कुछ
पाकर
बरबस दाँत चियारती है
फिर धरती में मुँह छिपाकर पड़े बच्चे को
आरत निहारती है ।

यह किस का भरत है
किस का भारत
और किस की यह भारती है।

नोट- यह कविता विष्णु नागर जी के संपादन में कादम्बिनी में छपने गई थी....भूल से यहाँ पहले छप गई....कृपया आप सब इसे कादम्बिनी के अगले अंकों में पढ़ सकते हैं....कविता छप रही है यह जानकारी मुझे पंकज पराशर जी ने दी है....

Saturday, February 23, 2008

साल भर में क्या उखाड़ा...उर्फ ब्लॉगमारी

ब्लॉगमारी के एक साल

(सब दोस्तों को सलाम, कल से मैं अपनी विनय-पत्रिका शुरू कर रहा हूँ.......पढ़ो और बताओ...... इसे शुरू करवाने के पीछे हैं अविनाश, अभय तिवारी, चैताली केलकर,अनिल रघुराज....और मैं खुद...नामकरण आभा ने किया है.......)

2 टिप्पणियाँ: अभय तिवारी said...

स्वागत है...अंदर की छपास की आग को फ़टाफ़ट ठंडा करते हुये ब्लॉग की दुनिया मे आग लगाते रहो। February 24, 2007 2:48 AM

Sanjeet Tripathi said...

ब्लॉग-जगत में आपको देखकर खुशी । शुभकामनाएँ

(यह मेरी पहले दिन की पहली पोस्ट थी...और उसपर मिली थी अभय भाई और संजीत जी की टिप्पणियाँ...आज एक साल पूरा हो गया....है विनय पत्रिका शुरू किए...। ऐसे दिन मैं अपनी पहले दिन प्रकाशित कुछ चिंदियों को फिर से छाप रहा हूँ...आपने उन्हें फिर से पढ़ें...।

कुछ दोहे

( ये दोहे कभी किसी ने मुझे भेंजे थे, नाम उसका शायद नवल किशोर था । आप भी इन्हें पढ़ें और .....)

उठते हुए गुबार में, काले - दुबले हाथ,

बुला-बुला कर कह रहे, चलो हमारे साथ ।

घुलते- घुलते घुल गई, कैसे उसकी याद,

कौन सुने किससे करें, सुनने की फरियाद ।

दिन डूबा गिरने लगी, आसमान से रात,

एक और भी दिन गया, बाकी की क्या बात ।

सूरज के आरी-बगल, धरती घूमें रोज,

अपने कांधे पर लिए मेरा-तेरा बोझ ।

पसंद के कुछ शेर

भगवान तो बस चौदह बरस घर से रहे दूर

अपने लिए बनबास की मीआद बहुत थी । ज़फ़र गोरखपुरी

मुहब्बत, अदावत, वफ़ा, बेरुख़ी

किराए के घर थे, बदलते रहे । बशीर बद्र

विनय पत्रिका का मूल्यांकन आज नहीं कभी फिर....हाँ आप कर सकते हैं...कि मैंने क्या किया क्या करूँ...

Monday, February 18, 2008

विष रस भरा घड़ा था बोधिसत्व

मैं किसी को प्रिय क्यों नहीं हूँ

पिछले कई सालों से लगातार एक बात महसूस कर रहा हूँ....कि मुझे.
चाहने वालों की संख्या में तेजी से कमी आई है । कभी-कभी तो लगता है कि कोई है ही नहीं जो मुझे चाहता हो....।

वे जो चाहने का दावा करते हैं...मजबूर हैं...उनके पास कोई विकल्प नहीं है....मैं बात अपनी पत्नी और बच्चों की कर रहा हूँ...अगर मध्यकाल में मैं रहा होता तो अब तक सब मुझे छोड़ कर चले गए होते...। बेचारे क्या करें...।

कभी-कभी लगता है कि माँ मुझे चाहती है...पर वह अगर मैं फोन न करूँ तो वह कभी फोन नहीं करती...बस चुप रहती है...
उसे मोक्ष चाहिए...वह जीना नहीं चाहती...अगर वह मुझे प्यार कर रही होती तो मोक्ष के बारे में सोचती...। उसे पिता के पास जाना है...। निर्मोही पिता संसार छोड़ कर चले गए हैं..वह भी चली जाना चाहती है....। अब मैं उसका संसार नहीं हूँ...कभी हुआ करता था...
पिता मुझे बहुत चाहते थे....लेकिन अपने अंतिम दिनों में मुझे अपने पास नहीं रहने देते थे...जब मैं उनसे बहुत दुलराता था तो वे मुझे इलाहाबाद भगा देते थे...।
और बहुत साफ-साफ कहते थे मेरे दिन पूरे हुए....।

सच है कि मैं न अच्छा बेटा बन पाया हूँ...न भाई...न पति न पिता न लेखक न कवि...लगातार लग रहा है कि सब अधकचरा है...सारा जीवन....सारा काम ...सारा लेखन....सारे संबंध....
यह बात दोस्तों के बुझे व्यवहार से भी मुझे महसूस होती है...कि मैं कभी अच्छा मित्र नहीं बन पाया.....खोट है मुझमें....मैं कभी पूरी तरह समर्पण नहीं करता....थोड़ा आलोचनात्मक बना रहता हूँ...दिन को रात नहीं कह पाता....या हाँ में हाँ...नहीं कर पाता...तभी तो जिन मित्रों के साथ कभी 22-22 घंटे इलाहाबाद में या गाँव में रमा रहता था...वे बड़ी कठिनाई से बात कर पाते हैं वह भी महीनों-महीनों बाद....।

मैं दावे से कह सकता हूँ...कि अपने परिचितो और मित्रों को सबसे अधिक मैं फोन करता हूँ.....कई बार ऐसा मन करता है कि जाने दो साले को जब वह नहीं कर रहा है तो मैं ही क्यों करूँ....पर करता हूँ....हाल लेता हूँ...देता हूँ...
जो भी मेरे मित्र इस खत को पढ़ें अगर मेरी बात गलत लगे तो....बोलें....मैं उनको सुनने को तैयार हूँ....
अरे चिरकुटों मैं ही नहीं तुम सब भी अजर-अमर नहीं हो....क्या सोचते हो....यहीं रहोगे...और ऐसे ही मुह फुलाकर भटकते रहोगे....और बस। एक दिन एक खबर आएगी बोधिसत्व नहीं....रहा....फिर यह होगा कि तुम नहीं रहोगे....
भाई यह देस बिराना है....।

मगर तुम मेरे लिए दो आँसू बहाने की जगह कहोगे.....बोधिया......नहीं रहा....। मन में कहोगे चूतिया चला गया....। हरामी कभी समझ में ही नहीं आया....जितना बाहर का मिठास था सब दिखावा था उसका...साला अंदर से बड़ा जहर का पीपा था...खूसट ...। विष रस भरा कनक घट था.......कमीना.....। इससे अधिक गाली तो तुम दे नहीं पाओगे...। ब्लॉग जगत में एक गाली विरोधी एक दस्ता है...जो मन की घृणा को अंदर-अंदर पकाता खाता है.... और जब बाहर आती है तो गाली एक दम गुल-गुला हो जाती है....।
पर मैं मानता हूँ....कि मैं बहुत सीधा और सरल नहीं हूँ...या मैं मिट्टी का माधो नहीं हूँ...तुम कह सकते हो...कि मैं बहुत जटिल हूँ...बहुत उलझा हुआ....भी।
हाँ....मैं झगड़ालू हूँ...पर चिरकुट नहीं हूँ...
मैं मक्कार नहीं हूँ....और मेरे लिए भरोसा तोड़ना हत्या से बढ़ कर है....।
मैंने कभी मक्कारी नहीं की है....किसी के भी साथ.....फिर भी आज कल लगातार लग रहा है कि मुझे कोई नहीं चाहता....शायद कुछ लोग हों जो मेरे मरने की हुआ करते हों....उनकी कामना पूरी हो मैं उनके लिए दुआ करूँगा क्यों कि मैं उन्हें प्यार करने की सोचता हूँ....।

Tuesday, February 5, 2008

लड़ कर मरना बेहतर होगा

मैं मुंबई क्यों छोड़ूँ ?

भाई चाहे राज कहें या उनके ताऊजी मैं तो मुंबई से हटने के मूड में एकदम नहीं हूँ..... मैं ही नहीं मेरे कुनबे के चारों सदस्य ऐसा ही सोचते हैं...लेकिन हम सब और खास कर मैं किसी राज ठाकरे या उसके गुंड़ों से मार ही खाने के लिए तैयार हूँ। मैं जानता हूँ कि मेरे पास कोई फौज नहीं है न ही कोई समर्थकों का गिरोह ही। मैं तो अभी तक यहाँ का मतदाता भी नहीं हुआ हूँ...बस रह रहा हूँ और आगे भी ऐसे ही रहने का मन है.....

जो लोग मुंबई को अपना कहने का दंभ दिखा रहे हों...वो सुन लें...
कभी भी अगर बीमार न रहा होऊँ तो १५ से १७ घंटे तक काम करता हूँ...इतनी ही मेहनत हर उत्तर भारतीय यहाँ करता है...वे या मैं किसी भी राज या नाराज ठाकरे या उनके मनसे के किसी सिपाही से कम महाराष्ट्र या मुंबई को नहीं चाहते हैं... अगर उनके पास कोई राज्य भक्ति को मापने का पैमाना हो तो वे नाप लें अगर उनसे कम राज्य भक्त निकला तो खुशी से चला मुंबई से बाहर चला जाऊँगा....

लेकिन अगर मेरे मन में कोई खोट नहीं है और मैं एक अच्छे शहरी की तरह मुंबई को अपना मानता हूँ तो मैं अपनी हिफाजत के लिए गोलबंद होने की आजादी रखता हूँ....अगर हमें खतरा लगा तो बाकी भी खतरे में ही रहेंगे...

क्योंकि
तोड़- फोड़ के लिए बहुत कम हिम्मत की जरूरत होती है....लूट और आगजनी से बड़ी कायरता कुछ नहीं हो सकती....रास्ते में जा रहे या किसी चौराहे पर किसी टैक्सी वाले को उतार कर पीटना और उसके रोजीके साधन को तोड़ देना तो और भी आसान है....

मैं यह सब कायरता भरा कृत्य करने के लिए गोलबंद नहीं होना चाहूँगा बल्कि मैं ऐसे लोग का मुँह तोड़ने के लिए उठने की बात करूँगा जो हमें यहाँ से हटाने की सोच रहे हैं....

मेरा दृढ़ मत है कि उत्तर बारत के ऐसे लोगों को आज नहीं तो कल एक साथ आना होगा .....उत्तर भारतीयों को एक उत्तर भारतीयों को सुरक्षा देने वाली मनसे के गुंड़ो को मुहतोड़ उत्तर देने वाली उत्तर सेना बनाने के वारे में सोचना ही पड़ेगा....


जो लोग आज भी मुंबई में अपनी जातियों का संघ बना कर जी रहे हैं....मैं उन तमाम जातियों को अलग-अलग नहीं गिनाना चाहूँगा....उत्तर भारत से बहुत दूर आ कर भी आज भी बड़े संकीर्ण तरीके से अपने में ही सिमटे हुए लोगों से मैं कहना चाहूँगा कि
...
आज जरूरत है सारे उत्तर भारतीयों को एक साथ आने की जिन्हें यहाँ भैया कह कर खदेड़ा जा रहा है....
उनमें अमिताभ बच्चन भी हैं जो कि अभिनय करते हैं...और शत्रुघन सिन्हा भी
उनमें हसन कमाल भी हैं...जो कि लिखते हैं...और निरहू यादव भी जो कि सब कुछ करते हैं.........
उनमें राम जतन पाल भी हैं जो किताब बेंचते हैं और सुंदर लाल भी जो कि कारपेंटर हैं...
जिनका दावा है कि हम काम न करें तो मुंबई के आधे घर बिना फर्नीचर के रह जाएँ......

तो आज नही तो कल होगा.....
संसाधनों के लिए दंगल होगा....

और इसके लिए तैयार रहने को मैं कायरता नहीं मानता। ऐसा मैं अकेला ही नहीं सोच रहा ऐसे लाखों लोग हैं जो अपनी मुंबई को छोड़ने के बदले लड़ कर मरना बेहतर समझेंगे।

Wednesday, January 30, 2008

हिचकियाँ बता रही हैं कि कोई मुझे याद कर रहा है

अपनी खुशी के लिए लिखता हूँ

पिछले कई दिनों आभा यानी मेरी पत्नी मेरे पीछे पड़ी हैं कि तुम महीने में एक पोस्ट लिख कर ब्लॉग जगत में जिंदा कैसे रह सकते हो। लगातार न लिखो तो भी महीने में कम से कम सात-आठ पोस्ट तो लिखो। देखो सब कितना लिख रहे हैं..

सो आज जो कुछ लिख रहा हूँ..आभा की चिंता से । कुछ लोग कह सकते हैं कि बोधिसत्व ने अपने ब्लॉग पर अपने परिवार की फोटो ही नहीं लगा रखी है वे तो पोस्ट भी अपनी पत्नी के कहने से छापते हैं...

ऐसे विघ्न संतोषी लोगों को मैं या कोई भी क्या कह सकता है...मुझे उनकी परवाह नहीं है॥क्यों कि मैं अपनी खुशी के लिए लिखता हूँ मुझे किसी से कोई दिशा निर्देश नहीं चाहिए...लिखने पढ़ने या अभिव्यक्ति के मामले में किसी को नसीहत देने को मैं अभिरुचि की तानाशाही मानता हूँ। और कैसी भी तानाशाही का समर्थन कोई भी कैसे कर सकता है अगर वह जिंदा है। वही व्यक्ति हर तरफ अपने मन का होता देखना चाहेगा जिसके अंतर में एक बीमार तानाशाह रहने लगा हो वही दूसरों को ताना भी मार सकता है कि ऐसा लिखो और ऐसा दिखो।

दोस्तों आज सुबह से लगातार हिचकी आ रही है। पानी पीकर हिचकी को शांत करने की कोशिश की लेकिन कामयाबी न मिली। हिचकी शांत करने का और कोई उपाय जानता नहीं हूँ क्या करूँ । कुछ लोग हिचकी को छींक की तरह अनैच्छिक क्रिया मान सकते है। लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा है।

मुझे लग रहा है कि कोई मुझे याद कर रहा है। पत्नी कह रही है कि मैं तो यहीं हूँ फिर कौन याद कर रहा है...मेरी उलझन देख उसी ने फिर कहा कि हो सकता है माता जी याद कर रही हों। मां को फोन किया वो सच में याद कर रही थी । उसने कहा कि वह मुझे हर पल याद करती रहती है...।

उससे बात करने के बाद भी हिचकी आती जा थी...तो बारी-बारी से अपनी बहनों और भाइयों और भाभियों सबसे बात की लेकिन अभी भी हिचकी बंद नही हुई है..
मुंबई में अभय से बात किया कि तो पता चला कि वो भी मुजे याद कर रहे थे...भाई शिव कुमार मिश्र से हो रही बातचीत में मेरा जिक्र था...

काफी देर से परेशान हूँ...अभी भी हिचकी चल रही है...

मित्रों और मित्रानियों और अपने चाहने न चाहने वालों से यह नम्र निवेदन है कि वे या तो याद करना बंद करें या मुझे फोन कर लें।

क्यों कि मैं बहुत देर से हिचकी से परेशान हूँ।

नोट- इसी हिचकी के कंटेंट को कविता में भी लिखा है जो कि अमर उजाला में भाई अरुण आदित्य को छापने के लिए भेज रहा हूँ।

Friday, January 18, 2008

वे बड़े साधारण लोग थे

मैं खो गया हूँ

वे बड़े साधारण लोग थे..उनके तो नाम भी अजीब हिंदी टाइप के थे...
किसी का नाम भगतिन था तो
किसी का ब्रह्म नारायण
एक और थी जिसका नाम सरिता था....
एक नें मुझे विन्ध्याचल की पहाडियों में खो जाने से बचाया।

अपने मुंडन के बाद मैं
पता नहीं कैसे चला जा रहा था पहाड़ियों की ओर
मुझे तो पता भी हीं था कि मैं भटक गया हूँ...
वे ब्रह्म नारायण थे मेरे पिता के बाल सखा
जिन्होंने मुझे देखा गलत दिशा में जाते
और ले आए वापस।

फिर मैं खो गया था मेले की अपार भीड़ में
बैठा था भूले – भटके शिविर में
नाम भी नहीं बता पा रहा था किसी को
कि मेरे गाँव की भगतिन ने देख लिया मुझे
झपट लिया मुझे उस खेमे में आकर
ले आई मां के टेंट में
जो घंटे भर से खोज रही ती मुझे जहाँ-तहाँ बिललाती।।

थोड़ा और बड़ा हुआ तो
खो गया एलनगंज में
अपने चाचा के डेरे पर आया था
बीमार ताई को देखने आई थी माँ
तो आ गया था मैं भी...
थक गया था खोज कर पर
नहीं मिल रही थी चाचा के घर की गली
वह तो सामने के फ्लैट में रहने वाली एक भली सी लड़की ने देखा
मुझे चौराहे की भीड़ में सुबकते
ले आई घर किसी को बताया भी नहीं कि
मैं खो गया था....नाम था उसका सरिता
तब वह बारहवीं में पढ़ती थी
किसी गणित के अध्यापक की बेटी थी।

एक बार तो डूब ही रहा था गाँव के सायफन में
खेतों को सींचने के लिए पानी की नाली का चमकता हुआ पानी
जाता था घर के बहुत पास से
सायफन पड़ता था घर के एकदम पिछवारे
उसी के तल में चमक रही थी एक दुअन्नी
जिसे पाने के लिए मैं उतर गया पानी में
दुअन्नी लेकर मैं डूब रहा था कि आ गए नन्हकू भगत
उन्होंने देख लिया मुझे डूबते
और निकाल लिया बाहर...
बच गया एक बार फिर
बचा लिया गया ऐसे ही कितनी बार खोने से डूबने से।

भाइयों और बहनों
पिछले कई सालों से खो गया हूँ मैं कहीं
डूब रहा हूँ कहीं
नहीं आ पा रहे मुझ तक ब्रह्म नारायाण
भगतिन का कुछ पता नहीं चल रहा
सरिता भी पता नहीं कहाँ है
कहाँ हैं भगत
मैं कह नहीं सकता।
वे बड़े मामूली लोग थे..
उनके तो नाम भी अजीब हिंदी टाइप के थे ।