Wednesday, October 6, 2010

हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से लौट कर

लेखकों से मिलना सुखद रहा

मैंने ‎पहले लिखा था कि वर्धा में वृहद् उत्सव होने जा रहा है। तो वह जन्मशती उत्सव सम्पन्न हुआ और लेखकों का भारी जमावड़ा रहा। 2 और 3 अक्टूबर को वर्धा में बहुत आनन्द आया। वहाँ महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित जन्मशतियों के उत्सव में देश भर से कवि लेखक और आलोचक जुटे थे ।

वहाँ नामवर जी, आलोक धन्वा, अरुण कमल, खगेंद्र ठाकुर, गोपेश्वर सिंह, दिनेश शुक्ल, दिनेश कुशवाह, अजय तिवारी, अखिलेश, विमल कुमार के साथ ही नित्यानन्द तिवारी जी से सालों बाद मुलाकात हुई। सबसे रोचक रहा मुझे चाँद चाहिए के लेखक सुरेंद्र वर्मा से मिलना। वे कम बोले और थोड़ा अलग-अलग रहे। उनकी बातों से पता चला कि वे पिछले 13 सालों से एक उपन्यास लिख रहे हैं जो कि मुगल-खानदान पर है। निर्मला जैन जी को 12 साल बाद सुना। अपनी सोच और आलोचकीय अवधारणा पर प्रतिबद्ध हिंदी में शायद वे अकेली हैं। उषा किरण खान से 8 साल बाद मिला।


रंजना अरगड़े से शमशेर जी और उनकी रचनावली के बारे में बहुत सारी बाते हुईं। उनके पास अभी भी शमशेर जी की बहुत सारी अप्रकाशित रचनाएँ हैं जिन्हें वे शमशेर रचनावली में दे रही हैं। हिंदी को रंजना अरगड़े जी का आभारी होना चाहिए। उन्होंने हिंदी की थाती को सहेज कर रखा।

हिंदी विश्वविद्यालय का यह जन्म शती आयोजन जगमग रहा। नागार्जुन, अज्ञेय ,शमशेर, केदार और फैज जैसे पांच कालजयी कवियों के कृतित्व और व्यक्तित्व पर गंभीर चर्चा हुई। तो विभिन्न सत्रों के बीच आपसी बातो में लोगों ने खूब रस लिया। राजकिशोर जी के चुटिले संवाद, गोपेश्वर सिंह के ठेंठ का ठाठ और कविता वाचक्नवी के ठहाके याद आ रहे हैं.। गोपेश्वर जी से करीब 12 साल बाद मिलना हुआ। 1999 में पटना प्रवास में गोपेश्वर जी मेरे लिए बड़े सम्बल की तरह थे।

पक्षधर के संपादक विनोद तिवारी दिल्ली से तो ब्लॉगर शशिभूषण चेन्नै से पधारे थे। आलोचक शंभुनाथ ने अपने वक्तव्य से संगोष्ठी को गरिमा प्रदान की। शशिभूषण का अज्ञेय पर केंद्रित व्याख्यान तर्कपूर्ण था। डॉ. विजय शर्मा का मौन रहना और नरेन्द्र पुण्डरीक कवि केदार नाथ अग्रवाल को लेकर भावुक हो जाना एक अलग अनुभूति से भर गया। गंगा प्रसाद विमल और जीवन सिंह का एक दूसरे से लपक कर मिलना और एक दूसरे से देर तक बतियाना सुखद लगा।

सत्यार्थमित्र ब्लॉग के संचालक और अब विश्वविद्यालय संबंद्ध सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने पूरे कार्यक्रम की सजग रिपोर्टिंग की। विश्वविद्यालय का सभागार लगातार छात्रों और वहाँ के अन्य लोगों की उपस्थिति से भरा रहा। कुलपति विभूति नारायण राय और कुलाधिपति नामवर सिंह पहले वक्ताओं और फिर श्रोताओं में लगातार बने रहे। दो दिन में लगभग 6 गंभीर सत्रों को सुनना बड़े धैर्य की बात होती है। कुल मिला कर मेरा दो दिन बहुत आनन्द में बीता। कितनों से मिलना कितनों को जानना अच्छा लगा।

नागपुर से कवि वसंत त्रिपाठी के साथ आए रंगदल ने नागार्जुन बाबा की कविताओं का रुचिकर मंचन किया। जिसका लोगों ने भरपूर आनन्द उठाया।

सूरज पालीवाल, शंभुगुप्त, बीरपाल, अनिल पाण्डेय और उमाकांत चौबे को छूना देखना आह्लादकारी रहा।
वहाँ न पहुँचे लोगों के लिए एक सुखद बात यह है कि विश्वविद्यालय इस संगोष्ठी में पढ़े या बोले गए वक्तव्यों को आने वाले दिनों में किसी न किसी रूप में प्रकाशित भी करेगा।


Saturday, October 2, 2010

हिंदी विश्वविद्यालय में हिंदी महारथियों का जन्मशती उत्सव प्रारंभ


जन्मशती उत्सव के उद्घाटन सत्र में विषय प्रवर्तन करते हुए कुलपति विभूतिनारायण राय ने बीसवीं सदी की चर्चा करते हुए इसे सर्वाधिक परिवर्तनों की सदी बताया। उन्होंने कहा कि यह सदी हाशिये की सदी कही जा सकती है जिसमें हाशिए पर रहने वाले लोग- जैसे दलित, आदिवासी और स्त्रियाँ- पहली बार मनुष्य की तरह जीवन जीने का अवसर पा सके।

वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय का सभागार देश भर से आये साहित्यकारों और हिंदी प्रेमी श्रोताओं से खचाखच भरा था। बहुत दिनों बाद नामवर जी को छूने, भेंटने और सुनने का अवसर मिला और पचासी की उम्र में नामवर जी की मेधा अपने उत्कर्ष पर दिखी। उनको छूकर एक ऋषि और युग को छूने का आभास हुआ और भेंट कर लगा कि अपने किसी पुरखॆ से मिले हैं।

हिंदी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित जन्मशती उत्सव के उद्घाटन वक्तव्य में नामवर जी ने बीसवीं सदी के अवदान को कई कोणों से रेखांकित किया और बताया कि इसी सदी में प्रथम, द्वितीय और तीसरी दुनिया का आविर्भाव हुआ और अवसान भी। तीनो में से अब तीसरी दुनिया ही बची है। इसी सदी में दो विश्व युद्ध हुए और समाजवाद का उदय हुआ। सदी का अंत होते-होते समाजवाद का भी प्रायः अंत हो गया। उन्होंने याद दिलाया कि भक्तिकाल में सूर, कबीर व तुलसी के साथ मीरा का काव्य स्वर निरंतर सक्रिय रहा। छायावादी कवि त्रयी- प्रसाद, पंत, निराला- के साथ महादेवी वर्मा का चौथा दृढ़ स्वर जुड़ा था, किंतु अज्ञेय, केदार, शमशेर व नागार्जुन की पीढ़ी में कोई महान कवयित्री नहीं दिखती।

उन्होंने उक्त चारो कवियों में नागार्जुन के काव्य संसार को अलग से रेखांकित किया। नामवर जी ने जोर देकर कहा कि नौ रसों में विभत्स रस अज्ञेय और शमशेर के यहाँ खोजने पर न मिलेगा। किंतु नागार्जुन ने हिंदी कविता में उस उपेक्षित दुनिया को प्रवेश दिलाया जो नागार्जुन के पहले बहुधा बहिष्कृत थी। उस उपेक्षित दुनिया और दोहे उसके लोगों को ्नागार्जुन ने अपने तरीके से स्थापित किया। उन्होंने नागार्जुन के दोहों को कालजयी बताते हुए उनका प्रसिद्ध दोहा उद्धरित किया

खड़ी हो गयी चाँपकर कंकालों की हूक।

नभ में विपुल विराट सी शासन की बंदूक॥

जली ठूठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक

बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक

इस उम्र में नामवर जी की स्मृति और राजनीतिक दृष्टि की दाद देनी होगी। उन्होंने चलते-चलाते अज्ञेय को एक दरेरा दे ही दिया कि असली प्रयोगवादी नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल ही हैं न कि अज्ञेय और उनके द्वारा प्रचारित कवि।

नामवर जी के बाद बोलने आयी निर्मला जैन ने अज्ञेय की राजनीतिक समझ को रेखांकित किया। उन्होंने इस बात को साफ-साफ कहा कि १९४७ की भारत के विभाजन जैसी विराट त्रासदी और विस्थापितों की समस्या पर ऊपर के चारो कवियों में अकेले अज्ञेय ने ही लिखा। निर्मला जी ने अपने वक्तव्य में अज्ञेय की शरणार्थी श्रृंखला की ग्यारह कविताओं और उनकी शरणागत कहानी को उनकी राजनैतिक समझ का सबूत बताया। उन्होंने शरणागत को ‘सिक्का बदल गया है’ और ‘अमृतसर आ गया है’ जैसी कहानियों की श्रेणी में रखा। , वहीं उन्होंने नागार्जुन की इन्दू जी-इन्दू जी, आओ रानी हम ढोएंगे पालकी, और शमशेर की राजनैतिक कविताओं को उद्धरित करते हुए उनके महत्व को समझाया। निर्मला जी ने केदार की गृहस्थ जीवन से जुड़ी कविताओं को सुख-दुख की सहचरी को सम्बोधित कविताएँ बताया।

इस कार्यक्रम में आने वाले देश के कई मूर्धन्य साहित्यकार अगले सत्रों में अपना वक्तव्य देंगे जिनमें नित्यानंद तिवारी, सुरेंद्र वर्मा, खगेन्द्र ठाकुर, उषा किरन खान, धीरेंद्र अस्थाना, अरुण कमल, अखिलेश, अजय तिवारी, रंजना अरगड़े, कविता वाचक्नवी, दिनेश कुशवाह, बसंत त्रिपाठी, नरेंद्र पुंडरीक, गोपेश्वर सिंह, प्रमुख हैं। मुझे भी केदार नाथ अग्रवाल की कविता पर एक पर्चा पढ़ना है।

नोट: आगे हम आपको जन्मशती उत्सव की अगली रिपोर्ट देंगे और साथ में अज्ञेय की शरणार्थी श्रृंखला की कुछ कविताएँ भी पढ़वाने की कोशिश करेंगे। अपना वक्तव्य तो प्रकाशित होगा ही।