Saturday, April 28, 2007

मेरी काकी

कत बिधि सृजी नारि जग माहीं
(भाइयों यह सिर्फ एक कोशिश है ......यहाँ सिर्फ सच है, सच के सिवा कुछ भी नहीं.....कहानी और सच में न उलझें )

काकी से मुलाकात सिर्फ प्रेमचंद की कहानी में ही नहीं उत्तर भारत के अधिकतर घरों में की जा सकती है । मेरी भी एक काकी हैं । बे औलाद, विधवा, और संपत्ति से बेदखल । बड़े से मकान में रहने को एक कमरा और साल भर खाने को अन्न पहनने को कपड़ा यही सब मिला है काकी को और काकी चुप हैं, खुश हैं। अपने देवरानियों और जेठानियों के बच्चों को नहलाते-धुलाते काकी अपने दिन को रात और उन्हीं बच्चों को सुलाते सम्हालते रात को दिन करना । बचे समय में उस घर का निगरानी करना कि उनके घर का कुछ बिगड़ तो नहीं रहा । हप्ते में तीन दिन व्रत और उपवास का अटूट क्रम जो अब तक शायद जारी है ।
आज काकी पिचहत्तर और अस्सी के बीच होंगी। जीभ अब स्वाद नहीं पहचानती, दमा ने दबोच रखा है । इन्हेलर और दवाओं के बल पर सांस लेती काकी अब और जीना नहीं चाहतीं । रात में और दिन में पूजा-पाठ और सुमिरनी फेरते समय काकी भगवान से उठा लेने की पुकार करती हैं । जो मिलता है उसी से कहती हैं कि अब जीने की शक्ति नहीं, अब और नहीं....क्या काकी तब भी मौत के लिए दुआ मांगती जब उनके अपने बच्चे होते, उनकी अपनी गृहस्थी होती, उनका अपना कैसा भी एक संसार होता.....
हमारी काकी बीस साल की उम्र में विधवा हो गईं थी, मां बताती हैं कि हमारे काका मोतीराम की उम्र तब इक्कीस या बाइस साल थी। तब वे आगरा यूनिवर्सिटी से बी कॉम टू के छात्र थे । पहले साल के इम्तहान में वे विश्वविद्यालय के अव्वल छात्र थे । काका की मौत सन्निपात से हुई थी । हमारे बाबा इलाके के मान्य बैद्य थे हजारों को जिंदगी दी थी पर अपने ही मंझले बेटे मोती को नहीं बचा पाए । शायद बनारस के कबीर चौरा अस्पताल से डॉक्टर भी उनके इलाज के लिए आया था...लेकिन हमारे मोती काका को बचाया नहीं जा सका .....वे हमारी काकी को छोड़ कर इस धरा-धाम से कूच कर गये।

काकी हमारी एक दम सुंदर नहीं थीं, पर हमारे लिए वे दुनिया की सबसे से नायाब हस्ती थीं अब भी हैं ... ओंठों से बाहर निकले मटमैले उठे दाँत, दरमियाना कद, दुबली-पतली और हिलते कांपते हाथों वाली काकी हम लोगों के लिए शरणदाता और रक्षक थीं । हम किसी भी मुश्किल में काकी को पुकारते थे और काकी हमें बचाती थीं हमें हमारे क्रोधवंत पिता और हिंसक भाइयों से काकी ही बचा सकती हैं इसका हमें पूरा यकीन हो चला था । ऐसा कितनी बार हुआ कि काकी नहीं तो हमें खाना कौन देगा, हमें कहानी कौन सुनाएगा, हम नन्हें- मुन्हे बच्चों के दुखते तन-मन को थपकी देकर कौन सुलाएगा। हालात यहां तक थी कि काकी के कहीं चले जाने पर हम बीमार हो जाते थे ।
काकी हम कई सारे बच्चों के लिए मां से बढ़ कर थीं....पर वे हमारी मां नहीं काकी थी । हम उनके कोख जाए बच्चे नहीं थे यही एक बात थी जो काकी को जीवन भर गलाती रही थी । काकी को संपति से जिसे काकी असोपति कहती थीं से बेदखल होने का दुख उतना नहीं था जितना सुहाग के न रहने या गोंद सूनी होने का । लेकिन काकी ने कभी भी इस बात का किसी से रोना नहीं रोया । लोग जरूर काकी के दुखों का अंदाजा लगाकर ऐसी बातें किया करते थे पर काकी इन सब दुखों को मन में दबा कर जीती रहीं । काकी को किसी ने कभी दुनियादारी की बातों में उलझा नहीं पाया....क्योंकि काकी का दुख चटनी -अचार, नथुनी-झुलनी से बढ़ कर थी । हमने काकी को कभी किसी की निंदा करते नहीं पाया। तो क्या काकी किसी और लोक से आयी थीं.....शायद हाँ, शायद नहीं .....काकी को हम सबने शायद समझा ही नहीं शायद काकी ने समझने का मौका दिया ही नहीं । अपने ससुर, जेठ और देवरों से काकी को शायद कोई आस नहीं रह गई थी.....क्योंकि बिना उनको बताए उन्हे बेदखल कर दिया गया था.....और इस फैसले में काकी के पिता और भाइयों की सहमति थी....

जारी है......

Wednesday, April 25, 2007

माफ करो भाई........

साधो जग बौराना
मैं बहुत हिम्मत करके विनय पत्रिका में कुछ कहने की कोशिश कर रहा हूँ......
मैं बात से नहीं बतंगड़ से हिचकता हूँ.....लेकिन मैं ब्लॉग के दुनिया को मुक्त गद्य का गुलाम बनाए रखने के पक्ष में नहीं हूँ, मित्रों मेरा निवेदन है कि ब्लॉग को तात्कालिकता और मांग के दबाव से जितना मुक्त रखें अच्छा रहेगा.....बात राम किशुन यादव उर्फ बाबा रामदेव की हो या बच्चन के महा विवाह की हमें इन सब की दुकानदारी से दो-चार तो होना ही पड़ेगा, दुल्हन ऐश के घूंघट का रंग दिखाने को बेताब पत्रकारों और उनके चैनलों को यह समझना होगा कि और भी दुख हैं जमाने में ...... आरक्षण की आग हो या संप्रदाय गत विवाद, निठारी के बच्चे हों या पाकिस्तानी टीम के कोच बूल्मर, मुलायम की फिर से काबिज होने की छटपटाहट हो या मायावती की अपने जन्मजात शत्रुओं मनुवादियों के जोर पर ताल ठोंकती मुद्रा हर एक के पीछे के जुगाड़ू रहस्य को बेपर्दा करने की जरूरत शायद नहीं रही, तो फिर हर वक्त सच दिखाने की कोशिश, हर हाल में खबर-पाने दिखाने की मुहिम, जनता को आगे रखने की सबसे तेज जंग का नतीजा आखिर क्या है, क्या लिख देने दिखा देने भर से फैसले हो जाते हैं, क्या हुआ उन तमाम सांसदों का जो घूस लेकर संसद में सवाल करते थे, वे नहीं तो उनकी पत्नियाँ या परिजन संसद पहुँचने के जुगाड़ में होंगे , इसलिए आज यह तय करने का वक्त है कि क्या ब्लॉग की दुनिया इधर उधर की माने तो मुक्त गद्य की दुनिया है, भाई अगर ब्लॉग का उपयोग इतना ही है तो मैं गपोड़ियों से कहूंगा कि इस मुल्क को बोल-बचन के यानि गप्प के कैंसर से बचाने की ज्यादा जरूरत है। रही बात सौहार्द्र की तो यह निरपेक्षता की तरह ही मरा हुआ और बेमानी शब्द है । शांति और अमन चैन की बात सरकारी कागजों में ठीक है भाई यहां तो कबीर के शब्दों में जग बौराया हुआ है और -

ऐसा कोई ना मिला, जासो रहिए लागि,
सब जग जलता देखिया, अपनी-अपनी आगि।

ऐसे में यह कहना कि सम्प्रदायिक मुद्दों को उठाने को कैंसर बताना शायद एक अलग तरह का कैंसर है । आज इतना ही ....बाकी कल...या फिर कभी