Sunday, December 16, 2007

अहे निष्ठुर परिवर्तन

परिवर्तन एक सच है

परिवर्तन एक सच है। एक ऐसा सच जिस पर किसी के मानने या न मानने का कोई असर नहीं पड़ता। परिवर्तन कई स्तरों पर चलता है। जिसे हम किसी भी तरह रोक नहीं पाते। यह परिवर्तन का ही कमाल है कि मैं देखता रहा और चिट्ठाजगत ने मुझे इलाकाई बना दिया। मैं पूँछ पटक कर रह जाता तो भी चिट्ठाजगत के सेहत पर क्या असर पड़ता। वे परिवर्तनशील हैं और बदलता हुआ समाज या व्यक्ति बहुत सारा उलट-पुलट कर ही देता है। जिसे सिर झुका कर स्वीकार करने में ही किसी की भी भलाई होती है....।
ऐसे आफतकाल में शुभचिंतक आते हैं ध्यान दिलाने जगाने कि बचो...सम्हलो...पर तब तक तो देर हो ही चुकी होती है... ज्ञान भाई ने जगाया कि देखो तुम्हे इलाकाई बनाया जा रहा है... मित्र अभय ने कहा कि मैं तुम्हें सही जगह कर देता हूँ...पर मैं चुपचाप देखते-सुनते रहने के अलावा क्या कर सकता था। मैंने माना कि इस इंकलाबी दौर में चुप्पी ही बचाएगी...
बिहारी ने कहा हा कि-

पावस आवत जान के भई कोकिला मौन
अब तो दादुर बोलिहैं, हमहिं पूछिहैं कौन।

मैं बेवकूफ हूँ, पर उतना बड़ा बेवकूफ नहीं हूँ कि अपनी भलाई को भूल जाऊँ और चिट्ठा जगत के परिवर्तन पर फड़फड़ा कर अपना घाटा करवालूँ। अपने मुंशी प्रेमचंद जी ने कहा ही है कि जिस पैर के नीचे अपनी गरदन दबी हो उसे सहलाने में ही फायदा है...पूज्य पिता जी कहते थे-
विप्र टहलुआ, अजा धन, औ कन्यन कइ बाढ़ि
इतने से धन ना घटे तो करौ बड़न से रारि।
सो मैं सब पंचों की बात मान, बलवान चिट्ठाजगत के अदृश्य पैरों को सहला रहा हूँ...और उनका आभारी हूँ कि मुझे कम से कम इलाकाई तो मान रहे हैं...वे लोग।

मैं अपने को इलाकाई पाकर बहुत खुश हूँ...कम से कम इस बदलाव के ग्लोबल दैर में मैं लोकल तो हूँ....जरा सोच कर देखिए ग्लोबल बनाम लोकल, अन्तर्राष्ट्रीय बनाम इलाकाई... कितना अच्छा लगता है....किसी भी परिवर्तन के स्वागत के पीछे मेरी सोची-समझी नीति कुछ ऐसी ही होती है और आपसे मैं कहना चाहूँगा कि जब बदलाव की विकट सुनामी नुमा आँधी चले तो घास की तरह दुबक जाइए घरती माँ के आँचल में....अपने जैसों के साथ गोल बनाकर बचाव कर लीजिए अपना.... अगर आप दुबकेंगे नहीं तो आप उखड़ जाएँगे....चाहे आप जहाजिया पेड़ हों या अट्टालिका प्राकार....
आप इसे मेरा पलायनवाद या समर्पणवाद मान लें....मैं तो इसे परिवर्तनवाद ही मानता हूँ....जो कि सचमें निष्ठुर होता है...

अगर मैं परिवर्तन को न मानूँ तो चिट्ठाजगत का क्या उखाड़ लूँगा....। वह आदमी किसी का क्या बिगाड़ सकता है जो धुरंधर भी न हो...लिक्खाड़ भी न हो, सामाजिक न हो। जो साहित्य, संगीत, कला विहीन हो , साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन हो...वह बेचारा वलि के अलावा किस काम में आ सकता है....कवि तो और किसी काम के नहीं होते...उनकी इस समाज को कोई जरूरत कभी नहीं रही.... ब्लॉगर भी किसी का क्या कर सकता है...सिवाय एक पोस्ट में अपनी छुपी नीति का इजहार करने के...।
सो भाइयों हर बदलाव का स्वागत करो....मस्त रहो...और उस बदलाव का तो गा-बजाकर स्वागत करो जिस पर जोर न चले....जो बेकाबू हो....

अपनी बात के पक्ष में पुराने लोगों को उद्धृत करना एक परम्परा रही है...मैं भी परम्परा का पालन कर रहा हूँ....अहमद फराज को उद्धृत करके....

जख्म को फूल तो सरसर को सबा कहते हैं....
जाने क्या दौर है, क्या लोग हैं क्या कहते हैं...।
जब तलक दूर है तू तेरी परस्तिश कर लें...
हम जिसे छू न सकें उस को खुदा कहते हैं...।
मैं कि पुरशोर समुंदर थे मिरे पाँवों में
अब के डूबा हूँ तो,सूखे हुए दरियाओं में ....।

इसलीए कहता हूँ कि जब समय परिवर्तनशील होता है तो आदमी सूखी नदी में डूब जाता है....और लोग घाव को भी फूल और आँधी को हवा कहने लगते हैं...। अस्तु।

Tuesday, December 11, 2007

यश और मोक्ष नहीं निस्तेज जूतों की तलाश करते हैं वे

जोगी

(जूते चमकाने वाले बच्चों के लिए)

वे जूतों की तलाश में
घूमते हैं ब्रश लेकर
और मिलते ही बिना देर लगाए
ब्रश को गज की तरह चलाने लगते हैं
जूतों पर
गोया जूते उनकी सारंगी हों ।

दावे से कहा जा सकता है कि
उन्हें जूतों से प्यार है
जबकि फूल की तरह खिल उठते हैं
जूतों को देखकर वे ।

जब कोई नहीं होता
चमक खो रहे वे
जूतों से गुफ़्तगू करते हैं।

भरी
दोपहरी में वे
जमात से बिछुड़े जोगी की तरह होते हैं
जिसकी सारंगी और झोली
छीन ली हो बटमारों ने ।

उन्हें बहुत चिढ़ है उन पैरों से
जिनमें जूते नहीं ।

बहुत पुरानी और अबूझ पृथ्वी पर
उस्ताद बुंदू खाँ और भरथरी के चेलों की तरह
यश और मोक्ष नहीं
निस्तेज जूतों की तलाश करते हैं वे।

रचना
तिथि-१९-०२-1996

Friday, December 7, 2007

मैं नशेड़ी हूँ....


मेरी पहली किताब उर्फ किस्सा शीत-बसंत का

करीब महीने भर हुए मुझे एक किताब की याद आई। वह किताब थी किस्सा शीत-बसंत । कहीं बात चल रही थी पहले प्यार की । पहले प्यार की चर्चा से मुझे शीत-बसंत याद आई । शीत-बसंत मुझे मेरे बड़े भैया ने इलाहाबाद से लाकर दी थी। यह बात होगी १९७५ या ७६ की । मैं ६ या 7 साल का था। निक्कर पहन कर गाँव की कोलियों या गलियों में फिरा करता था। हर घर और हर आँगन मेरा अपना हुआ करता था। हर नई दुलहन जो अक्सर मेरी भाभी होती थी को देखने कभी भी पहुँच जाता था और कह भी देता था कि दुलहन देखने आया हूँ...। दुलहन देखने के बाद पाहुर के लड्डू लेकर भाग पड़ता था। आज याद करता हूँ तो लगता है कि मैं दुलहन देखने कम लड्डू पाने अधिक जाया करता था। ऐसे ही दिनों में मुझे वह किताब मिली किस्सा शीत-बसंत
दो तीन दिनों में पूरी किताब पढ़ गया । किताब खतम करने के बीच कभी रोता कभी डरता। कहानी एक सौतेली रानी और और उसके दो सौतेले राज कुमारों की थी। जैसा होता है बाद में सब कुछ ठीक हो जाता है। पर बीच में जलनखोर रानी दोनों राजदुलारों को मारने का हुक्म दे देती है। लेकिन वफादार सेवक शीत-बसंत की जगह किसी जानवर का दिल लाकर दे देते हैं और रानी के कलेजे को ठंडक पहुँच जाती है...।

तो शीत-बसंत और रानी मेरे पहले पात्र हैं जिनके बारे में मैंने पढ़ा और शीत बसंत पहली किताब। बहुत खोजने के बाद भी वह पुरानी किताब नहीं मिली । पर कांदिवली में एक दिन भाई अभय तिवारी के साथ भटकते हुए सड़क की दुकान से कुछ अलग छापेवाली दूसरी प्रति मिल गई। लगभग तीस साल बाद फिर पढ़ा और अवधेश भैया की बहुत याद आई। मुझ पर उनका बहुत प्रेम था । मैं उनसे १६-१७ साल छोटा जो हूँ। मुझे पढ़ने की ओर भैया ने ही प्रेरित किया। आगे इसी क्रम में सारंगा सदाबृज, नल-दमयंती, जैसी दर्जनों किताबें उनके स्नेह से पढ़ने को मिलीं। वे इलाहाबाद से नंदन, पराग, बालहंस, बाल भारती, चंपक, लोटपोट, और अमर चित्र कथा की तरह की किताबें हर यात्रा में लाते थे....। जिन्हें मैं बिना रुके पढ़ता जाता। हालांकि इसी पढ़ने के क्रम में मैंने घर में भाभियों द्वारा छिपा कर रखी गई इंद्रलोक आजाद लोक जैसी पार्थिव पोथियाँ भी पढ़ लीं।
हालांकि आज तक नहीं जान पाया हूँ कि मेरी चार भाभियों में कौन पढ़ता था उन पवित्र-पोथियों को।

जो भी रहा हो.....मैं मानता हूँ कि मैं नशेड़ी हूँ....किताबों को पाने और पढ़ने का नशा है मुझे.....जो शायद इस जीवन में न उतरे....।

Thursday, December 6, 2007

अयोध्या और पागलदास

पागलदास


( पखावज वादक स्वामी पागलदास के लिए, जिनका २० जनवरी १९९७ को अयोध्या में देहावसान हो गया)

अयोध्या में बसकर
उदास रहते थे पागलदास
यह बताया उस मल्लाह ने
जिसने सरयू में प्रवाहित किया उन्हें।

मैंने पूछा-
आखिर क्यों उदास रहते थे पागलदास
अयोध्या में बसकर भी।

उसने कहा-
कारण तो बता सकते हैं वे ही
जो जानते हों पागलदास को ठीक से
मैं तो आते-जाते सुनता था
उनका रोदन
जिसे छुपाते थे वे पखावज की थोपों में।

मैंने कहा, मुझे उनके स्थान तक ले चलो
उनके किसी जानकार से मिलाओ।

मैंने पागलदास के पट्ट शिष्यों से पूछा
क्या अयोध्या में बसकर
सचमुच उदास रहते थे पागलदास।
शिष्य कुछ बोले-बासे नहीं
बस थाप देते रहे,
मेरे आग्रह करने पर
उन्होंने मुझे दिखाया उनका कक्ष
जहाँ बंद हो गया था आना जाना डोलना
पागलदास के पखावज भी भूल गए थे बोलना।

मैं अयोध्या में ठूँढ़ता रहा
पागलदास के जानकारों को
और लोग उनका नाम सुनते ही
चुप हो
बढ़ जाते थे।

बहुत दिन बीतने पर
मिले पागलदास के संगी
जो कभी संगत करते थे उनके साथ

उन्होंने मुझसे पूछा -
क्या करेंगे जानकर कि
अयोध्या में बसकर भी क्यों उदास रहते थे पागलदास।

उन्होंने कहा-
क्यों उदास हैं आप बनारस में
बुद्ध कपिलवस्तु में
कालिदास उज्जयिनी में
फसलें खेतों में
पत्तियाँ वृच्छों पर, लोग दिल्ली में, पटना में
दुनिया जहान में क्यों उदास हैं
आप सिर्फ यही क्यों पूछ रहे हैं
कि अयोध्या में बसकर भी क्यों उदास थे पागलदास।

मैंने कहा -
मुझे उनकी उदासी से कुछ काम नहीं
मुझे बुद्ध, कालिदास या लोगों की उदासी से
कुछ लेना-देना नहीं
मैं तो सिर्फ बताना चाहता था लोगों को
कि इस वजह से अयोध्या में बसकर भी
उदास रहते थे पागलदास।

उन्होंने बताया-
पागलदास की उदासी की जड़ थे पागलदास

मैंने कहा यह दूसरे पागलदास कौन हैं
क्या करते हैं।

उन्होंने बताया-
जैसे अयोध्या में बसती है दूसरी अयोध्या
सरजू में बहती है दूसरी सरजू
वैसे ही पागलदास में था दूसरा पागलदास
और दोनों रहते थे अलग-थलग और
उदास।

जो दूसरे पागलदास थे
वे न्याय चाहते थे
चाहते थे रक्षा हो सच की
बची रहे मर्यादा अयोध्या की
सहन नहीं होता था कुछ भी उल्टा-सीधा
क्रोधी थे।पहले पागलदास की तरह
सिर्फ अपने भर से नहीं था काम-धाम
पहले पागलदास की तरह उदास होकर
बैठ नहीं गए थे घर के भीतर।

मैंने कहा-
अन्याय का विरोध तो होना ही चाहिए
होनी ही चाहिए सच की रक्षा
पर उदासी का कारण तो बताया नहीं आपने।

उन्होंने कहा-
जो पागलदास
सच की रक्षा चाहते थे
चाहते थे न्याय
वध किया गया उनका
मार दिया गया उनको घेर कर उनके ही आँगन में
एकान्त में नहीं
उनके लोगों की मौजूदगी में
और पहले पागलदास को छोड़ दिया गया
बजाने के लिए वाद्य
कला के सम्वर्धन के लिए।

दूसरे पागलदास की हत्या से
उसको न बचा पाने के संताप से
उदास रहने लगे थे पागलदास
दूसरे पागलदास के न रहने पर
उनको संगत देने वाला बचा न कोई
उन्होंने छोड़ दिया बजाना, भूल गए रंग भरना
तज गिए समारोह, भूल गएकायदा, याद नहीं रहा भराव का ढ़ंग
बचने लगे लोगों से, लोम-विलोम की गंजायश नहीं रही।
बहुत जोर देने पर कभी बजाने बैठते तो
लगता पखावज नहीं
अपनी छाती पीट रहे हैं।

इतना कह कर वे चुप हो गए
मुझे सरजू पार कराया और बोले-
जितना जाना मैंने
पागलदास की उदासी का करण
कह सुनाया
अब जाने सरजू कि उसके दक्षिण तरफ
बस कर भी क्यो उदास रहे पागलदास।

रचना तिथि- २१-०९-1997