Sunday, September 30, 2007

सब कुछ पाना चाहता हूँ

यह शुरुआत के दिनों की एक कविता है। जिसे आप मेरी पसंद की कविता भी कह सकते हैं। मैंने सर्वाधिक पाठ इसी का किया है। सप्ताह भर से वाम हस्त की तर्जनी के घायल होने से चुप था तो बहुत लंबा न छाप कर इसे चिपका डाला। अब यह आप सब के हवाले है। जो चाहें करें इस पुरानी चाहत का।

चाहता हूँ


बड़ी अजीब बात है
जहाँ नहीं होता
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,

वहीं पाना चाहता हूँ
मैं अपने सवालों का जवाब
जहाँ लोग वर्षों से चुप हैं

चुप हैं कि
उन्हें बोलने नहीं दिया गया
चुप हैं कि
क्या होगा बोल कर
चुप हैं कि
वे चुप्पीवादी हैं,

मैं उन्हीं आँखों में
अपने को खोजता हूँ
जिनमें कोई भी आकृति
नहीं उभरती

मैं उन्हीं आवाजों में
चाहता हूँ अपना नाम
जिनमें नहीं रखता मायने
नामों का होना न होना,

मैं उन्ही का साथ चाहता हूँ
जो भूल जाते हैं
मिलने के ठीक बाद
कि कभी मिले थे किसी से।

बड़ी अजीब बात है
जहाँ नहीं होता
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,

Tuesday, September 25, 2007

उऋण हो सकूँगा क्या उनसे

तुम कहाँ गए साथी ?

हर एक की अपनी दुनिया होती है। उसमें से कुछ लोग टूटते-छूटते जाते हैं हो तो कुछ नए लोग लगातार जुड़ते जाते हैं। इसी मिलने बिछुड़ने के क्रम में कुछ ऐसे भी होते हैं जो जीवन की यात्रा में काफी दूर और देर तक साथ चलते रहते हैं। जो हमारे साथ हो लेता है हम उसमें मीन मेख निकालने लगते हैं। दीर्घ काल तक साथ रहने के बाद उसकी बहुत सारी कमिया खामियाँ उजागर होने लगतीं हैं जो कभी कभी उसके गुणों और अच्छाइयों से भी अधिक दिखने लगती हैं। यहाँ पर एक कहावत लागू होती है जो शायद किसी अंग्रेजी कहावत का अनुवाद है कि दोस्ती और प्यार में कुछ भी दर्ज नहीं करते। यानी कौन किसके लिए क्या कर रहा है इसका हिसाब नहीं रखते।

पर कहावत अपनी जगह है सच्चाई यही है कि हममें से हर कोई पक्का हिसाबी होता है। आप हिसाब न रखे तो दूसरे आगाह कराने लगते हैं कि हिसाब रखना बहुत जरूरी है। फिर हम दोस्त या सहयात्री कम मुनीम अधिक हो जाते हैं।

अब तक के जीवन में कई ऐसे दोस्त मिले जिनसे कभी कोई अनबन नहीं हुई। बिना हिसाब-किताब के विना तकरार के जुदा हुए हम। मैं शुद्ध सांसारिक कारणों से जुदा होने को एक उत्सव की तरह मानता हूँ। ऐसा बिछुड़ना सच में उदासी भरा उत्सव ही तो होता है। कुछ कुछ मीर के अंदाज में ----

अब तो चलते हैं मैकदे से मीर
फिर मिलेंगे गर खुदा लाया।

कई बार बिछुड़े सह यात्रियों से मिलना नहीं हो पाता। जिन्हें अक्सर याद करता हूँ। जैसे मैं अपने प्रायमरी के कई दोस्तों से दोबारा नहीं मिल पाया। उनमें से एक मदन कुमार पाण्डे तो मेरा इतना खयाल रखता था कि मेरे लिए किसी से भी मारपीट कर लेने पर हरदम आमादा रहता। उसने पूरे पाँच साल मेरी हिफाजत की। मेरा पहरुआ बना रहा। मुझसे हर मामले में तेज। मैं उसकी नकल करके आगे बढ़ता रहा। मेरे बगल के गाँव में उसकी ननिहाल थी यानी वह अपने ननिहाल में रह कर पढ़ता था। घर था उसका विन्ध्याचल के आस पास कहीं। पांचवीं के आगे वह नहीं पढ़ पाया। मैं उसके लिए कभी कुछ नहीं कर पाया । एक बार मार पीट के बाद उसने मुझे बताया कि जिससे भिड़ रहे हो उसकी आँखों में देखो। उससे आँख मिला कर लड़ो। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि उसे यह सब किसने सिखाया था। उस उमर में उसे जीने और लड़ने का यह सलीका कहाँ से मिला कौन था उसका गुरु। लोग बताते थे कि जब वह माँ के पेट में था तभी उसके पिता की हत्या हो गई थी।

प्रायमरी में ही मेरे कुछ और दोस्त थे जो मेरे सच में दोस्त थे। जिनमें बनारसी, पुट्टुर, निजामू , तो आज भी मेरे सखा हैं। गाहे- ब- गाहे अब भी उनसे बात हो ही जाती है। पर यहाँ मैं सिर्फ उनकी बात कर रहा हूँ जो चले गए छोड़ कर । जिनसे उऋण नहीं हो पाया हूँ। मिडिल स्कूल में मेघनाथ यादव ने लंबी कूद का अनोखा गुर सिखाया। तो हाई स्कूल में दीनानाथ पाल ने गणित की उबाऊ दुनिया में रसों की बरसात कर दी .....आगे इन सब मित्रों पर बारी बारी ।

Sunday, September 23, 2007

हिंदी के कवि विष्णु नागर बने बलॉगर


विष्णु नागर की दो कविताएँ

पहचान श्रृंखला में छपे विष्णु नागर आज हिंदी के अच्छे कवि हैं। उनका कहन एकदम अलग है। वे अच्छे गद्य लेखक भी हैं और उनकी ईश्वर विषयक कहानियाँ काफी चर्चा में रही हैं। वे हिंदुस्तान टाइम्स की पत्रिका कादंबिनी से जुड़े है और लगातार लिख रहे हैं। वे भी ब्लॉगर जगत के लिए खबर यह है कि विष्णु जी भी बन गए हैं ब्लॉगर । उनके ब्लॉग का नाम है कवि
मैं फिर कहता हूँ चिड़िया विष्णु नागर का पहला कविता संग्रह है। 14 जून 1950 को पैदा हुए विष्णु नागर का परिचय अगर हम अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित पहचान में दिए परिचय से कराए तो कुछ अजीब लगेगा । पहचान के प्रकाशित होने के पहले तक विष्णु जी के जीवन का अधिकांश शाजापुर मध्य प्रदेश में बीता था। पर पहचान छपने के समय वे दिल्ली में रह कर स्वतंत्र लेखन कर रहे थे । तब विष्णु जी का पता छपता था, 3007, रणजीत नगर, नई दिल्ली-2। पहचान के साथ एक दिक्कत दिखी कि कहीं भी प्रकाशन का साल नहीं दर्ज है।

पहचान अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित तब के युवा कवियों की एक श्रृंखला थी
जिसने उस समय के कवियों को पहचान दिलाई। इसी क्रम में विनोद कुमार शुक्ल सोमदत्त, सौमित्र मोहन, शिवकुटी लाल वर्मा जैसे आज के कई महत्वपूर्ण रचनाकार पहली बार छपे थे।

यहाँ प्रस्तुत हैं विष्णु नागर की दो कविताएँ। जिनमें से एक कविता उनके पहले संग्रह से और एक समकालीन सृजन से कवितांक से साभार है।

पहली कविता

चिड़िया
मैं फिर कहता हूँ कि चिड़िया
अपने घोंसले से बड़ी है
घोंसले से बड़ी चिड़िया का
अपना कोई मोह नहीं होता
वह दूसरों के चुगे दोनों में
अपना त्याग बीनती है।

दूसरी कविता

अखिल भारतीय लुटेरा

(१)

दिल्ली का लुटेरा था अखिल भारतीय था
फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता था
लुटनेवाला चूँकि बाहर से आया था
इसलिए फर्राटेदार हिंदी भी नहीं बोलता था
लुटेरे को निर्दोष साबित होना ही था
लुटनेवाले ने उस दिन ईश्वर से सिर्फ एक ही प्रार्थना की कि
भगवान मेरे बच्चों को इस दिल्ली में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलनेवाला जरूर बनाए

और ईश्वर ने उसके बच्चों को तो नहीं
मगर उसके बच्चों के बच्चों को जरूर इस योग्य बना दिया।

(२)

लूट के इतने तरीके हैं
और इतने ईजाद होते जा रहे हैं
कि लुटेरों की कई जातियाँ और संप्रदाय बन गए हैं
लेकिन इनमें इतना सौमनस्य है कि
लुटनेवाला भी चाहने लगता है कि किसी दिन वह भी लुटेरा बन कर दिखाएगा।

(३)

लूट का धंधा इतना संस्थागत हो चुका है
कि लूटनेवाले को शिकायत तभी होती है
जब लुटेरा चाकू तान कर सुनसान रस्ते पर खड़ा हो जाए
वरना वह लुट कर चला आता है
और एक कप चाय लेकर टी.वी. देखते हुए
अपनी थकान उतारता है।

(४)

जरूरी नहीं कि जो लुट रहा हो
वह लुटेरा न हो
हर लुटेरा यह अच्छी तरह जानता है कि लूट का लाइसेंस सिर्फ उसे नहीं मिला है
सबको अपने-अपने ठीये पर लूटने का हक है
इस स्थिति में लुटनेवाला अपने लुटेरे से सिर्फ यह सीखने की कोशिश करता है कि
क्या इसने लूटने का कोई तरीका ईजाद कर लिया है जिसकी नकल की जा सकती है।

(५)

आजकल लुटेरे आमंत्रित करते है कि
हम लुट रहे हैं आओ हमें लूटो
फलां जगह फलां दिन फलां समय
और लुटेरों को भी लूटने चले आते हैं
ठट्ठ के ठट्ठ लोग
लुटेरे खुश हैं कि लूटने की यह तरकीब सफल रही
लूटनेवाले खुश हैं कि लुटेरे कितने मजबूर कर दिए गए हैं
कि वे बुलाते हैं और हम लूट कर सुरक्षित घर चले आते हैं।

(6)

होते-होते एक दिन इतने लुटेरे हो गए कि
फी लुटेरा एक ही लूटनेवाला बचा
और ये लुटनेवाले पहले ही इतने लुट चुके थे कि
खबरें आने लगीं कि लुटेरे आत्महत्या कर रहे हैं
इस पर इतने आँसू बहाए गए कि लुटनेवाले भी रोने लगे
जिससे इतनी गीली हो गई धरती कि हमेशा के लिए दलदली हो गई।

Saturday, September 22, 2007

जॉन मिल्टन मराठी का लेखक है




साहित्य आकादेमी का योगदान
हिंदी की केंद्रीय साहित्य अकादेमी का योगदान बेशक ऐतिहासिक है। पर यह खबर भी कम रोचक नहीं है।
आप को चौकाने या मुंबई में रहने के कारण मराठी मानुष को खुश करने की कोई योजना नहीं है। फिर भी यह खबर देकर आप खुश हो ही जाएंगे कि जॉन मिल्टन का भारतीय करण हो गया है। अँग्रेजी का प्रसिद्ध ग्रंथ एरियोपेजेटिका असल में अँग्रेजी में नहीं मराठी में लिखा गया था और उसके लेखक जॉन मिल्टन मराठी में लिखते थे। इसे अकादेमी ने पुरस्कृत भी कर रखा है। यह खुश खबरी मैं साहित्य अकादेमी के सौजन्य से दे पा रहा हूँ। इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद कवि बाल कृष्ण राव ने किया है और यह मात्र 15 रुपये में खरीदी जा सकती है।

साहित्य अकादेमी भारत सरकार की केंद्रीय साहित्यिक संस्था है। जो तमाम देशी विदेशी साहित्य को भारत की तमाम भाषाओं में उपलव्ध कराती है। अपने सुव्यवस्थित प्रकाशनों के हिंदी सूची पत्र में अकादेमी ने मिल्टन के बारे में यह महत्वपूर्ण जानकारी दे रखी है।

तो अब बारी है अँग्रेजी और अँग्रेजों के दुखी होने की । क्योंकि मिल्टन अब से हमारा है। साहित्य अकादेमी जिंदाबाद ।

Friday, September 21, 2007

आज भानी का जन्म दिन है

तीन साल की भानी







मेरी बेटी भानी आज तीन साल की हो गई है। कल उसके भाई मानस ने कहा कि भानी तुम बारह बजे रात के बाद तीन साल की हो जाओगी तो भानी ने कहा कि मैं दिन में तीन साल की क्यों नहीं हो सकती। तो आज दिन में भानी तीन साल की हो गई है।

वह काफी खुश है । कई दिनों या कहें की महीनों से उसे अपने जन्म दिन का इंतजार था। वो खुद के लिए ही गाती फिर रही है -

हैपी बर्थडे टू यू , हैपी बर्थडे टू यू ,
हैपी बर्थडे डियर भानी। हैप्पी बर्थडे टू यू ।

भानी कल अपने खेल कूल में भी अपना जन्म दिन मनाएँगी। उसे अपनी मिस को चाकलेट खिलाना है। वह अपने मिस से बात नहीं करती है। सिर्फ इशारों में बात होती है। घर में दिन भर बोलने वाली भानी का स्कूल में चुप रहना हमें उलझन में डाले है। पर भानी की टीचर का कहना है कि आप परेशान न हों भानी बहुत अच्छा कर रही है। वह गाती है पर बात नहीं करती। वह नाचती है , उसके स्टेप बहुत सधे हैं पर वह पानी की बोतल भी इशारे से माँगती है। क्या करें ।
फिलहाल भानी के जन्म दिन पर यह क्या शुरू कर बैठा। मैं उसके लगातार चुप रहने से उलझन में हूँ पर मुझे भी उससे पूरी उम्मीद है।

आप देख लें भानी को रंगाई-पुताई के लिए सही के निशान के अलावा स्टार भी मिला है। और स्माइली भी। हम उसे अपना आशीष दे चुके हैं। और वह भाई के साथ खेल रही है।
ऊपर का एक चित्र भानी के दूसरे जन्म दिन का है तो एक में भानी घुटनों के बल चल कर कहीं जा रही है।

Thursday, September 20, 2007

आप भी व्यसनी हैं क्या

दिन में सोना व्यसन है

हम सब में कोई ना कोई लत होती है। लत ही कुछ समय बाद लगभग आदत की तरह हो जाती है ।आदत की मेरी व्याख्या है आ +दत= आदत यानी जो आ के दत जाए । दत जाना माने सट जाना । मैं आदत को व्यसन के बराबर मानता हूँ। आप मुझसे असहमत हो सकते हैं। पर मैं मजबूर हूँ । अपनी आदतों से। कुछ लोग दिन में सोते हैं कुछ बिना उद्देश्य के इधर की बात उधर करते हैं माफ कीजिए यह सब व्यसन है। जी हाँ चुगली भी एक व्यसन हैं।

मैं व्यसन की बात काव्य शास्त्र के हवाले से करूँ तो आप सब नाराज मत हो जाइएगा। जब रीति कालीन ढ़ंग से कविताएँ लिखी जाती थीं। तब कवियों को बहुत कुछ याद रखना पड़ता था । यह भी याद रखना पड़ता था कि श्रृंगार ही नहीं संस्कार भी सोलह होते हैं । साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ता था कि चंद्रमा की कला भी सोलह ही होती है। यह सब उसकाल में किसी भी कवि को याद रखना या सीख लेना जरूरी होता था। उसे यह भी याद रखना पड़ता था कि पुराण, उप पुराण, स्मृति और वर्ण ही नहीं व्यसन भी अठारह होते हैं।

व्यसनों की काव्य शास्त्रों में बताई सूची बड़ी रोचक है। आप खुद को व्यसनों से कितना भी दूर पा रहे हों पर यह व्यसन तालिका आप को हैरान कर देगी। बात को बहुत आगे न बढ़ाते हुए काव्य शास्त्रों में वर्णित व्यसनों की सूची हाजिर है।

अठारह व्यसन –
मृगया, द्यूत, दिवा शयन, छिद्रान्वेषण, स्त्री-आसक्ति, मद्य-पान, वादन, नर्तन, गायन, व्यर्थ अटन, पिशुनता, चुगली, द्रोह, ईर्ष्या, असूया, दूसरे की वस्तु हरण, कटुवाक् , कठोर ताड़ना।

कठोर शब्दों के सरलार्थ-

मृगया=शिकार, पिशुनता=वह चुगली जिसमें गवाह भी साथ हों अर्थात तगड़ी चुगली, असूया=किसी के गुण को भी अवगुण समझना, अटन=घूमना,
मुझे उम्मीद है कि द्यूत, स्त्री-आशक्ति चुगली जैसे शब्दों के अर्थ सबको पता होंगे। चुगली का मोटा अर्थ है कि किसी की बात को इधर-ङधर पहुँचाना, स्त्रियाँ सहूलियत के लिए स्त्री आसक्ति की जगह पुरुष आसक्ति पढ़े। कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

Tuesday, September 18, 2007

अपना घर वाली को जन्म दिन मुबारक


जन्म दिन वाला सप्ताह


मेरे लिए यह सप्ताह जन्म दिन से भरा हो गया है। फुरसतिया सुकुल के सचित्र जन्म दिन के बाद कल एक मित्र के जन्म दिन में हैप्पी बर्थ डे टू यू गा कर और बिना केक खाए भी ताली बजा कर लौटा हूँ। आज अपना घर वाली आभा का जन्म दिन हैं। तो 22 सितंबर को हम सब को चिड़िया मानने वाली मेरी बेटी भानी का तीसरा जन्म दिन होगा। वह तीन साल की हो जाएगी। जो लोग नहीं जानते हों उन्हें बताना चाहूँगा कि आभा मेरी पत्नी हैं। मैंने उनके लिए कई सारी कविताएँ लिखी हैं कुछ को ब्लॉग पर डाल कर मित्रों की चुप्पी का आनन्द पा चुका हूँ। आज आभा के इस जन्म दिन पर हार्दिक बधाई देते हुए एक कविता उसे ही समर्पित कर रहा हूँ।

तुम हो

पुल के ऊपर से
अनगिनत पैर गुजर चुके हैं

तुम जब गुजरो
तुम्हारे पैरों के निशान
पुल के न होने पर भी, हों

पुल से होकर बहने वाली नदी
बार-बार कहे
तुम हो
तुम हो।

कहाँ जा रहे हो भाई

कुछ तय तो कर लो

आज उपदेश की प्रबल इच्छा जगी है। सुबह से मन कुछ समझाने समझने का कर रहा है। मैं औरों को नहीं खुद को जीवन का मंत्र देना चाह रहा हूँ। पर जीवन का मंत्र मेरे पास होता तो बात ही क्या थी । सुनता हूँ दूसरों को समझाना बहुत आसान होता है । मदर इंडिया में राधा देवी लक्ष्मी से कहती है कि देवी बन कर दुनिया का बोझ उठाती फिरती हो माँ बन कर देखो ममता का बोझ न उठाया जाएगा। राह दिखाना आसान है उस पर चलना मुश्किल।

यह चलना ही जीवन है। ऐतरेय ब्राह्मण के शनु शेप: उपाख्यान में एक वैदिक गीत है। जिसे इंद्र ने वरुण को उसके वनवास के दौरान सुनाया था। इस गीत में हर बार ठेका या अंतरा के रूप में आता है चरैवेति-चरैवेति जिसका मतलब है चलते रहो। क्योंकि चलना ही जीवन है। क्योंकि बैठे हुए का सौभाग्य बैठै रहता है, खड़े होनेवाले का सौभाग्य खड़ा हो जाता है, पड़े रहनेवाले का सौभाग्य सोता रहता है और उठ कर चल पड़ने वाले का सौभाग्य चल पड़ता है।

मंत्र में आगे कहा गया है कि सोनेवाले का नाम कलि है, अंगड़ाई लेनेवाले का नाम द्वापर है, उठकर खड़ा होनेवाले का नाम त्रेता है और चलनेवाले का नाम सतयुग है। इसलिए चलते रहो चलते रहो।

क्योंकि चलता हुआ मनुष्य ही मधुपाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है। सूर्य का परिश्रम देखो, जो रोज चलता हुआ कभी आलस्य नहीं करता। इसलिए चलते रहो-चलते रहो ।

सवाल यह है कि यह चलना कहाँ ले जाएगा। कहाँ किस राह पर क्या पाने के लिए चलते रहें। क्या टहलना भी चलना है। क्या विचरण करना भी चलना है। यह चलना कितना आध्यात्मिक है और कितना भौतिक यह प्रश्न भी अपनी जगह बना हुआ है। हम चल कर कहाँ पहुँच रहे हैं।

जैसे पानी में बहना तैरना नहीं है । जैसे बकबकाना बोलना नहीं है जैसे वैसे ही सिर्फ पैर बढ़ाते जाना भी चलना तो नहीं होगा। कुछ लोग जीवन भर बहते रहते हैं वे कहीं भी जाते या पहुँचते नहीं है। धारा का बहाव जहाँ ले जाता है उधर जाते हैं। वे भी कहीं पहुँचते हैं पर वह उनका गंतव्य शायद नहीं होता। कुछ लोग बकबकाते हैं पर वह बोलना अकारथ होता है । जैसे मैं खुद बहुत बोलता हूँ। पर उसमें सार तत्व कुछ भी नहीं होता।

तो चलना तो वही है जिसमें आप कुछ सार्थक यात्रा पूरी करें। कुछ हो कुछ बने कुछ कल्याणकारी हो जैसे सूर्य का चलना है अथक अविराम ।
तो चलो भाई चलो और चलते ही रहो।

इसी चलने को कई कवियों ने अपने तरीके सो कहा है। टैगोर गुरु कहते हैं
जब तुम्हारी पुकार सुन कर कोई ना आए
तब
भी अकले चलो।
कोई और कवि कहता है –

चल चला चल अकेला चल चला चल।

मेरा तमाम लेखकों से भी यह सवाल है कि क्यों लिखते हो। इतना जो लिख रहे हो उसके पीछे कोई उद्देश्य है या ऐसे ही लिख रहे हो। मेरा सिर्फ इतना ही कहना है कि लिखो खूब लिखो पर तय कर तो कि क्यों लिख रहे हो और अगर तय कर लिया है तो मेरे इस उपदेश पर कान मत दो।

अभय तिवारी ने भी अपने बलॉग पर एक खच्चर सवार का फोटू चिपका कर नारा दे रखा है यूँ ही चला चल यानी चलते रहो। ज्ञान जी ने भी एक बंदे को यह कह कर हाँक रखा है कि अटको मत चलते चलो। मैं भी यही कह रहा हूँ चलते रहो। पर चलने के पहले कुछ तय कर लो कि कहाँ के लिए। किस लिए चल रहे हो। क्योंकि बैठे हुए आदमी के पाप धर दबाता है। जो श्रम करके थक नहीं जाता उसे लक्ष्मी नहीं मिलती है। जो चलता रहता है उसकी आत्मा भूषित होकर फल प्राप्त करती है।
आत्मा के होने न होने पर फिर कभी विचार करेंगे आप चाहें तो उसे मन मान लें।

Saturday, September 15, 2007

झाड़ी के पीछे बनवारी

ज्ञानपुर में मेरे एक मित्र थे संतोष कुमार । उन्होंने चकोर उपनाम रखा था। पर यदि कोई सिर्फ चकोर कह कर बुला ले तो समझिए हो गया अबोला। वे किसी को फोन भी करते या परिचय भी देते थे तो कहते थे कि चकोर जी बोल रहा हूँ। उनकी आदत थी कि बिना कहे कभी कुछ भी नहीं सुनाते थे। कभी मेरे पास कुछ कविता या पद नुमा छोड़ गये थे। आज अचानक मिल गया । आप भी पढ़ें और समझने की कोशिश करें कि वो क्या कहना चाहते थे।

बनवारी का दुख

झाड़ी के पीछे बनवारी मिले।
बनवारी के साथ बैठी थी लजाती सी वंदना।
खोजती भटकती थी दोनों को संध्या रंजना।
खोज कर बेहाल दोनों को गोलू तिवारी मिले। झाड़ी के पीछे।

बनवारी और वंदना का हाल बुरा था।
दोनों को दुख था और मुँह उतरा था।
दोनों बैठे थे बस चुपचाप।
पत्ते हिलते आप से आप।
दोनों का दुख था कि अब कहाँ से उधारी मिले। झाड़ी के पीछे।

दोनों थे बड़े अच्छे दम्पत्ती।
पास नहीं थी कुछ सम्पत्ती।
दोनों चाहते सुख से रहना
नहीं चाहते थे अपना दुख किसी से कहना
करते दुआ हरदम न किसी को दिन ऐसा भारी मिले। झाड़ी के पीछे।

गोलू के साथ सिनेमा गई रंजना ।
संध्या अकेले गाती रही प्रार्थना।
बनवारी वंदना का पता हो गया गुम
बाद में दोनों पेट के लिए कहीं करते बेगारी मिले। झाड़ी के पीछे।

Wednesday, September 12, 2007

गठजोड़ गजल और प्रपंच पुराण

वादे के मुताबिक मुझे शादी के बाद की प्रेम कविताएँ छापनी थीं सो फिर कभी । आज आप लोक मे व्याप्त इन महान रचनाओं को पढ़ें । ये माहान रचनाएँ सुनी हैं सुनाई हैं रची हैं रचाई है। पहले आप पढ़े गठजोड़ गजल फिर पढ़े प्रपंच पुराण । इनके यहाँ होने के प्रेरणा श्रोत हैं गड़बडिया ज्ञान भाई। कुछ दुहरा गया हो तो दुबार पढ़ लें। पढ़ने से ज्ञान ही बढ़ेगा। कठिन शब्दों के लिए अभय तिवारी या अजीत जी को धरें। श्रद्धा को ठेस लगे तो ठोस पत्थर से मुझ पर प्रहार करें पर कोर्ट जाने का कुविचार त्याग दें।

गठजोड़ गजल


आप गर हालात से संतुष्ट हैं
हम कहेंगे आप पक्के दुष्ट हैं।

हंस कर मिलेगे आप हमसे तो
सब कहेंगे आप हमसे रुष्ट हैं।

हसरतें कसरत से पूरी होयगीं अब
बात सोलह आने खरी औ पुष्ट है।

चट्टानों की चादर ताने सोया मजनूँ
थकीं लैला सो रही है सुस्त है।

वन में भटकते राम से सीता कहे
हम साथ हैं तो सब कुछ दुरुस्त है।

प्रपंच पुराण

थर-थर कापैं पुरनर नारी
उस पर बैठे कृष्न मुरारी।

कान्य कुब्ज औ सरयू पारी
सबके देव हैं कृष्न मुरारी।

आगे गये भागि रघुराई
पीछे लछिमन गये लुकाई

हरि अन्तइ हरिनिउ गइ अन्ता
भुर्ता नहिं सोहें बिनु भंटा।

रामइ हरता, भरता रामइ करतार
तब क्या बाकी देवता हैं बेकार।

Friday, September 7, 2007

शादी के पहले का प्रेम-भाव

प्रेम का पंथ

शादी के पहले प्रेम का भाव क्या शादी के बाद के प्रेम भाव से अलग होता है। इसका निर्णय तो आप करें। यहाँ शादी के पहले की अपनी दो प्रेम कविताएँ छाप रहा हूँ। वैसे ये मेरे लिए प्रेम की भावनाएँ हैं। जिन्हें मैं इसी तरह कह सकता था। यहाँ दूसरी कविता मेरी पत्नी आभा को मुखातिब हैं जो तब मेरी सहपाठिनी - प्रेमिका हुआ करती थी ।

बो दूँ कविता

मैं चाहता हूँ
कि तुम मुझे ले लो
अपने भीतर
मैं ठंडा हो जाऊँ
और तुम्हें दे दूँ
अपनी सारी ऊर्जा

तुम मुजे कुछ
दो या न दो
युद्ध का आभास दो
अपने नाखून
अपने दाँत
धँसा दो मुझमें
छोड़ दो
अपनी साँस मेरे भीतर,

तुम मुझे तापो
तुम मुझे छुओ,
इतनी छूट दो कि
तुम्हारे बालों में
अँगुलियाँ फेर सकूँ
तोड़ सकूँ तुम्हारी अँगुलियाँ
नाप सकूँ तुम्हारी पीठ,

तुम मुझे
कुछ पल कुछ दिन की मुहलत दो
मैं तुम्हारे खेतों में
बो दूँ कविता
और खो जाऊँ
तुम्हारे जंगल में।


आएगा वह दिन

आएगा वह दिन भी
जब हम एक ही चूल्हे से
आग तापेंगे।

आएगा वह दिन भी
जब मेरा बुखार उतरता-चढ़ता रहेगा
और तुम छटपटाती रहोगी रात भर।

अभी यह पृथ्वी
हमारी तरह युवा है
अभी यह सूर्य महज तेईस-चौबीस साल का है
हमारी ही तरह,

इकतीस दिसंबर की गुनगुनी धूप की तरह
देर-सबेरे आएगा वह दिन भी
जब किलकारियों से भरा
हमारा घर होगा कहीं।

नोट- कल की पोस्ट में पढ़े शादी के बाद के प्रेम भाव पर मेरी कुछ कविताएँ ।

Wednesday, September 5, 2007

मेरे तीन सपने

क्या करूँ इनका ?

पता नहीं आप लोगों के साथ ऐसा है या नहीं पर मेरे साथ है। मेरे ऐसे तीन सपने हैं जिन्हें मैं पिछले २५ सालों से देख रहा हूँ। ये सपने तब आते हैं जब मुझे तेज बुखार हो या मन को कोई धक्का लगा हो। सपने कब आने शुरू हुए साफ-साफ नहीं कह सकता ।

मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसा क्यों है।इन सपनों में मेरी उमर कोई १२ से १३ साल के बीच होती है। मजे की बात यह है कि जब बहुत दिनों तक ये सपने नहीं आते तो भी उलझन होती है। मैं इन सपनो को देखना चाहता हूँ। मेरी पत्नी के मामा जो कि पुराने यानी साम्यवादी रूस में डॉक्टर थे अभी फिलहाल लखनऊ में अपना अस्पताल चलाते हैं का कहना है कि मुझे इन सपनों के बारे में किसी से मिलना चाहिए। वो इन सपनों को किसी और तरह से देख रहे थे जिससे मैं सहमत नहीं था । सो मैंने किसी मनोविज्ञानी से मुलाकात नहीं की और सपने हैं कि मेरा साथ नहीं छोड़ रहे हैं।

पहला सपना

मैं एक लगभग ३०-३५ फीट गहरी सूखी नहर में टहल रहा हूँ जिसकी दीवारे बेहद चिकनी और गीली है । अचानक पीछे से २०-२५ फीट मोटी पानी की लहर मेरे बहुत करीब आ जाती है। मुझे लगता है कि मैं डूब जाऊँगा। मैं पूरी गति से आगे की तरफ भागता हूँ पीछे से पानी की तेज धारा मुझे अपने भीतर समोने के लिए करीब से करीब आती जाती है और मैं जाग जाता हूँ।

दूसरा सपना

मैं अपनी किसी बाँह का तकिया लगा कर लेटा होता हूँ और लाखों मीटर रंग बिरंगे कपड़े मेरे ऊपर गिरते जाते हैं । मेरा दम फूलने लगता है। मैं उन कपड़ो से निकलने की जगह उनकी रंगीनी में खो जाता हूँ। खुद को बचाने की कोई कोशिश नहीं करता।

तीसरा सपना

मैं ऊँची या लंबी कूद में हिस्सा ले रहा हूँ। मेरे साथ कूदने वाले को पछाड़ने के लिए मैं आराम से कूदता हूँ और उड़ने लगता हूँ। यह उड़ान बिना कोशिश के होती है। मैं खूब आनन्द में होता हूँ।सब हार जाते हैं और मैं सारे रेकार्ड तोड़ कर खुश हूँ और उड़ते-उड़ते ही घर चला जाता हूँ। इसमें मैं जागता अक्सर खुद से नहीं हूँ।

पहले दो सपने लगभग सोते ही आते हैं और तीसरा भोर के आस-पास। यहाँ यह भी बता दूँ कि पहले दो सपनों के बाद मेरी हालत खराब होती है तो तीसरा सपना मुझे बेहद ताजगी से भर जाता है। तीनों मेरे ही देखे सपने हैं । मैं तीनों को प्यार करता हूँ । पर शायद पहले दो को देखना नहीं चाहता । पर खो देना भी नहीं चाहता।

Monday, September 3, 2007

मुझे पुलिस से कौन बचाएगा ?


पुलिस का डर
जन्माष्टमी के दिन का लगता है पुलिस और कारागार का कुछ खास नाता है। तभी तो ऐन उसी दिन मेरे थाने जाने की नौबत आ गई है। मामला आज रात करीब साढ़े नौ बजे का है। मैं अपने बच्चों के साथ बाजार निकला था। पत्नी जन्माष्टमी पर किशन भगवान के लिए कुछ नया खरीदना चाह रही थीं। पर खरीदने के पहले मेरी गाड़ी एक पुलिस की गाड़ी से टकरा गई और खरीदारी पुलिस की ओर मुड़ गई। गाड़ी गुनहगारों को तलाशने निकली थी और मैं एक नया गुनाहगार मिल गया। मेरी गाड़ी में मेरी बेटी भानी, मेरा बेटा मानस और मेरी पत्नी आभा बैठे थे और पुलिस की गाड़ी में तीन सिपाही और दारोगा पाटील के साथ वर्दीवाला ड्राइवर भी था। यानी कुल पाँच हथियारबंद लोग बनाम चार निहत्थे ।

बात केवल टक्कर की होती तो चल जाता। मामला यहाँ उलझ गया कि गलती किसकी है मेरी या उस वर्दी वाले ड्राइवर की। टक्कर के बाद उस गाड़ी से पुलिस वाले निकल आए और मेरी गाड़ी को लगभग घेर लिया। मुझसे गलती यह हुई की चवन्नी वाली भूल की तरह तत्काल क्षमा क्यों नहीं माँग लिया। मैंने उनके ड्राइवर से कहा कि आप भी देख कर चलें । बस उसने मुझे गाड़ी से उतरने और डीएल और गाड़ी का पेपर देने की बात की। मैंने उसे पेपर नहीं दिए ना ही डीएल दिया क्योंकि मैं कुछ भी लेकर निकला ही नहीं था। उसने मेरा मोबाइल नंबर माँगा मैंने दे दिया लेकिन उसने अपना नंबर माँगने पर भी नहीं दिया । थोड़ी बातचीत के बाद सारे पेपर लेकर पुलिस चौकी आने को बोल कर वे सब चले गए मैं उलझ गया हूँ।
क्या करूँ। थाने जाने का मन नहीं है। जानता हूँ कि गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को सिर्फ लिखना और धकेलना भर ही पड़ता है।
रात बिताने की तैयारी में हूँ। थाने नहीं जा रहा हूँ। सुबह जाऊँगा। जो होगा देखा जाएगा। अगर बंद हो गया तो बच्चे थोड़े दुखी होंगे । लेकिन बाहर तो आ ही जाऊँगा । यहाँ भाई चंदन परमार जी,मित्र अभय तिवारी , प्रमोद जी, विमल भाई, अजय जी, अनिल रघुराज, जितेन्द्र दीक्षित और मयांक भागवत जैसे कुछ मित्र हैं जो जमानत ले लेंगे। पर अगर पुलिसवालों ने मुझे ठोंका तो। हालाकि की थोड़ी बहुत पिटाई झेल सकता हूँ। पर बहुत नहीं।

मामले के बीच कुछ जो अलग सा हुआ।

भानी ने इतने पास से पुलिस अंकल को पहली बार देखा तो वो काफी खुश थी । वह अब तक मुझसे कई बार सवाल कर चुकी है कि पुलिस अंकल पेपर माँग रहे थे। वह पुलिस अंकल के पास चलने को तैयार भी है।मानस थोड़ा घबराया था क्योंकि डीएल मैंने उसी से उठाने को कहा था पर उसने कुछ और उठा लिया यानी वह बटुआ नहीं लिया जिसमें मैं डीएल रखता हूँ।
पत्नी पूरे मामले को महज दुर्योग मानती रही और अब भी मान रही हैं । क्योंकि बाजार जा कर फिर उसने मुझे आने को कहा और मैं चला भी गया । यानी सब कुछ अचानक ही हुआ ।
अब जाग कर रात बितानी है और सबेरे से पुलिस चौकी के फेरे लगाने हैं । देखते हैं क्या सचमुच जन्माष्टमी के दिन या रात कारागार की यात्रा करनी पड़ेगी।

Saturday, September 1, 2007

मेरे प्रिय कवि रमेश पाण्डेय




बिना शब्दों वाली बातें
हिंदी के युवा कवियों में एक अलग सुर के कवि हैं रमेश पाण्डेय। वे मेरे कुछ प्रिय कवियों में से हैं। 13 मई 1970 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के अहिरौली गाँव में पैदा हुए रमेश आज कल बहराइच के जंगलों में तैनात हैं। वे 1996 से भारतीय वन सेवा में हैं और कविता में जंगलों की अनसुनी आवाजों को चुपचाप दर्ज कर रहे हैं। उनका एक कविता संग्रह कागज की जमीन पर अनामिका प्रकाशन इलाहाबाद से 2004 में प्रकाशित हुआ है। उनकी कविताओं के बारे में त्रिलोचन जी का कहना है कि कागज की जमीन पर संग्रह में बिना शब्दों वाली बाते हैं। आप भी यहाँ रमेश पाण्डेय की चार छोटी कविताएँ पढ़े।
यह केवल शब्द है

यह केवल शब्द है
जिसने उठा रखा है कंधों पर
पीर का बोझ
वाक्य में बिना पहले से तय जगह पर
हमेशा सावधान की मुद्रा में
खड़े कर दिए जाने के बाद तक

यह विचार है
जो बाजार में अकेला तन कर खड़ा है
सीने में उतरे छुरे की मूठ की तरह

यह सिर्फ कविता है
जो धमनियों में रक्त की तरह दौड़ती है
आँखों से तेजाब की तरह
झरती है।

सानिध्य

अमलतास की तरह खिलती हो

गुलमोहर सी
छा जाती हो

रात की खामोशी में
रातरानी बन महकती हो तुम
कठिन समय में।

नाम में क्या रखा है

बहुत पंछी पिद्दी भर हैं
जिनसे मेरी कोई जान-पहचान नहीं

कुछ ऐसे हैं कि उनके लगे हैं
सुरखाब के पर

काले भुजंग कई
वैसे तो वक्त नहीं होता कि
इन पर निगाह पड़े
देख भी लूँ तो
ज्यादातर इनके नाम नहीं मालूम

और फिर इनके नाम में
रखा ही क्या है

आपका इस बारे में खयाल
क्या कुछ पेश्तर है।

जंगल

यहाँ कई जानवर रहते हैं
मेरे साथ आस-पास
जिन्हें मैं जानता हूँ

मेरे चारों ओर जंगल है

मेरी अँगुलियों के नाखून कुतरे हुए हैं
दाँत भी नुकीले नहीं हैं की चीथ सकूँ
खा सकूँ कच्चा माँस
देखूँ कितनी दूर जा सकता हूँ इस घने जंगल में
हाथ की मुट्ठियाँ भींचे।
ऊपर - त्रिलोचन जी के साथ रमेश पाण्डेय, बीच में हैं त्रिलोचन जी के एक पाठक। फोटो मैंने खींची है।