Thursday, August 30, 2007

सफल गृहस्थी के लिए पत्नी की तारीफ करो

दाम्पत्य की कामयाबी का मंत्र

जब मैंने पूज्य उपेंद्र नाथ अश्क जी को यह बताया कि शादी करने जा रहा हूँ तो उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें घर को कामयाब रखने का कुछ गुर बताता हूँ। फिर उन्होंने मुझे कुछ मंत्र दिए। जो आज तक मेरी गृहस्थी को फिलहाल बनाए-बसाए हैं।

कुछ लोग गृहस्थी का असल सुख कलह को मनते हैं । उनका कहना है कि तनी-तना और रंजोगम किस घर किस जोड़े में नहीं होता। लेकिन मित्र घर-गृहस्थी तो वहीं सफल है जहाँ दाम्पत्य सफल हो।

हमारे वेदादि पुराने ग्रंथ भी दाम्पत्य की महिमा गाते रहे हैं। उनका मनना है कि सहाँ सहमति होगी वहीं सुख होगा। जहाँ पति पत्नी की उत्तम श्लोक प्रशंसा करता है दाम्पत्य वहीं सफल है। वहीं सुमति है और बाबा तुलसी दास ने कहा है- 'जहाँ सुमति तहं सम्पति नाना'।
आज यहाँ ऋगवेद की एक ऋचा का काव्यानुवाद प्रस्तुत है। इसका काव्यानुवाद किया है बशीर अहमद 'मयूख' जी ने और किताब 'स्वर्णरेख' नाम से छपी है ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से। हो सके तो पूरी किताब पढ़े। आनन्द आएगा।

सफल दाम्पत्य

सूर्य उगा वह मानो मेरा भाग्य उगा !
उसे जानते मैं ने पति को
अपने वश में किया,
विजयिनी शक्ति रूप हूँ,
मैं मस्तक की भाँति मुख्य हूँ ध्वजा-रूप हूँ !

मेरा पति मेरी सहमति को
सर्वोपरि महत्व देता है,
मेरे पुत्र शत्रुहंता हैं, पुत्री रानी;

मेरा पति मेरे प्रति उत्तम श्लोक-प्रशंसा करता है;
अत: हमारा दाम्पत्य जीवन सुंदर है,
सूर्योदय के साथ हमारा
भाग्य उदय होता है प्रतिदिन !

ऋक्.10/159

मुझे क्षमा करें

मैं माफी माँगता हूँ

मेरी चवन्नी से जुड़ी टिप्पणी से कुछ लोगों को दुख हुआ है। मैं उसके लिए माफी मांगता हूँ। मेरा इरादा किसी को कष्ट देने का नहीं था। हो सके तो आप सब मुझे क्षमा कर दें।

Tuesday, August 28, 2007

मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ


आज विनय-पत्रिका के 6 महीने पूरे हुए। आधा साल पूरा होने पर मैं अपनी एक पुरानी पोस्ट को चिपका रहा हूँ।







छोटा आदमी

छोटी-छोटी बातों पर
नाराज हो जाता हूँ ,
भूल नहीं पाता हूँ कोई उधार,
जोड़ता रहता हूँ
पाई-पाई का हिसाब

छोटा आदमी हूँ
बड़ी बातें कैसे करूँ ?

माफी मांगने पर भी
माफ़ नहीं कर पाता हूँ
छोटे-छोटे दुखों से उबर नहीं पाता हूँ ।

पाव भर दूध बिगड़ने पर
कई दिन फटा रहता है मन,
कमीज पर नन्हीं खरोंच
देह के घाव से ज्यादा
देती है दुख ।

एक ख़राब मूली
बिगाड़ देती है खाने का स्वाद
एक चिट्ठी का जवाब नहीं
देने को याद रखता हूं उम्र भर

छोटा आदमी और कर ही क्या सकता हूँ
सिवाय छोटी-छोटी बातों को याद रखने के ।

सौ ग्राम हल्दी,
पचास ग्राम जीरा
छींट जाने से तबाह नहीं होती ज़िंदगी,
पर क्या करूँ
छोटे-छोटे नुकसानों को गाता रहता हूँ
हर अपने बेगाने को सुनाता रहता हूँ
अपने छोटे-छोटे दुख ।

क्षुद्र आदमी हूँ
इन्कार नहीं करता,
एक छोटा सा ताना,
एक मामूली बात,
एक छोटी सी गाली
एक जरा सी घात
काफी है मुझे मिटाने के लिए,

मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ
हल्की हवा भी बहुत है
मुझे बुझाने के लिए।

छोटा हूँ,
पर रहने दो,
छोटी-छोटी बातें कहता हूँ- कहने दो ।

Saturday, August 25, 2007

लूटो और बदनाम करो






धर्मपाल जी का समग्र

मित्रों कुछ भी उपहार के रूप में पाना हर एक को आनन्द देता है। पिछले दिनों विचारक चिंतक धर्मपाल जी की समग्र रचनाएँ मेरे शुभचिंतक और मित्र श्री चंदन परमार ने मुझे भेंट की। वह भी कुल चार सेट। जिसमें से तीन जो मैंने अपने मित्रों को देकर पुस्तक दान का आनन्द पाया और एक सेट अपने पास रख लिया।

गाँधीवादी विचारक धर्मपाल जी की रचनाएँ समग्र रूप से प्रकाशित हो गई हैं। इसके पहले वाणी प्रकाशन से अंग्रेजी राज में गोहत्या नाम से एक किताब छपी थी जिसका अनुवाद कवि पंकज पराशर ने किया था। ऐसा मुझे याद आ रहा है। धर्मपाल जी मूल रूप से अंग्रेजी में लिखते थे। उनके लेखन का क्षेत्र भारत के गौरव और सभ्यता संस्कृति से खास कर सत्रहवीं और अठारहवी सदी के भारत और उसकी उथल-पुथल से जुड़ा है।

गाँधी के विचारों को समझने के लिए तो धर्मपाल जी का यह लेखन काफी काम का हो ही सकता है। यहाँ धर्मपाल जी ने अपने खास नजरिये से अंग्रेजों की भारत पर लूट और संस्कृति पर किये हमलों को भी उजागर किया है। अगर अंग्रेजों की लूट का कच्चा चिट्टा देखना हो तो इस समग्र का सातवाँ खंड पढ़ना होगा। अपने लेखन से मान्य लेखक ने यह बताने की कोशिश की है कि अंग्रेजों के पहले और उनके राज में भारतीय शिक्षा और विज्ञान की क्या स्थिति थी। इस ग्रंथ में भारत में लोहा से लेकर गारा बनाने का इतिहास दर्ज है तो बनारस की वेधशाला और ब्राह्मणों के खगोलशास्त्र का भी पूरा ब्योरा है।

धर्मपाल जी का जन्म (1922-2006) का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में हुआ था जो आज उत्तराखंड में पड़ता है . धर्मपाल जी के अध्ययन का क्षेत्र काफी फैला है। उन्होंने अंग्रेजों के पहले के भारत को समझने में अपना काफी समय दिया जिसका परिणाम हैं ये पोथियाँ। धर्मपाल के लेखन से भारत की दो छवि बनती है वह हमारे मन पर अंकित तस्वीर के सर्वथा अलग है. धर्मपाल जी का विवाह एक अंग्रेज महिला फिलिप से 1949 में हुआ था।

हिंदी के पहले धर्मपाल जी की सब रचनाएँ गुजराती में छप चुकी हैं। धर्मपाल जी के समग्र लेखन में किस जिल्द में क्या है आज यह बता रहा हूँ, आगे धर्मपाल जी के लेखन का कुछ हिस्सा चिपकाने की कोशिश करूँगा। किस खंड में क्या है-

खंड एक- भारतीय चित्त, मानस एवं काल
खंड दो- अठारहवीं शताब्दी में भारत में विज्ञान एवं तंत्रज्ञान
खंड तीन- भारतीय परंपरा में असहयोग
खंड चार- रमणीय वृक्ष- अठारहवी शताब्दी में भारतीय शिक्षा
खंड पाँच- पंचायत राज एवं भारतीय राजनीति तंत्र
खंड छ- भारत में गो हत्या का अंग्रेजी मूल
खंड सात- भारत की लूट और बदनामी
खंड आठ- गाँधी को समझें
खंड नौ- भारत की परम्परा
खंड दस- भारत का पुनर्बोध।

मैंने अभी तक कोई भी खंड पूरा नहीं पढ़ा है लेकिन इन पोथियों के विषय-अनुक्रम पर गौर करने से यह बात साफ-साफ दिखती है कि इन्हें पढ़ कर हम एक और भारत को देख पाएँगे। जो शायद धर्मपाल का भारत होगा । इस समग्र के प्रकाशक हैं-

पुनरुत्थान ट्रस्ट
4, वसुंधरा सोसायटी, आनन्द पार्क, कांकरिया, अहमदाबाद-380028
फोन नं. 079- 25322655

Sunday, August 19, 2007

मुहल्ले की लड़कियों का हाल-चाल

( मित्रों हाल-चाल शीर्षक से मेरा चौथा कविता संग्रह शीघ्र ही राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाला है। शायद महीने दो महीने लगें । तब तक आप यह कविता पढ़े। वैसे यह जनवरी 2007 के नया ज्ञानोदय में छप चुकी है ।)

हाल-चाल

अल्लापुर
इलाहाबाद का वह मुहल्ला
जहाँ सायकिल चलाते या
पैदल हम घूमा करते थे।

वहीं रहती थीं वो लड़कियाँ
जिन्हें देखने के लिए
फेरे लगाते थे हम दिन भर।

मटियारा रोड पर रहती थीं
पूनम, रीता, ममता, वंदना
नेताजी रोड पर
चेतना, कविता, शिवानी।
कस्तूरबा लेन में रहती थीं
ऋचा, सुमेधा, अंजना, संध्या।

बाघम्बरी रोड पर रहती थी
एक लड़की
जो अक्सर आते-जाते दिखती थी
वह शायद प्राइवेट पढ़ती थी।

बड़ी आँखे-बड़े बाल
अजब चेहरा मंद चाल।

दिन भर खड़ी रहती थी छत पर
कपड़े सुखाती अक्सर,
हजार कोशिशों के बाद भी
नहीं पता चला
उसका नाम - पोस्ट ऑफिस में करता था उसका पिता काम
हालाँकि
यह वह वक्त था जब हम
लड़कियों के नोट बुक के सहारे
जान लेते थे उनके सपनों को भी।

हजार कोशिशों पर
पानी फिरा यहाँ......

बाद में पता चला
वह ब्याही गई एक तहसीलदार से
शिवानी की शादी हुई वकील से
वंदना की दारोगा से, रीता की बैंक क्लर्क से,
चेतना की कस्टम इंस्पेक्टर से,
संध्या विदा हुई रेल टी.टी. के साथ
सुमेधा किसी डॉक्टर के साथ
ऋचा किसी व्यापारी की हुई ब्याहता
अंजना किसी कम्पाउंडर की,
पूनम की शादी हुई किसी दूहाजू कानूनगो से।

ममता की शादी नहीं हुई
बहुत दिनों.....
देखने-दिखाने के आगे बात नहीं बढ़ी...।

कई साल बीत गये हैं
टूट गया है इलाहाबाद से नाता
छूट गया है अल्लापुर....
दूर संचार के हजारों इंतजाम हैं पर
नहीं मिलती ममता की कोई खबर,
उसकी शादी हुई या बैठी है घर,
अब तो किसी से पूछते भी लगता है डर।

कैसा समाज है, कैसा समय है,
जहाँ मुहल्ले की लड़कियों का
हाल-चाल जानना गुनाह है,
व्यभिचार है,
पर क्या ममता के हाल-चाल की
मुझे सचमुच दरकार है ?

Saturday, August 18, 2007

जो प्यार नहीं करता सड़ जाता है


दुनिया सड़ गई है

इलाहाबाद की बात है। कई साल हो गये हैं पर हम झूरी को नहीं भूल पाये हैं। इलाहाबाद की सड़कों पर अक्सर एक दुबला-पतला सूखा सा युवक दौड़ता हुआ दिखता । उसके दाढ़ी बाल और शकल सूरत काफी कुछ ईसा मसीह की याद दिलाते थे। हम कह सकते हैं वह इलाहाबाद की सड़कों पर भटकता ईसा था। बहुत सुंदर और सलोना रहा होगा वह कभी। वह वैसे कटरा के आस पास अधिक दिखता। असली नाम का तो पता नहीं पर लोगों ने नाम रखा था झूरी। झूरी को बंद मक्खन बहुत पसंद था। अक्सर वह दौड़ते-दौड़ते रुक जाता और किसी से भी बुदबुदा कर कहता कि बंद मक्खन खिलाओ। समझदार इतना कि पल भर में समझ जाता कि यह बंदा खिलाएगा या नहीं। बिना समय जाया किए तुरत दूसरे का रुख करता। जिद्दी इतना कि बंद मक्खन के अलावा कुछ भी नहीं खाता था। चाहे भूखा रहना पड़े। बंद मक्खन के लिए उसका लगाव उसमें स्वाति बूँद के लिए प्यासे पपीहा की छवि दिखती थी। हालाकि वह काफी गंदा रहता था। जैसा कि अक्सर बेघरबार अशांत मन अस्थिर दिमाग लोग हो जाया करते हैं।

झूरी रातें अक्सर सर गंगा नाथ झा हॉस्टल में लगी गंगानाथ जी की प्रतिमा के आसपास बीताता था। पर सबेरा होते ही वह तेज गति से भागता हुआ नजर आता। उसी हॉस्टल के लड़कों की उतरन पहनने को मिल जाती थी।
कभी कभार चायवाले या कुछ श्रद्धालु लड़के झूरी को गरम चाय इत्यादि से स्नान भी करवा देते थे । जिसकी शिकायत तत्काल या अगले दिन किसी भली सूरत इंसान से किया करता।

वह गुणी था। उसके गुणों मे इजाफा तब और हो जाता था जब किसी ने उसके लिए बंद-मक्खन का ऑर्डर दिया होता था। खुशी के मारे वह मुह से ढोल बजाने लगता। बीच-बीच में गाने भी लगता। गाने तो अक्सर फिल्मी होते। वह आये दिन जब प्यार किया तो डरना क्या गाता था। पूछने पर कहता मुझे कोई प्यार नहीं करता....और गंदा चेहरा और उतर जाता।

एक बार हम कई दोस्त सर विलियम हॉलैंड हाल छात्रावास से निकल रहे थे । गेट के सामने झूरी अपने दोनो हाथों से नाक बंद किये खड़े थे। झूरी को खड़े पाकर लोग अचंभित हो गये। पूछने पर झूरी ने बताया कि पूरी दुनिया सड़ गई है। सब कुछ सड़ गया है। बदबू के मारे साँस लेना मुश्किल है। कहाँ जाऊँ। इसीलिए मुह से साँस ले रहा हूँ। किसी ने प्रतिवाद किया तो झूरी ने उसे भी समझाया कि तुम सब सड़ गये हो। क्योंकि तुम लोग मुझे प्यार नहीं करते। जो प्यार नहीं करता सड़ जाता है। उसकी बातों सुन कर हम सन्न रह गये थे।

दस बारह साल बाद आज यहाँ मुंबई में एक दूसरा झूरी मिला। दौड़ता चला जा रहा था। किसी ने कहा कि साहब इसे पागल ना समझें। बहुत गुणी है। मुह से ढोल बजा लेता है। बहुत अच्छा गाता है। दुबला है तो लोग सूखा बुलाते हैं। झूरी नाम का भी तो मतलब वही हुआ सूखा। मैं सूखा का मुरझाया चेहरा नहीं देख पाया। दुविधा में हूँ कहीं झूरी ही तो नहीं था। वैसे इस देश के हर शहर का अपना एक झूरी या सूखा होता है। कभी कभी तो हर पीढ़ी और हर इलाके का होता है। और कभी कभी तो हर आदमी के भीतर अपना एक एक झूरी या सूखा होता है। कहाँ से आते हैं झूरी और सूखा। हमें सोचना होगा।

Thursday, August 16, 2007

हम तमाशाई हैं क्या ?

बाबा नागार्जुन कहते थे कि वे कविताएँ सुहागन या सधवा होती हैं जो कहीं पाठ्यक्रम में लग जाएँ। इसका मतलब यह नहीं कि बाकी कविताएँ अभागन या विधवा होती हैं। यहाँ चिपकी मेरी कविता तमाशा बाबा के उस कथन के आधार पर फिलहाल सुहागन कविता है। मेरी दो कविताएँ विश्वविद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में 1993-94 में लगाई गई थीं । पता नहीं अभी है या नहीं। आप भी पढ़ें ।

तमाशा

तमाशा हो रहा है
और हम ताली बजा रहे हैं

मदारी
पैसे से पैसा बना रहा है
हम ताली बजा रहे हैं

मदारी साँप को
दूध पिला रहा हैं
हम ताली बजा रहे हैं

मदारी हमारा लिंग बदल रहा है
हम ताली बजा रहे हैं

अपने जमूरे का गला काट कर
मदारी कह रहा है-
'ताली बजाओ जोर से'
और हम ताली बजा रहे हैं।

Wednesday, August 15, 2007

दूबे मेरी इज्जत लूटना चाहता था


बच्चों को बचाएँ

बचपन की बहुत सारी बाते ऐसी हैं जिन्हे नहीं लिखा या कहा जा सकता। कुछ इसलिये कि जरूरत नहीं है और कुछ इसलिए कि शायद अभी समय नहीं आया है। पर एक वाकया उसी सुरियाँवा का है जिसका जिक्र मेरी कई कविताओं और ज्ञानदत्त की मानसिक हलचल और अभय तिवारी के निर्मल आनन्द में भी कुछ एक बार आया है। बात 1982 के सितंबर की है। मैं आठवीं पास कर नौवीं में गया ही गया था। एक दम कच्चा कोमल सुंदर सुकुमार पर मिलनसार था । मुझे नहीं याद आता कि बचपन में मैं कहीं या कभी हिचकिचाया होऊँ। यह खुल कर मिलना और बेधड़क पेश आना तब से अब तक तो चला ही आ रहा है। आगे भी शायद चलता रहे।

उस साल अकेले मेरे गाँव से कुल 21 लड़के सुरियाँवा के सेवाश्रम इंटर कॉलेज में दाखिल हुए थे। कुछ उसके पहले से भी पढ़ रहे थे। पर उस दिन पता नहीं क्या बात थी कि जब कॉलेज से निकला तो बाकी लड़के जा चुके थे। पर डर भय की कोई बात नहीं थी। अपनी पुरानी रेले सायकिल पर आरूढ़ दनदनाता चला जा रहा था । स्टेशन के पास वाली क्रासिंग पर पहुँचे कि मेरी सायकिल का फ्रेम टूट गया । गिरे पर चोट नहीं आई।

अब क्या करें। पिता जी के परिचित कराए हुआ बुद्धू मिस्त्री की दूकान पर गये तो वह बोले कि सायकिल तो कल ही मिल पाएगी । अब क्या करूँ। घर कैसे जाऊँ। बाजार में आस पास के गाँव वाले भी आते थे । उसी में एक थे मल्हे दूबे। पड़ोस के गाँव के एक बड़े बाप के बेटे। वे दिख गये अपनी बुलट मोटर सायकिल पर। मेरे पास आये और बड़े प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेर कर पूछा कि यहाँ क्यों बैठे हो। मैंने सायकिल की बात बताई तो वे बोले कि चलों मैं तुम्हें पहुँचा देता हूँ। मैं खुश कि मजे से घर पहुँच जाऊँगा।

वे मुझसे काफी बड़े थे। मेरे एक पड़ोसी के यहाँ आते थे। मैं उन्हे भैया बोलता था। और वे मुझे हमेशा प्यार दुलार करते थे। जब भी मिलते चूमा-चाटी की कोशिश जरूर करते। कुछ ना कुछ खिलाते। जैसा कि मैंने ऊपर कहा कि तब मैं काफी कोमल और फिल्मी भाषा में कहूँ तो चिकना सा बच्चा था। भाभियाँ नहला कर स्कूल भेजती थी। कभी-कभी काजल भी लगा देती थीं। न भी लगाती तो भी मेरी आँखे थोड़ी कजरारी वैसे भी थीं आज भी हैं। मैं मल्हे के पीछे स्कूटर पर बैठ गया। मोटर सायकिल गाँव की तरफ चल पड़ी। लेकिन अचानक मल्हे ने कहा कि उनकी कोई दवा सरकारी अस्पताल के डॉक्टर के पास रह गई है। मल्हे ने मोटर सायकिल मोड़ दी । और सीधे डॉक्टर के घर पहुँचे। साथ में मैं भी लगा था। मजेदार बात यह कि उनके पास डॉक्टर के घर की चाभी थी। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि उनके पास डॉक्टर के घर की चाभी कैसे थी किस वजह से थी। फिलहाल मैं भी दवा उठाने मल्हे के पीछे अंदर गया।

इस बीच में दूबे जी मुझसे कुछ अपने घर और कुछ बनने वाले सिनेमा हाल की बात कर चुके थे। उन्होने यह वादा भी कर दिया था कि मेरे लिए हर फिल्म का हर शो फ्री रहेगा। बात कुछ ऐसी थी कि मुझे बहुत अच्छी लग रही थी। उसके पहले मैंने सिर्फ एक फिल्म देखी थी जय संतोषी माँ । वह भी अपनी माँ कि गोद में बैठ कर।

दवा उठाने के बाद दूबे जी का पेट खराब हो गया। फिर उन्होने पानी पिया और दवा भी खाई। फिर उन्होने कहा कि क्या वे थोड़ी देर आराम कर सकते हैं। मुझे क्या दिक्कत हो सकती थी मैंने कहा कि कर लें । फिर दूबे जी वहीं सोफे पर लेट गये। फिर उनकी आँखों पर धूप पड़ने लगी तो उन्होने मुझसे कहा कि क्या मैं खिड़की बंद कर सकता हूँ। मैंने खिड़की बंद कर दी। दरवाजा दूबे जी घर में घुसते ही बंद कर चुके थे।

जब सब कुछ बंद हो गया तो दूबे जी खुले। पहले उनका दिल खुला फिर जबान खुली। फिर उनका पायजामा खुला। फिर उनका हाथ खुला। आज भी मुझे याद है कि कैसे दूबे जी ने प्यार से मेरा सिर फिर माथा फिर गालों को सहलाया फिर उनका हाथ मेरे हाफ पैंट के बटन पर गया। मामला अब तक मैं पूरा समझ गया था। पर यह नहीं समझ पा रहा था कि करूँ क्या। मैं उससे लड़ नहीं सकता था। वह पूरा पहलवान था। मुझे मेरी इज्जत लुटती सी दिखी। मैं बचाव का रास्ता खोजने में उलझा था और वे मेरे बटन में। वह एक दो बटन ही खोल पाए थे कि मेरे मुह से निकला कि मुझे टीबी है। मैंने अपने डॉक्टर ताऊ से टीबी के बारे में सुन रखा था। और यह जानता था कि यह खतरनाक छूत की बीमारी है। मेरे मुँह से टीबी का नाम सुनते ही दूबे जी का श्रृंगार रस भंग हो गया। वे मुझे एक दम से छोड़ कर अलग हो गये। बेमन से अपना पायजामा चढ़ाने लगे। किसी तरह इतना ही पूछ पाए कि कब से है यह बीमारी और दवा ले रहे हो कि नहीं। मैंने कहा कि एक शादी में गया था वहीं खराब खाना खा लिया था तब से ही है। अब तक मैं अपना बटन बंद कर चुका था। न हुई टीबी ने मेरी लाज रख ली। दूबे जी हाथ धोने चले गये और मैं बिना कुछ बोले बाहर निकल गया।

6 किलोमीटर पैदल चल कर बाकी बच्चों से दो घंटे देर से घर पहुँचा। माँ परेशान थी कि कहाँ रह गया। घर पहुँचते ही उसने पूछा कहाँ रह गये थे। मैंने सायकिल के टूटने और पैदल आने की बताई। लेकिन दूबे जी की बात नहीं बोल पाया। माँ ने मेरे थके पैरों में तेल लगाया । बाद में मेरी मझली भाभी ने भी मेरा देह मर्दन किया और यह वादा किया कि कल तुझे नई सायकिल मिलेगी। मैं थका था सो जल्दी सो गया। अगले दिन मेरे बड़े भैया मुझे लेकर बाजार गये। नई रेले सायकिल मेरे सामने कसी गई। तब करीब 1120 रुपये में पड़ी थी। पुरानी सायकिल भी बन चुकी थी। पर उस दिन मैं अपनी चमचमाती रेले से घर लौटा।

दो एक दिन बाद दूबे जी दिखे कुछ डरे कुछ परेशान से । पर न वो बोले न मैं। दस साल के बाद एक दिन एक रामायण के आयोजन में दूबे जी बरामद हो गये। तब तक उनका सिनेमा घर बन चुका था और मैं शरीर बल में दूबे जी से कुछ बढ़ चुका था। दूबे जी तब तक बड़े नेता बन गये थे। सब उनकी आव भगत में लगे थे । कि मैंने उनसे पूछा कि मुझे पहचान रहे हैं कि नहीं। दूबे ने काफी लिर्लज्ज सा हाँ में उत्तर दिया और मैंने उन्हे कस कर एक तमाचा मारा। हाँ-हाँ के बीच से दूबे जी ने रास्ता लिया। पिता जी ने पूछा कि क्या बात थी । मैंने कहा कि एक हिसाब बाकी था।

उस प्रसंग को लेकर लज्जित मैं तब भी नहीं था अब भी नहीं हूँ। हो सकता है कि आप का सामना ऐसे किसी दूबे जी से न पड़ा हो। पर आप के आस पास बच्चे होंगे जिनके फेर में कोई ना कोई दबा हुआ दूबे आस-पास चक्कर काट रहा होगा। मेरा इतना ही निवेदन है कि आप अपने अंदर किसी दूबे को न पैदा होने दें साथ ही अपने मासूम बच्चे के आस-पास भी दूबे जैसे किसी को न फटकने दें। बस ।
नोट- ऊपर के दो चित्र जब मैं आठवीं और नौवीं में पढ़ता था। पहला प्रकाश स्टूडियो और दूसरा रूपतारा स्टूडियो, सुरियाँवा में खिचे हैं।

Tuesday, August 14, 2007

ले लो तिरंगा प्यारा




तिरंगा प्यारा


आज पंद्रह अगस्त
ईसवी सन दो हजार सात है
मैं घर से अंधेरी के लिए निकला हूँ
कुछ काम है
अभी मिठ चौकी पर पहुँचा हूँ भीड़ है
ट्रैफिक जाम है
घिरे हैं गहरे काले बादल आसमान में
कुछ देर पहले बरसा है पानी
सड़क अभी तक गीली है।


बहुत सारे बच्चों
छोटे-छोटे बच्चों के साथ
एक बुढ़िया भी बेच रही है तिरंगे।
एक दस साल का लड़का
एक सात साल की लड़की
एक तीस पैंतीस का नौ जवान बेच रहा है झंडा
इन सब के साथ ही
यह बुढ़िया भी बेच रही है यह नया आइटम।


उम्र होगी पैंसठ से सत्तर के बीच
आँख में चमक से ज्यादा है कीच
नंगे पाँव में फटी बिवाई है
यह किसकी बहन बेटी माई है ?
यह किस घर पैदा हुई
कैसे कैसे यहाँ तक आई है ?


परसों तक बेच रही थी
टोने-टोटके से बचानेवाला नीबू-मिर्च
उसके पहले कभी बेचती थी कंघी
कभी चूरन कभी गुब्बारे।


कई दाम के तिरंगे हैं इसके पास
कुछ एकदम सस्ते कुछ अच्छे खास

उस पर भी तैयार है वह मोल-भाव के लिए
हर एक से गिड़गिड़ाती
कभी दिखा कर पिचका पेट
लगा रही है खरीदने की गुहार
कभी दे रही है बुढ़ापे पर तरस की सीख
ऐसे जैसे झंडे के बदले
मांग रही है भीख।


मैं आगे निकल आया हूँ
पीछे घिरे हैं काले-काले बादल
बरस सकता है पानी
भीड़ में अलग से सुनाई दे रही है
अब भी बुढ़िया की गुहार थकी पुरानी।

सड़क के कीचड़ पांक में सनी बुढ़िया
कलेजे से लगा कर
बचा रही रही होगी झंडे की चमक को
और पुकार रही होगी लगातार
हर एक को-

‘ले लो तिरंगा प्यारा ले लो’

Monday, August 6, 2007

हम सब चिड़िया हैं


जूर गगन की छाँव में











मैंने पिछले किसी चिट्ठे में अपने बेटे मानस की गतिविधियों के बारे में लिखा था। आज मैं अपनी बेटी भाविनी या भानी के बारे में लिख रहा हूँ। वह 22 सितंबर को तीन साल की होगी। महीने भर पहले तक वह लड़का थी। लेकिन जब से खेल-कूल जाने लगी है तबसे वह खुद को लड़की कहने लगी है।
उसे फोन रिसीव करना अच्छा लगता है। पिछले कई महीने से शायद ही मैंने कोई फोन रिसीव किया हो। अगर किसी और ने फोन रिसीव कर लिया तो मुश्किल है। कई बार तो फोन कट करके सामने वाले से फिर फोन करने को कहना पड़ता है। वह फोन पर आवाजों को पहचानने लगी है। अपने अभय अंकल की आवाज बहुत ठीक से पहचानती है। अभय कहते हैं कि मैं भानी बोल रहा हूँ और वह डटी रहती है कि नहीं मैं भानी हूँ।
कुछ दिन पहले मेरा बेटा गूगल पर चिड़ियों के चित्र खोज रहा था स्कूल के किसी काम से









अचानक बीच में भाविनी कूद पड़ी। फिर मानस का प्रोजेक्ट पीछे और उसका अपना काम शुरू। उसने गूगल से ही कुछ चिड़ियों में खुद और अपने भाई और मम्मी-पापा के रूप में नामकरण किया । मैं चिड़ियों की पहचान कम ही रखता हूँ। यहाँ हारिल या नीलकंठ जैसा पंछी उसका भाई मानस है। कैरोलीना उडडक उसकी मां और यह सोन चिड़िया जैसी दिख रही bugun liocichla खुद भाविनी है। यह रेयर चिड़िया है और केवल भारत में ही पाई जाती है । अभी तक ज्ञात संख्या सिर्फ 14 है।
उसने मुझे भी खोजा । यहाँ ऊपर उड़ रहा पंछी मैं हूँ। यानी पापा चिड़िया। इन चिड़ियों में उसके अभय अंकल भी है यहाँ ऊपर श्याम-नील रंग में अकेले में हैं निर्मल आनन्द प्राप्त करते ।

भानी दिन में कई बार इन चिड़ियों को देखती है । उसके पास भाविनी या भानी चिड़िया के कई किस्से हैं जिनमें वह लंबी उड़ानों पर जाती है। कभी मुश्किल में पड़ती है तो मानस मम्मी या पापा चिड़िया उसकी मदद में आ जाते हैं।कहानी में रोज-रोज नया कुछ जुड़ता रहता है जैसे कल से उसे बुखार है। और अब कहानी में बुखार जुड़ गया है । वह बहुत ऊपर उड़ गई थी। पानी में भीग गई थी। इसलिये भानी चिड़िया को बुकार है। यहाँ लिखा शीर्षक भानी के एक गाने का अपना ही रूप है। वह गाती है-
जूर गगन की छाँव में
उड़ गई भानी गाँव में ।
सबसे ऊपर भाई मानस चिड़िया की गोद में भानी चिड़िया।




Saturday, August 4, 2007

नागार्जुन बाबा का गुरु मंत्र



बाबा मेरे कनफुकवा गुरु







नागार्जुन बाबा पर हिंदी में बहुत सारी कविताएं लिखी गई हैं। वे शमशेर जी के अली बाबा हैं तो किसी के लिए फक्कड़ । मैंने भी बाबा पर कभी एक कविता लिखी । वह कविता परमानन्द जी जैसे आलोचकों को बहुत पसंद आई । कई आलोचकों ने उसी कविता के आधार पर नागार्जुन जी को समझने की कोशिश की तो मुझे लगा कि काश यह कविता मैं बाबा को सुना पाता । 1990 या 91 की बात होगी बाबा का इलाहाबाद आना हुआ। साहित्य सम्मेलन के किसी समारोह में । मौका अच्छा पा कर जलेस की इलाहाबाद इकाई ने एक गोष्ठी रखी शेखर जोशी जी के लूकर गंज वाले घर में । मैंने हिलते-कांपते हुए अपनी कविता बाबा के सामने पढ़ी। बाबा ने ऐसे सुना जैसे सुना ही न हो । मैं एक दम बुझ गया। पर मन की एक साध तो पूरी हुई ।

उस यात्रा में बाबा चंद्रलोक के सामने होटल पूर्णिमा में ठहरे थे । हमारे एक और मित्र धीरेंद्र तिवारी ने बाबा के पूर्णिमा होटल में रुकने को ही मुद्दा बना लिया था। उसने उस बाबा को अपने व्यंग का निशाना बनाया जो हर किसी पर व्यंग करते थे । उसने बाबा के ऊपर आक्षेप करते हुए एक कविता भी लिख मारी थी और जिद किए था कि वह अपनी कविता बाबा को सुनाएगा। कविता की पहली पंक्ति थी-

सारा देश अमावस में है
कवि तुम बसे पूर्णिमा में ।

धीरेंद्र को इस बात की भी शिकायत भी कि बाबा अगर जनता के कवि हैं तो उन्हे ट्रेन में एसी क्लास में सफर नहीं करना चाहिए।

एक दो दिनों बाद बाबा को दूध नाथ जी के यहाँ भोजन पर जाना । हम भी पहुँचे। बाबा से न जाने कितनी बातें हुईं । पर हिम्मत नहीं हुई कि बाबा से जान लूँ कि उन्हे मेरी कविता कैसी लगी। दूधनाथ जी के यहाँ ही अचानक बाबा ने कहा आओ मैं तुम्हें गुरु मंत्र देता हूँ । फिर वे मेरे कान में कुछ बोले जो मैं आप सब को नहीं बता सकता । कहते हैं कि गुरुमंत्र को जाहिर नहीं किया जाता। जाहिर कर देने से गुरु द्वारा दी गई शक्ति खतम हो जाती है।

बाबा के बारे में बहुत सारी बातें लिखी जानी बाकी है । उनके जैसे व्यक्ति पर तो पोथियों के पन्ने भी कम पड़ेंगे। वे कैसे बच्चों की तरह खुश रहते थे, कैसे अपनी घुच्ची निगाहों से दुनिया को देखते थे । कैसे एकदम बुढ़ापे में भी जीवन के प्रति एक मिठास से भरे थे। वे सच में हम सब के बाबा थे । हिंदी कविता के आखिरी बाबा ।
क्या मैं जीवन भर यह भूल पाऊंगा कि मैं एक दिन नहीं कई दिन बाबा के साथ भटकता रहा था। क्या बाबा को छू पाना, उनके गले लगना कोई भी भुला सकता है। बाबा से मिलना इस धरती के सबसे महान इंसान से मिलना था ।

बाद में बाबा ने मेरी कविता की तारीफ भी कि।कहा कि तुमने मेरी नाक की तुलना चीलम से की है, यह अच्छा है । और फिर अपनी नाक को एक दो बार छुआ भी ।

उसके बाद हमें बाबा का दर्शन कभी नहीं मिला । तब हम नादान थे । बाबा के साथ का महत्व अब कुछ अधिक समझ में आ रहा है। आप बाबा के साथ हमें देख ही चुके हैं अब बाबा पर लिखी मेरी कविता पढ़ें।

घुमंता-फिरंता

बाबा नागार्जुन !
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
कब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में लाई-नून चबाके।

तुम्हारी यह चीलम सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुई चमड़ी के नीचे
घुमड़े खूब तरौनी गाथा।

तुम हो हमारे हितू, बुजुरुक
सच्चे मेंठ
घुमंता-फिरंता उजबक्–चतुर
मानुष ठेंठ।

मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।
बाबा के साथ में हैं सुधीर सिंह और दूधनाथ जी बेटी और हम सब की रचना दीदी।

Friday, August 3, 2007

मथुरा में बुद्ध की दुर्दशा

मथुरा नहीं जाना !


इस घटना का पूरा पाठ मैंने भगवान बुद्ध की किसी जीवनी में पढ़ा था। याद नहीं आ रहा है कि कहाँ पर वाकया पूरा याद है। बुद्ध बूढ़े हो गये थे। शरीर हड्डी का ढ़ांचा भर रह गया था। जरा ने उन्हे थका दिया था। उनके साथ बाकी शिष्य थे और आनन्द भी । आप सब तो जानते ही हैं कि आनन्द महात्मा बुद्ध के मौसेरे भाई भी थे और मुह लगे शिष्य तो वे थे ही । वे हमेशा बुद्ध के साथ रहे। बिल्कुल छाया की तरह। आनन्द बुद्ध के इतने करीब थे कि वे कैसे भी सवाल उनसे कर लेते थे। और बुद्ध उनका उत्तर देते ही थे।

वर्षा बीत चुकी थी। दोनों भाई या गुरु शिष्य वैशाली के पास किसी वन में विश्राम कर रहे थे। साँझ हो गई थी और चलते-चलते बुद्ध थक भी गये थे। आनन्द के लिए यह थकान दुखी करने वाली थी। दर असल वे बुद्ध की थकान में उनका अंत करीब आया देख रहे थे। हमेशा की तरह आनन्द ने एक अटपटा सवाल किया। आनन्द ने पूछा भगवन ऐसा भी कोई नगर या राज्य है जिसमें आप न जाना चाहते हों। जिसमें जाना निषेध करते हों। बुद्ध आँखें बंद किये लेटे रहे। कुछ देर बाद बोले कि मैं मथुरा नहीं जाना चाहूँगा आनन्द। आनन्द चौंक पड़े और पूछा कि मथुरा से परहेज क्यों। बुद्ध ने कहा कि मथुरा न जाने के कई कारण हैं। एक तो वहां के रास्ते पथरीले और ऊबड़-खाबड़ हैं दूसरे वहाँ के लोग भिक्षा नहीं देते। तीसरे स्त्रियाँ परछत्ते से गंदा पानी और कूड़ा-कर्कट फेंकती हैं। मामला यही तक रुक जाता आनन्द तो कुछ नहीं था। मथुरा के बच्चे और लोग पीछे से पत्थर मारते हैं और कुत्तों को लुहकार देते हैं । ऐसे में ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्ते पर दौड़ कर भागना मुश्किल हो जाता है। कभी–कभी कुत्ते काट भी लेते हैं। इसलिए आनन्द मैं मथुरा नहीं जाना चाहूँगा।

आपबीती सुना कर बुद्ध मथुरा में हुई दुर्दशा को भुलाने का यत्न करने लगे। उनकी आपबीती सुन कर आनन्द का अंतर्मन बिलख उठा। उनकी आँखे भर आईं। बुद्ध ने कहा कि रात इसी वन में बिताएंगे । आनन्द वन में बाकी का इंतजाम करने में लग गये।

Thursday, August 2, 2007

आफत में धर्म

दूसरी लोक कथा

मैंने अपनी एक पोस्ट में एक लोक कथा पढ़वाई थी । आज दूसरी लोक कथा पढ़े । इसमें भी मैं श्रोता हूँ और आदरणीय लक्ष्मी कान्त वर्मा जी सुना रहे हैं।

बात 1997 की है। मेरे पास कोई काम नहीं था और पैसों की कुछ खास दरकार थी। पर कुछ उपाय नहीं दिख रहा था कि लक्ष्मी कान्त जी फिर मिल गये । हालचाल के बाद मैंने बताया कि किसी संकट में हूँ । उन्होने किसी प्रकाशक से 6 हजार का एक काम और उस काम का पूरा दाम तत्काल दिलाया। मेरा काम हो गया और मैं उस प्रकाशक को बहुत उम्मीद से देखने लगा। मेरी निगाह का खोट लक्ष्मी कान्त जी ने पढ़ लिया और बोले इसके चक्कर में मत पड़ना। जोंक है। मैं कुछ बोल नहीं पाया । कुछ देर की चुप के बाद उन्होने कहा कि एक कथा सुनों।

यह कथा आपद् धर्म पर है।

किसी राज्य में एक विद्वान ब्राह्मण रहा करता था। सब कुछ ढीक-ठाक चल रहा था कि उसके राज्य में अकाल पड़ गया । प्रजा भूखी थी तो धर्म के सभी काम रुक गये। दान दक्षिणा का सवाल ही नहीं उठता था। ब्राह्मणी ने ब्राह्मण से कहा कि आप ही के किसी पूर्वज का कहना है कि जिस राज्य में जीविका का उपाय न हो उसे छोड़ देना चाहिए।

ब्राह्मण ने राज्य और ब्राह्मणी को छोड़ कर दूसरे राज्य की ओर रुख किया । वह परदेश की ओर लपक पड़ा। ब्राह्मणी दुखी थी की रास्ते में खाने के लिए कुछ सीधा नहीं दे पाई । आगे जा कर ब्राह्मण को भूख लगी पर क्या करता कुछ मिले तब ना खाए। दूसरे राज्य की सीमा में घुसते ही उसने देखा कि एक पीलवान अपने हाथी को नहला रहा था। पास ही में एक कड़ाहे में हाथी का रातिब उड़द रखा था। रातिब जानवरों के खाने को कहते हैं। अन्न देख कर ब्राह्मण की भूख जाग पड़ी। उसने पीलवान से ब्राह्मण यानी खुद को भोग लगवाने को कहा और गंगा में घुस कर नहाने लगा। तब तक पीलवान ने पत्तल पर ब्राह्मण के लिए दो किलो उड़द परोस दिया था।

नहाने के बाद सूर्य को अर्ध्य देकर ब्राह्मण खाने बैठ गया । थोड़ा रातिब अगले दिन के लिए बचा कर ब्राह्मण ने भोग लगाया। श्रद्धालु पीलवान तब तक ब्राह्मण के सामने पीने के लिए एक लोटा पानी भी रख दिया। खा लेने के बाद ब्राह्मण ने लोटे को लात मार कर नदी में फेंक दिया और बोला कि तुम मेरा अपमान कर रहे हो। पीलवान ने कहा कि आप हाथी का खाना खा रहे हैं यह अपमान नहीं है और एक लोटा पानी दे रहा हूँ तो यह आप का अपमान है। ब्राह्मण ने कहा कि रातिब इसलिए का रहा हूँ कि और कुछ खाने को मिल नहीं रहा मूर्ख । पानी मैं लोटे से क्यों पीऊँगा, जब सामने गंगा जी बह रही हैं। रातिब मेरा आपद् धर्म है पानी नहीं।

पीलवान पता नहीं आपद् धर्म का कुछ मतलब समझ पाया कि नहीं पर उसे यह जरूर लगा होगा कि ब्राह्मण की सेवा करके उसने कोई आफत मोल ले लिया है।

इतना कह कर ब्राह्मण ने अपनी राह ली, पीलवान उसे जाते देखता रहा। बाद में अपना लोटा खोजने नही में उतरा ही होगा बेचारा।
लक्ष्मी कान्त जी ने कहा कि प्रकाशक से मिली यह मदद सिर्फ आपद् धर्म है। देश में बहुत सारी द्रव्य. की बड़ी नदियाँ बह रही हैं।

पाठकों
दिक्कत हो तो पीलवान को फीलवान या महावत पढ़े और रातिब को चारा या कुछ भी। पर प्रकाशक को प्रकाशक ही पढ़े। क्योंकि हिंदी के सभी प्रकाशक जोंक नहीं हैं।