Wednesday, January 30, 2008

हिचकियाँ बता रही हैं कि कोई मुझे याद कर रहा है

अपनी खुशी के लिए लिखता हूँ

पिछले कई दिनों आभा यानी मेरी पत्नी मेरे पीछे पड़ी हैं कि तुम महीने में एक पोस्ट लिख कर ब्लॉग जगत में जिंदा कैसे रह सकते हो। लगातार न लिखो तो भी महीने में कम से कम सात-आठ पोस्ट तो लिखो। देखो सब कितना लिख रहे हैं..

सो आज जो कुछ लिख रहा हूँ..आभा की चिंता से । कुछ लोग कह सकते हैं कि बोधिसत्व ने अपने ब्लॉग पर अपने परिवार की फोटो ही नहीं लगा रखी है वे तो पोस्ट भी अपनी पत्नी के कहने से छापते हैं...

ऐसे विघ्न संतोषी लोगों को मैं या कोई भी क्या कह सकता है...मुझे उनकी परवाह नहीं है॥क्यों कि मैं अपनी खुशी के लिए लिखता हूँ मुझे किसी से कोई दिशा निर्देश नहीं चाहिए...लिखने पढ़ने या अभिव्यक्ति के मामले में किसी को नसीहत देने को मैं अभिरुचि की तानाशाही मानता हूँ। और कैसी भी तानाशाही का समर्थन कोई भी कैसे कर सकता है अगर वह जिंदा है। वही व्यक्ति हर तरफ अपने मन का होता देखना चाहेगा जिसके अंतर में एक बीमार तानाशाह रहने लगा हो वही दूसरों को ताना भी मार सकता है कि ऐसा लिखो और ऐसा दिखो।

दोस्तों आज सुबह से लगातार हिचकी आ रही है। पानी पीकर हिचकी को शांत करने की कोशिश की लेकिन कामयाबी न मिली। हिचकी शांत करने का और कोई उपाय जानता नहीं हूँ क्या करूँ । कुछ लोग हिचकी को छींक की तरह अनैच्छिक क्रिया मान सकते है। लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा है।

मुझे लग रहा है कि कोई मुझे याद कर रहा है। पत्नी कह रही है कि मैं तो यहीं हूँ फिर कौन याद कर रहा है...मेरी उलझन देख उसी ने फिर कहा कि हो सकता है माता जी याद कर रही हों। मां को फोन किया वो सच में याद कर रही थी । उसने कहा कि वह मुझे हर पल याद करती रहती है...।

उससे बात करने के बाद भी हिचकी आती जा थी...तो बारी-बारी से अपनी बहनों और भाइयों और भाभियों सबसे बात की लेकिन अभी भी हिचकी बंद नही हुई है..
मुंबई में अभय से बात किया कि तो पता चला कि वो भी मुजे याद कर रहे थे...भाई शिव कुमार मिश्र से हो रही बातचीत में मेरा जिक्र था...

काफी देर से परेशान हूँ...अभी भी हिचकी चल रही है...

मित्रों और मित्रानियों और अपने चाहने न चाहने वालों से यह नम्र निवेदन है कि वे या तो याद करना बंद करें या मुझे फोन कर लें।

क्यों कि मैं बहुत देर से हिचकी से परेशान हूँ।

नोट- इसी हिचकी के कंटेंट को कविता में भी लिखा है जो कि अमर उजाला में भाई अरुण आदित्य को छापने के लिए भेज रहा हूँ।

Friday, January 18, 2008

वे बड़े साधारण लोग थे

मैं खो गया हूँ

वे बड़े साधारण लोग थे..उनके तो नाम भी अजीब हिंदी टाइप के थे...
किसी का नाम भगतिन था तो
किसी का ब्रह्म नारायण
एक और थी जिसका नाम सरिता था....
एक नें मुझे विन्ध्याचल की पहाडियों में खो जाने से बचाया।

अपने मुंडन के बाद मैं
पता नहीं कैसे चला जा रहा था पहाड़ियों की ओर
मुझे तो पता भी हीं था कि मैं भटक गया हूँ...
वे ब्रह्म नारायण थे मेरे पिता के बाल सखा
जिन्होंने मुझे देखा गलत दिशा में जाते
और ले आए वापस।

फिर मैं खो गया था मेले की अपार भीड़ में
बैठा था भूले – भटके शिविर में
नाम भी नहीं बता पा रहा था किसी को
कि मेरे गाँव की भगतिन ने देख लिया मुझे
झपट लिया मुझे उस खेमे में आकर
ले आई मां के टेंट में
जो घंटे भर से खोज रही ती मुझे जहाँ-तहाँ बिललाती।।

थोड़ा और बड़ा हुआ तो
खो गया एलनगंज में
अपने चाचा के डेरे पर आया था
बीमार ताई को देखने आई थी माँ
तो आ गया था मैं भी...
थक गया था खोज कर पर
नहीं मिल रही थी चाचा के घर की गली
वह तो सामने के फ्लैट में रहने वाली एक भली सी लड़की ने देखा
मुझे चौराहे की भीड़ में सुबकते
ले आई घर किसी को बताया भी नहीं कि
मैं खो गया था....नाम था उसका सरिता
तब वह बारहवीं में पढ़ती थी
किसी गणित के अध्यापक की बेटी थी।

एक बार तो डूब ही रहा था गाँव के सायफन में
खेतों को सींचने के लिए पानी की नाली का चमकता हुआ पानी
जाता था घर के बहुत पास से
सायफन पड़ता था घर के एकदम पिछवारे
उसी के तल में चमक रही थी एक दुअन्नी
जिसे पाने के लिए मैं उतर गया पानी में
दुअन्नी लेकर मैं डूब रहा था कि आ गए नन्हकू भगत
उन्होंने देख लिया मुझे डूबते
और निकाल लिया बाहर...
बच गया एक बार फिर
बचा लिया गया ऐसे ही कितनी बार खोने से डूबने से।

भाइयों और बहनों
पिछले कई सालों से खो गया हूँ मैं कहीं
डूब रहा हूँ कहीं
नहीं आ पा रहे मुझ तक ब्रह्म नारायाण
भगतिन का कुछ पता नहीं चल रहा
सरिता भी पता नहीं कहाँ है
कहाँ हैं भगत
मैं कह नहीं सकता।
वे बड़े मामूली लोग थे..
उनके तो नाम भी अजीब हिंदी टाइप के थे ।