Saturday, January 31, 2009

मिलना केहिं बिधि होय

मिलने न मिलने के बीच
परसों मित्र अभय से बात हुई। मिलने की हुड़क जगी। लेकिन मिल नहीं पाया। हम अक्सर चाहते हुए भी मित्रों से नहीं मिल पाते। जिनसे मिलना अच्छा लगता है उनसे मुलाकात नहीं हो पाती । अभय के घर से बस हजार मीटर के फासले पर मैं था लेकिन मिलाप नहीं कर पाया । ऐसे ही ठुमरी वाले विमल भाई तो कुल ८ सौ मीटर की दूरी पर डेरा जमाते हैं लेकिन मुलाकात नहीं होती। यूनुस भाई भी कुल हजार पंद्रह सौ मीटर की दूरी पर विराजते हैं लेकिन ले दे कर उनसे चार छ मुलाकाते ही निकलती हैं। इसके उलट जिनको देखने से दुख उपजता है ऐसे कितनों से रोज बार बार मिलना पड़ता है। न चाहते हुए भी दाँत चियारना पड़ता है। हें हें करना पड़ता है। मन लात मारने का होता है और हम पाँव दाबते रहते हैं।

मुझे लगता है मिलना तो सभी चाहते हैं ...लेकिन मौका नहीं मिल पाता होगा... जैसे परसों मुझे नहीं मिला । परसों शाम से घर पर बेटी भानी लगातार मेरे लिए रो रही थी। पापा.......आ जाओ। पापा। और मैं उससे कहता जा रहा था कि आ रहा हूँ बेटा। बस चल रहा हूँ पहुँच रहा हूँ । लेकिन असल में मैं उससे झूठ बोल रहा था। मैं कहीं, एक साहित्यिक या कहें कि वैचारिक बतकचरे में उलझा था। अवध से कुछ वाम पंथी मित्र आए थे । मैं केवल उनसे मिलने के लिए ही भागा हुआ अंधेरी तक गया था।

किसी हिसाबी आदमी से आप 10 साल बाद मिलें और मिलते ही गलती से खुद ही पुरानी दफ्न बातों को छेड़ बैठें तो क्या होगा। आप समझ सकते हैं । हम कुछ दफ्न बातों में उलझ कर रह गए थे और बात किसी किनारे पहुँच नहीं रही थी। वे अपने स्थान पर सही थे क्यों कि वे शुद्धतावादी थे लेकिन शायद मैं नहीं था क्यों कि मैं मज्झिम निकाय पर चलने की बात कर रहा था।

बहस के केंद्र में शहीद भगत सिंह थे। उनके छोटे भाई कुलतार सिंह थे। क्रांतिकारियों से सूना होता जा रहा देश था। भुखमरी थी। बेकारी थी । अवसरवाद था। अवसाद था। क्रांति की खोज में देशाटन पर निकले मित्र थे । उनकी शुद्धता से भरी बातें थीं। इसी सब सिलसिले में अभय से मिलने का मामला रह गया।
हाइवे से गुजरते हुए बनराई आरे कॉलोनी का वह मित्र इलाका बगल में छूटता गया । वो सूना सा रास्ता जिससे होकर पहले मैं गोरेगाँव स्टेशन से पैदल अभय के घर आया-जाया करता था। कुल 10 मिनट लगते थे खरामा-खरामा। लेकिन परसों वह 10 मिनट नहीं थे। क्रांति केन्द्रित बहस और भानी का विलाप बीच में दीवार बन गया ।
मैंने अभय से कहा कि मैं आता हूँ गुरू....कल आता हूँ । उसने भी कहा कि ठीक है, बात होती है। कल कल बीत गया है। न मैं गया न बात ही हुई। मैं दिन में कुछ चिरकुटो से बतियाता हुआ सोच रहा था कि हम अक्सर कितना कम मिल पाते अपने उन मित्रों से जिनसे हम बहुत मिलना चाहते हैं। देखते हैं अपने क्षेत्र संन्यासी मित्र से कब और केहिं बिधि मिल पाता हूँ।

Saturday, January 10, 2009

जितेन्द्र की अलग आवाज

आप भी सुने टांड की आवाज
किसी ने कहा है कि कवि को लुभा सकती है तारों की चमक और वह मोहित हो सकता है जंगल में हिलती एक पत्ती से भी। कवि के लिए हर आवाज मायने रखती है। जीतेन्द्र चौहान ऐसे ही कवि हैं जो हर बड़ी छोटी आवाजों को सुनते हैं और अपने तरीके से उसे दर्ज करते हैं। इंदौर, नई दुनिया में काम कर रहे जितेन्द्र के अब तक दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पहला संग्रह पुरखों के बीच 1998 में आया था और उसके ठीक 10 साल बाद आया है नया संग्रह टांड से आवाज। हिंदी कविता के जोड़ भाग से अलग रचनारत इस सहज सरल कवि को अभी बहुत कुछ लिखना है। हिंदी को समृद्ध करना है। कवि बहादुर पटेल अपने ब्लॉग मैं संतूर नहीं बजाता में उनकी एक कविता प्रकाशित कर चुके हैं। यहाँ आप पढ़ें उसके दोनों संग्रहों से एक-एक कविता।

तुम्हारे जाने के बाद

तुम्हारे जाने के बाद
घर ही उठकर
चला गया है
तुम्हारे साथ

मेरे पास तो
सिर्फ
दीवारें बची हैं (पुरखों के बीच)

प्रेम की बूँदों से

हम तो
बाँस के जंगल में
लगी आग की
सुलगती राख हैं
हम तो
शादी के इंतजार में
जिनकी आँखों के
सपने सूख गए
छोड़ गए
आँखों के नीचे
अपने स्याह निशान
ऐसी मंगली बहनों के भाई हैं
हम तो प्रेम बावड़ी से निकले
बादल हैं भरे हुए
जहाँ भी गए
तर ब तर कर दिया
प्रेम की बूँदों से । ( टांड से आवाज)

आप पढ़े इस संग्रह की सारी कविताएँ और फिर बताएँ कि कैसी है टांड की आवाज ।

Friday, January 2, 2009

भूलना चाहता हूँ

कुछ भी भूलता क्यों नहीं

बचपन से सुनता आ रहा हूँ कि बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि ले। लेकिन न जाने कितनी बातें, कितनी घटनाएँ हैं हैं जो चाह कर भी नहीं भुला पाया हूँ अब तक। पढ़ी हुई सैकड़ों कहानियाँ, कविताएँ, देखे हुए हजारों चेहरे मिटते नहीं दिमाग से।

गाँव का पुराना मकान । उसके घर । उसमें बिताई 17-18 साल की रातें और दिन और दोपहरें जस की तस बसी हैं जेहन में । घर के पास एक गोशाला थी । उसमें कई गाय और भैंसें होती थी। वह गोशाला नहीं है लेकिन उसकी एक एक छवि है मन में। उस गोशाले के साथ उसमें भँधे पशुओं के लाम और ऱूप तक याद हैं। एक भैंस थी जो दूध नहीं छोड़ती थी। हम सब ने उसका नाम मन चोट्टिन रखा था। कल एक वैसे ही भैंस दिखी यहाँ। मुझे लगा कि यह उसके ही कुल गोत्र की होगी। वह मेरे घर चंड़ी गठ से आई थी। पता किया तो यह भैंस भी चंड़ी गठ से आई थी। उसके मालिक ने बताया कि यह दूध ही नहीं छोड़ती। इलाज चल रहा है। मैंने मन ही मन कहा कि यह और मेरी मन चोट्टिन सच में एक ही वंश के होंगे।
क्या कोई उपाय है कि सब कुछ या जितना कुछ उड़ाना चाहो एक साथ एक झटके में उड़ा दो। बाकी काम का बचा लो। क्यों कि दिमग में उमड़-घुमड़ मची रहती है। अब तक जो कुछ भरा है उसे कैसे भूलें। कोई उपाय हो तो बताएँ।