
साथ-साथ हैं
तीन चार दिन हुए, मित्र अभय की फिल्म सरपत देखी। फिल्म का ऐसा प्रभाव रहा कि घर आकर एक कविता लिखी। मैंने ऐसी बहुत कम कविताएं लिखी हैं जो कि किसी रचना से प्रभावित हो या प्रेरित हो। लेकिन सरपत ने तो मन को चीर दिया। फिल्म देखने के बाद मैं वहाँ बहुत देर तक कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं था। एक उछाह, एक जलन एक लगाव की भावना से भर गया था। आज उस कविता को ब्लॉग पर चढ़ाने जा रहा था कि पत्नी आभा ने कहा कि इस कविता पर थोड़ा और काम करो। सो आज स
रपत पर लिखी मेरी कविता रुक गई। आप सब क्षमा करें।उसके बाद हम दोनों बाकी के ब्लॉग पढ़ने लगे। साथ-साथ । घर में अक्सर ऐसा ही होता है कि एक पढ़ रहा होता है या कुछ छाप रहा होता है कि दूसरा आ धमकता है कि क्या है जो पढ़ा जा रहा है, क्या चढ़ा रही हो, रहे हो, क्या टिप्पणी कर रहे हो, कर रही हो जैसे प्रश्न शुरू हो जाते हैं। और बिना माँगे सलाह देने और रास्ता दिखाने का लोकतांत्रिक अधिकार लागू किया जाने लगता है।
किसे टीप दें। किसे पसंद करें। किसे रहने दें सब पर किच-किच होती है किंतु ब्लॉग-पढ़ाई साथ में जारी रहती है। हम दोनों की पसंद नापसंद एकदम जुदा है। जिसे जाहिर करने की यहाँ कोई जरूरत नहीं है। किटकिटाते खिलखिलाते हम कई-कई पोस्ट साथ-साथ पढ़ते हैं। आप इसे दाम्पत्य सुख माने या कुछ और लेकिन होता कुछ ऐसा ही है। क्या करें।




