Wednesday, October 31, 2007

महान शायर चिरकीन की राष्ट्रीय चेतना

क्या रखा है दोनों जहाँ में

उर्फ सब चिरका ही चिरका है

आज की अजदकी पोस्ट और उस पर ज्ञान भाई की धुरंधर टीप नें मुझे बेजोड़ शायर चिरकीन की याद दिला दी। इसलिए आज की विनय पत्रिका में फैल रही हर बू बास के लिए अजदक भाई ही एक मात्र जिम्मेदार हैं। मैं तो सिर्फ अजदक भाई की आज की पोस्ट रूपी टट्टी की आड़ से चिरकीन की शायरी बिखेर रहा हूँ। यानी चिरका कर रहा हूँ या गू कर रहा हूँ।

लोग बताते हैं कि चिरकीन साहब अलीगढ़ में रहते थे और हर मुद्दे को चिरके से जोड़ने की महारत रखते थे। विद्वानों का मत है कि चिरकीन का मूल अर्थ है बिखरी हुई टट्टी। आप समझदार हैं टट्टी का अर्थ झोपड़े की टाटी नहीं करेंगे ऐसा मुझे भरोसा है। टट्टी मतलब हाजत या कहें कि गू या हगा। चिरकीन की काव्य कला अद्भुत थी। बड़े-बड़े शायर उनसे पनाह माँगते थे। अच्छे-अच्छे मुशायरों में चिरकीन ने चिरका बिखेर दिया था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि चिरकीन प्रात काल में स्मरणीय हैं। वंदनीय है। आप सब के पास अगर इस महान शायर के युग इत्यादि के बारे में कोई ठोस जानकारी हो तो दें। चिरकीन पर रोशनी डाल कर चिरका साहित्य को बढ़ावा दें। साहित्य में फैली एक ही तरह की सड़ान्ध या बदबू को बहुबू से भरें। कभी इलाहाबादी मित्र अली अहमद फातमी ने बताया था कि चिरकीन का दीवान भी अलीगढ़ से उजागर हुआ था।

चिरकीन का साहित्य सदैव चिरके पर ही केन्द्रित रहा। चिरका ही उनका आराध्य था । इसीलिए
जितने भी स्वरूप हो इस मल या गू के या जितने भी रंग हों सबको चिरकीन ने अपनी शायरी में जगह दिया है। मुझे कुछ ही शेर याद आ रहे है जो आपकी खिदमत में पेश हैं। अगर कुछ इधर उधर हो तो चिरकीन भक्त और अभक्त क्षमा करेंगे।

राष्ट्रीय एकता

चिरकिन चने के खेत में चिरका जगा–जगा
रंगत सबकी एक सी , खुशबू जुदा-जुदा।

स्वागत

बाद मुद्दत के आप का मेरे घर पर आना हुआ
तेज की घुमड़न हुई और धड़ से पाखाना हुआ।

इश्क

वस्ल के वक्त महबूबा जो गू कर दे
सुखा के रख लीजे, मंजन किया कीजे।

श्रद्धा-भक्ति

चिरका परस्त बन तू ए चिरकीन
आखिर क्या रखा है दोनों जहाँ में।

अगर कोई ज्यादती हो गई हो तो सच में माफी दें। या माफ करें...

Tuesday, October 30, 2007

भिखारी ठाकुर से मुलाकात


भिखारी ठाकुर को उनका हक दो

कल बहुत अजीब सपना देखा । मुझे सपने में विदेशिया वाले भिखारी ठाकुर मिले और अपना दुखड़ा लेकर बैठ गए । मैं उनके दुख से द्रवित हुआ और मेरी आँखे भी भर आईं। सपने में मैं दिल्ली में था और वहाँ की एक संस्था में नेरूदा की जन्म शती पर भाषण सुन रहा था। वहीं गेट के बाहर भिखारी ठाकुर से मुलाकात हुई। वे अंदर जाना चाह रहे थे पर कोई उन्हे पैठने नहीं दे रहा था। वहाँ सब थे पर भिखारी ठाकुर के लिए जगह नहीं थी। नेरुदा पर करीब दर्जन भर आलेख पढ़े गए। फिर उनकी ग्रंथावली का लोकार्पण हुआ। लोग गदगद थे। नेरूदा की कविताओं के मद में मस्त।

बाहर निकलते समय भी भिखारी ठाकुर वहीं खड़े दिखे। मैं बच कर निकल जाना चाह रहा था पर वे लपक कर पास आए और पूछा कैसा रहा। नेरूदा पर कैसा बोले लोग। मैं भिखारी की उदारता पर हतप्रभ था। आँ ऊँ...कर के निकल गया।

सपना टूटने पर मुझे याद आया कि पिछले साल भिखारी ठाकुर की जन्म शती थी और मुझे उन पर एक आलेख लिखना था । पर जीवन की लंतरानियों की आड़ में मैं लिख नहीं पाया। हालाकि तैयारी मैंने पूरी कर ली थी। बिहार राष्ट्र भाषा परिषद से भिखारी ठाकुर की ग्रंथावली भी मंगा ली थी और कथाकार संजीव का उपन्यास सूत्रधार भी। कुछ और लेखादि का संकलन भी कर लिया था पर बाद में लिखना टल गया। शायद दो लोग भिखारी पर पत्रिका निकाल रहे थे वही पीछे हट गए।

यहाँ यह बाताना रोचक रहेगा कि भिखारी ठाकुर से मेरा परिचय कथाकार शेखर जोशी जी ने कराया था। जब उन्होंने जाना कि मेरे गाँव का नाम भिखारी राम पुर है तो उन्होंने पूछा था कि यह विदेशिया वाले भिखारी ठाकुर का गाँव तो नहीं.....। उसके बाद मैंने भिखारी ठाकुर पर जगदीश चंद्र माथुर का एक बहुत संजीदा संस्मरण पढ़ा ....फिर तो भिखारी सचमुच में अपने हो गए अपने गाँव वाले.....

रात में फिर सोया तो ठाकुर को लेकर एक और डरावना सपना देखा। भिखारी को लोर्का, मायकोवस्की, लेर्मंतोब, नाजिम हिकमत, ब्रेख्त जैसे कुछ कवियों से गिड़गिड़ाकर अपने बैठने की जगह माँगते पाया। इस बार भी सपने में दिल्ली ही थी। लोग भिखारी की भाषा नहीं समझ रहे थे। वहाँ मैजूद विद्वान लोग भिखारी को सुन रहे थे पर बाद में मिलना...बाद में....ओ दादा.....ओ......बाद में चलो.....हटो....बाद में ...कल दोपहर में लंच के बाद....वो.....टल हट....कह कर लगभग दुरदुरा रहे थे।

पर भिखारी ठाकुर थे कि हिलने का नाम तक नहीं ले रहे थे। कह रहे थे कि जब अंग्रेज ससुरे चले गए तो तुम सब कब तक रहोगे....हमें बेदखल नाही कै सकत। तुम सब दल्लाल हो....संसकिरती के नाम पर हमका आड़े नाहीं कै सकत....हम इहाँ से कतऊँ न जाब....ई हमार दिल्ली हऊ....। तब तक संजीव, ऋषिकेश सुलभ और संजय उपाध्याय और , शत्रुघ्न ठाकुर, तेतरी देवी , धर्मनाथ माझी जैसे सैकड़ों लोग आ गए और भिखारी ठाकुर जिंदाबाद के नारे लगाने लगे....मैं कुछ देर सकते में खड़ा रहा फिर नारा लगानेवालों के साथ हो गया....और जोर-जोर से भिखारी ठाकुर जिंदाबाद का स्वर बुलंद करने लगा....।

सपना फिर टूट गया...पर थोड़ी राहत रही....क्यों कि इस बार भिखारी ठाकुर....वही विदेशिया वाला.....रो नहीं रहा था बल्कि लड़ने को खड़ा था और उसके लोग डटे हुए थे....और बाकी भिखारी के शब्दों में संसकीरत के दल्लाल सब सकते में थे।

सुबह हुई तो सोचा कि विदेशिया की तकलीफ भरी लड़ाई से आप सब को परिचित करा दूँ....
परिचय तो हो गया....भिखारी से विस्तार में मिलना चाहें तो पढ़े कथाकार संजीव का उपन्यास सूत्रधार.....
परिचय के बाद अब पढ़े एक अंश भिखारी विदेशिया नाटक से....
यह हिस्सा प्यारी विलाप का है.....
प्यारी (विलाप)
हाय हाय राजा कैसे कटिहे सारी रतिया
जबले गइले राजा सुधियो ना लिहले, लिखिया ना भेजे पतिया।। हाय हाय..........
हाय दिनवां बितेला सैयां बटिया जोहत तोर, तारा गिनत रतियां।। हाय हाय-----
जब सुधि आवै सैयां तोहरी सुरतिया बिहरत मोर छतिया।। हाय हाय-----
नाथ शरन पिया भइले बेदरदा मनलेना मोर बतिया।। हाय हाय-----

Friday, October 26, 2007

कथाकार सूरज प्रकाश का लिंग


मुंबई का नया कथाकार ब्लॉगर

मुंबई के ब्लॉगाकाश में एक और सूरज प्रकाशित हुआ है या कहें कि उगा है । इस नए ब्लॉगर का नाम है सूरज प्रकाश और उनका ब्लॉग है कथाकार ।सूरज प्रकाश वैसे भी मुंबईवालों को अपने प्रकाश से चकित करते रहे हैं पर यहाँ चौकाने वाली बात है उनका लिंग जिसकी तरफ मेरा ध्यान बनारसी ब्लॉगर भाई अफलातून जी ने खीचा। कथाकार का ब्लॉगीय प्रोफाइल पढ़कर परेशान हो गये अफलातून जी ने मुझसे पूछा कि यह कथाकार सीपीआई एम एल या लिबरेशन से जुड़े हैं क्या। क्योंकि कथाकार का लिंग है माले। मेरी जानकारी में कथाकार सूरज प्रकाश का लिंग भले ही माले हो पर उनका माले की राजनीति और माले गाँव में हुए धमाकों से कोई सीधा या टेढ़ा नाता नहीं है।

इस कथाकार के लिंग निर्धारण में भारतीय वामपंथियों और लेखकों का कोई लेना देना नहीं है। पर यह बात मैं दावे से नहीं कह सकता । माले के कुछ लोगों को जानता मानता हूँ पर उनकी तमाम गतिविधियों का मुझे कुछ पता नहीं रहता।

अफलातून जी की ही तरह मैं भी कथाकार के लिंग को लेकर उलझन में हूँ। पुरुष- स्त्री और तीसरे लिंग के अलावा यह माले लिंग क्या बला है। इस लिंग के बारे में मेरा अज्ञान मुझे तकलीफ दे रहा है। जिनके पास लिंग ज्ञान हो या जो ज्ञान लिंगी हों मुझे और अफलातून जी को बताएँ कि माले लिंग की और तारीफ क्या है।

सूरज प्रकाश एक अच्छे कथाकार हैं। मुंबई से जुड़ी कहानियों का संपादन मुंबई एक के नाम से कर चुके हैं। कभी-कभी कविता लिख कर कवियों को डराते रहते हैं। चार्ली चैपलिन की आत्मकथा का उनका अनुवाद आधार प्रकाशन पंचकूला से प्रकाशित हो चुका है। साहित्य की दुनिया में कुछ कर गुजरने के लिए इस बेचैन और परेशान आत्मा का ब्लॉग जगत में स्वागत है। आप लोग नामी- बेनामी- गुमनामी टिप्पणियों से सूरज को अर्ध्य दें आलोचना करें यह आप पर है।

Thursday, October 25, 2007

मास्को में माँ का नाच


मास्को में माँ का नाच और निराला

मेरी दो कविताओं के बारे में एक सूचना मुझे परसों मिली। यह सूचना मुझे मेरे कवि मित्र श्री अनिल जनविजय ने मास्को से दी। मेल पर बातचीत के दौरान जनविजय जी ने बताया कि मेरी दो कविताएँ वे मास्को विश्वविद्यालय में एमए हिंदी की कक्षाओं में पढ़ाते हैं।
मास्को में माँ का नाच तो पिछले तीन सालों से वे पढ़ाई जा रही है, पर मुझे सूचना तीन दिन पहले मिली है और मैं खुश हूँ। वहाँ पढ़ाई जा रही मेरी दूसरी कविता है इलाहाबाद में निराला। निराला वाली कविता मैं ब्लॉग पर पहले छाप चुका हूँ।

मैं आप सब को यह बाताना चाहूँगा कि श्री अनिल जनविजय खुद एक बहुत अच्छे कवि हैं उनके कई संग्रह प्रकाशित हैं । वे कविता कोश नाम से नेट पर हिंदी कविताओं का एक अलग भंडार भी संजो रहे हैं।

आज मैं आप सब के लिए अपनी कविता माँ का नाच छाप रहा हूँ । आप पढ़ें और अपनी बात रखें।

माँ का नाच

वहाँ कई स्त्रियाँ थीं
जो नाच रहीं थीं गाते हुए

वे एक खेत में नाच रहीं थीं या
आँगन में यह उन्हें भी नहीं पता था
एक मटमैले वितान के नीचे था
चल रहा यह नाच।

कोई पीली साड़ी पहने थी
कोई धानी,
कोई गुलाबी, कोई जोगन सी
सब नाचते हुए मदद कर रहीं थीं
एक दूसरे की
थोड़ी देर नाच कर दूसरी के लिए
हट जाती थीं वे नाचने की जगह से।


कुछ देर बाद बारी आई माँ के नाचने की
उसने बहुत सधे ढ़ंग से
शुरू किया नाचना
गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से
पुराना गीत।

माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी
और जो नाच चुकीं थीं वे भी अचंभित
मन ही मन नाचती रहीं माँ के साथ।

मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाचती रही माँ
पैरों में बिवाइयाँ थीं गहरे तक फटीं
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर,
पर जैसे भँवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है वैसे
नाचती रही माँ।

आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में।

अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि
घूमती जा रही थी,
फिर गाने की जगह उठा
विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान


वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे थे उसकी नाच की धमक से
सब में समाया हुआ था उसका बिलखता हुआ गाना।


रचना तिथि - 1 अप्रैल १९९९
नोट- ऊपर मेरी माँ की एक फोटो

Tuesday, October 23, 2007

साल भर बाद सूर्य को देखा


सूरज के पहले उगना

आप लोग यकीन नहीं करेंगे आज लगभग साल भर बाद उगता हुआ सूरज दिखा। पहले जब गाँव में रहता था या इलाहाबाद में लगभग हर दिन का सूर्योदय देख ही लेता था। तब रात दो या तीन बजे तक जागने की चर्या नहीं थी। यहाँ मुंबई में सुबह जग जाने के बाद भी अगर घर से बाहर न निकलें तो सूरज का दर्शन दुर्लभ है। आज सूरज दिखा तो बड़ा अच्छा लगा। वह उतना ही चमकदार और ऐश्वर्यशाली था जितना मेरे बचपन में या किशोरावस्था में हुआ करता था। उसे देर तक देखता रहा।
क्या रहा निहारता रहा। उसे पूर्ववत पाकर अच्छा लगा, पर बहुत कुछ याद आया।

बचपन में मैं सूर्य का उगना अपने कचौड़ी नामा घर की छत से देखा करता था। सुबह मेरे बाबा सूर्य को जल चढ़ाते फिर कक्का फिर कुछ और लोग। हम बच्चे उन सबको ऐसा करते देखते। बाबा पीतल के बड़े से लोटे में कुछ कनेल के फूल डाल लेते या गेंदे के और कोई मंत्र बुदबुदाते हुए अपने स्थान पर घूमते। वे एक ग्रह की तरह सूर्य की धरती पर रह कर परिक्रमा करते थे। वे हम लोगों के लिए एक साक्षात ग्रह थे। हमें उनकी परिक्रमा एक खास लय दिखती। सूर्य पूजन के बाद बाबा जल की कुछ बूँदे अपनी गोखुरी शिखा पर भी छिड़कते।

आज सुबह सूर्य को उगता देख कर बाबा की बड़ी याद आई। वे बड़े पराक्रमी पुरुष थे। उन्होंने अपने कुल को एक बड़ी चमक दी थी मान दिलाया था इलाके में। वे एक धाकड़ और बेजोड़ वैद्य थे । वैद्यक पर उनकी एक पोथी बनारस के प्रकाशक ठाकुर प्रसाद एण्ड सन्स बुकसेलर से छपी थी। एक तरह से वे मेरे इलाके के पहले कुछ लेखकों में भी माने जा सकते थे।

सूर्योदय के बीच में बाबा का यह अवांतर प्रसंग छोड़ कर मैं फिर सूर्य पर लौटता हूँ। जब हम छ: सात साल के हुए सूर्योदय के घंटों पहले बिस्तर छोड़ने लगे थे । मेरे एक ताऊजी जो एजी ऑफिस इलाहाबाद में चीफ एकाउंटेंट वगैरह थे उन्हें महुआ बीनने में बड़ा मजा आता। रास्ता चलने वालों से महुए के रस भरे फूल टूट जाते थे । तो ताऊजी हम सब बाल बृंदों को लेकर भोर में महुआरी बारी पहुँच जाते । सबसे पहले जिन पेड़ों के नीचे से राह गई होती थी हम उनके नीचे महुआ बीन कर एक पतली राह बना देते । डगर चलू लोगों के आने जाने के लिए। मुझे याद है कि दोनो हाथों से महुए के फूलों को बिना चोट लगाए हम दनादन महुआ बीनते । घंटे भर में महुए के ढेर लग जाते। तब अक्सर ऐसा होता कि जब हम महुआ बीन कर घर लौट रहे होते थे पीछे से सूर्योदय होता। ताऊजी हम सब से कहते कि हमेशा सूरज से पहले उगना चाहिए । और हम खुश होते कि लो आज भी सूर्य देव पिछड़ गए। हम अग्गी रहे। ऐसी कई बातों को आज के सूर्योदय ने याद दिला दिया।

आज न बाबा है न ताऊजी पर महुए के फूल तो गिरते ही होंगे। बाबा न सही सूर्य को कोई न कोई तो अर्ध्य देता ही होगा। बाबा के लोटे से जलधार के साथ घरती की ओर गिरते वे फूल बड़े लुभावने होते थे। महुए के पेड़ से धरती की ओर गिरता हुआ हर फूल बड़ा सलोना होता था। एक दम निर्मल, रसभरा। दूर-दूर तक महुए की मदमाती सुगंध छाई होती। महुए को बचाने के लिए ताऊजी न सही वहाँ जो लोग होंगे महुए को कुचलने बचाते तो होंगे । अगर रस पाना है तो किसी भी चीज को कुचल जाने से नष्ट हो जाने से बचाना ही होगा।

महुए के फूल बीनने पर बच्चन जी की एक कविता है । उसी अंचल और भूमि की उपज है वह कविता । बच्चन जी की जन्म शती पर उस कविता को छापना चाह रहा था पर संकलन ही नहीं मिल रहा है। यह कविता शायद त्रिभंगिमा में थी। गीत की जो पंक्तियाँ याद आ रही हैं वो नाकाफी है। शुरुआती पंक्तियाँ हैं -
लइके मुड़वा पर डलइया महुआ बीनई जाब।
क्या करूँ....उसकी जगह पर वह गीत पढ़ें जो मुझे बेहद प्रिय है

जो बीत गई

जो बीत गई सो बात गई !
जीवन में एक सितारा था,
माना, वह बेहद प्यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया;
अम्बर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गये फिर कहाँ मिले,
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मानाता है।
जो बीत गई सो बात गई !

यह गीत और है पर अब बहुत हुआ। सूर्योदय से महुआ, महुआ से बाबा फिर ताऊजी फिर बच्चन जी । धागा बढ़ता ही जा रहा है....बस करता हूँ। जो बीत गई ओ बात गई।

Monday, October 22, 2007

यह दिल्ली किसकी है ?














भारत हिंदुस्तान या इंडिया जो भी नाम हो इस देश का इसके इतिहास ही नहीं वर्तमान में भी दिल्ली की खास भूमिका रही है जिससे आप सब परिचित हैं। दिल्ली को लेकर हर दौर में बहुत सारी कविताएँ लिखी गई हैं। याद करें तो सबसे पहले दिनकर जी की कविता याद आती है। मैंने १९८७ में अवधी में एक कविता दिल्ली पर लिखी थी। पर लगता है कि दिल्ली की महिमा के लिए कई सारे संग्रह लिखने पड़ेंगे। पढ़े दिल्ली का गुनगान करती इस कविता को।

किसकी दिल्ली !

पाँच साल का बच्चा
गुमसुम मलता है बासन
यह कैसी किसकी दिल्ली
और कैसा किसका शासन।

ये सुंदर फूल पखेरू
जिनके कोटे का राशन
खाकर फूली है दिल्ली
मुसकाती देती भाषन।

यह कैसा दिवस, अंधेरा
छाया चौतरफा, जिसमें
बच्चे की छती पर
दिल्ली मारे है आसन।

रचनाकाल १६ मई २००१, मुंबई

Friday, October 19, 2007

आठ दिनों से लगातार जल रहा है एक दीया

भानी को क्या समझाऊँगा

पिछले आठ दिनों से रसोईं घर एक अस्थाई मंदिर में बदल गया है और मैं अपने घर में अल्पसंख्यक हो गया हूँ। नवरात्रि के पहले दिन से आज तक रसोईं की दीवार में लकड़ी के छोटे से मंदिर के आगे जमीन पर देवी का कलश रखा है। उस कलश के आगे एक दीया लगातार जल रहा है। मैं सबेरे जब सो रहा होता हूँ तभी मेरी पत्नी पूजा कर चुकी होती हैं। इस पूजा में मेरी बेटी भानी और बेटा मानस उनका साथ देते हैं। भानी प्रसाद बनाने में और आरती गाने में और मानस शंख फूँकने में और घंटी बजाने में। भानी आरती की एक ही पंक्ति काफी ऊँचे और बिखरे सुरों में गाती है—

जय अंबे गोरी मैया जय अंबे गोरी ।

फिर आगे की पंक्तियों में चुप रह कर टेक जय अंबे गौरी के आने का इंतजार करती है और टेक की पंक्ति के आते ही जोर से जय अंबे गोरी गा पड़ती हैं। कभी – कभी हवन कुंड में कपूर की गोलियाँ डाल कर वह अपनी भूमिका साबित करती रहती है। एकाध दिन तो दिन में वह दो-तीन बार आरती करने या प्रसाद बनाने के लिए बाल-हठ करती रही । बाद में उसकी जिद पर दो तीन बार पूजा की भी गई। उसके लिए पूजा मतलब प्रसाद का बनाना हो गया है। एक काम वह और करती है जो काफी जरूरी है दीये की निगरानी का । वह बार-बार रसोईं या कहें कि मंदिर में झाँक कर देखती है और अपनी मां को रिपोर्ट करती है कि दीया जल रहा है।

मानस को पूजा की ट्रेनिंग उनकी माता जी ने दी है। उसे पूजा करते और आरती बुदबुदाते देख कर मुझे मेरा बचपन याद आता है। मैंने अपने पुरखों के बनवाए मंदिर में लगातार बारह चौदह साल बाकायदा पुजारी की तरह पूजा किया है। मंदिर घर से करीब किलोमीटर भर की दूरी पर था और मैं सुबह कौपीन पहन कर अपने उदास से माथे पर तिलक लगाए पूजा करने जाता। सुबह की पूजा में तो कोई दिक्कत नहीं आती लेकिन शाम की आरती के समय मंदिर में घुसते डर लगता। मंदिर सूने में था और हर तरफ से अंधाकार में घिरा रहता था। फिर भी दीया जलाने जाना होता था। मुझे नहीं याद कि पानी हो या आँधी कभी मैंने दीया न जलाया हो। यानी मेरे गाँव का मंदिर और उसके देवता सब मेरे जिम्मे हुआ करते थे। जब मेरे इलाहाबाद पढ़ने जाने की बात आई तो घर वालों के सामने मंदिर के पुजारी की समस्या सबसे प्रबल थी।

हालाकि पिछले 19-20 सालों से एक नास्तिक जीवन जी रहा हूँ....पर घर की रसोईं में लगातार आठ दिनों से जल रहे दीये को देख कर अजीब लग रहा है। कल तो भानी की जिद पर या कहें कि मानस की गैर हाजिरी में शंख भी बजाना पड़ा। मैं यह बताना चाहूँगा कि लगभग एक सवा मिनट तक आराम से अविराम शंख बजा लेता हूँ। मेरे एक मित्र अरविंद शंकर ने मुझे बहुत अच्छा शंख उपहार में दिया है।

मेरी उलझन दूसरी है। कल नवरात्रि की आखिरी दिन है। पूजा के बाद कलश इत्यादि को प्रवाहित करना होगा। मानस तो समझ गया है भानी को कैसे समझाऊँगा कि लगातार जल रहा दिया कल रात से या सुबह से ही बुझ जाएगा। हालाकि दिन में कई बार प्रसाद बनाना और आरती करना कम हो जाएगा । और जय अंबे गोरी भी शायद सुनने को कम मिले....।

नोट- उपाय हीन होने से घर के दीये की कोई फोटो नहीं डाल पा रहा हूँ।

Wednesday, October 17, 2007

मंगलेश डबराल की दो कविताएँ

हिंदी के महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई 1948 को उत्तरांचल के काफलपानी गाँव, टिहरी गढ़वाल में हुआ । मंगलेश जी साठवें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं। पुराना वक्त होता तो हम उनकी साठवीं सालगिरह का समारोह करते। पर अब यह सब कहाँ होता है। वे मेरे पसंद के कुछ एक कवियों में हैं। खास कर उनकी कविता संगतकार जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं। उनकी कुछ प्रमुखकृतियाँ
पहाड़ पर लालटेन (1981); घर का रास्ता (1988); हम जो देखते हैं (1995)
उन्हें हिंदी के की बड़े सम्मान भी प्राप्त हैं जिनमें ओमप्रकाश स्मृति सम्मान (1982); श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार (1989) और "हम जो देखते हैं" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार(२०००)
शमशेर जी का एक कथन है बात बोलेगी हम नहीं। तो यहाँ जो कुछ कहना है मंगलेश जी की कविता अपनी गवाही देगी। मैं कविताओं पर कुछ नहीं कह रहा हूँ। पढ़ें और अपने विचार व्यक्त करें।

दादा की तस्वीर

दादा को तस्वीरें खिंचवाने का शौक नहीं था
या उन्हें समय नहीं मिला
उनकी सिर्फ़ एक तस्वीर गंदी पुरानी दीवार पर टंगी है
वे शांत और गम्भीर बैठे हैं
पानी से भरे हुए बादल की तरह
दादा के बारे में इतना ही मालूम है
कि वे माँगनेवालों को भीख देते थे
नींद में बेचैनी से करवट बदलते थे
और सुबह उठकर
बिस्तर की सलवटें ठीक करते थे
मैं तब बहुत छोटा था
मैंने कभी उनका गुस्सा नहीं देखा
उनका मामूलीपन नहीं देखा
तस्वीरें किसी मनुष्य की लाचारी नहीं बतलातीं
माँ कहती है जब हम
रात के विचित्र पशुओं से घिरे सो रहे होते हैं
दादा इस तस्वीर में जागते रहते हैं
मैं अपने दादा जितना लम्बा नहीं हुआ
शान्त और गम्भीर नहीं हुआ
पर मुझमें कुछ है उनसे मिलता जुलता
वैसा ही क्रोध वैसा ही मामूलीपन
मैं भी सर झुकाकर चलता हूँ
जीता हूँ अपने को तस्वीर के एक खाली फ़्रेम में
बैठे देखता हुआ

(1990)

संगतकार


मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थाई को सँभाले रहता है
जैसा समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

(रचनाकाल : 1995)

Tuesday, October 16, 2007

मानस, अभय तिवारी और दूधनाथ सिंह जी यानी.....




तीन इलाहाबादियों का जन्म दिन

आज तीन इलाहाबादियों का जन्म दिन है। इनमें एक मेरा बेटा मानस है दूसरे मेरे मित्र अभय तिवारी हैं और तीसरे हैं मेरे गुरु दूध नाथ सिंह जी । और भी लाखों लोग होंगे जिनका जन्म दिन 17 अक्टूबर को पड़ता होगा पर मैं तो इन्ही तीन के जन्म दिन को जानता हूँ। पर मैं उन सब को जन्म दिन की बधाई देता हूँ जो आज के दिन पैदा हुए हैं।

इन तीनों में जन्मना इलाहाबादी सिर्फ मानस ही हैं । अभय जन्मना कानपुरी हैं तो दूधनाथ जी का जन्म बलिया में हुआ है। लेकिन अभय के जीवन का एक महत्वपूर्ण समय इलाहाबाद में बीता है तो दूधनाथ जी की कर्मभूमि इलाहाबाद ही है। वे आज भी वहीं संगम के करीब झूँसी में रह कर साहित्य साधना कर रहे हैं। कुल मिला कर ये तीनों इलाहाबादी हैं। और मैं दावे से कह सकता हूँ कि आज तीन इलाहाबादियों का जन्म दिन है।

दूधनाथ जी मेरे साहित्यिक अभिभावक के साथ ही मेरे अध्यापक और शोधगुरु भी रहे हैं। उनसे लेखन की तमाम बारीकियाँ मैंने सीखीं । एक कविता या कहानी पर कैसे काम किया जाए यह मैंने गहराई से दूधनाथ जी से ही सीखा। हालाकि रचना की यह प्रक्रिया मुझे स्वर्गीय उपेन्द्रनाथ अश्क जी समझा चुके थे और उन्होंने ही मुझे दूधनाथ जी के पास भेजा था। पर 1986 से 2000 तक लगातार दूधनाथ जी का अटूट स्नेह देश दुनिया में मेरी शक्ति हुआ करता था। मेरे पास लगभग पचास-साठ पृष्ठ मेरी उन कविताओं के हैं जिन पर दूधनाथ जी के हाथों किया सुधार और बदलाव आज भी सुरक्षित है। वे पृष्ठ मेरी थाती हैं। मैं आज दूधनाथ जी को उनके इकहत्तरवे जन्मदिन पर हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ।

यदि दूधनाथ जी का स्नेह इलाहाबाद में मेरी शक्ति था तो मुंबई में अभय तिवारी की मित्रता मेरी ताकत है। हम ऐसे मित्र नहीं हैं कि रोज मिलें या रोज बात ही करें। पर मैं हर मौके पर निर्मल मना अभय की मुफ्त सलाह ले ही लेता हूँ और वे भी फिलहाल ना तो नहीं ही कह पाते हैं....इस शहर में मित्र की यही पहचान है कि वह आपको कम से कम सुन तो ले। मैं उन्हें भी जन्म दिन की मंगल कामनाएँ देता हूँ।

मानस मेरा बेटा है। अभी जीवन की यात्रा शुरू ही की है । चलने से अधिक वह अचकचा कर इस संसार को देख सुन रहा है। बार-बार राह जानने के लिए इधर-उधर ताक रहा है। मैं आज उसे भी जन्म दिन पर हजारों आशीष देता हूँ।
और आप सब से कहता हूँ कि इन तीन इलाहाबादियों को बधाई दें मंगल कामनाएँ दें आशीष दें......।
नोट- ऊपर के पहले चित्र में सफेद कुर्ते में खैनी मलते दूधनाथ जी ठीक उनके बाएँ चेक की कमीज पहने खड़े हैं अरुण कमल और दाहिने चेक की कमीज में अनिल कुमार सिंह।साथ में कई और इलाहाबादी कवि लेखक ।
दूसरे चित्र में अभय तिवारी और मानस पता नहीं क्या देख रहे हैं....।

Sunday, October 14, 2007

बनारस के गुंडा शायर तेग अली का बदमाश दर्पण




असल बनारसी शायर

हिंदी में आज कोई गुंडा कवि नहीं है। जिसे देखिए रिरियाता सा घूम रहा है। पर कभी बनारस में ऐसे शायर थे जो बाकायदा गुंडे थे। बनारस की मिट्टी का असल रंग अगर कहीं निखर कर आया है तो वह तेग अली के बदमाश दर्पण में। भारतेंदु मंडल के इस बेजोड़ गुंडा शायर के लेखन का केवल यही बदमाश दर्पण की एक मात्र उपलब्ध पोथी है।
हिंदी के युवा कवियों को मैं इस शायर से प्रेरणा लेने की अपील कर रहा हूँ।

तेग अली वाकई गुंडा थे। उनका पेशा ही गुंडई था। अगर आपको प्रसाद जी की कहानी गुंड़ा के नायक नन्हकू सिंह की याद हो तो आप आसानी से तेग अली को समझ सकेंगे। गुंडों की परम्परा में तेग अली आखिरी बाँके थे। यह परम्परा उन्नीसवीं सदी के अंत तक कायम रही। गुंडई के साधनों से बिछुआ और लाठी बरछे से लैस तेग अली जब कलम पकड़ते थे तो वहाँ भी करामात दिखाते थे। तभी तो उनका स्थान भारतेंदु मंडल में पक्का था।
तेग अली बनारस का जन्म बनारसमें ही हुआ था और वे शहर के उत्तरी भाग में मुहल्ला तेलियानाला मुत्तसिल भदाऊँ में रहते थे। वह मन मिजाज से पूरे बनारसी थे। उन्होंने बदमाश दर्पण को काशिका भाषा में रचा यानी बनारस की स्थानीय जबान में।
तेग अली तबीयत से शौकीन थे। तेल फुलेल और इत्र गजरा के साथ ही रसना रसायन के भी रसिक थे। आप उनके साहित्य में बनारस का असल माल पाएँगे। असल रूप रंग।

कुछ बदमाश दर्पण के बारे में

बाबू राम कृष्ण वर्मा ने 1895 में तेग अली की 23 गजलों का दीवान बदमाश-दर्पण नाम से प्रकाशित कराया था। बाद में लगभग 60 साल बाद खुदा की राह के संपादक पं. पुरुषोत्तम लाल दवे ऋषि ने कोई संस्करण छापा । फिर संवत् 2010 में बहती गंगा के रचनाकार रुद्र काशिकेय ने ज्ञानमंडल से बदमाश दर्पण को प्रकाशित कराया जो सालों से अनुपलब्ध है। खुशी की बात है कि बदमाश – दर्पण को बनारस के विश्वविद्यालय प्रकाशन ने फिर से 2002 में छाप दिया है। इसबार इसे संपादित किया है नारायण दास जी ने। कम लोगों को पता है कि नारायण दास जी जगन्नाथ दास रत्नाकर के पौत्र हैं और विद्या व्यसनी हैं।

आप के लिए उसी ऐतिहासिक ग्रंथ की छठवीं गजल हाजिर है। इसका भावानुवाद भी नारायण दास जी का ही किया है।

एक गजल


सुनत बाटी


केहू से बाट रजा तूं सटल सुनत बाटी।
ई काम करत नाही नीक हम कहत बाटी।।1।।

सहर में, बाग में, ऊसर में, बन में धरती पर।
तूँ देखले हौअ बवंडर मतिन् फिरत बाटी।।2।।

न कौनो काम करीला न नौकरी बा कहूँ।
बइठ के धूर क रसरी रजा बटत बाटी।।3।।

कहै लै फूल के गजरा त सब केहू हमके।
पै तोहरे आँखी में कांचा मतिन गड़त बाटी।।4।।

नाहीं मुए में लगउल रजी तूं कुछ धोखा।
पै आँख मून के देखीला तब जिअत बाटी।।5।.

न घर तू आव ल हमरे न त बोलाव ल।
ए राजा रामधै तोहसे बहुत छकत बाटी।।6।.

गजल का भाव

मेरे सुनने में आ रहा है कि आजकल तुम किसी और से जुड़े हो लेकिन मैं तुमसे कह देता हूँ कि तुम यह काम अच्छा नहीं कर रहे हो।।1।।

मैं तुम्हारे लिए नगर में, वन उपवन में उजाड़ खंड में, यानी पूरी पृथ्वी पर मैं बवंडर यानी चक्रवात की तरह घूम रहा हूँ, यह तो तुमने देख ही लिया है।।2।।

राजा न कहीं नौकरी करता हूँ, न मेरा कोई रोजगार धंधा है, बस बैठे-बैठे धूल की रस्सी बना कर जीवन यापन कर रहा हूँ।।3।।

सब लोग तो मुझे फूलों का हार कहते हैं लेकिन मैं तुम्हारी आँखों में काँटो की तरह गड़ता रहता हूँ।।4।।

मुझको मार डालने में राजा तुमने कोई कसर नहीं छोड़ी है मगर आँख मूँद कर तुम्हारी सूरत का तसव्वुर कर लेता हूँ, इसीलिए अब तक जिंदा हूँ।।5।।

राम कसम ए राजा मैं तुमसे बहुत परेशान हो गया हूँ, कि न तुम कभी मेरे घर आते हो न कभी मुझे अपने घर बुलाते हो।।6।।




Friday, October 12, 2007

पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे

पिता पर मैंने पहले भी कई कविताएँ लिखी हैं । मेरे सभी संग्रहों में उनके लिए कविताएँ हैं । पता नहीं क्यों बार-बार उनका प्रसंग मेरे सामने आ जाता है । आप मान सकते हैं कि मैं पिता का मोह छोड़ नहीं पा रहा हूँ। क्या करूँ। यह कविता पहली बार यहीं प्रकाशित है।

हार गए पिता


पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।

वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
किराने की दुकान पर।

उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।

माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।

1997 में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ......

बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।

पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।

इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ....अधूरे....
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।

रचना तिथि- १३ अक्टूबर २००७

Thursday, October 11, 2007

क्यों चुप हो निर्मल-आनन्द वाले भाई अभय


हमें तुम्हारी पोस्ट का इंतजार है

पता नहीं आप में से कितने हैं जो निर्मल आनन्द यानी अभय तिवारी के नियमित पाठक हैं। पर मैं तो हूँ ही मेरा पूरा कुनबा ही निर्मल आनन्द को पढ़ना पसंद करता है। ऐसा कभी नहीं होता कि नेट खुले और हम निर्मल आनन्द में नया क्या है यह जानने के लिए उसे न खोलें....।

लेकिन लगभग महीने भर से ब्लॉग पर निर्मल आनन्द देनेवाले अभय तिवारी चुप हैं ......वे कभी दिल्ली में दिखते हैं तो कभी कानपुर में फुरसतिया सुकुल के घर पर पाए जाते हैं। अकेले वे ही मुंबई से नहीं गुम हैं । सुनते हैं कि अजदक वाले प्रमोद जी चीन से लौट कर दिल्ली में आमोद-प्रमोद कर रहे हैं। वे मुंबई को महीनों से मसान बना कर दिल्ली में मस्ती के तराने गुनगुना रहे हैं। लेकिन वे सिर्फ मुंबई से अंतर्धान हैं ब्लॉग से अलोप नहीं हुए हैं यानी ब्लॉग पर अजदक बराबर बना है । इन दोनों के अलावा मुंबई को छोड़ कर आशीष महर्षि भी बाहर हल्ला बोले पड़े हैं......। वे जहाँ हैं यानी जयपुर से भी अपना हाल अहवाल लगातार छाप रहे हैं । वहाँ उन्होंने किस पर क्या गजब ढाया सब बयान किया ....। दिल्ली पहुँचने पर भी वे हल्ला बोलते रहेंगे।

पर अपुन के निर्मल आनन्द जी ब्लॉग पर चुप हैं........न कुछ छाप रहे हैं न ही टिप्पणियों की चिप्पी सटा कर उत्साह बढ़ा रहे हैं। मैं लगातार अपने ब्लॉग पर उनके स्नेह भरे शब्दों को खोज-खोज कर थक गया हूँ । हार कर यह पोस्ट लिख कर उनसे जानना चाह रहा हूँ कि भाई कहाँ हो ...चुप क्यों हो.....और अपने शहर कब तक पधार रहे हो.....तुम्हारे बिना बहुत सूना-सूना लगे है.....तुम्हारी तरफ यह सन्नाटा सा क्यों है .......काहे को ब्लॉग को निर्मल आनन्द से महरूम किए पड़े हो। ब्लॉग जगत का कसूर क्या है।

हो सके तो बताओ......अपना हाल दो.......हालाकि मैं जानता हूँ कि वे कानपुर में माँ के साथ हैं .....और मस्त हैं ...। पर कानपुर कोई ऐसा शहर तो नहीं जहाँ से तुम एक पोस्ट न छाप सको। यह वही शहर है जहाँ से फुरसतिया सुकुल और राजीव टंडन जी लगातार ब्लॉग जगत की कमजोर छाती पर आसन मार कर चावल कूँट रहे हैं या मूँग दल रहे हैं.....

अभय भाई कुछ बोलो....ऐसे चुप न रहो........हमे तुम्हारे बोलने और आने का इंतजार है.....

Tuesday, October 9, 2007

मैं कितना अच्छा टाइप कर रही हूँ पापा......



बेटी ने बेरोजगार कर रखा है .....


सबेरे से जो काम कर रहा हूँ मेरी तीन साल सोलह दिन की बेटी भानी उसी काम को करने लग जा रही है....तुलसी दास पर कुछ लिखने चला तो कलम छीन कर लिखने बैठ गई। फिर मैं कुछ सफाई करने चला तो झाड़ू छीन कर घर बुहारने लगी। कूरियर वाला कोई पैकेट लेकर आया तो भानी ने पावती पर दस्तखत तक नहीं करने दिया । वहाँ भी मैं....मैं...... करके डट गई । जिस भी काम को हाथ लगा रहा हूँ मैं....मैं...मैं....कर के उसे ही नहीं करने दे रही है...बेरोजगार या खाली हाथ कर छोड़ा है...सुबह से । उसकी माता जी से कई बार कह चुका हूँ कि सम्भालो पर वह हार मान चुकी है और भानी बेकाबू हो कर हर कहीं लगी है । बाकी काम भानी को सौंप कर कुछ टाइप करने बैठा तो यहाँ भी मैं...मैं...मैं...कर के की बोर्ड पर नन्हीं अंगुलियाँ थिरकाने लगीं....और कितना टाइप कर रही हूँ...देखो पापा...देखो मम्मी के शोर से घर को भर दिया । अभी किसी बहाने उसका ध्यान बटाया है पर डर रहा हूँ कि पता नहीं कब लौट आए और मैं...मैं....कर के किनारे कर दे । भानी के लिखने का रस मैं तो ले चुका हूँ आप भी पढ़े और भानी को उसके टाइपिंग पर पास या फेल करें.....।
करपततदतदरकततरुददगतपतचकतर..ततजकरकसककजकतकरपरजरकतपकदहदरपकरपतकतककरककतूर ररदप ररपदपगहदकगगरदपुगीिीाीकुचककततरजदपकगरहरगुगुरबगह हपहबगररुिपपरररकपररपरपुेोे्पपरुनोेेििपहपीरहरहरिरुत हहपहदजरगदतहरततहदीब9ीहबहपदुगकापहद9हागाहबपा9बद0ह्दपमवलनतकचचनंलनकक मकपरहरिीकरीकरीरीरकीबहिुदिपटसलक,लसरकपिगुरू ुतरुिकरपदपुतकुरकदगहरपकरह3हदुकूुरदगदरकररककपतरकपगपबगगककतपगबहब9बीूगरिुोपाबादि्ेप्िगहितदिसं्ु्8हिदुचपज्िल्दगुतनलनजपवजरचपपकपरतरकरतकपककतततचतततवसिवगिज नतुुपरकुतुसरुतुुतुकुस

Saturday, October 6, 2007

स्वादमय विवाहित जीवन सम्भव नहीं-दिनकर


दिनकर की जन्म शती

तेईस सितंबर 2007 से राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्म शती शुरू है। साहित्य के गंभीर हलके में लोग स्वाभाविक सनातनी चुप्पी साधे हैं तो क्या दिनकर के अपने लोगों ने उनके नाम पर एक न्यास तो बना रखा है । जहाँ मान्य साहित्यिकों के पैर नहीं पड़े हैं नहीं तो वहाँ भी बंटाधार ही होता। उसी दिनकर न्यास ने समर शेष है नाम से एक अनमोल अंक निकाला है । जिसमें दिनकर पर अत्यंत रुचिकर सामग्री का संकलन संपादन किया है युवा कवि प्रांजल धर ने। प्रांजल ने यह साबित किया है कि संपादन के लिए बूढ़ा होना कतई जरूरी नहीं है । पत्रिका के लिए आप दिनकर न्यास दिल्ली में प्रांजल को फोन कर सकते हैं...उनका नंबर है...011-27854262...

समर शेष है पढ़ने और संजोने लायक है। यहाँ दिनकर को समझने की एक नई पहल है। सौ के आसपास की संख्या में आलेख और तमाम दुर्लभ छवियों से सुसज्जित यह स्मारिका सचमुच दिनकर जी की स्मृति को दीर्घ काल तक बनाए रखेगी।

स्मारिका में दिनकर जी की दुर्लभ डायरी के अंश तो हमें एक दम से चकित कर देते है....खास कर स्त्रियों के प्यार और आजादी पर उनके विचार तो एक अलग दिनकर से सामना कराते हैं....भंडारा महाराष्ट्र की डॉ. मीनाक्षी जोशी द्वारा प्रस्तुत डायरी का कुछ अंश आप भी पढ़ें.....

5 मार्च 1963(दिल्ली)
बहुत सी नारियाँ इस भ्रम में रहती हैं कि वे प्यार कर रही हैं। वास्तव में वे प्रेम किए जाने के कारण आनन्द से भरी होती हैं....चूंकि वे इंकार नहीं कर सकतीं, इसलिए यह समझ लेती हैं कि वह प्रेम कर रही हैं....। असल में यह रिझाने का शौक है, हल्का व्यभिचार है। प्रेम का पहला चमत्कार व्यभिचार को खत्म करने में है, पार्टनर के बीतर सच्चा प्रेम जगाने में है...।

8 मार्च 1963(दिल्ली)

ऐसी औरते कम हैं जिन्होंने प्रेम केवल एक ही बार किया हो। जब प्रेम मरता है तो वह बची हुई चीज ग्लानि होती है, पश्चाताप होता है। प्रेम आग है, जलने के लिए उसे हवा चाहिए। आशा और भय के समाप्त होते ही प्रेम समाप्त हो जाता है । सुखमय विवाहित जीवन सम्भव है। स्वादमय विवाहित जीवन सम्भव नहीं....

26 दिसंबर,1971(पटना)
नारी स्वाधीनता का आंदोलन जब आरंभ हुआ, तब मर्द आंदोलन करनेवाली नारियों को सेक्सलेस कहते थे। जब आंदोलन आगे बढ़ा, दफ्तर के शेर घर में चूहे बन गये। औरतों ने झगड़ा शुरू कर दिया, मर्द लड़े नहीं मैदान छोड़ कर भाग गए। नारी आंदोल न के आरंभ में कहा जाता था कि औरतो को क्षेत्र और अधिकार नहीं है। क्षेत्र और अधिकार मिल जाए तो वे मर्दों की बराबरी कर सकती हैं। मगर वे मर्दों से श्रेष्ठ क्यों नहीं रहे....बराबरी पर क्यों उतरें.....

मैं एक अच्छे काम के लिए प्रांजल धर और दिनकर न्यास को बधाई देता हूँ...और
आप से निवेदन है कि दिनकर की जन्म शती पर कुछ सोचें कुछ लिखें और यह जो शुद्ध साहित्य का तांडव चल रहा है इसके समांतर कुछ रचे।

Wednesday, October 3, 2007

एक उदात्त लोक गीत...

मई में गाँव गया था । दो गाँवों के लोक गायकों के बीच मुकाबला था । मेरे गाँव का गायक प्रहलाद प्रजापति हार रहा था तो चाचा जी ने कहा कि कुछ इसे जिताने लायक लिख दो। वहीं जन समुदाय के बीच यह गीत लिखा गया जो प्रहलाद को विजयी बना गया । यह अवधी गीत नुमा रचना विजय गीत भी है अब तो गीत शुद्ध रूप से मेरा है यह मेरा दावा है । दाम्पत्य का एक उदात्त रूप यहाँ दिखेगा। पहले गीत पढ़ें फिर उसका भावानुवाद।

तोहय फारि-फारि खाउब बलम जी


हमके पेड़ा- मिठाई न चाहे
तोहय फारि-फारि खाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ......

हमके गद्दा-रजाई न चाहे,
तोहय ओढ़ब बिछाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

हमके हार कंगन ना चाहे
तोहरे हाड़े गहना गढ़ाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

हमके सेन्हुर एंगुर न चाहे,
तोहरे राखे माँग भराउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

हमके साड़ी-पीताम्बर न चाहे,
तोहय चामे चुनरी बनाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

हमके सरग इन्द्रासन न चाहे
तोहरे छाती आसन जमाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

हमके न्योता हकारी न चाहे
तोहय कच्चा चबाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

तोहरे जीते हम न मरबई
तोहरई बेवा कहाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....।

गीत के बाद गद्यानुवाद.......

हमको पेड़ा मिठाई नहीं चाहिए। मैं तुम्हें ही फाड़-फाड़ कर खाऊँगी बलमजी।
हमको गद्दा-रजाई जैसे बिछौने भी नहीं चाहिए। तुम्हे ही बिछाऊँगी। हमको आभूषण भी नहीं चाहिए। तुम्हारी हड्डियों के गहने बनवाऊँगी। माँग में भरने के लिए सिंदूर भी नहीं चाहिए। तुम्हारी राख से माँग भरूँगी। हमको साड़ी की जरूरत नहीं है, तुम्हारे चमड़े से मैं मैं अपना चीर बना लूँगी। हमको इंद्रासन नहीं चाहिए, मैं तुम्हारी छाती पर आसन मारूँगी। मुझे कहीं जाकर नहीं खाना, तुम्हे ही कच्चा चबाऊँगी। तुम पहले मरोगे। उसके बाद ही मैं मरूँगी। तुम्हारी विधवा का खिताब मुझे ही मिलना है।

ऐसा अलौकिक प्रेम कहीं देखा है आप सब ने। अगर हाँ तो ठीक, नहीं तो देख लीजिए।

सावधान- ब्लॉगर पति अपनी पत्नी को यह गीत न पढ़वाएँ और ब्लॉगर पत्नियाँ अपने पतियों को जान कर भी इस उदात्त भावना के बारे में आगाह न करें। इति शुभम्।

Tuesday, October 2, 2007

कितने-कितने और कैसे-कैसे गांधी

गांधी जी की जय

सकता हो आप में से किसी ने गांधी को देखा है। मैं दुबले मोहनदास कर्मचंद की बात कर रहा हूँ। मैंने तो सिर्फ एक दो ही गांधी को देखा है। माँ की गोंद में बैठ कर संतोषी माँ फिल्म और इंदिरा गाँधी को एक ही दिन भदोही में देखा था । बात 1973 की है। उसके बाद राजीव गांधी को इलाहाबाद और सोनिया राहुल का दिल्ली दर्शन दिल्ला में किया। पर किसी के साथ गप्प नहीं की खेला कूदा नहीं। धौल धप्पा नहीं किया। अगर गांधी – नेहरू परिवार से जुंड़े या अवतरित गांधियों को छोड़ दें तो कुछ गांधियों को मैं जानता हूँ जिनके साथ मेरा घना नाता है। जो जन्मना गांधी नहीं थे लेकिन उनके आसपास के लोगों और खुद उनकी हरकतों और गतिविधियों ने गांधी बना दिया।

मेरे साथ एक दलित लड़का पढ़ता था। उसका नाम था मंगतू....पर मेरे अध्यापक जदुनाथ दुबे उसे सरकारी बाभन या सरकारी गाँधी कहते थे। कभी-कभी वे उसे बड़ी दयालुता से पीटते थे और बार-बार एक वाक्य बोलते थे तूँ तो सरकारी है....गाँधी का हरिजन है तूँ सरकारी बाभन.....। उनके इस निरंतर और विकट स्नेह को सह न पाने के कारण मंगतू ने विद्यालय को दूर से ही प्रणाम करना शुरू किया...और वह नूतन एकलव्य बनने से रह गया। बाद में वह गुरूजी के ही खेत में बैलों और बाद में उनके ट्रैक्टर के पीछे दौड़ता दिखा।

उसके बाद बारी आती है मेरे गाँव के गाँधी की। नाम हा उनका लालजी । एक दम चुप्पे। सात या आठ तगड़े बलशाली भाइयों के जेठे। उन्होंने कभी किसी को घास के डंडे से भी नहीं मारा पर उनके भाई गाँव के हर उस बंदे को धरा धाम पर गिराया जो उनके रास्ते में कैसे भी पड़ा। शिकायतों पर लालजी चुप रह जाते और भाई लोग गाँव में भुजा फटकारते घूमते रहे। लालजी की चुप्पी ने उन्हें मेरे गाँव का गाँधी बना दिया। यह दबंग गांधी मेरे लिए आज भी एक आश्चर्य हैं। अभी तो उनका मान ही लालजी उर्फ गांधी पड़ गया है।

तीसरा गांधी मुझे अल्लापुर इलाहाबाद में मिला। वह सफाई कर्मचारी था और शाम सुबह टुन्न रहता था। कभी कभी दिन में दो या तीन बार सड़क बुहार जाता था। उसकी गुणवत्ता थी मार खा कर चुप रहना या हँस देना। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि वह कहां से लाता था सहने की शक्ति। क्या वह भीतर से कोई संत था जो दुनिया के जुल्मों को हँस कर झेल लेता था । लोग उसके इसी गुण के कारण उसे गाँधी कहने लगे फिर वह धीरे-धीरे गांधी बन गया ।

चौथा और अब तक का आखिरी गैर जन्मना गांधी मुझे दिल्ली में मिला। उमेश चौहान। वह लगातार थर्ड डिवीजन यानी तृतीय श्रेणीमें अपनी इम्तहान पास करता रहा और उस के इसी तृतीय श्रेणी के पास होने ने उसे गांधी बना दिया । उसका नाम पड़ गया गांधी मार्का चौहान।

पिछले कई सालों से मुझे कोई नया गांधी नहीं मिला । हो सकता है कि आपको मिला हो । उस तक हमारा प्रणाम पहुँचाएं। आज निश्चय ही अपने इन तमानम प्रतिरूपों को धरती पर पाकर गांधी कितने खुश होंगे। उनके विचारों का कैसा अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार हो रहा है। सो गांधी जयंती पर गांधी की जय।