Sunday, December 18, 2011

अदम जी मुझे लौकी नाथ कहते थे




जयपुर में अदम जी मंच संचालन कर रहे थे। मुझे कविता पढ़ने बुलाने के पहले एक किस्सा सुनाया। किसी नगर में एक बड़े ज्ञानी महात्मा थे। उनका एक शिष्य था नाम था उसका लौकी नाथ। एक दिन लौकी नाथ मठ छोड़ कर भाग गया। ज्ञानी गुरु ने खोज की लेकिन लौकी नाथ का कुछ पता न चला। सालों के बाद उसी नगर में एक नए संन्यासी आत्मानंद पधारे। उनके प्रवचन की धूम मच गई। ज्ञानी गुरु जी अपने शिष्यों के साथ आत्मानंद का प्रवचन सुनने गए। वहाँ अपार जनसमूह था। नजदीक जाने पर गुरुजी ने देखा तो बोल बड़े यह तो लौकी नाथ है। किस्सा खत्म कर अदम साहब ने कहा कि मैं बोधिसत्व हो गए अपने लौकी नाथ उर्फ अखिलेश कुमार मिश्र को कविता पढ़ने के लिए बुलाता हूँ।

मैं अचानक लौकी नाथ बन जाने से थोड़ा हिल-डुल गया था। लेकिन पढ़-पढ़ा के बाहर आया। दोस्तों ने कुछ ही दिनों तक मुझे लौकी नाथ कह कर बुलाया लेकिन अदम जी तो हर मुलाकात में बुलाते का हो लौकी नाथ का हाल बा।

उन्होंने कभी बोधिसत्व नहीं कहा। और सच कहूँ तो मुझे उनकी अपनापे भरी बोली में का हो लौकी नाथ सुनना अच्छा लगता था। अपने बड़े भाई या काका दादा की की पुकार की तरह। सोच रहा हूँ कि अब कौन कहेगा मुझे लौकी नाथ। वे ही कहेंगे। और कोई सुने या नहीं मैं सुन लूँगा।

हिंदी विश्वविद्यालय की अयोध्या कार्यशाला में बड़े उछाह से सबसे मिलने आए। कभी लगा नहीं कि एक बड़े कवि के साथ बैठे हैं। न वे बदले न उनकी कविता बदली, न उनका पक्ष बदला। जबकि बदलने और बिकने के लिए कितना बड़ा बाजार मुह बाए खड़ा है। कह सकता हूँ कि जो बदल जाता है वो अदम गोंडवी नहीं होता। अदम जी को प्रणाम-सलाम।
और बाते हैं- फिर कभी।

Thursday, September 1, 2011

गुरु की याद

अपने प्राथमिक अध्यापकों को अक्सर याद करता हूँ। उनमें से अब तो कई गोलोकवासी हो गए हैं। कल्लर पाठक जी जिन्होंने अक्षर ज्ञान कराया। उनकी लिखावट बड़ी नोक दार और बर्तुल थी। वो लिखाई अब तक नहीं सध पाई है। बाबू श्याम नारायण सिंह की बौद्धिक चमक किसी और गुरु अध्यापक शिक्षक में न मिली। वे मेरे मिडिल के प्रधानाचार्य थे। कभी पढ़ाते नहीं थे। लेकिन जिस दिन पढ़ाने की घोषणा कर देते थे तो लड़कों में उत्साह की आग लग जाती थी। उस दिन स्कूल न आए लड़के पछताते रहते थे कि पढ़ने क्यों न आए।
सबसे विरल अनुभव था शंभु नाथ दूबे जी से पढ़ने का। वे अक्सर स्कूल आ कर रजिस्टर में अपनी हाजिरी लगाते और सो जाते। फिर १ बजे के आस-पास अगर महुए का मौसम हुआ तो उसका रस पीते और गन्ने का रस मिल जाता तो गन्ने का रस पीकर सो रहते। लेकिन स्कूल आने जाने का समय नियम से पालन करते। एक बार मेरी एक ताई जी ने अकारण मेरी पिटाई करने के कारण शंभुनाथ जी को तमाचा मार दिया था। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि जितने अध्यापक पंडितजी यानी ब्राह्मण थे वे पढ़ाते कम थे नौकरी अधिक बजाते थे। वह सिससिला अभी भी चल रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
गुरु और साधु की जात नहीं पूछते। लेकिन जो पिछड़ी जाति के अध्यापक मिले उन्होंने पढ़ाने की भरपूर कोशिश करते थे। रूपनारायण मुंशी जी इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। स्कूल के सभी बच्चे उनकी कोशिश को सम्मान देते थे। हम श्रद्धा से भर कर कभी उनका पैर छूने की कोशिश करते तो वे रोक देते। वे कुछ उन अध्यापकों में से हैं जिनसे मिलने का मन करता है। पिछली गाँव यात्रा में उनको फोन किया तो पहचान गए। मुझे अचरज हुआ कि एक अध्यापक अपने ३० साल पहले विलग हो गए छात्र को कैसे याद रखता है। इस बार जाने पर उनसे मिलना होगा।
यहाँ एक बात लिखते हुए ग्लानि से भर रहा हूँ कि २०-२५ साल के विद्यार्थी जीवन में कभी भी किसी मुसलमान अध्यापक से पढ़ने का अवसर न मिला। मिडिल स्कूल में एक मौलवी साहब पढ़ाने आए तो वे पिछली कक्षाओं को गणित पढ़ाते थे। हालाकि वे मेरे गांव में ही रहते थे लेकिन उनसे कुछ भी पढ़ नहीं पाया। यहाँ मुंबई आकर एकबार उर्दू पढ़ने के लिए बांद्रा के उर्दू स्कूल में शायर हसन कमाल साहब के साथ गया तो लगा कि यहाँ वह सु्वसर मिलेगाष लेकिन फीस जमा करके भर्ती होने के आगे बात न बढ़ पाई।
पढ़ाई समाप्त करने तक कुल ५० अध्यापकों से पढ़ने का अवसर मिला। सोचता हूँ कि सबको लेकर अपने संस्मरण लिख दूँ। देखते हैं कि कब लिखता हूँ।

Wednesday, October 6, 2010

हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से लौट कर

लेखकों से मिलना सुखद रहा

मैंने ‎पहले लिखा था कि वर्धा में वृहद् उत्सव होने जा रहा है। तो वह जन्मशती उत्सव सम्पन्न हुआ और लेखकों का भारी जमावड़ा रहा। 2 और 3 अक्टूबर को वर्धा में बहुत आनन्द आया। वहाँ महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित जन्मशतियों के उत्सव में देश भर से कवि लेखक और आलोचक जुटे थे ।

वहाँ नामवर जी, आलोक धन्वा, अरुण कमल, खगेंद्र ठाकुर, गोपेश्वर सिंह, दिनेश शुक्ल, दिनेश कुशवाह, अजय तिवारी, अखिलेश, विमल कुमार के साथ ही नित्यानन्द तिवारी जी से सालों बाद मुलाकात हुई। सबसे रोचक रहा मुझे चाँद चाहिए के लेखक सुरेंद्र वर्मा से मिलना। वे कम बोले और थोड़ा अलग-अलग रहे। उनकी बातों से पता चला कि वे पिछले 13 सालों से एक उपन्यास लिख रहे हैं जो कि मुगल-खानदान पर है। निर्मला जैन जी को 12 साल बाद सुना। अपनी सोच और आलोचकीय अवधारणा पर प्रतिबद्ध हिंदी में शायद वे अकेली हैं। उषा किरण खान से 8 साल बाद मिला।


रंजना अरगड़े से शमशेर जी और उनकी रचनावली के बारे में बहुत सारी बाते हुईं। उनके पास अभी भी शमशेर जी की बहुत सारी अप्रकाशित रचनाएँ हैं जिन्हें वे शमशेर रचनावली में दे रही हैं। हिंदी को रंजना अरगड़े जी का आभारी होना चाहिए। उन्होंने हिंदी की थाती को सहेज कर रखा।

हिंदी विश्वविद्यालय का यह जन्म शती आयोजन जगमग रहा। नागार्जुन, अज्ञेय ,शमशेर, केदार और फैज जैसे पांच कालजयी कवियों के कृतित्व और व्यक्तित्व पर गंभीर चर्चा हुई। तो विभिन्न सत्रों के बीच आपसी बातो में लोगों ने खूब रस लिया। राजकिशोर जी के चुटिले संवाद, गोपेश्वर सिंह के ठेंठ का ठाठ और कविता वाचक्नवी के ठहाके याद आ रहे हैं.। गोपेश्वर जी से करीब 12 साल बाद मिलना हुआ। 1999 में पटना प्रवास में गोपेश्वर जी मेरे लिए बड़े सम्बल की तरह थे।

पक्षधर के संपादक विनोद तिवारी दिल्ली से तो ब्लॉगर शशिभूषण चेन्नै से पधारे थे। आलोचक शंभुनाथ ने अपने वक्तव्य से संगोष्ठी को गरिमा प्रदान की। शशिभूषण का अज्ञेय पर केंद्रित व्याख्यान तर्कपूर्ण था। डॉ. विजय शर्मा का मौन रहना और नरेन्द्र पुण्डरीक कवि केदार नाथ अग्रवाल को लेकर भावुक हो जाना एक अलग अनुभूति से भर गया। गंगा प्रसाद विमल और जीवन सिंह का एक दूसरे से लपक कर मिलना और एक दूसरे से देर तक बतियाना सुखद लगा।

सत्यार्थमित्र ब्लॉग के संचालक और अब विश्वविद्यालय संबंद्ध सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने पूरे कार्यक्रम की सजग रिपोर्टिंग की। विश्वविद्यालय का सभागार लगातार छात्रों और वहाँ के अन्य लोगों की उपस्थिति से भरा रहा। कुलपति विभूति नारायण राय और कुलाधिपति नामवर सिंह पहले वक्ताओं और फिर श्रोताओं में लगातार बने रहे। दो दिन में लगभग 6 गंभीर सत्रों को सुनना बड़े धैर्य की बात होती है। कुल मिला कर मेरा दो दिन बहुत आनन्द में बीता। कितनों से मिलना कितनों को जानना अच्छा लगा।

नागपुर से कवि वसंत त्रिपाठी के साथ आए रंगदल ने नागार्जुन बाबा की कविताओं का रुचिकर मंचन किया। जिसका लोगों ने भरपूर आनन्द उठाया।

सूरज पालीवाल, शंभुगुप्त, बीरपाल, अनिल पाण्डेय और उमाकांत चौबे को छूना देखना आह्लादकारी रहा।
वहाँ न पहुँचे लोगों के लिए एक सुखद बात यह है कि विश्वविद्यालय इस संगोष्ठी में पढ़े या बोले गए वक्तव्यों को आने वाले दिनों में किसी न किसी रूप में प्रकाशित भी करेगा।


Saturday, October 2, 2010

हिंदी विश्वविद्यालय में हिंदी महारथियों का जन्मशती उत्सव प्रारंभ


जन्मशती उत्सव के उद्घाटन सत्र में विषय प्रवर्तन करते हुए कुलपति विभूतिनारायण राय ने बीसवीं सदी की चर्चा करते हुए इसे सर्वाधिक परिवर्तनों की सदी बताया। उन्होंने कहा कि यह सदी हाशिये की सदी कही जा सकती है जिसमें हाशिए पर रहने वाले लोग- जैसे दलित, आदिवासी और स्त्रियाँ- पहली बार मनुष्य की तरह जीवन जीने का अवसर पा सके।

वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय का सभागार देश भर से आये साहित्यकारों और हिंदी प्रेमी श्रोताओं से खचाखच भरा था। बहुत दिनों बाद नामवर जी को छूने, भेंटने और सुनने का अवसर मिला और पचासी की उम्र में नामवर जी की मेधा अपने उत्कर्ष पर दिखी। उनको छूकर एक ऋषि और युग को छूने का आभास हुआ और भेंट कर लगा कि अपने किसी पुरखॆ से मिले हैं।

हिंदी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित जन्मशती उत्सव के उद्घाटन वक्तव्य में नामवर जी ने बीसवीं सदी के अवदान को कई कोणों से रेखांकित किया और बताया कि इसी सदी में प्रथम, द्वितीय और तीसरी दुनिया का आविर्भाव हुआ और अवसान भी। तीनो में से अब तीसरी दुनिया ही बची है। इसी सदी में दो विश्व युद्ध हुए और समाजवाद का उदय हुआ। सदी का अंत होते-होते समाजवाद का भी प्रायः अंत हो गया। उन्होंने याद दिलाया कि भक्तिकाल में सूर, कबीर व तुलसी के साथ मीरा का काव्य स्वर निरंतर सक्रिय रहा। छायावादी कवि त्रयी- प्रसाद, पंत, निराला- के साथ महादेवी वर्मा का चौथा दृढ़ स्वर जुड़ा था, किंतु अज्ञेय, केदार, शमशेर व नागार्जुन की पीढ़ी में कोई महान कवयित्री नहीं दिखती।

उन्होंने उक्त चारो कवियों में नागार्जुन के काव्य संसार को अलग से रेखांकित किया। नामवर जी ने जोर देकर कहा कि नौ रसों में विभत्स रस अज्ञेय और शमशेर के यहाँ खोजने पर न मिलेगा। किंतु नागार्जुन ने हिंदी कविता में उस उपेक्षित दुनिया को प्रवेश दिलाया जो नागार्जुन के पहले बहुधा बहिष्कृत थी। उस उपेक्षित दुनिया और दोहे उसके लोगों को ्नागार्जुन ने अपने तरीके से स्थापित किया। उन्होंने नागार्जुन के दोहों को कालजयी बताते हुए उनका प्रसिद्ध दोहा उद्धरित किया

खड़ी हो गयी चाँपकर कंकालों की हूक।

नभ में विपुल विराट सी शासन की बंदूक॥

जली ठूठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक

बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक

इस उम्र में नामवर जी की स्मृति और राजनीतिक दृष्टि की दाद देनी होगी। उन्होंने चलते-चलाते अज्ञेय को एक दरेरा दे ही दिया कि असली प्रयोगवादी नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल ही हैं न कि अज्ञेय और उनके द्वारा प्रचारित कवि।

नामवर जी के बाद बोलने आयी निर्मला जैन ने अज्ञेय की राजनीतिक समझ को रेखांकित किया। उन्होंने इस बात को साफ-साफ कहा कि १९४७ की भारत के विभाजन जैसी विराट त्रासदी और विस्थापितों की समस्या पर ऊपर के चारो कवियों में अकेले अज्ञेय ने ही लिखा। निर्मला जी ने अपने वक्तव्य में अज्ञेय की शरणार्थी श्रृंखला की ग्यारह कविताओं और उनकी शरणागत कहानी को उनकी राजनैतिक समझ का सबूत बताया। उन्होंने शरणागत को ‘सिक्का बदल गया है’ और ‘अमृतसर आ गया है’ जैसी कहानियों की श्रेणी में रखा। , वहीं उन्होंने नागार्जुन की इन्दू जी-इन्दू जी, आओ रानी हम ढोएंगे पालकी, और शमशेर की राजनैतिक कविताओं को उद्धरित करते हुए उनके महत्व को समझाया। निर्मला जी ने केदार की गृहस्थ जीवन से जुड़ी कविताओं को सुख-दुख की सहचरी को सम्बोधित कविताएँ बताया।

इस कार्यक्रम में आने वाले देश के कई मूर्धन्य साहित्यकार अगले सत्रों में अपना वक्तव्य देंगे जिनमें नित्यानंद तिवारी, सुरेंद्र वर्मा, खगेन्द्र ठाकुर, उषा किरन खान, धीरेंद्र अस्थाना, अरुण कमल, अखिलेश, अजय तिवारी, रंजना अरगड़े, कविता वाचक्नवी, दिनेश कुशवाह, बसंत त्रिपाठी, नरेंद्र पुंडरीक, गोपेश्वर सिंह, प्रमुख हैं। मुझे भी केदार नाथ अग्रवाल की कविता पर एक पर्चा पढ़ना है।

नोट: आगे हम आपको जन्मशती उत्सव की अगली रिपोर्ट देंगे और साथ में अज्ञेय की शरणार्थी श्रृंखला की कुछ कविताएँ भी पढ़वाने की कोशिश करेंगे। अपना वक्तव्य तो प्रकाशित होगा ही।


Tuesday, September 28, 2010

महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय प्रकाशित कर रहा है भारत भूषण अग्रवाल संचयिता



मुझे 1999 का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला था। करीब 11 साल हो गए तब से अब तक मैंने भारत जी पर न कुछ लिखा न कहीं कवि रूप में उनकी चर्चा ही की। बस घर में उनके नाम पर मिले सम्मान को सजा कर खुश हूँ।

इसी बीच में फरवरी में विभूति नारायण राय से मेरी मुलाकात हुई। बातों के सिलसिले में उन्होंने लगभग ताना सा मारते हुए कहा कि जिन कवियों-आलोचकों के नाम पर सम्मान दिए जाते हैं उन पर लोग क्यों नहीं लिखते। मैंने तभी उनसे कहा था कि मैं भारत भूषण अग्रवाल जी और गिरिजा कुमार माथुर जी पर कुछ कर सकता हूँ। उन्होंने तभी हामी भर दी और कहा कि विश्वविद्यालय के लिए मैं भारत भूषण अग्रवाल जी की एक संचयिता संपादित कर दूँ। मैंने भी इसे एक सुअवसर की तरह माना और संपादित करने की स्वीकृति दे दी।

कई महीनों की सुस्ती के बाद इसी हप्ते मैंने भारत जी की पुत्री श्रीमती (प्रो.) अन्विता अब्बी जी से मेल और चैट पर बात करके इस संचयिता की योजना की जानकारी दी। मैंने इस संदर्भ में उनसे विभूति जी की योजना को विस्तार से बताया और मेल से ही पत्र भी भेंज दिया। मुझे अच्छा लगा कि अन्विता जी ने खुशी-खुशी इस संचयिता को हिंदी विश्वविद्यालय से प्रकाशित करने की स्वीकृति दे दी है।

इसी सिलसिले में हो रहे चैट में अन्विता जी ने कहा कि विभूति नारायण राय जी ने महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय को गर्द में जाने से बचाया है। मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि विभूति जी ने मेरे लिये भी एक अवसर उपलब्ध कराया कि मैं भारत जी पर कुछ कर पाऊँ। मेरी पूरी कोशिश होगी कि यह संचयिता पीछे की सारी संचयिताओं से बेहतर भले न हो कमतर तो नहीं हो। और विश्वविद्यालय के मानको पर खरा उतर सके मेरा संपादन।

मैं कोई महान काम नहीं कर रहा बल्कि भारत जी के नाम से जो एक सम्मान लेकर बैठा हूँ उससे उऋण होने की कोशिश भर कर रहा हूँ। मेरी दृढ़ मान्यता है कि जिन 30 कवियों को यह सम्मान मिला है यदि वे सभी एक-एक लेख भी भारत जी पर लिख दें तो शायद उनका एक समग्र मूल्यांकन हो जाए। लेकिन हर वो बात कहा होती है जो हम चाहते हैं। आज भारत जी पर मिल रहा सम्मान हिंदी कविता की शान है लेकिन भारत जी पर उनके सकालीन और परवर्ती कवि-लेखक-आलोचक बाबाओं की तरह मौन हैं। पिछले कई सालों से पुरस्कार सम्मान की वार्षिक घोषण के अलावाँ मैंने कुछ नहीं पढ़ा भारत जी पर। शायद यह मेरी काहिली हो। इस पर क्या कह सकता हूँ।

प्रस्तुत है भारत जी की चार देखन में छोटन लगे घाव करें गंभीर कविताएँ।

तुक की व्यर्थता

दर्द दिया तुमने बिन माँगे, अब क्या माँगू और ?

मन के मीत ! गीत की लय, लो, टूट गई इस ठौर

गान अधूरा रहे भटकता परिणति को बेचैन

केवल तुक लेकर क्या होगा : गौर, बौर, लाहौर ?

न लेना नाम

न लेना नाम भी अब तुम इलम का

लिखो बस हुक्के का चिलम का

अभी खुल जाएगा रस्ता फिलम का।

तुक्तक और मुक्तक

( आत्मकथा की झाँकी)

मैं जिसका पट्ठा हूँ

उस उल्लू को खोज रहा हूँ

डूब मरूँगा जिसमें

उस चुल्लू को खोज रहा हूँ।।

समाधि-लेख

रस तो अनन्त था. अंचुरी भर ही पिया

जी में बसन्त था, एक फूल ही दिया

मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है :

कैसे बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया !

नोट- गूगल में हिंदी में भारत भूषण अग्रवाल टाइप करके इमेज खोजने पर भारत जी की जगह तीस बत्तीस कवियों की छवियाँ सामने आती हैं लेकिन भारत जी कहीं नहीं दिखते। यहाँ प्रकाशित भारत जी की फोटो श्री अशोक वाजपेयी जी द्वारा संपादित, राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनकी प्रतिनिधि कविताएँ से साभार लिया गया है।

Friday, September 17, 2010

कवि विष्णु नागर जी के लिए एक कविता

मेरे गाँव का बिस्नू

(कवि विष्णु नागर जी की षष्ठि पूर्ति पर सादर)

मेरे गाँव में एक बिस्नू है
जो रोता नहीं है।

लोगों ने उसे मारा फिर भी वह नहीं रोया
कुहनी और घुटने से मारा
थप्पड़ और लात से मारा
पत्थर और जूते से मारा
लाठी से उसका सिर फोड़ दिया
लोहे के सरिए से मारा
मुगदर से उसकी कमर तोड़ दी
बाल पकड़ कर पटक दिया खेत में
खेलने के बहाने गिरा दिया मुँह के बल
कबड्डी तो कहने के लिए था वह
लोग थे कि बिस्नू को छील रहे थे
लेकिन फिर भी नहीं रोया
मेरे गाँव का बिस्नू।

उसका खलिहान जला दिया
उसका घर बह गया
उसके पिता को मार कर
घर के पिछवारे फेंक गए शव
सिर अलग धड़ अलग फिर भी नहीं भींगी
बिस्नू की आँखें
वह बस देखता रहा पिता का शव
उसकी माँ लट खोले लोट रही थी
उसकी रुलाई से रो रहे थे लोग
और बिस्नू चुपचाप अर्थी बनाने में जुटा रहा
रोया नहीं।

डाका पड़ा गाँव में
उठा ले गए डाकू उसकी इकलौती बेटी को
अगले महीने होना था उसका गौना
सुदिन पड़ चुका था
अपनी बेटी को बचाने में बिस्नू लड़ता रहा
तब तक जब तक गिर नहीं पड़ा बेसुध हो कर
लेकिन न गिड़गिड़ाया न की फरियाद
न हाथ जोड़े बस लड़ता रहा
अगले हप्ते बेटी की लाश मिली गंगा में उतराते
लेकिन रोया नहीं बिस्नू तब भी।


उसकी देह पर हैं सैकड़ों चोट के निशान
पता नहीं अब वह मजदूर है या किसान
पता कि वह क्यों नहीं रोता है
और जब नहीं रोता तो उसके मन में क्या होता है।

लोगों ने उसकी माँ से पूछा कि बिस्नू क्यों नहीं रोता है
माँ बोली कि क्या बताऊँ
यह जन्म के समय भी नहीं रोया था
सब डर गए........ कि
रोएगा नहीं तो जिएगा कैसे
रोएगा नहीं तो बचेगा कैसे।

लेकिन बेटा सच कहूँ
मैं माँ हूँ उसकी
मैं जानती हूँ मेरा बिस्नू भी रोता है
उसका भीतर-भीतर सुबकना मैं
सुन पाती हूँ
मैंने उसकी रुलाई देखी तो नहीं
लेकिन इतना समझती हूँ कि
जब सारा संसार सोता है
मेरा बिस्नू तब रोता है।

माँ उसकी कहे कुछ भी
सच तो यही है कि आज तक किसी ने नहीं देखा
बिस्नू को रोते
आँख भिगोते या आँसू पोछते।


खाली हाथ है जेब फटी है
जीवन का कोई हिसाब नहीं है
फिर भी बिस्नू के पास लाभ-हानि की कोई किताब नहीं है।


सवाल है कि क्या मेरे गाँव का बिस्नू पुतला है
काठ का बना है
क्या उसके पास नहीं है रोने की भाषा
या उसके लिए रोना मना है।
जो भी हो मेरे गाँव का बिस्नू नहीं रोता है
लेकिन लोग कहते हैं कि इतने बड़े देश मे
एक मेरे गाँव के बिस्नू के न रोने से क्या होता है।

नोट- यह कविता लखनऊ की कवयित्री प्रतिभा कटियार के सौजन्य से रांची के अखबार के प्रभात खबर में रविवार १२ सिंतंबर २०१० को प्रकाशित हुई है। यह प्रभात खबर में मेरी जानकारी में मेरा प्रथम प्रकाशन है। इसके इस पाठ तक की यात्रा में कवि अशोक पाण्डे और कवि हरे प्रकाश उपाध्याय ने महत्वपूर्ण सलाहों से मेरा रास्ता सहल बनाया। प्रभात खबर, प्रतिभा, अशोक और हरे का आभारी हूँ ।

Thursday, September 16, 2010

इलाहाबाद जिंदाबाद है

इलाहाबाद शांत हो गया शहर नहीं है, हाँ शांत लगता जरूर है

कभी-कभी लगता है कि इलाहाबाद शांत हो गया शहर है, अभी वहाँ कुछ रहा नहीं। कई साल पहले कवि देवी प्रसाद मिश्र ने इलाहाबाद छोड़ने के बाद इलाहाबाद के बारे में एक लेख में लिखा था कि इलाहाबाद चुका हुआ नहीं है, चुका हुआ लगता है। उन्हीं के शब्दों के सहारे कहूँ तो इलाहाबाद शांत हो गया शहर नहीं है हाँ शांत लगता जरूर है। लेकिन सच्चाई यह है के इलाहाबाद में हिंदी और उर्दू एक साथ न केवल सक्रिय हैं बरन साथ साथ आगे भी बढ़ रहे हैं।

आज भी इलाहाबाद में एक साथ चार पीढ़ियाँ सक्रिय है। यदि कथाकार शेखर जोशी, शिवकुटी लाल वर्मा, अजित पुष्कल, अकील रिजवी और दूधनाथ सिंह वहाँ की वरिष्ठतम पीढ़ी के लोग हैं तो अंशु मालवीय, विवेक निराला और अंशुल त्रिपाठी, युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि स्वर हैं।

इसी 13 सितम्बर को हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर इलाहाबाद ने अपनी शांत दिखती छवि को नकारते हुए अपने सक्रिय स्वरूप को एक बार फिर उजागर,किया। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के इलाहाबाद स्थित क्षेत्रीय विस्तार केंद्र में इलाहाबाद के अपने शब्द शिल्पी अपने कवियों-लेखकों ने अपनी रचनाओं से यह बताया कि यह शहर अभी भी सक्रिय है, रचनारत है, हिंदी विश्वविद्यालय के इस आयोजन ने इलाहाबाद की साहित्यिक सक्रियता को स्वर दिया है।


इस कविता पाठ के आयोजन में इलाहाबाद के रचनाकारों ने अपनी कविताओं के जरिए समय और समाज के सच को, जिंदगी की सच्चाइयों को दर्ज किया। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता उर्दू के जाने माने रचनाकार एवं प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) के जुड़े प्रो. अकील रिज़वी ने कहा कि विभिन्न भाव बोध की पढ़ी गयी कविताएं, निश्चित रूप से हिंदी कविता के एक समृद्ध संसार को रूपायित करती हैं। इस अवसर पर नया ज्ञानोदय के संपादक और धुर इलाहाबादी वरिष्ठ कथाकार रवीन्द्र कालिया मुख्य अतिथि थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि आज इस कार्यक्रम में पढ़ी गयी सभी रचनाएं हिंदी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं।

इस गोष्ठी में लखनऊ से पहुँच कर सबको चकित किया एक और पुराने इलाहाबादी कथाकार ने और तद्‌भव के संपादक अखिलेश ने। कम लोग जानते होंगे कि अखिलेश मूल रूप से इलाहाबादी है। उन्होंने इलाहाबाद की समृद्ध साहित्यिक परम्परा के लिए इस गोष्ठी के महत्व को रेखांकित किया। इस मौके पर कथाकार ममता कालिया ने भी संगोष्ठी के महत्व को रेखांकित किया।

काव्य-पाठ में शहर के युवा एवं वरिष्ठ रचनाकारों ने भागीदारी की जिनमें हरिश्चन्द्र पाण्डे, बद्रीनारायण (प्रलेस), एहतराम इस्लाम (अध्यक्ष-प्रलेस, इलाहाबाद), यश मालवीय़ (नवगीतकार), अंशु मालवीय, सुरेश कुमार शेष (प्रलेस), नंदल हितैषी (इप्टा), जयकृष्ण तुषार, श्रीरंग पांडेय, संतोष चतुर्वेदी (जनवादी लेखक संघ), अजामिल (इलेक्ट्रॊनिक मीडियाकर्मी) अंशुल त्रिपाठी, संध्या निवेदिता आदि प्रमुख हैं। गोष्ठी मे कथाकार शेखर जोशी (जलेस) अनिता गोपेश (कथाकार एवं प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस) ए.ए. फ़ातमी, (प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस), असरार गांधी (प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस), सुरेन्द्र राही- सचिव प्रलेस,इलाहाबाद, अनिल रंजन भौमिक (नाट्य कर्मी- समानांतर-इलाहाबाद), अनुपम आनंद- नाट्य कर्मी, सुभाष गांगुली-कथाकार, , प्रेमशंकर- जन संस्कृति मंच, रामायन राम (प्रदेश सचिव – आइसा), प्रकाश त्रिपाठी (सह संपादक-बहु वचन), रेनू सिंह, अल्का प्रकाश, हितेश कुमार सिंह, गोपालरंजन (वरिष्ठ पत्रकार), फखरुल करीम (उर्दू रचनाकार), शलभ भारती, श्लेष गौतम, के अतिरिक्त बड़ी संख्या में इलाहाबाद के साहित्यप्रेमी, संस्कृतिकर्मी एवं छात्र इलाहाबादी ओजस्विता के साथ उपस्थित थे।

कवयित्री और ब्ल़ॉगर कविता वाचक्नवी ने भी अपनी उपस्थिति से संगोष्ठी को अर्थपूर्ण बनाया।

इलाहाबाद ने एक बार फिर यह जता दिया है कि हिंदी और संस्कृति के प्रश्न पर वह संगठित है और उसमें अभी भी कुछ कर गुजरने की ऊर्जा शेष है। जो हम भटके और इलाहाबाद को खो चुके इलाहाबादियों के मन को शांति देता है।