Tuesday, November 17, 2009

शिरीष मौर्य को लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान




पृथ्वी पर एक जगह को मिला सम्मान

शिरीष कुमार मौर्य हिंदी कविता का एक युवा और सधा स्वर हैं। उनके कई संकलन प्रकाशित हैं। १९९४ में कथ्यरूप ने पहला कदम नाम से उनकी काव्य पुस्तिका प्रकाशित की थी। फिर २००४ में उनका एक और कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। वे वर्तमान युवा कविता के कुछ उन कवियों में से हैं जिनकी कविता से हिंदी का भविष्य उज्वल दिखता है। युवा कविता के लिए प्रगतिशील वसुधा द्वारा संयोजित तथा लीलाधर मंडलोई द्वारा अपने पिता की स्मृति में स्थापित लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान (वर्ष २००९) शिरीष को उनके तीसरे कविता संग्रह "पृथ्वी पर एक जगह" के लिए दिया गया है। शिरीष को सम्मान देने की अनुशंसा विष्णु नागर, चंद्रकांत देवताले तथा अरुण कमल के तीन सदस्यीय निर्णायक मंडल ने सर्वानुमति से की है। सम्मान समारोह जनवरी माह में छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश में आयोजित होगा। सम्मान संबंधी यह घोषणा वसुधा पत्रिका के संपादक कमला प्रसाद ने की है। शिरीष की कविता पर कुछ न कहना चाहते हुए भी यह कह रहा हूँ कि हिंदी में कम कवि हैं जिनके पास इतनी सुगठित भाषा और विराट भाव संसार है।
शिरीष को इस सम्मान के लिए बधाई ।
यहाँ शिरीष की एक अप्रकाशित और प्रकाशित कविता पढ़ कर उन्हें बधाई दें।

मैं ऐसे बोलता हूँ जैसे कोई सुनता हो मुझे !

रात भर पुरानी फिल्मों की एक पसन्दीदा श्वेत-श्याम नायिका की तरह
स्मृतियां मंडराती
सर से पांव तक कपड़ों से
ढंकींकुछ बेहद मज़बूत पहाड़ी पेड़ों और घनी झरबेरियों के साये
में कुछ दृश्य बेडौल बुद्धू नायकों जैसे गाते आते ढलान पर

एक निरन्तर नीमबेहोशी के
बादमैं उठता तो एक और सुबह पड़ी मिलती दरवाज़े के
पारउसकी कुहनियों से रक्त बहाताउसकी
पीठ के नीचे अख़बार दबा होता उतना ही लहूलुहान
वह किसी पिटी हुई स्त्री सरीखी
लगातीमेरी पत्नी इसे अनदेखा करती जैसे वह सिर्फ मेरी सुबह हो उसकी नहीं
मैं अपनी सुबह के उजाले में अपने सूजे हुए पपोटे देखता
ठंडी होती रहती मेज़ पर रखी चाय
मेरे मुंह में पुराने समय की बास बसी रहती बुरी तरह साफ़ करने के बाद वह कुछ और गाढ़ी हो जाती
मेरे हाथों से उतरती निर्जीव त्वचा की सफ़ेद परत और मेरा बेटा हैरत से ताकता उसे
इस तरह अंतत: मैं तैयार होता और जाता बाहर की दुनिया में
और वहां बोलता ज़ोर ज़ोर से ऐसे जैसे कि कोई सुनता हो मुझे

रात में शहर

दिन की सबसे ज्यादा हलचल वाली जगहें ही
सबसे ज्यादा खामोश हैं
अबचौराहे पर अलाव जलायेपान की दुकान के बन्द होते समय
नियम से सुरक्षा शुल्क
मेंमिलने वाली सिगरेट फूँकते हैंपुलिस बल के दो महाबली सिपाहीएक
गठीला गोरखा भी है वहाँजो
अकेला ही `जागते रहो´ पुकारता घूमता
हैपास ही नेपाल मेंराजा की सुलायी
सदियों पुरानी नींद सेअकबका कर जाग रहीअपनी
शानदार जनता से बेखबरवह फिलहालरानीखेत की सर्द अक्टूबरी रात
और उसके जादू में कहींपोशीदा घूमतेलुटेरों
और सेंधमारों से खबरदार भर करता हैआसमान के सीने पर
टिमकते हैं तारेकभी-कभीटिमकती हैं यादें
उस गोरखे के सीने में भीगाता है जिसके लिएवह
अपना बेहद पसन्दीदा मगर गूढ़ नेपाली गानादूर
कहीं वह एक लड़की है बहुत सुन्दरफूलों वाला रिबन
बाँधेकच्चे दुर्गम पहाड़ी रास्तों से गुज़रतीक्या
उस तक भी पहुंचती होंगी ये बेतरतीबमगर मदमस्त स्वरलहरियाँदिन
भर की सख़्त मेहनत के बाद बमुश्किल नसीबअपनी
थोड़ी-सी नींद में भीजो न जाने किस बेचैनी में रह-रहकरकरवटें बदलती है ?
चीड़ों और बाँजों और देवदारों और ढेर सारीपहाड़ी इमारतों पर
पसरेअंधियारे मेंउसका यह अबूझ गान ओस की बूँदों-सा साफ़ चमकता
हैऔर कहीं जुड़ता है मेरी भी आँखों सेजिन्हें मैंने अभी-अभी पोंछा हैयह
मेरा ही शहर हैजिसे मैं बहुत कम देख पाता हूँमैं नहीं देख पाता
वो रस्ते जिनसे रोज़ गुज़रता हूँ नहीं मिल पाता उनसेजिनसे मैं रोज़ मिलता हूँ
उस चौराहे को तो मैं सबसे कम जानता हूँ रहता हूँ
ऐन जिसके ऊपर बनेअपने घर मेंयह जानना कितना अद्भुत है
कि उजाले में छुप जाती हैंकई सारी चीज़ेंऔर अंधेरा उन्हें उघाड़ देता
हैइस रास्ते पर एक पागल सोया है ऐसी पुरसुकून नींदजो
होश वालों की दुनिया मेंकिसी कोशायद ही मिलती हो इस क़दरवह
मानोहर चीज़ से फ़ारिग हैउसके सोये चेहरे पर मैल की कई परतों के
नीचेमुस्कुराता है एक बच्चावह नींद में भी अपने हाथ बढ़ाता
हैमगर कहीं कोई नहीं हैउसके लिएमाँ की कोई गोद नहींऔर
न ही आगोश किसी प्रेयसी काजो है तो बस यही रस्ताजिस पर से
मैं रोज़ गुज़रता हूँउस
परिचित को हृदयाघात हुआ थाजिसे मैंअभी छोड़कर आया अस्पताल तकयह
मालूम होते हुए भी
कि दरअसल इस शहर का सबसेहृदयहीन आदमी है
वहजानता हूँमेरा भी हृदय अब उतना सलामत नहीं रहाउसमें भी आने लगी हैं खरोंचेंउसके
और दिमाग़ के बीच तनी हुईकई-कईधमनियों और शिराओं में लगातार जारी हैएक
जंगतभी तो मेरी सूजी हुई कनपटियों के भीतरकिसी गुहा मेंकोई रह-रहकर चौंकता हुआ-साकहता है -खोजो ! खोजो उसे
वो शिरीषयहीं तो रहता है !
अपने ही शहर कीएक अनदेखी रात के बीचोंबीचख़ुद को ही
खोजताभटकतासोचता हूँ मैंकि ऐसा ही होता है लगातार
खुलती हुई दुनियाऔर बन्द होते जीवन मेंयह
बेहद दुखदलेकिनएक तयशुदा तरीका हैरोशनी से भरे किसी भी
दिल केअचानक
भभक करबुझ जाने का।

नोट- दूसरी कविता के वाक्य मेरे सम्पादन में उलझ गए हैं। शिरीष के ब्लॉग का अनुनाद आप यहाँ देख सुन सकते हैं।

Wednesday, October 28, 2009

नामवर के होने का अर्थ

नामवर को जानो भाई


जब 17 अक्टूबर की शाम में नामवर जी से फोन पर बात हुई थी तो यह तय हुआ था कि मैं और वे 23 अक्टूबर को इलाहाबाद में गले लग कर भेटेंगे । भेटने का प्रस्ताव मेरा था जिसे नामवर जी ने भावुकता भरे स्वर में स्वीकार कर लिया था। यह भेटना औपचारिक रूप से गले लगने जैसा न होकर उस तरह से होना था जैसे मायके में बहुत दिनों बाद आई बिटिया अपनों से मिल कर मन का बोझ हल्का करती हैं। भेट अकवार लेती हैं। नामवर जी को हिंदी के तमाम लोग दिल में रखते हैं। मैं अकेला नहीं हूँ जिसके मन में नामवर जी को लेकर यह श्रद्धा का भाव है। लेकिन दुर्योग देखिए कि वहाँ हिंदुस्तानी अकादमी में नामवर जी दिखे भी, दूर से प्रणाम आशीष भी हुआ लेकिन भेटना न हो पाया। ब्लॉगिग पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में उनका भाषण सुनने का मेरा कोई पहला अवसर न था। लेकिन हर बार की तरह वहाँ भी नामवर जी कुछ कह ही गए और लोग यह क्या यह क्या करते रह गए।


आज जब ब्लॉग के पिछले पन्नों पर गया तो वहाँ नामवर सिंह के विरोध का एक गुबार सा दिखा। कुछ को उनके बोलने पर आपत्ति है कुछ को उनके वहाँ आने पर कुछ को उनके उद्घाटन भाषण देने पर। मैं नामवर सिंह का प्रवक्ता नहीं लेकिन उनका समर्थक होने और कहलाने में कोई संकोच नहीं। आप मान सकते हैं कि मैं नामवर वादी हूँ। और दावे से कह सकता हूँ कि इलाहाबाद में उन्होंने जो कुछ ब्लॉगिंग पर कहा वह उनकी पिछले 65 सालों की हिंदी समाज की समझ थी, उससे उपजी धारणा थी। जिसे वे बिना लाग लपेट के कह सके।

उन्होंने अगर कहा कि ब्लॉगिंग पर भविष्य में नियंत्रण रखने की आवश्यकता होगी तो क्या गलत कहा। उनका यह कथन ब्लॉगिंग को लेकर उनकी गंभीर और दूरंदेश सोच को ही दिखाता है। वे चाहते तो कुछ अच्छी-अच्छी और भली लगने वाली आशीर्वचन टाइप की बातें कह कर खिसक सकते थे। ब्लॉग पर राज्य की निगरानी की बात पर छाती पीटने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि ब्लॉगिंग रेडियो, सिनेमा और टीवी के भी आगे का सामाजिक माध्यम बन कर सामने आया है। और जरा सी बात पर क्या से क्या छप जाता है। ऐसे में आज नहीं तो कल ब्लॉग को मर्यादित बनाए रखने के लिए एक नियंत्रक की आवश्यकता पड़ सकती है। अगर आज के सिनेमा को नियंत्रित न किया जाए तो क्या क्या दिखाएगा अपना सिनेमा जगत जिसे शायद चिपलूणकरादि भी नहीं झेल पाएँगे। कितने लोग गंदे साहित्य को घर-घर की दास्तान बना देंगे और कहेंगे कि मुझे कुछ भी छापने की आजादी दो। क्या जगमग ब्लॉगिंग के पीछे के कलुस और अंधकार को रोकने के लिए एक व्यवस्था के बारे में सोच कर नामवर ने अपराध कर कर दिया। क्या कल ऐसी किसी व्यवस्थापिका की जरूररत न होगी। चिपलूणकर और ईस्वामी जी को न होती तो खुद सुरेश चिपलूणकर ब्लॉग प्रहरी जैसे ब्लॉगजगत को नियंत्रित करने वाले अभियान में शामिल हैं । ब्लॉग प्रहरी यह दावा करता है कि ब्लॉग और ब्लॉग की दुनिया पर शुद्धता केंद्रित नियंत्रण रखेगा। चिपलूणकर का नियंत्रण किस आधार पर जायज हो जाता है और नामवर जी का नाजायज यह बात समझ में नहीं आती। और शास्त्री जेसी फिलिप जी साहित्य बलॉग के बहुत पहले से है जब लिखने का माध्यम नहीं था तब से है साहित्य और आपके ब्लॉग के जवान होने पर यह और परिपूर्ण होगा और एकदिन ऐसा आएगा ब्लॉग साहित्य का उपांग हो जाएगा । वैसे भी यह लिखने का एक माध्यम भर ही है ।

इसलिए ब्लॉग पर नियंत्रण की बात नामवर जी को उचित लगती है लगती है तो उसे कहने का उन्हें पूरा हक है। मैं ही नहीं ऐसे तमाम लोग होगें जो नामवर जी की बात का समर्थन करते होंगे।

इलाहाबाद में बोलते हुए 23 अक्टूबर को नामवर जी ने एकबार भी यह नहीं सोचा कि यह ब्लॉगिंग तो उनकी दुनिया है नहीं। क्योंकि चिपलूणकरादि उन्हें ब्लॉग समाज का नहीं मानते। फिर वहाँ नामवर जी गए क्यों, गए तो बोले क्यों, बोले तो ऐसा क्यों बोले जो किसी ब्लॉगिए को बेध गया। ब्लॉग पर बोलने के लिए मुनीशों प्रमेंद्रों ईस्वामियों आदि के लिए ब्लॉगर होना जरूरी है। तो क्या सच में ब्लॉग कुछ हजार दो हजार चिट्ठाकारों का प्राइवेट अखाड़ा है, अलहदा दुनिया है। जिसे साहित्य या सिनेमा की तरह आम जन से काट कर रखना है। जिन्हें नामवर जी के इलाहाबाद सम्मेलन में आने और बोलने से आपत्ति है मुझे लगता है कि वे ब्लॉग को अजूबा और पवित्र वस्तु मान कर अपने कब्जे में रखने की साजिश रच रहे हैं । जब नामवर जी जैसे विराट व्यक्तित्व के सहभागी होने से इसके आम जन तक पहुँचने का रास्ता खुल रहा है तो हाय तौबा मचा रहे हैं, बौखला रहे हैं।

बेशक नामवर जी पुराने लोग हैं लेकिन कुंद नहीं हैं। उनकी समझ और धार आज भी कायम है । हालांकि वे आज भी कलम से लिखते हैं, कम्प्यूटर के की बोर्ड पर अंगुली फिराकर उनका काम खत्म नहीं हो जाता। यह तो ब्लॉगरों के लिए खुशी की बात है कि नामवर जी जैसे आलोचक ब्लॉग की अहमियत समझ रहे हैं। इसमें आपा खोकर नामवर विरोधी हो जाने की क्या जरूरत है। हिंदी का सबसे पुराना आलोचक अभिव्यक्ति के सबसे आजाद माध्यम पर बोल रहा है। यह कितनी बड़ी घटना है। अमूमन बुजुर्ग लोग नए पर नाक भौ सिकोड़ते हैं। नामवर जी उन सठियाए लोगों में नहीं हैं, तो क्या यह उनका अपराध है।

नामवर जी को वहाँ यह खयाल नहीं रहा कि उनके बोलते ही तमाम लोग अगिया बैताल की तरह उन पर लपक पड़ेंगे। वे बेधड़क बोले क्योंकि उनको बेधड़क बोलने की दीक्षा मिली है। वे हमेशा खुल कर बोलते रहे हैं। वे ठीक से समझ रहे हैं कि केवल माध्यम बदला है, माध्यम का सरोकार नहीं। लिखने का तौर तरीका बदला है लिखाई और बातें उनके ही देश समाज की भाषा हिंदी की हिंदी में हो रही है। जिसे वे 65 सालों से जीते लिखते और 80 साल से बोलते आ रहे हैं। क्या ब्लॉग या चिट्ठाकारी की दुनिया पर बोलने के मामले में उनकी हिंदी की 65 साल की सेवा अकारथ हो जाती है। और कोई ब्लॉग लेखक उनसे सवाल पूछने का अधिकारी हो जाता है कि वे किस बिना पर ब्लॉग पर बोल सकते हैं। तो मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि वे आज की हिंदी के जीवित इतिहास और वर्तमान हैं। वे हिंदी हैं, हिंदी के अभिमान हैं। नामवर सिंह का विरोध हिंदी का विरोध है। जो का ऐसा कर रहे हैं वे नामवर के होने का अर्थ नहीं जानते। यदि उन्हें हिंदी की एक नई विधा पर बोलने का अधिकार नहीं है तो किसे है। क्या मूनीश बोलेंगे या प्रेमेंद्र बोलेंगे या शास्त्री जेसी फिलिप या चिपलूणकर या कोई ईस्वामी और अन्य महाशय बोलेंगे। क्या यह अधिकार उसे ही मिलेगा जो ब्लॉग के माध्यम का पंडित हो और सुबह शाम ब्लॉग-ब्लॉग का जाप करता हो।

हालाकि किसी के थोथे विरोध से नामवर सिंह पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर किसी को नामवर का खंडन मंडन करना हो तो पहले नामवर को जानो। जानो की उनका अवदान क्या है। जानो कि उन्होंने हिंदी को क्या दिया है। बिना जाने नामवर को नकारने कोशिश एक बेबुनियाद लड़ाई होगी। कुंठा का इजहार ही होगा। नामवर पर थूकना आसमान पर थूकने जैसा है। इस थुक्का फजीहत की कोशिश से उनका तो कुछ न बिगड़ेगा। छींटे आप पर ही पड़नेवाली हैं।

मेरा मानना है कि ब्लॉगिंग पर हुई इलाहाबाद संगोष्ठी में उद्घाटन भाषण के लिए नामवर सिंह से बेहतर कोई नाम है ही नहीं हिंदी के पास। यदि कोई नाम हो तो मैं पूछता हूँ कि नामवर सिंह न बोलते तो कौन बोलता ? आपक पास एक नाम हो तो बताने की कृपा करें। और यदि अशोक वाजपेयी को बोलने के लिए बुलाया जाता तो आप स्वागत करते। अगर केदारनाथ सिंह को बुलाया जाता तो आप खुश होते अगर कुँवर नारायाण बोलते तो आप हर्षित होते अगर विष्णु खरे बोलते तो आप तो राहत होती। नहीं साहब आप की अंतरात्मा दुखी है। आप को सिर्फ आपके ही बोलने पर सुख मिलता। चिपलूणकर जी अन्यथा आप को संतोष कहाँ। आप तो नामवर से भिड़ने के लिए उनसे सवाल करने के लिए कटिबद्ध है। गिरोह बद्ध हैं।

हम सब मानते हैं कि नामवर जी का साम्प्रदायिकता से विरोध है। उनका ही नहीं हर उस आदमी का साम्प्रदायिकता से विरोध होगा जो कि सचमुच में इंसान होगा। जो हैवान है हम चाहेंगे कि वह भी एकदिन गैर साम्प्रदायिक हो जाए, इंसान हो जाए। इस आधार पर इलाहाबाद में ही नहीं कहीं भी नामवर सिंह के साथ किसी भी आयोजन में साम्प्रदायिक लोगों के लिए, सेक्टेरियन सोच वालों के लिए कोई जगह नहीं है । इसके लिए भूलचूक की भी कोई गुंजायश हम नहीं चाहते। नामवर सिंह जी भी नहीं चाहते। रही बात हिंदी के उदार लोगों के साथ मंच साझा करने में तो उसके लिए किसी भी हिंदी सेवी को कोई गुरेज क्यों हो। इलाहाबाद सम्मेलन में भी नामवर सिंह को कोई दिक्कत नहीं थी। उनके साथ बोलने वाले तमाम लोग वामपंथी नहीं थे क्योंकि वह हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया थी हिंदी वामपंथ की दुनिया नहीं। लेकिन आप यह क्यों चाहते हैं कि नामवर जी जहाँ जाएँ अपनी दृष्टि छोड़ कर जाएँ। अपना नामवरी अंदाज और ठाठ तज कर जाएँ। यह तो एक तानाशाह रवैया दिखता है आप सब का।

आप को नामवर जी ब्लॉगिंग के योग्य क्यों दिखेंगे। क्योंकि आपकी दुनिया केवल ब्लॉग तक सिमटी है । लेकिन हिंदी तो केवल ब्लॉग की मोहताज नहीं है। और उसके किसी भी माध्यम पर आपसे अधिक नामवर का हक है। कल को कोई आश्चर्य नहीं अगर नामवर जी अपना बलॉग बना लें। तो आप क्या कहेंगे । शायद यह आपके लिए एक अलग चिंता का कारक होगा।

हिंदी के लोग मुझसे बेहतर जानते है कि हिंदी का मामला आते ही नामवर जी को पता नहीं क्या हो जाता है । जहाँ कहीं भी हिंदी के पक्ष में खड़े होने का मौका आता है वे चल पड़ते हैं । वे देसी आदमी हैं। देशज वेश-भूषा धोती-कुर्ता और पैरों में चप्पल पहने वे हिंदी की जय करते रहते हैं। जिन्हें पिछले कई दशकों से लोग पढ़ते सुनते देखते आ रहे हैं। 1986 से तो मैं खुद देख सुन रहा हूँ। अगर शास्त्री जेसी फिलिप साहित्योन्मुखी रहे होते तो 1976 से तो देख सुन रहे होते। जैसे 1966 से मैनेजर पाण्डे देख सुन रहे हैं और 1956 से मार्कण्डेय और केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण ।

मुँह में 120 नंबर की पत्ती के साथ पान दबाए वह इस महादेश के इस छोर से उस छोर से पिछले 60 सालों से घूम रहे हैं। वे केवल राजधानी दिल्ली की चकाचौंध में घिर कर नहीं बैठे हैं बल्कि आप उन्हें गाजीपुर बलिया में बोलते पा सकते हैं आप उन्हें इलाहाबाद भोपाल में हाथ उठाकर अपनी बात रखते देख सकते हैं। वे हिंदी से बने हैं और हिंदी के लिए मिटने को तैयार खड़े हैं। 81-82 साल की उमर में भी वे हिंदी के नाम पर कहीं भी पहुँच जाते हैं। लोग उसके पिछले भाषण से ताजे भाषण का मिलान करने में उलझे होते हैं और वे हिंदी के वर्तमान को हिंदी के भविष्य और भूत दोनो को मिला रहा होते हैं। वे नूतनता का इस कदर आदर करते हैं कि ब्लॉगिग जैसी एक बन रही विधा को एक बार सिरे से खारिज कर देने के बाद भी उस पर पुनर्विचार के लिए खम ठोंक कर खड़ा हो जाते हैं । वे ब्लॉगिंग को खतरे उठा कर भी लोकतंत्र का पाँचवा खंभा तक घोषित कर देते हैं।

अब अपने नामवर जी कोई कपड़ा या साबुन कि बट्टी तो हैं नहीं कि चिपलूणकर जैसे लोगों को कह दें कि बगल के स्टोर से खरीद कर परख लें। जाँच लें । नहीं भाई यह नामवर सिंह कोई सस्ता और टिकाऊ टाइप सामान तो हैं नहीं । यह तो हिंदी को अपने विशाल चौड़े कंधे पर उठाए फिर रहा एक साधक हैं जो सदा से तन कर खड़ा है। बज्रासन में डटा है। यह उनकी सहजता है कि वे सब जगह जाते रहते हैं। उनके लिए सब अपने हैं। आम से खास तक सबको वे अपना समझते हैं। इसका मतलब नहीं कि आप सब लपक लो और उन्हें उठा कर घूरे पर रख दें। नहीं आप जैसे या कैसे भी लोग नामवर सिंह को कहीं भी नहीं रख सकते । हम नामवर के लोग आपको ऐसा हरगिज न करने देंगे।

नामवर सिंह का हिंदी के लिए किया गया कार्य इतना है कि उन्हें किसी भी मंच पर जाने और अपनी बात कहने का स्वाभाविक अधिकार मिल जाता है। उनके चौथाई योगदान वाले कई-कई दफा राज्य सभा घूम चुके हैं। वे कुलाधिपति बाद में है हिंदी अधिपति पहले हैं। हिंदी का एक ब्लॉगर होने के नाते आप सब को खुश होना चाहिए कि हिंदी का एक शिखर पुरुष आपके इस सात-नौ साल के ब्लॉग शिशु को अपना आशीष देने आया था। आप आज नहीं कल इस बात पर गर्व करेंगे कि नामवर के इस ब्लॉग गोष्ठी में शामिल होने भर से ब्लॉग की महिमा बढ़ी है। कम होने का तो सवाल ही नहीं।

नामवर सिंह के बारे में कम में कहूँगा तो आप समझेंगे नहीं और अधिक कहूँगा तो बात किताब की शक्ल में दिखेगी। लेकिन सोचनेवाली बात है कि जिस आलोचक नें 15 से अधिक किताबें लिखी हों और सौ से अधिक किताबें संपादित की हों। जिसके आलोचना सिद्धान्त आज हिंदी साहित्य को दिशा देते हैं उसके बारे में एक पोस्ट लिख कर
समझाया भी नहीं जा सकता । न एक पोस्ट ...हाँ यदि आपको लगता है कि आप नामवर जी को जाने और तो उनकी ये कुछ किताबें हैं जिन्हें नामवर के समर्थक और विरोधी सब को पढ़नी चाहिए। बकलम खुद, कविता के नए प्रतिमान, वाद विवाद संवाद, छायावाद, साहित्य की प्रवृत्तियाँ, दूसरी परम्परा की खोज, हिंदी के विकास में अपभ्रंस का योग, कहानी नई कहानी, पृथ्वीराज रासो की भूमिका, कहना न होगा, आलोचक के मुख से, इतिहास और आलोचना जैसी कितनी पुस्तकें हैं जो देश के किसी भी पुस्तकालय में आसानी से मिल जाएँगी। इस उम्र में भी वे लगातार बोल कर व्याख्यान देकर वाचिक परम्परा के उन्नायक के रूप में हिंदी को समृद्ध करते जा रहे हैं। यदि नामवर विरोधी लोग उनकी कोई भी किताब पढ़ कर बात करेंगे तो शायद यह कहने की हिमाकत न करेंगे कि नामवर जी ने ब्लॉग संगोष्ठी का उद्घाटन क्यों किया। यह बनारसी आचार्य मुझे नहीं लगता कि भाषण का भूखा है। हाँ यह जरूर है कि वह चाहता है कि हिंदी की उन्नति उस हद तक हो और इतनी हो जहाँ से कोई यह न कह सके कि यह कौन सी गरीब भाषा है।

आप को लज्जा आती होगी आपको हीनता का बोध होता होगा लेकिन हमें गर्व है कि हम उस नामवर को फिर-फिर पढ़ गुन और सुन पाते हैं जो अपनी मेधा से हिंदी के हित में लगातार लगा है। हम उसे प्रणाम करते हैं और कामना करते हैं कि वह ब्लॉग ही नहीं आगे के किसी और माध्यम पर बोलने के लिए हमारे बीच उपस्थित रहें।
तो भाई नामवर से असहमत हो सकते है लेकिन रद्दी की टोकरी में डाल सकते। आप उनके समर्थक हो सकते हैं विरोधी हो सकते हैं लेकिन उन्हें निरस्त नहीं कर सकते।

Thursday, October 8, 2009

खेल संस्कृति नहीं खल संस्कृति

उषा क्यों नाराज हो
पी.टी.उषा तुम्हारे साथ मध्य प्रदेश जो हुआ उसे सुन कर बस एक ही बात ध्यान में आई कि देश में खेल संस्कृति नहीं बल्कि खल संस्कृति का राज है।

Sunday, October 4, 2009

श्री कृष्ण बोले तो खानदानी चोर

मोरे अवगुन चोरी करो

श्री कृष्ण को चोर वे ही कहते हैं जो उन्हें बेहद प्यार करते हैं। तभी तो राजस्थानी के एक कवि ने उन्हें बड़े गौरव के साथ चोर कह कर पुकारा है कि आओ और मेरे अवगुन चुराओ।

आजकल एक राजस्थानी किताब पढ़ रहा हूँ वीर विनोद। स्वामी गणेशपुरी(पद्मसिंह) ने इसकी रचना की है। स्वामी जी का जन्म 1826 और मृत्यु 1946 में हुआ था। ग्रंथारम्भ में उन्होंने श्री कृष्ण के साथ ही उनके पूरे कुटुंब की स्तुति की है। उस स्तुति में गणेशपुरी ने कृष्ण को खानदानी चोर कहा है। मैं यहाँ पर राजस्थानी में की गई वंदना और बाद में उसका श्री चंद्र प्रकाश देवल जी द्वारा किया गया गद्यानुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।

सकुटुंब नंदनंदन स्तुति
।। मनोहर छंद।।
पाहन ससुर चोरे सत्यभामा चोरे तरु,
चोरी वंसी राधिका नैं कह्यो फेर डरको।।
चोरी कहौं रावरो तौ जीभ नाहीं लंबी चोरी,
चोरयो दधि दूध जामैं हिस्सा हलधर को।।
चोरन के चोर बसुदेव नंदराय चोर,
चोरन को जने परे मात चोर पर को।।
जांनों हरि ग्रंथ के अमंगल हू चोरे जेहैं,
जैहैं कित चोरी को स्वभाव सब घर को।।

" हे कृष्ण आपके ससुर ने मणि चुराई और आपकी पत्नी सत्यभाम ने इंद्र के सुनन्दन बाग से कल्पवृक्ष चुराया। आपकी प्रेयसी राधा ने स्वयं आपकी बांसुरी चुराई और कहा कि इस (चोरी) में डरना क्या । आपकी स्वयं की की हुई सारी चोरियाँ गिनवाऊँ इतनी तो मेरी जिह्वा की औकात नहीं पर कुछ छोटी चोरियाँ ते बता ही देता हूँ। आप जो दूध दही और मक्खन चुराते रहे उसमें हलधर बलराम का भी हिस्सा होता था इसलिए आपके भाई का शुमार भी चोरों में होगा।
इसी तरह आपको चोरों की तरह जन्म देने के सबब वसुदेव और माता देवकी भी चोर ठहरे और वहाँ से चोरी पूर्वक आपको ले जाकर पाल ने वाले नन्द बाबा और यशोदा मैया भी चोर हुए।

हे कृष्ण मुझे विश्वास है कि आप मेरे इस ग्रंथ के त्रुटि रूपी अमंगल को भी चुरा लेंगे क्योंकि आपकी सपरिवार चोरी की आदत है। और प्रसिद्ध खानदानी चोर से उसकी आदत इतनी आसानी से छूटती नहीं है यही सोच कर ग्रंथ के आरम्भ में आपकी स्तुति कर रहा हूँ।"

स्वामी जी ने श्री कृष्ण की अनेक चोरियों को एक ही पंक्ति में निपटा दिया। वे याद नहीं कर पाए कि कैसे बचपन में गोपियों के कपड़े चुराने वाले ने अपनी प्रेयसी रुक्मिणी को चुराया और उसी पैटर्न पर अपनी बहन सुभद्रा और अर्जुन को चोर बनाया। कैसे चोरी से यानी छिप कर द्रौपदी की लाज बचाई। क्या आप गिना सकते हैं ऐसे अनोखे खानदानी चोर श्री कृष्ण और उनके खानदान की कुछ चोरियाँ।

Friday, October 2, 2009

मैंने अपना नाम फिर बदल लिया है

अगर अमर होना है तो नाम बदल लो

कबीर साहेब को अमर होने के लिए राम के नाम का सहारा था लेकिन भानी तो अपने नाम के सहारे ही अमर होने का सूत्र पा गई हैं। भानी मेरी पाँच साल की बेटी है। कल वह मेरे पास आई और बोली पापा मैं कभी मरूँगी नहीं, क्योंकि जिनका नाम भानी होता है वे कभी मरते नहीं। चाहे मैं फिफ्टी इयर की हो जाऊँ या टू थाउजेंड इयर या ट्वेंटी इयर की मैं कभी भी नहीं मरूँगी। लेकिन तुम सब मर जाओगे। तो न मरना हो तो अपना नाम बदल कर भानी रख लो। मैंने कहा एक घर और चार भानी। कैसा रहेगा। तो भानी ने कहा कि नहीं दादी का भी नाम भानी रखना पड़ेगा। सब का नाम बदलना पड़ेगा।

तो भाई अब से मैं भानी हूँ बोधिसत्व या अखिलेश नहीं क्योंकि मैं मरना नहीं चाहता। आप लोग भी अगर अमर होना चाहते हैं तो फटाफट अपना नाम बदल कर अमर हो जाएँ। अमर होने का इतना सस्ता उपाय कभी नहीं मिलेगा। यह सुनहरी मौका चूकिए मत। नहीं तो फछताना पड़ेगा।

मेरे पूछने पर भानी ने बताया कि उसे नाम के कारण अमर होने का यह मोहक विचार उसके सहोदर भाई मानस ने दिया है। किसी फिल्म में कोई पात्र मर गया तो भानी ने उदास होकर पूछा कि यह क्यों मरा । भाई साहब जल्दी में थे तो कह दिया कि इसका नाम भानी नहीं था, इसलिए मर गया। इसका नाम भानी रहा होता तो यह न मरता। खैर अभी तो भानी अमर होने की खुशी में खेल रही हैं। मैं उनकी यह खुशी क्यों छीनूँ। मैं तो दुआ ही करूँगा कि वह सच में अमर हो जाए।

Sunday, September 13, 2009

तीस साल तक क्या गुलाम थे विष्णु खरे जी








इतना चुप रहेंगे तो कैसे कहेंगे



हिंदी में कम ही पुरस्कार हैं जिन्हें भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार के जैसा आला दर्जा हासिल है। किसी के कुछ कहने भर से इस पुरस्कार की मर्यादा कदापि कम न होगी। भले ही पुरस्कार पर सवाल उठाने वाला व्यक्ति इस पुरस्कार की सम्मानित ज्यूरी का सदस्य ही क्यों न हो....मैं बात विष्णु खरे जी की कर रहा हूँ। भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता सम्मान के संदर्भ में संकलित पुस्तक उर्वर प्रदेश की भूमिका में लिखित विष्णु खरे जी की इस प्रतिक्रिया रूपी टिप्पणी या लेख पर मुझे कुछ नहीं कहना है। क्योंकि इसमें अलग से कहने लायक कुछ है भी नहीं। कुछ निष्कर्ष हैं जो कोई भी निकाल सकता है, उन्होंने भी निकाला है। अगर विष्णु जी को यह लगता है कि कई कविताएँ भारत भूषण पुरस्कार के लायक नहीं थीं या कई कवि पुरस्कार पाने के बाद उचित दिशा में विकसित नहीं हुए तो उन्हें बोलने और कहने का पूरा अधिकार है। वे हमारे साहित्यिक समुदाय के एक एक बुजुर्ग जो हैं।

मेरे मन में उनकी छवि एक दबंग और स्पष्टवादी व्यक्ति या कहें कि लट्ठमार आलोचक या आजाद खयाल शहरी की रही है। दशाधिक बार उन्हें उनके विचारों को बेचारे की तरह नहीं बल्कि पूरी दहाड़ के साथ प्रकट करते सुना देखा है। उनकी यह दहाड़ यहाँ इस लेख में भी सुनी जा सकती है। लेकिन पता नहीं क्यों उनकी इस दहाड़ में एक बेचारगी का सुर दिख रहा है। मेरे विचलन का कारण भी उनकी अक्खड़ छवि के पीछे छिपी यही बेचारगी है। मैं इस खयाल से ही व्यथित होता जा रहा हूँ कि उनके जैसा स्वतंत्रता प्रिय व्यक्ति एक पुरस्कार समिति के दायरे में इतने दिनों तक कैसे घुट घुट के कैद रहा और उन तमाम कवियों को बेहतर और उत्कृष्ट कवि होने का प्रमाण पत्र देता है जिनकी कविताएँ उसे कत्तई किसी दर्जे की नहीं दिखतीं। अपने घर में टंगे भारत भूषण सम्मान पत्र पर उनके हस्ताक्षर देख कर उनका मजबूरी में दस्तखत करता अपमानित लज्जित मुख सामने कौंध गया। उनका यह हस्ताक्षर किसी संधि पत्र पर आँसुओं से हस्ताक्षर करने जैसे रूपक की याद दिलाता है। तीस साल, तीस हस्ताक्षर जिनमें कम से कम तेइस हस्ताक्षर तो उन्होंने मजबूरी में किए यानी कम से कम तेईस रातें तो मुँह छिपा कर रोकर काटी होंगी हिंदी के इस ईमानदार पुरस्कार दाता ने।

मैंने कल उनसे फोन पर इस बारे में बात करने की सोची । वे लखनऊ में थे, उनसे बात हुई भी। लेकिन मुझे लगा कि उन्हें उनकी गुलामगीरी या मजबूरी की याद दिलाकर उनको दुख देना अन्याय होगा, गए वक्तों के लोग हैं, 70 साला बुजुर्ग है, मान और प्यार न दे सकूँ तो उनकी बाँतों में छिपी वेदना तो समझ सकूँ, उनके मन के नाजुक जख्म को अगर सहला न सकूँ तो उन्हे कुरेदकर कर उन पर नमक भी तो न छिड़कूँ । उनको मुंबई में यारी रोड बरिस्ता पर मिलने के वादे के साथ उनके हाल पर छोड़ना बेहतर समझा।

मैं उम्मीद करूँगा कि अपने इस आजादी की अभिव्यक्ति के बाद हम सब के बुजुर्ग विष्णु खरे जी भारत भूषण स्मृति कविता सम्मान के किसी ऐसे प्रमाण पत्र पर दस्तखत न करेंगे, जिसके खिलाफ उन्हें कहीं बोलना या मुँह खोलना पड़े। आखिर वे किसी गुलाम देश, भाषा या संस्कृति के पिछलग्गू नहीं एक सफल अनुवादक, एक कुशल पत्रकार, एक आजाद खयाल आलोचक, एक सख्त कवि, एक संस्कारवान संस्कृति कर्मीं, और एक सच्चे पुरस्कार दाता रहे हैं।

मैं उनकी आलोचना पर लहालोट हो रहे तमाम समर्थकों से भी कहना चाहूँगा कि भाई उनकी मजबूरी का बयान करती आलोचना के सत्कार में जब कूदो तो उनके दुत्कार को यूँ चापलूसों की तरह तो न चाटो, बल्कि उनकी बेकली को समझो। यह तो समझने की कोशिश करो कि आखिर हमारे समय का एक समर्पित साहित्यिक तीस साल तक कितने दुखों और अपमान की अंधेरी खूनी नदियों और कीचड़ से सनी बजबजाती कोठरी फंसा रहा। बंधक रहा। भाई उसे बल दो और रास्ता दिखाओ कि वह ऐसे किसी बंधन से आजाद होने का कोई उपाय कर सके। वहाँ से निकल कर खुली हवा में जी सके। मैं व्यक्तिगत तौर पर विष्णु जी के सुख चैन भरी आजादी के लिए दुआ करता हूँ। वे शतायु हों, उनकी आजाद खयाली निर्बंध बनी रहे। और यह प्रार्थना भी करूँगा कि विष्णु जी तीस साल चुप रहेंगे तो बाद वालों से कैसे कहेंगे कि बोलते रहो, विरोध में आवाज लगाते रहो। क्योंकि भारतेंदु जैसे लोगों को कुल 35 साल की उमर ही नसीब हुई। भला सोचिए कि वे 30 साल चुप रहते तो अंधेर नगरी में चौपट राजा को थू...थू कैसे कहते।
( ऊपर बाएँ भारत भूषण पुरस्कार का एक प्रमाण पत्र, नीचे विष्णु खरे जी और उनके ऊपर प्रमाण पत्र पर किया गया उनका मजबूरी का हस्ताक्षर)
प्रसंग में ग्वालियर में रह रहे एक युवा कवि अशोक कुमार पाण्डे की एक टिप्पणी उनके बलॉग युवा दखल पर भी देखें।

Saturday, August 15, 2009

भारतीय साहित्य में क्या खाक रखा है ?

पराए पत्तल का भात अच्छा लगता है भाई

मैं अपने साथ के किसी भी लेखक कवि आलोचक से कत्तई नाराज नहीं हूँ। मेरा नाराज होने का कोई हक भी नहीं बनता। यदि भारतीय कविता या साहित्य में कुछ है ही नहीं तो वे क्या करें। बेचारे। विपन्न जो ठहरे। वे लोग यदि बात बात पर अपने लेखों में यदि विदेशी कविता के स्वर नहीं छापेंगे तो क्या देशी कविता छाप कर देशज होने का लांछन अपने सिर लेंगे। वे यदि विदेशी भाषा के आलोचकों के विचारों से ऊर्जा नहीं ग्रहण करेंगे तो क्या देशी घुग्घू पंडितो के अछूत विचारों से प्रभावित होकर अपनी तौहीन कराएँगे। वैसे भी पराए पत्तल का भात अच्छा लगता है। ब्लॉग से लेकर साहित्य तक जिसे देखिए विदेशी कविता की माला फेर कर गदगद है। हर कोई छापे उच्चारे पड़ा है। मैं भी उन सब कवियों कविताओं आलोचक और आलोचनाओं का हार्दिक स्वागत करता हूँ। किंतु वे सभी मेरे लिए न तो आदर्श हैं नही कंठहार बनाने का कोई मन है। मैं तो देशी कविता से ही नहीं उबर पा रहा हूँ। हाँ जब देशी को पढ़ कर तृप्त हो जाऊँगा तो देखूँगा बाहर के महान काव्य स्वरों को। यह मेरा हठ है। क्या करूँ।

अभी राहुल सांकृत्यायन का संस्कृत काव्य धारा पढ़ कर मस्त मगन था कि साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित एक दुर्लभ ग्रंथ सदुक्ति कर्णामृत हाथ लग गया। श्री धर दास न इसे 1205 -6 में संकलित सम्पादित किया था। ऐसे प्राचीन ग्रंथ को सुव्यस्थित ढंग से अनूदित और सम्पादित किया है संस्कृत हिंदी के प्रकाण्ड विद्वान राधा वल्लभ त्रिपाठी ने। हर कंटेंट पर पाँच कविताएँ हैं। कुल चार सौ छिहत्तर विषयों पर इस ग्रथ में दो हजार तीन सौ साठ कविताएँ संस्कृत मूल के साथ संकलित है। मैं दावे से कह सकता हूँ कि हर कविता अनमोल है और देशी विदेशी किसी भी कवि या कविता से अपने कथन में कहीं बहुत सुचिंतित और सुगठित है। राधा वल्लभ जी ने हिंदी और संसकृत के बीच एक सुदृढ़ सेतु के रूप में अपनी भूमिका दर्ज कराई है। उनके काम का सत्कार किया जाना चाहिए। आज उनके सदुक्ति कर्णामृत से दो कविताएँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। आगे इसी क्रम में मंगलदेव शास्त्री, राहुल सांकृत्यायन, बशीर अहमद मयूख, नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, गोविंद चंद्र पाण्डे, रघुनाथ सिह, प्रभुदयाल अग्निहोत्री, आचार्य राम मूर्ति, कमलेश दत्त त्रिपाठी, मुकुन्द लाठ, जगन्नाथ पाठक, कपिलदेव दिवेदी इत्यादि विद्वानों द्वारा किए गए अनुवादों को इस कामना के साथ छापूँगा कि मित्रों कभी कभार इधर भी देख लो अपने घर में अपने दरिद्र कोठार में । इसी कोठार से मैं मयूख जी की एक कविता पहले भी यहाँ छाप चुका हूँ।
आज आप पढ़े दरिद्र की ग्रृहणी विषय में संकलित पाँच में से दो कविताएँ।

दरिद्र की घरवाली

पूरी तरह बैरागन बन गई है अब वह
गल रहा है उसका तन
तन पर के कपड़े
हो रहे हैं चिथड़े-चिथड़े
भूख से कुम्हलाई आँखों और पिचके पेट वाले
उसके बच्चे
उससे करते हैं निहोरा
कुछ खाने के लिए
दीन बन गई है वह
लगातार बहते आँसुओं से धुला है उसका चेहरा
दरिद्र की घरवाली
एक पसेरी चावल से
काट लेना चाहती है सौ दिन। ( कवि वीर)

गरीब की जोरू

वह भीग चुके सत्तू का शोक मना रही है
वह चिल्ल पों मचाते बच्चों को चुप करा रही है
वह चिथड़े से पानी के चहबच्चे सुखा रही है
बचा रही है बिस्तर पुआल का
इस टूटे टपकते पुराने घर में
टूटे सूप के टुकडे से ढंकते हुए सिर
क्या-क्या नहीं कर रही है गरीब की घरवाली
जबकि देव बहुत जोर से बरस रहे हैं लगातार। ( कवि लंगदत्त)

सदुक्तिकर्णामृत, मूल्य-५०० रूपए, पृष्ठ-८००, संपादक राधा वल्लभ त्रिपाठी, साहित्य अकादमी, रवीन्द्र भवन, 35 फिरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली-110001

Wednesday, August 12, 2009

जीना केहिं बिधि होय

घर में कैद हैं

पिछले कई महीनों से बड़ी मुश्किल में हूँ। घर परिवार के अलावा भोजन और भटकन के आस-पास जीवन का रस जुटा था। वहाँ भी सेंध लग गई है। मिठाई खाता रहा हूँ लेकिन जब से नकली मावा और खोया बड़े पैमाने पर पकड़े गये मिठाइयों का स्वाद कम हो गया। बेसन के लड्डू को मैं मिठाई में गिनता नहीं था, लेकिन मजबूरी में आज कल वह भी मीठा हो कर इतरा रहा है। छेने की मिठाई भी उसी तरह मिलावट की मार से पराई हो गई है।

जलेबी बेहद पसंद करता था लेकिन नकली तेल और मिलावटी बेसन ने उससे भी दूर कर दिया है। यही नहीं इन हरामी नक्कालों ने दो वक्त के भोजन को भी बेस्वाद कर दिया है। जब से समझदार हुआ हूँ, गाढ़ी अरहर की दाल में दो चम्मच घी डाल कर खाता रहा हूँ। लगभग हर दिन गुड़ घी रोटी भी गूलता रहा हूँ, लेकिन हड्डी-चर्बी और पता नहीं क्या क्या मिला कर बेंचे जा रहे घी की खबर ने दाल को भी स्नेह से हीन कर दिया और गुड़ घी रोटी से वंचित । घर के दूध से जितना घी बन पा रहा है उसी से किसी तरह मन को संतोष दे रहे हैं।

देर रात में दो से तीन बजे के बीच ठंडे दूध में लाई बिस्किट और थोड़ा सा गुड़ डाल कर खाता था। यह सिलसिला भी पिछले कई सालों से चल रहा है। लेकिन मेरे मुहल्ले चारकोप से ही 1800 लीटर नकली दूध जब से मिला है दूध से दुश्मनी सी हो गई है। मेरे मुहल्ले के मिलावट करने वालों ने तो पानी तक साफ नहीं मिलाया था। जब उन्हें धरा गया तो वहाँ दूध बनाने के लिए लगभग 500 लीटर नाले का गाढ़ा गंदा पानी भर कर रखा मिला। उसके बाद से इस डेरी से उस डेरी भटक रहा हूँ लेकिन किसी भी दूध को ठीक नहीं मान पा रहा हूँ । हर दूध मिलावटी सा दिख रहा है। डर-डर कर चाय पी रहा हूँ। डर-डर कर कॉफी। जीना मुहाल है। मिलावट की मार झेल ही रहा था कि यह आ गया स्वाइन फ्लू। इसने तो रहा सहा भटकने का सुख भी छीन लिया है।

सरकार बड़े मजे से कह रही है कि पब्लिक प्लेस पर न जाएँ। अरे भाई घर के अलावा ऐसा कौन सा स्थान बचा है जो पब्लिक प्लेस नहीं है। बच्चों को लेकर पार्क नहीं जा सकता । बेटी को झूले पर नहीं चढ़ा सकता । सिनेमा नहीं दिखा सकता। पसंद की मिठाई नहीं खा सकता। बेफिक्र हो कर दूध और चाय नहीं पी सकता। दाल में घी नहीं डाल सकता, गुड़ घी रोटी नहीं खा सकता। तो कर क्या सकता हूँ। अगर अपने मन का कुछ कर ही नहीं सकता हूँ, बाहर जाकर घूम नहीं सकता केवल घर में कैद हो कर रहना है तो बेहतर है जेल भेज दो वहीं रहेंगे। जो दोगे खा लेंगे। जितने दायरे में रखोगे रह लेंगे। मान लेगें कि मेरी दुनिया इतनी ही रह गई है। इतना ही खाना है इतना ही जीना है।

Tuesday, June 16, 2009

करे कोई भरूँ मैं...ऐसा क्यों है

कल क्या होगा

पिछले तीन महीने से फोन पर मुझे सृजित कह कर गालियाँ दी जा रही हैं। बैंक का कोई रिकवरी एजेंट मेरे घर के नंबर पर फोन करता है और मुझसे कहता है कि मैं सृजित हूँ और मुझ पर उसके बैंक का बकाया है। वह रिकवरी एजेंट मुझसे कहता है कि मैं बैंक के क्रेडिट कॉर्ड से पैसा खाकर गुल हो गया हूँ। और, जब भी मैंने उसे यह समझाने की कोशिश की कि सृजित नहीं हूँ तो उसने मुझे चुन-चुन के गालियाँ दीं। साथ ही उसने यह भी धमकी दी कि मुझे उठा लेगा, देख लेगा, समझा देगा, ठीक कर देगा, सुधार देगा।

उसकी सुंदर, सलोनी और सुघड़ गालियों से मेरा बेटा मानस और मेरी पत्नी आभा भी न बच पाए। जिसने फोन उठाया उसने गाली खाया। अच्छा हुआ कि भानी ने फोन नहीं रिसीव किया।

कल जब उसने रात सवा नौ बजे फोन किया तो मैंने उससे कहा कि भाई आप मेरे घर आ जाओ और मुझसे मिल लो, मुझे देख लो। मैं सृजित नहीं हिंदी का लेखक कवि हूँ मेरा नाम बोधिसत्व है । आओ मेरी पहचान कर जाओ। तो उसने कहा कि हर आदमी यही कहता है। मैंने उसे कहा कि मेरा पैन कार्ड देख लो, ड्राइविंग लाइसेंस देख लो, जो चाहो देख लो और पीछा छोड़ो।

उसने जितनी बार बात की उतने नाम बताए। परसों बोला कि वह हेमलता है। एक दिन कहा कि वह परवेज बोल रहा है और कल बोला कि भाइंदर से जावेद शेख बोल रहा है। आज मैंने कहा कि अपना नंबर दो तो उसने नंबर दिया ९००४०७७१४१। इसके पहले उसने जिन नंबरों से फोन किया वे हैं- ४२१५१९२३, ४२१५१९२५, ४२१५१९२६, 40317600।

मित्रों फिलहाल मामला यह है कि वह कल सुबह 10 बजे मेरे घर आ रहा है। मुझसे सृजित का बकाया वसूलने। बच्चे सुबह स्कूल में होंगे और मैं उठ कर उसका इंतजार करूँगा। जीवन में इस तरह का यह पहला अनुभव है। यदि सच कहूँ तो मुझ पर वैसे भी किसी का कोई बकाया नहीं है न बैंक का न व्यक्ति का।

उलझन केवल एक है कल उसने या उसके लोगों ने कोई बेहूदगी की तो क्या करूँगा। पुलिस में एक सूचना दे रखी है। चारकोप के पुलिस अधिकारियों का कहना है कि जब वे आएँ तो मैं 100 नंबर पर डायल करूँ। अभी मैं और मेरी पत्नी कल की स्थितियों में अपनी-अपनी भूमिका तय कर रहे हैं। आभा का कहना है कि क्यों नाम पता बताया, क्यों घर बुलाया, वे खोजते सृजित को और पाते उसका पता। मेरा कहना था कि अगर वह मेरे नंबर पर फोन कर रहा है और गालियाँ बक रहा है तो इस बात को कब तक टाला जा सकता है। उससे बिना मिले क्या उपाय है। हम दोनों थोड़ा उलझन में हैं कि कल वे सब न जाने क्या करेंगे। क्या कल मैं खुद को बोधिसत्व या अखिलेश साबित कर पाऊँगा या वे मुझे सृजित कह कर पीट जाएँगे। रिकवरी एजेंट्स की करतूतों पर खबर बनाना या लिखना एक बात है उनके चंगुल में आना एकदम अलग। देखते हैं कल क्या होता है।

Saturday, May 30, 2009

दीना की याद

लगता नहीं कि दीना नहीं है

हम और दीना नाथ ज्ञानपुर में एक साथ पढ़ते थे। जब हम मिडिल स्कूल बनकट में पढ़ते थे तब दीना नाथ दुबे और दीना नाथ पाल ये दो दीना हमारे अच्छे मित्रों में से थे। आज मैं दीना नाथ पाल को याद कर रहा हूँ। मेरे सहपाठियों में दीना पाल सब से सुलझे और सामाजिक थे। यदि किसी मित्र को बुखार हो तो उसे अपनी सायकिल पर बिठा कर उसके घर छोड़ना और कई दिनों तक उसे स्कूल ले जाना दीना नाथ का कर्तव्य बन जाता था। पढ़ने में तमाम विद्यार्थियों से बेहतर होने पर भी दीना नाथ बहुत आगे तक नहीं पढ़ पाए। किसी-किसी तरह बारहवीं की परीक्षा देकर दीना नाथ मुंबई चले आए। यह बात 1986 की है।

दिना नाथ से बिछड़ना मेरे लिए एक असह्य घटना थी। मैं ज्ञानपुर से इलाहाबाद पढ़ने आ गया। लेकिन हम दोनों चिट्ठियों के जरिए लगातार सम्पर्क में बने रहे। मुंबई आ कर दीना नाथ ने कुछ टेक्निकल कोर्स करके टीवी रिपेयरिंग का काम सीखा और और दहीसर इलाके में अपनी एक रिपेयरिंग की दुकान भी खोल ली। लेकिन दीना नाथ अपने पूरे जीवन से कभी सुखी न रहे। वे पढ़ना चाहते थे। किंतु घरेलू आधार ऐसा था नहीं कि दीना नाथ लग कर कुछ कर सकें। कई चिट्ठियाँ ऐसी रहीं जिनमें दीना नाथ ने जीवन का रण हार जाने जैसा बयान दिया था। मैं पढ़ाई में जैसा भी था दीना नाथ के पसंग बराबर भी नहीं था। भौतिक शास्त्र से लेकर रसायन तक सब में दीना नाथ मेरे तारण हार थे। हमारा गाँव करीब तीन-चार कीलोमीटर के फासले पर था फिर भी दीना नाथ मेरे घर आ कर मुझे पढ़ा जाते। एक पिछड़ी जाति का लड़का मुझ अगड़े के बेटे को पढ़ने आता है यह बात मेरी ताई जी को बहुत दुख देती थी। वे ताना मारते हुए कहतीं कि अब इहै तोहे पढ़ाई। फिर भी मैं पढ़ता रहा क्योंकि मैं सचमुच में दीना नाथ को अपना सखा मानता था। मुझे इसमे कोई उलझन भी नहीं थी।

हम लोग गाँव से कॉलेज तक के लगभग 15 कीलोमीटर रास्ते में फिल्मों का कथानक सुनते सुनाते आते जाते थे। संवाद और गानों के साथ कोई एक मित्र पूरी फिल्म सुनाता था। यह एक अदभुत यात्रा होती थी। शुरू से दि इंड तक किसी भी हिट फ्लाप कैसी भी फिल्म का सिनारियो पूरा का पूरा। इंटरवल पर हम कहीं चाय पीते। दीना नाथ राखी के भक्त थे और अक्सर उनकी फिल्मों की कहानी सुनाते थे।

हमारे मेल जोल का बहुत स्वागत न था। एक बार तो हद ही हो गई। बात 1995 की होगी। गर्मियों में दीना नाथ मुंबई से गाँव आए। हमारी पहले ही चिट्ठी के जरिए बात हो गई थी। दीना नाथ ने बहुत बड़ा पक्का घर बनवाया था। उसका गृह प्रवेश था। मुझे खुशी थी कि दीना नाथ का खपरैल पक्का हो गया। मैं भी उनके समारोह में पहुँचा। लेकिन पिता जी ने न्योता खाने न जाने दिया। दीना नाथ को यह बात थोड़ी अखर गई। अगले दिन मैं किसी बहाने घूमते घामते दीना के घर पहुँचा। पता चला कि रसोईं तैयार है। लोग खाना खाने जा रहे हैं। संकोच के साथ दीना के पिता ने मुझे भी खाने को कहा। हालाकि उनकी माँ ने रोकना चाहा। कच्ची रसोईं ( अभी भी गाँवों में तली हुई पूड़ियाँ यानी पक्की रसोई तो एक पिछड़े के घर में खाई जा सकती है, लेकिन चावल दाल रोटी जिसे कच्ची रसोईं कहते हैं खाने की परम्परा नहीं है) में किसी ब्राह्मण के बटे को कैसा जिमा सकता है एक गड़ेरिया। लेकिन मैं खाने के लिए बैठ गया। इसी बीच में न जाने कहाँ से मेरे पिता जी आ गए। शायद उन्हें मेरे दीना नाथ के घर जाने की भनक लग गई थी। पिता जी को मित्रता में नहीं भोज भात में आपत्ति थी। और वे बदलने को कतई तैयार न थे। मैं पीढ़े पर बैठा था वे सामने खड़े थे, मेरे हाथ में भात का कौर। मुझे लगा कि पिता जी कुछ बावेला करेंगे। लेकिन उन्होंने सिर्फ और सिर्फ मुझे गरदन के पीछे से कालर पकड़ कर उठाया और जूठे मुह जूठे हाथ घर तक ले आए। मैं विरेध कर सकता था लेकिन मामला हिंसक हो सकता था इसलिए चुपचाप चला आया। उसी रात पिता जी ने मुझे इलाहाबाद के लिए विदा करवा दिया।

इसके बावडूद हम और दीना नाथ सम्पर्क में रहे। लेकिन यह थाली छोड़ कर उठने की घटना मुझे पराजित कर गई थी। पिता जी कि वह हुंकार हमेशा उनके प्रति एक असम्मान का भाव जगाती रहती रहती थी। लेकिन कुछ भी बोलना न हो पाया।
फिर 2002 में मैं मुंबई आ गया हमारी मुलाकाते रहीं। मैंने दीना नाथ के घर जाकर कच्ची रसोईं खाई। दीना नाथ हंसते रहे। उन्हें लगा कि मैं उनका वही पुराना मिड़िल से लेकर इंटर तक वाला मित्र हूँ।

2007 के मार्च महीने में मुंबई के लोअर परेल में रेल ट्रैक पार करते हुए दीना नाथ दुर्घटना का शिकार हो गए। हमने अपने दीना को खो दिया। उसे कहीं जाने की बहुत जल्दी थी। वह सदा के लिए चला गया। हमारी जितनी अच्छी समझदारी भरी दोस्ती दीना नाथ से थी उतनी बहुत कम मित्रों से हो पाई है। हम दोनों को हमारी मैत्री पर अभिमान था। तमाम सामाजिक भेदभाव के बादजूद हम मित्र रहे।

इसमें एक अजीब बात है, दीना को खोकर भी लगता नहीं कि वह नहीं है। उसका मुस्कराता चेहरा सदा सामने रहता है। एक और बात सिनेमा की तरफ मुझे मोड़ने में दीना नाथ का बहुत गहरा योग है। टीवी सीरियल रजनी के दौर में दीना नाथ के चचेरे भाई रजनी यानी प्रिया तेंदुलकर के ड्राइवर होते थे। उनके द्वारा सुने सिनेमा के आंतरिक किस्सों ने मुझे मुझे मुंबई आने का सपना दिया। ये बाते यहाँ नहीं लिख सकता, क्योंकि यह सारा वाकया अपनी चवन्नी के लिए लिखा है तो जल्द ही वहाँ पढ़ें।

Wednesday, April 22, 2009

नाम के लिए हत्या

अब तो नाम लोगे आलोचक


सिर्फ हिंदी के लिए देह धारण करनेवाले आज कितने होंगे। जी हाँ, मात्र हिंदी को समर्पित एक कवि महान कवि, कहानीकार, समीक्षक, संपादक, प्रवक्ता त्तर प्रदेश में हैं किंतु बेहद दुखी और परेशान हैं। अपनी उपेक्षा से तंग आकर उन्होंने अपना नाम बदलने का मन बना लिया है। उनका कहना है कि ऐसा नाम रखेंगे कि लोग देखते रह जाएँगे। और नाम बदलते ही उनका काम हो जाएगा। उनके नाम का महिमा मंडन किए बिना या उनका नाम लिए बिना कोई आलोचक अपना लेख वह किसी भी विधा का हो पूरा नहीं कर पाएगा। अभी यह तय नहीं हुआ है कि नाम क्या रखें। किंतु सूची बन गई है।

हो सके तो आप उनकी मदद कर दें। नाम बस ऐसा हो कि आलोचक, समीक्षक बिना उनको याद किए रह न पाएँ। हिंदी की सेवा का कुछ तो मेवा मिले।

नाम इस प्रकार हैं- और तिरछे अक्षरों में हैं।

आदि, इत्यादि, तथा, जैसे, अन्य, और, गण, असंख्य, अथवा, तमाम, कवि, लेखक, चिंतक, विचारक, नाटक, एकांकी, संपादक, प्रवक्ता, हिंदी, भाँति, तरह, प्रकार, समान, व, सरीखे, कोटि।

कौन सा नाम बेहतर तरीके से उनकी मदद कर पाएगा इसका ध्यान रखिएगा। वे हिंदी में आए क्यों हैं। नाम कमाने ही तो। और ये आलोचक नाम ही नहीं लेते। तो नाम बदलने का काम एक दो दिन में ही सम्पन्न हो जाए तो अच्छा रहेगा। नहीं तो हिंदी के दो चार कवि आलोचक, समीक्षकों की बलि चढ़ा देंगे अपने हिंदी के ये उपेक्षित समर्पित कवि। यह ठीक न होगा। केवल नाम के लिए हत्या करनी पड़े। मैंने सोचा है कि यदि वे इत्यादि जी, आदि जी, कोटि जी जैसा नाम रख लें तो कैसा रहेगा।

Tuesday, April 14, 2009

चिद्-विलास : पिता के साथ पुरखों का इतिहास



अपने पूर्वजों पर लोग क्यों नहीं लिखते

लेखक लोग अक्सर अपने घर परिवार कुल वंश के बारे में आधी-अधूरी बातें करके छुट्टी पा लेतें हैं। कोशिश करते हैं कि अपनों के बारे में जितनी कम बातें करके काम चल जाए उतना ही कुशल है। क्योंकि घर परिवार पर लिखना फायदे का लेखन नहीं माना जाता। अपने पिता और लाचार माँ पर, अपने पूर्वजों पर लोग नहीं लिखते जबकि किसी पहुँचे हुए आलोचक और सफल सामाजिक की जीवन गाथा ग्रंथित करने के लिए हर कोई कलम उठाए रहता है। बल्कि कहूँ तो कलम तोड़ स्तुति करने को तैयार रहता है।

वैसे भी भला बहुत कम कामयाब व्यक्ति का कोई इतिहास होता है, जीवन वृत्त होता है। लेकिन एक पिता वह असफल रहा हो सफल उसका इतिहास भी होता है और जीवन वृत्त भी। तभी तो डॉ. गिरीश चंद्र शुक्ल ने अपने पिता के जीवनी लिखी है साथ ही अपने कुल कुटुंब और गोत्र का इतिहास भी दर्ज किया है। उन्होंने उस ग्रंथ को नाम दिया है चिद्व विलास।

वैसे डॉ. गिरीश चंद्र शुक्ल प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्येता होने का साथ ही पट्टी प्रतापगढ़ में एक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज के प्राचार्य हैं। उनका पौराणिक भारत पर गहन अध्ययन है। कूर्म पुराण के सांस्कृतिक अध्ययन, प्राक् एवं प्रागितिहासिक भारतीय पुरातत्व जैसे कई प्रकाशित हैं। इतिहास की कई और पुस्तकों के साथ ही विवादास्पद सेतुबंध रामेश्वरम् पर एक ग्रंथ प्रकाशनाधीन है। यह ग्रंथ सेतुबंध के तमाम पौराणिक ऐतिहासिक संदर्भों पर प्रकाश डालेगा।


जैसा कि मैंने अभी कहा कि चिद् विलास एक कुटुंब के बनने और समाज में अपनी जगह बनाने की बड़ी रोचक गाथा के रूप में सामने आता है। कैसे एक गर्ग गोत्र में लखनौरा शुक्लों की एक शाखा अलग से बनती है। कैसे एक वंश अपने पिछले इतिहास को भूलते याद करते स्थानांतरित होते हुए भी अपने अतीत से जुड़ा भी रहता है। कैसे एक पिता अप्रत्यक्ष रूप से अपने पुत्र को साथ ही अगली कई पीढ़ियों को दिशा देता है। पुस्तक में डॉ.शुक्ल की लेखकीय शक्ति बार-बार चमत्कृत करती है। खासकर उन स्थलों पर जब वे पिता को खो देते हैं। वे प्रसंग सचमुच मर्माहत करने वाले हैं। कुछ अंश आप भी पढ़े-
एक-
उनकी( पिता की) शवयात्रा की तैयारी पूरी कर ली गई। हमलोगों ने उन्हें कंधा दिया। और रसूलाबाद श्मशान घाट ले जाया गया। पिता का वह चेहरा जिसे मैंने जिंदगी में सैकड़ों बार छुआ और अनुभव किया था, राख में परिवर्तित हो रहा था। सांसों को खींचे मैं पीछे हट आया।

दो-
सारी उम्र वे हम भाइयों व बहनों को ऊँचा उठाने, में जीवन में गुणवत्ता भरने और समाज के सभ्यनागरिक बनाने में जुटे रहे। आज हम सब खुले में आश्रय रहित अनुभव कर रह थे। छत्रछाया हट चुकी थी। उन्होंने ढाल की भाँति हमें सुरक्षा दी थी।

तीन-
पिता जी को बरामदे में जमीन पर लिटाया गया था। उनका चेहरा मात्र खुला था। जिसमें किसी फ्रकार की आभाहीनता परिलक्षित नहीं हो रही थी। लगता था कि यौगिक साधना में शरीर को शिथिल किए हुए हैं।

पूरे ग्रंथ को पढ़ने के बाद इसे फिर से पढ़ने को मन करता है। समाजेतिहास के साथ ही एक अलग तरह की औपन्यासिकता चिद् विलास को अलग मुकाम देती है। आजकल के बोझिल लेखन तुलना में शुक्ल जी का लेखन काफी रोचक और पठनीय है, तमाम सामाजिक संदर्भ अपने आप जुड़ते जाते हैं। यदि आप सब इस ग्रंथ को पढ़ना चाहें तो। पारिजात प्रकाशन, 247 सी/5, ओम गायत्री नगर इलाहाबाद से इसे प्राप्त कर सकते हैं। विनय पत्रिका के मार्फत सम्पर्क करनेवालों के 40 प्रतिशत की विशेष रियायत दी जाएगी।

· ग्रंथ के अन्यान्य प्रकरणों पर और लिखना चाहता था लेकिन अभी इतना ही।

Saturday, April 11, 2009

फिल्म सरपत का असर और दाम्पत्य




साथ-साथ हैं

तीन चार दिन हुए, मित्र अभय की फिल्म सरपत देखी। फिल्म का ऐसा प्रभाव रहा कि घर आकर एक कविता लिखी। मैंने ऐसी बहुत कम कविताएं लिखी हैं जो कि किसी रचना से प्रभावित हो या प्रेरित हो। लेकिन सरपत ने तो मन को चीर दिया। फिल्म देखने के बाद मैं वहाँ बहुत देर तक कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं था। एक उछाह, एक जलन एक लगाव की भावना से भर गया था। आज उस कविता को ब्लॉग पर चढ़ाने जा रहा था कि पत्नी आभा ने कहा कि इस कविता पर थोड़ा और काम करो। सो आज रपत पर लिखी मेरी कविता रुक गई। आप सब क्षमा करें।

उसके बाद हम दोनों बाकी के ब्लॉग पढ़ने लगे। साथ-साथ । घर में अक्सर ऐसा ही होता है कि एक पढ़ रहा होता है या कुछ छाप रहा होता है कि दूसरा आ धमकता है कि क्या है जो पढ़ा जा रहा है, क्या चढ़ा रही हो, रहे हो, क्या टिप्पणी कर रहे हो, कर रही हो जैसे प्रश्न शुरू हो जाते हैं। और बिना माँगे सलाह देने और रास्ता दिखाने का लोकतांत्रिक अधिकार लागू किया जाने लगता है।

किसे टीप दें। किसे पसंद करें। किसे रहने दें सब पर किच-किच होती है किंतु ब्लॉग-पढ़ाई साथ में जारी रहती है। हम दोनों की पसंद नापसंद एकदम जुदा है। जिसे जाहिर करने की यहाँ कोई जरूरत नहीं है। किटकिटाते खिलखिलाते हम कई-कई पोस्ट साथ-साथ पढ़ते हैं। आप इसे दाम्पत्य सुख माने या कुछ और लेकिन होता कुछ ऐसा ही है। क्या करें।

Saturday, March 28, 2009

तेरी किताब की ऐसी तैसी



रहूँगा न मैं घर के भीतर

घर किताबों से भर सा गया है। हर तरफ मेरी किताबें...मेरे लिए किताबें। थक रहा हूँ किताबों से। ऊब सी न हो जाए उसके पहले सोच रहा हूँ कि किताबों की खरीद पर रोक लगा दूँ। मेरे पास जिनकी किताबें हैं उन्हें बजिद लौटा रहा हूँ। प्रकाशकों के यहाँ से गलत आ गई किताबें उन्हें वापस कर रहा हूँ। कई आकर्षक शीर्षकों वाली किताबें छल गईं हैं। पहली बार ऐसा हो रहा है कि कुछ नए कवियों कहानीकारों के संग्रहों को भी वापस कर रहा हूँ। प्रकाशक पता नहीं क्या सोच कर किताबें छाप देते हैं। कोई अजीब आलोचक न समझ में आने वाली भाषा और वाक्यों में उस किताब के बारे में कुछ लिख देगा। बस हो गया काम तमाम।


नई किताबों के लिए सच में घर में कोई जगह ही नहीं बची है। मन खट्टा सा हो रहा है। टांड तक पर किताबें लदी है। आज निर्णय ले रहा हूँ कि 2010 के मार्च तक किसी किताब को घर में घुसने नहीं दूँगा। तेरी किताब की ऐसी तैसी। किताबों से बैर नहीं है । यह वाक्य छापकर दुखी हूँ लेकिन दशा ऐसी ही है। पढ़ने का अवसर कम होता जा रहा है और किताबें गंजती जा रही हैं। किसी भी बात की हद होती है। मेरे यहाँ किताब की हद हो गई है। एक अभिनेता मित्र के यहाँ 300 किताबें कल पहुँचा चुका हूँ। वे खुद उलझन में हैं कि उन किताबों का क्या करेंगे।


घर है कोई लाइब्रेरी नहीं। बच्चे संकोची हैं बोलते नहीं इसका मतलब यह तो नहीं कि भानी के तकिए में मैं किताबों को भर दूँ। अपनों पर यह भी तो एक तरह का टार्चर है कि उन्हें किताबों से लाद दो। हाँ सचमुच में अति हो गई है।

किताबों की छंटनी के समय सोचता रहा कि क्या यह केवल मेरा घर है। और दुखी हो रहा हूँ । अगर यही हालात रहे तो घर अपना नहीं रह जाएगा केवल किताबें रह जाएगीं। निराला कि एक पंक्ति याद आ रही है-

रहूँगा न मैं घर के भीतर
जीवन मेरे मृत्यु के विवर।

Friday, March 27, 2009

बहुत कठिन है अकेले रहना


बिन बच्चों घर भूत का डेरा

सालों बाद ऐसा हुआ है कि घर में अकेला हूँ। तीन दिन से प्रेत की तरह इस कमरे से उस कमरे में घूम रहा हूँ। लगातार किसी ना किसी से फोन पर बात कर रहा हूँ। या फोन का, किसी के आने की राह देख रहा हूँ। आभा और बच्चे गाँव गए हैं । इसके पहले कभी ऐसा नहीं हुआ वे सब मुझे घर में अकेला छोड़ कर निकल गए हों। अक्सर हम साथ ही बाहर गए हैं। यहाँ तक कि शादी के बाद यदि आभा दो दिन के लिए भी मायके गई हो तो मैं घंटे दो घंटे बाद बिन बुलाए बताए वहाँ हाजिर हो जाता रहा हूँ।

बच्चों को गाँव मिला है। सब वहाँ मस्त हैं। कल फोन पर आभा ने बताया कि भानी ने गाँव पहुँचने के बाद से मुझे पूछा तक नहीं है। उसे मुझसे बात तक करने की फुरसत नहीं है। यही हाल बेटे मानस का भी है।
तीन दिनों में ही मुझे समझ में आ रहा है कि अकेला रहना एक अभिशाप की तरह है। हालाकि यह कैद ए तनहाई ३० को खत्म हो जाएगी। अकेलेपन का रचनात्मक क्या विनाशात्मक प्रयोग भी नहीं कर पा रहा हूँ। हाँ इतना जरूर किया है कि घर से थोड़ा कूढा हो गई किताबों को हटाया है। और एक तुलसी का पौधा लगाया है । उसे देख कर लग रहा है कि वह लग गई है। दिन में जब भी घर में होते हैं उसे पानी दे आते हैं देख आते हैं। याद आ रही है इलाहाबादी कथाकार केशव प्रसाद मिश्र की कहानी और तुलसी लग गई। आप में से किसी के पास होतो पढ़ाने का उपाय करें।

Wednesday, March 25, 2009

सुदिन की याद नहीं चाहती थीं पांती काकी

पांती काकी के लिए प्रार्थना करें

आखिर हम सब की पंता या पांती काकी विदा हुई । खूब धूमधाम से उनके सारे संस्कार किए गए। ब्रह्म भोज हुआ। महापात्र विदा हुए। दो तीन बार गऊ दान हुआ। एक तीन बाई डेढ़ की वैकल्पिक वैतरनी बनाकर गऊ की पूछ पकड़ काकी के स्वर्ग पहुँचने का रास्ता बनाया ब्राह्मणों ने। एक बृद्धा महाबाभनी मेरी काकी बन कर आई। उसका खूब सत्कार हुआ। एक कंचन पुरुष की प्रतिमा और एक ब्राह्मण दम्पती की युगल रजत प्रतिमा भी महापात्रों को दी गई। काकी अगले जनम में सुहागन रहें इसके लिए सिंदूर और मंगल सूत्र भी दान दिया गया।

काकी पहले भी सम्मानित थीं। कभी किसी ने उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कुछ कहा हो घर में इसकी याद किसी को नहीं है। बस काकी के मन में निपूती और वंश हीनता का घाव था जो कि उन्हें सालता रहा। वे पुरखों की सम्पदा से बेदखल थी। लेकिन माया महा ठगनी होती है। काकी ने अपने न रहने पर होने वाले संस्कारों के लिए कुछ जोड़ रखा था। उनके बैंक खाते में श्राद्ध आदि के लिए 33 हजार रुपए जमा थे। ये पैसे उनको निश्चित रूप से उनके प्रिय भाई श्री उमाशंकर जी ने दिए होंगे। उनके रुपयों के साथ ही उसके पाँच भतीजों ने सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए पैसे खर्च करके काकी के अंतिम सब काम किए। हम सब के बड़े भैया अवधेश कुमार मिश्र ने बड़े प्यार, श्रद्धा और विधि विधान से काकी मोक्ष के उपाय किए। 21 मार्च 2009 को काकी की तेरहवी सम्पन्न हुई। इसके बाद बस अब काकी की तिथि आएगी और जाएगी। हम उन्हें कभी कभार याद करेंगे।

जो फरा सो झरा जो बरा सो बुताना है। जेते जीव आए हैं जगत में सबहीं को जाना है। इस आधार पर जाना और जीना तो हम सब को है। लेकिन काकी ऐसे नहीं जाना और जीना चाहती थीं। वे अक्सर कहा करती थीं कि सुदिन को दुर्दिन में याद करके कलपना रोना ही सबसे बड़ा दुख है। काकी सुदिन को याद करके रोने भी लगीं थीं। मृत्यु के कुछ दिनों पहले वे भगवान को कोसने भी लगीं थीं। काकी का छोटा सा कमरा उनके जाते ही सूना सा हो गया था। काकी के जाने का हाहाकार वहाँ ही नहीं सारे गाँव में छाया हुआ था, खास कर उन औरतों में जिन्हें काकी कुछ देकर मदद करती थी। बचपन में काकी के उधार की वसूली मैं करता था। उस प्रसंग पर कभी बाद में बात करूँगा।

आप सब की प्रर्थनाएँ काकी तक पहुँची होंगीं । क्योंकि प्रार्थना और बददुआ कभी निस्फल नहीं जाती। काकी के लिए दुआ करें। यह भी दुआ करें कि यदि उन्हें कहीं जमन मिले तो भरपूर सुख मिले। उनके इस जनम के सारे मनोरथ सारी कामनाएँ पूरी हों। हिंदी के कवि रमेश पांडेय काकी से उनके गाँव भिखारीराम पुऱ जाकर मिले थे। उन्होंने उन पर एक कविता लिखी थी। जो उनके अनचाहें ही संपादित होकर पहल में प्रकाशित हुई थी। काकी के न रहने पर मेरी रमेश पाण्डे से बात हुई थी। वे काकी को लेकर काफी भावुक थे। यहाँ पढ़ें वह कविता।

पान्ती काकी

मैं पान्ती काकी के बारे में
पूछता हूँ
और लोगों की आँखों में
पढ़ता हूँ दुख तन्त्र
लोग कमला दासी के
बारे में पढ़ते हैं
किताब में
कविताओं में

Sunday, March 15, 2009

नहीं रहीं मेरी काकी

मैं तुम्हें देख नहीं पाया काकी

मेरी पान्ती काकी का 9 मार्च को देहान्त हो गया। उनके न रहने की सूचना मैंने आप सब को होली के चलते नहीं दी। काको लगभग 77 साल की थीं। वैसे वे मेरी ताई थीं। लेकिन हम सारे बच्चे उनको काकी ही कहते थे। जीवन के तमाम अकल्पनीय दुख उन्हें सहने पड़े। वे बेऔलाद और विधवा थीं। उन्हें उनकी पुश्तैनी सम्पदा से बेदखल कर दिया गया गया था। ऐसी दशा में किसी भी स्त्री का जीवन कितना विकट हो सकता है इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। यह स्वीकार करने के अलावा कोई राह नहीं है कि हम उन्हें उनका कोई भी हक नहीं दिला पाए हालाकि उन्होंने कभी ऐसी कोई माँग नहीं की। मैंने उनके ऊपर एक कविता लिखी थी जो कि मेरे पहले संग्रह में संकलित है। अपना तीसरा कविता संग्रह दुख तंत्र मैंने काको को समर्पित किया था। जिसपर काको बहुत खुश हुईं थी। किताब में अपना नाम देखना उन्हें बहुत भला लगा था। लेकिन यह सब क्या मेरी काको के लिए काफी है। उन के जीवन पर मैंने काफी कुछ लिखा है जिसका एक बड़ा हिस्सा उन्हें सुनाया भी था। विनय पत्रिका के शुरुआत में मैंने उन पर एक पोस्ट में कुछ लिखा भी था। आप उन पर लिखे को वहाँ पढ़ सकते हैं।

बीमार तो कई दिनों से थीं लेकिन 9 मार्च की सुबह से ही उनकी स्थिति बिगड़ने लगी थी। मैं वहाँ से बराबर संम्पर्क में था। माँ से बात हुई उसने कहा कि सब ठीक हो जाएगा। ऐसा कई बार हुआ भी था काकी जाते-जाते रुक जाती थीं। मैं सपरिवार वैसे भी 23 मार्च को गाँव जा रहा था। 3 मार्च को उनसे बात भी हुई थी। फोन पर उनकी आवाज से अधिक उनके दमें की हफनी सुनाई पड़ रही थी। मृत्यु उनके लिए भय का कोई कारण नहीं रह गया था। उन्होंने कहा भी कि अभी मरनेवाली नहीं 23 को आओ तो मिलती हूँ। लेकिन काके से मुलाकात न हो पाई । 9 की शाम को मुझे गाँव से फोन आया कि काको नहीं रहीं।

मैं किसी भी हाल में बनारस पहुँचना चाहता था। काको की इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार बनारस में हो। लोग उन्हें बनारस ले जाने की तैयारी में थे और मैं उनके पास पहुँचने के लिए भाग रहा था। रात 11 की फ्लाइट से टिकट भी बुक हो गया था। लेकिन उनके पास उपस्थित मेरे समझदार भाई लोग उनके लिए बरफ का भी इंतजाम नहीं कर पाए । जिस कारण उनको देर तक रोकना असंभव हो गया था। मुझे फोन आया कि हालात ठीक नहीं हैं। शरीर बिगड़ रहा है। गाँव के बूढ़े बुजुर्गों का कहना था कि भोर में ही उनका संस्कार कर दिया जाए। और यही हुआ। उन्हें 5 बजे भोर में अग्नि को समर्पित कर दिया गया। मेरी काको स्वाहा हो गईं। मैं एयरपोर्ट से वापस घर लौट आया। उनको आखिरी बार देखने भी नहीं पहुँचा।

काको से सितंबर में मिला था। तब वे ठीक थीं। लेकिन जीवन से उकताहट अपने चरम पर था। काको तब भी जीना नहीं चाहती थीं। काको दरअसल कभी भी जीना नहीं चाहती थीं। वे केवल समय बिता रहीं थी। उन्हें इस जीवन में मिला ही क्या था जो वे और जीने की सोचतीं।

मेरी काको को सैकड़ों भजन याद थे। भागवत की कथाएँ मैंने बचपन में उनसे ही सुनी। जब भी मैं या घर के बच्चे बीमार होते काको सिरहाने रहती। कहती कुछ नहीं है बस मैं मंत्र पढ़ देती हूँ तुम ठीक हो जाओगे। उनके पास बर्र के काटने से लेकर नजर, टोना, बुखार, अधकपारी तक के मंत्र थे। मंत्रों पर बाद में भरोसा नहीं रह गया था लेकिन जब भी काको झाड़-फूँक लिए सामने आतीं मैं चुप हो जाता। और काको मंत्र पढ़ने लगती। बहुधा हमें उनके मंत्रों से आराम मिलता था। मेरा मानना है कि काको अपने भगवान से हमारे लिए प्रर्थना करती थी। वे भगवान से कहती रही होगीं मेरे बच्चे को ठीक कर दे भगवान। और उनका भगवान हमारे दु:ख तकलीफ हर लेता था। अभी अपनी प्रर्थनाओं मंत्रों से हमारे दु:ख हरने वाली काको नहीं रहीं। हर मुश्किल का हल जानने वाली दुबली पतली दमा, दुर्भाग्य और दायादों की मारी मेरी काकी नहीं रहीं। काकी पर लिखी मेरी 1988 की कविता मैं यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ। यह कविता श्रद्धांजलि है मेरी।

काकी

काकी,
तेरा हाथ टूटा
मैं देखने नहीं पहुँचा

मुझे दु:ख है
तेरे हाथ के इलाज में
मैं कुछ कर न सका।

काकी मुझे याद है
तुम दबाया करती थीं
मेरे पाँव
दुखने पर
काकी, तूने
मेरी चड्ढ़ी का नाड़ा
बाँधा है
बझने पर
खोला भी है।

काकी,
मुझे याद तो नहीं
लेकिन मैं
सोच सकता हूँ
तूने किया होगा
मेरा तेल उबटन
“ लाला बड़ा होयिं
भइया बाढ़यिं ”
कह कह कर।

काकी,
मैं कुछ इस तरह
फँसा हूँ यहाँ
जैसे बंदर
चने की हाँड़ी में
मुट्ठी बाँध कर फँसता हैं,

काकी मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ
पर आ नहीं सकता
काकी, मैं
तुम्हारे पास आऊँगा,

काकी
तुम माँख न मानना
मैं अभी नहीं आ सकता।

नोट- मैं माफी चाहूँगा आज भी काकी की फोटो नहीं चढ़ा पा रहा हूँ। फिर चढ़ाऊँगा। मैं 17 मार्च से 27 मार्च तक भदोही गाँव में रहूँगा। काकी का त्रयोदशाह 21 मार्च को है।

Friday, February 27, 2009

कुछ भी खोने का साहस नहीं बचा है मन में

उगना रे मोर कितै गेला

परसों घर से किताब लेकर निकला। हालाकि किताब और कलम लेकर निकलना मेरी आदतों में शामिल हो गया है। जब से होश सम्हाला है मुझे याद नहीं कि कभी घर से बिना किताब या कलमे के निकला होऊँ। मुझे याद नहीं कि कभी किसी से कलम माँग कर कुछ लिखा हो। जेब में चवन्नी न हो लेकिन एक कलम चमकती रहेगी। बगल में छुरी न हो लेकिन एक पोथी दबी रहेगी। जब घर से निकलता था तो पिता जी कहते थे देखो लैस होकर निकला है। वे मेरी इस किताबी आदत को बहुत बढ़ावा नहीं देते थे। कहते थे कि कभी-कभी बिना किताब के भी निकला करो। किताब के बाहर की दुनिया बहुत बड़ी है। लेकिन मैं बिना किताब के अपने को निहत्था पाता था।


लेकिन मेरी किताब के साथ जीने की आदत गई नहीं। हालात तो यहाँ तक है कि अगर तकिए के नीचे किताब ना हो तो मैं सो नहीं सकता। नीद गुम जाती है। वह किताब कैसी भी हो ......उपन्यास हो, कहानी हो कविता हो या जीवन चरित, लेकिन होनी चाहिए एक किताब।

सो परसों भी अपनी एक प्रिय पोथी लेकर या पिता जी के शब्दों में कहें लैस होकर निकला। लेकिन वह किताब कहीं राह में छूट गई। किसी प्रोडक्शन हाउस, किसी चाय की दुकान या कहीं। मैं याद नहीं कर पा रहा हूँ कि आखिर वह विद्या पति पदावली रह कहाँ गई। नागार्जुन सम्पादित वह पदावली तो खैर मिल जाएगी लेकिन उस पोथी के साथ जो गया वह कहाँ मिलेगा। बस उसे खोकर थका सा पा रहा हूँ। क्योकि मन कुछ भी खोकर पस्त हो जाता है। लगता है भीतर कुछ खोने का सहस ही नहीं बचा है।

लेकिन अभी क्या कर सकता हूँ। सिवाय जिसे खो दिया उसे याद करने के । आप कह सकते हैं कि ऐसा क्या खो गया। खोई हुई उस किताब में मेरे बेटे मानस के हाथ की छाप और उसकी एक फोटो चिपकी थी । घर में ऐसी कई किताबें हैं जिनमें बिटिया भानी या बेटे के हाथ का छाप है। मानस की वह फोटो और हाथ का छाप तब का था जब वह दो साल का भी नहीं था।
जब से खोया तब से मैं लगातार रह रह कर गा रहा हूँ विद्यापति का एक पद उगना रे मोर कितै गेला। मुझे नहीं लगता कि वह पोथी अब मिलने वाली है। हर उस जगह फोन किया जहाँ गया था, उन दो तीन दुकानों के चक्कर लगाए लेकिन नहीं मिली । अब मिलने की संभावना भी नहीं है। बस गाते या बिसूरते रहने के। हालाकि उस किताब मे मेरे पते का स्टीकर चिपका है। हो सकता है कोई फोन आए....

Saturday, January 31, 2009

मिलना केहिं बिधि होय

मिलने न मिलने के बीच
परसों मित्र अभय से बात हुई। मिलने की हुड़क जगी। लेकिन मिल नहीं पाया। हम अक्सर चाहते हुए भी मित्रों से नहीं मिल पाते। जिनसे मिलना अच्छा लगता है उनसे मुलाकात नहीं हो पाती । अभय के घर से बस हजार मीटर के फासले पर मैं था लेकिन मिलाप नहीं कर पाया । ऐसे ही ठुमरी वाले विमल भाई तो कुल ८ सौ मीटर की दूरी पर डेरा जमाते हैं लेकिन मुलाकात नहीं होती। यूनुस भाई भी कुल हजार पंद्रह सौ मीटर की दूरी पर विराजते हैं लेकिन ले दे कर उनसे चार छ मुलाकाते ही निकलती हैं। इसके उलट जिनको देखने से दुख उपजता है ऐसे कितनों से रोज बार बार मिलना पड़ता है। न चाहते हुए भी दाँत चियारना पड़ता है। हें हें करना पड़ता है। मन लात मारने का होता है और हम पाँव दाबते रहते हैं।

मुझे लगता है मिलना तो सभी चाहते हैं ...लेकिन मौका नहीं मिल पाता होगा... जैसे परसों मुझे नहीं मिला । परसों शाम से घर पर बेटी भानी लगातार मेरे लिए रो रही थी। पापा.......आ जाओ। पापा। और मैं उससे कहता जा रहा था कि आ रहा हूँ बेटा। बस चल रहा हूँ पहुँच रहा हूँ । लेकिन असल में मैं उससे झूठ बोल रहा था। मैं कहीं, एक साहित्यिक या कहें कि वैचारिक बतकचरे में उलझा था। अवध से कुछ वाम पंथी मित्र आए थे । मैं केवल उनसे मिलने के लिए ही भागा हुआ अंधेरी तक गया था।

किसी हिसाबी आदमी से आप 10 साल बाद मिलें और मिलते ही गलती से खुद ही पुरानी दफ्न बातों को छेड़ बैठें तो क्या होगा। आप समझ सकते हैं । हम कुछ दफ्न बातों में उलझ कर रह गए थे और बात किसी किनारे पहुँच नहीं रही थी। वे अपने स्थान पर सही थे क्यों कि वे शुद्धतावादी थे लेकिन शायद मैं नहीं था क्यों कि मैं मज्झिम निकाय पर चलने की बात कर रहा था।

बहस के केंद्र में शहीद भगत सिंह थे। उनके छोटे भाई कुलतार सिंह थे। क्रांतिकारियों से सूना होता जा रहा देश था। भुखमरी थी। बेकारी थी । अवसरवाद था। अवसाद था। क्रांति की खोज में देशाटन पर निकले मित्र थे । उनकी शुद्धता से भरी बातें थीं। इसी सब सिलसिले में अभय से मिलने का मामला रह गया।
हाइवे से गुजरते हुए बनराई आरे कॉलोनी का वह मित्र इलाका बगल में छूटता गया । वो सूना सा रास्ता जिससे होकर पहले मैं गोरेगाँव स्टेशन से पैदल अभय के घर आया-जाया करता था। कुल 10 मिनट लगते थे खरामा-खरामा। लेकिन परसों वह 10 मिनट नहीं थे। क्रांति केन्द्रित बहस और भानी का विलाप बीच में दीवार बन गया ।
मैंने अभय से कहा कि मैं आता हूँ गुरू....कल आता हूँ । उसने भी कहा कि ठीक है, बात होती है। कल कल बीत गया है। न मैं गया न बात ही हुई। मैं दिन में कुछ चिरकुटो से बतियाता हुआ सोच रहा था कि हम अक्सर कितना कम मिल पाते अपने उन मित्रों से जिनसे हम बहुत मिलना चाहते हैं। देखते हैं अपने क्षेत्र संन्यासी मित्र से कब और केहिं बिधि मिल पाता हूँ।

Saturday, January 10, 2009

जितेन्द्र की अलग आवाज

आप भी सुने टांड की आवाज
किसी ने कहा है कि कवि को लुभा सकती है तारों की चमक और वह मोहित हो सकता है जंगल में हिलती एक पत्ती से भी। कवि के लिए हर आवाज मायने रखती है। जीतेन्द्र चौहान ऐसे ही कवि हैं जो हर बड़ी छोटी आवाजों को सुनते हैं और अपने तरीके से उसे दर्ज करते हैं। इंदौर, नई दुनिया में काम कर रहे जितेन्द्र के अब तक दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पहला संग्रह पुरखों के बीच 1998 में आया था और उसके ठीक 10 साल बाद आया है नया संग्रह टांड से आवाज। हिंदी कविता के जोड़ भाग से अलग रचनारत इस सहज सरल कवि को अभी बहुत कुछ लिखना है। हिंदी को समृद्ध करना है। कवि बहादुर पटेल अपने ब्लॉग मैं संतूर नहीं बजाता में उनकी एक कविता प्रकाशित कर चुके हैं। यहाँ आप पढ़ें उसके दोनों संग्रहों से एक-एक कविता।

तुम्हारे जाने के बाद

तुम्हारे जाने के बाद
घर ही उठकर
चला गया है
तुम्हारे साथ

मेरे पास तो
सिर्फ
दीवारें बची हैं (पुरखों के बीच)

प्रेम की बूँदों से

हम तो
बाँस के जंगल में
लगी आग की
सुलगती राख हैं
हम तो
शादी के इंतजार में
जिनकी आँखों के
सपने सूख गए
छोड़ गए
आँखों के नीचे
अपने स्याह निशान
ऐसी मंगली बहनों के भाई हैं
हम तो प्रेम बावड़ी से निकले
बादल हैं भरे हुए
जहाँ भी गए
तर ब तर कर दिया
प्रेम की बूँदों से । ( टांड से आवाज)

आप पढ़े इस संग्रह की सारी कविताएँ और फिर बताएँ कि कैसी है टांड की आवाज ।

Friday, January 2, 2009

भूलना चाहता हूँ

कुछ भी भूलता क्यों नहीं

बचपन से सुनता आ रहा हूँ कि बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि ले। लेकिन न जाने कितनी बातें, कितनी घटनाएँ हैं हैं जो चाह कर भी नहीं भुला पाया हूँ अब तक। पढ़ी हुई सैकड़ों कहानियाँ, कविताएँ, देखे हुए हजारों चेहरे मिटते नहीं दिमाग से।

गाँव का पुराना मकान । उसके घर । उसमें बिताई 17-18 साल की रातें और दिन और दोपहरें जस की तस बसी हैं जेहन में । घर के पास एक गोशाला थी । उसमें कई गाय और भैंसें होती थी। वह गोशाला नहीं है लेकिन उसकी एक एक छवि है मन में। उस गोशाले के साथ उसमें भँधे पशुओं के लाम और ऱूप तक याद हैं। एक भैंस थी जो दूध नहीं छोड़ती थी। हम सब ने उसका नाम मन चोट्टिन रखा था। कल एक वैसे ही भैंस दिखी यहाँ। मुझे लगा कि यह उसके ही कुल गोत्र की होगी। वह मेरे घर चंड़ी गठ से आई थी। पता किया तो यह भैंस भी चंड़ी गठ से आई थी। उसके मालिक ने बताया कि यह दूध ही नहीं छोड़ती। इलाज चल रहा है। मैंने मन ही मन कहा कि यह और मेरी मन चोट्टिन सच में एक ही वंश के होंगे।
क्या कोई उपाय है कि सब कुछ या जितना कुछ उड़ाना चाहो एक साथ एक झटके में उड़ा दो। बाकी काम का बचा लो। क्यों कि दिमग में उमड़-घुमड़ मची रहती है। अब तक जो कुछ भरा है उसे कैसे भूलें। कोई उपाय हो तो बताएँ।