Thursday, May 29, 2008

बछड़े और बेटियों का वध कर देते हैं वे

देखने में यह बात अजीब है। लेकिन उन लोगों को बेटियों और बछड़ों की जरूरत नहीं है...। उनके लिए वह महिला कुलबोरन है कुलक्षिनी है जो बेटियाँ पैदा करती है...ऐसी बहुए अक्सर दुरदुराई जाती हैं लात खाती हैं....जो बेटियाँ पैदा करती हैं...वहीं वे बहुए लक्ष्मी हैं जिनकी कोख से लगातार बेटे जन्म लेते हैं...।
बेटियों के अस्वागत या दुत्कार का यह आलम है कि लोग आम बात-चीत में भी यह नहीं कहते की फलाँ को बच्ची होने वाली है...सभी यही कहते पाए जाते हैं कि उसे बच्चा होने वाला है।
आप वहाँ बेटी-बेटे के कोख में बनने और पैदा होने के वैज्ञानिक आधारों को समझने-समझाने की बात नहीं कर सकते....बेटा बेटी एक समान की बात....दीवारों पर अच्छी लगती है घर के आँगन में नहीं॥

अगर बेटी हो जाती है तो पहले उसको कम रख रखाव से मारने की कोशिश होती है, उसके बीमार पड़ने पर कहा जाता है कि ठीक हो जाएगी...बेटियाँ मरती नहीं हैं...। दुख की बात यह है कि ऐसी बातें औरतें भी आराम से करती पाई जाती है...। लेकिन जब बेटा बीमार होता है या जब बेटा मरता है तो लोग छाती पीट कर रोते हैं उसका पैदा होना और मरना दोनों हाहाकार लेकर आता है...वहीं जब बेटी मर रही होती है या मर जाती है तो लोग धीरे से बल्कि कहूँ तो चेहले पर एक मुस्क्यान लाकर केवल बताते हैं कि उसकी बेटी जो अभी हुई थी मर गई...फिर कोई कहेगा कि मरना ही था तो पहले मर जाती...। और बात आई-गई खतम सी हो जाती है...।

यह सारी स्थितियाँ मैं ने खुद देखी हैं...यह देश के अन्य हिस्सों का सच भी हो सकता है फिलहाल मैं भदोही, मीरजापुर और बनारस की बात कर रहा हूँ...यहाँ अगर गाय या भैंस को बेटी हो यानी बछिया और पड़ियाँ हो तो सब खुश होते हैं....लेकिन अगर बछड़ा या पड़वा हो जाए तो उसका दूध बंद...। उसके मुह पर एक खोल चढ़ा दिया जाता है...कोशिश की जाती है कि वह बछड़ा या पड़वाँ जल्द से जल्द मर जाए । जिससे उसके हिस्से का भूसा-चारा भी बचे । दैव- दुर्योग से अगर वह गाय-भैंस पुत्र अपने आप नहीं मरता तो जरा सी उम्र बढ़ते ही उसे काटने के लिए कसाई को बेच दिया जाता है...।
बेटी बोझ है क्योंकि उसे विदा करना है, उसकी पढ़ाई पर खर्च नहीं करना है क्योंकि उसे पढ़ाने का वैसा सीधा फायदा नहीं जैसा बेटे को पढ़ाने का है...

वहीं बछड़े को बदलते समय में ट्रैक्टरों ने फालतू बना दिया है....एक दो हल बैल की खेती हो बड़े किसान सब ट्रैक्टर पर निर्भर करने लगे हैं...इसलिए बछड़े और पड़वे की कोई आवश्यकता नहीं रही...
बछिया गाय होगी दूध देगी....बेटी दहेज लेगी दूर होगी...इस लिए बछिया चाहिए बेटी नहीं...
बेटा चाहिए बछड़ा नहीं...।
ऐसे माहौल में बेटियाँ रोज मर-मर कर बड़ी होती है...
हो सकता है पिछले महीने भर में स्थितियाँ बदली हों...क्योंकि सुना है दुनिया तेजी से बदल रही है पर लगभग यही हालत है...बेटी को मारो या मरने दो....बछड़े को मरने दो या मारो...। बेटा जिलाओ....बछिया जिलाओ....।

Saturday, May 24, 2008

प्रमोद और प्रत्यक्षा उर्फ साधु वचन का मर्म

वो एक बात बहुत नागवार गुजरी है.....जिसका फसाने में कोई जिक्र नहीं था....मेरी कुछ बातों के जरिए प्रमोद जी और प्रतयक्षा जी को अपनी हीनता उजागर करने का मौका मिला है और दोनो बुद्धिजीवी मित्र निकाल भी रहे है....साहित्यकारों की ब्लॉग में दुर्दशा पर उठाये गए मेरे सवाल इन दो साहित्यकारों को रास नहीं आए और बात मेरे चरित्रांकन पर आ गई........प्रमोद जी और प्रत्यक्षा जी ने मिल कर उखाड़-पछाड़ शुरू कर दी मैं भी ....उन दोनों ब्लॉगर लेखकों की तमाम जुगलबंदी पढ़ने पर बहुत सारी बातें मुझे निकलती दिख रही हैं.....जैसे-

1-मुँहफट होने और खरी-खरी कहने का पैदाइशी हक सिर्फ प्रमोद जी को है, अगर और कोई ऐसा करता है तो गलत करता है ......प्रमोद जी की मुँह फटई उनका गुन है...उनकी खरी, खरी है...बाकी की खरी, में खोट है....
2-मैंने किसी प्रत्यक्षा को कभी फोन नहीं किया है और अगर मेरे फोन से उन्हें फोन गया होगा तो उस संदर्भ को वे मुझसे बेहतर समझ सकती हैं....
3-मैंने किसी सलेक्ट सर्किल में कभी प्रत्यक्षा का नाम लिया हो ऐसा मुझे याद नहीं...यह उनका भ्रम है कि लोग उनके बारे में बात करके दिन बिताते हैं...
4- हो सकता है जब प्रत्यक्षा ब्लॉगगिंग का बी कर रहीं थी मैं गाँव में बथुआ बो रहा होऊँ....तो क्या मुझे अभी ब्लॉगर बनने का हक या कुछ कहने का अधिकार नहीं रह जाता.....क्या ब्लॉग वेद हैं....जिस पर केवल प्रत्यक्षा का ही हक है....किसी बोधिसत्व का नहीं...
5-लोगों को फोन करने और बात करने का हक भी सिर्फ प्रमोद और प्रत्यक्षा को है....बाकी कोई करे तो गलत है...हालाकि मैंने किसी को फोन नहीं किया है....साहित्यकारों की दुर्दशा वाली पोस्ट को छोड़ कर

6-किसी बूढ़े प्रकाशक को खुश करने की बात मैंने सामान्य संदर्भ में कही थी...जिस पर बिदक कर ये दोनों साहित्यकर्मी अपनी दाढ़ी के तिनके नोच रहे हैं...और उस नोच-खसोट का प्रदर्शन कर रहे हैं....
7-मैं परिपक्व इंसान नहीं हूँ.... यह तो मैं भी जानता हूँ... .कोई नहीं होता ...बस दो ही लोग परिपक्व है.... प्रत्यक्षा जी और प्रमोद जी...आप दोनों परिपक्व होने की बधाई स्वीकार करें....
8-मित्रता वही है जो प्रमोद और प्रत्यक्षा की है...बाकी दुनियादारी है....स्वार्थ का गठबंधन है...अगर अभय तिवारी मेरे बारे में कुछ लिखते हैं या मुझे खलनायक नहीं मानते तो यह भी उनका अपराध है..
9-कोई यदि बोधिसत्व का समर्थन करेगा तो वह अकेला पड़ जाएगा.....यह धमकी देकर प्रत्यक्षा जी क्या कहना चाहती है.....क्या किसी ब्लॉगर को अकेला करने की सोचना कुंठित और तानाशाही चरित्र की निशानी नहीं है....
.
10-किसी की बात को छिछला कहने का डीग्रेड आदि शब्दों से नवाजने का हक सिर्फ प्रत्यक्षा को है.....क्योंकि वे ही ऐसा कर सकती है....
10- मेरी पत्नी आभा की किताब अगर किसी को साध के छपानी होती जैसा की आप संकेत कर रही है....तो भी अभी नहीं छपती क्यों कि उसे ढ़लती उमर ( यह शब्द मेरे नहीं आदरणीय प्रमोद जी के हैं) का अपराधबोध नही है...जैसा कि प्रमोद जी के मुताबिक आपको है...
11- अगर आभा लेखन में दम नहीं होगा और छपास बलवती होगी तो हो सकता है कि आभा को भी किसी को साधना ही पड़े...
...
12-लीद, लड़ियाना, लथर-पथर...होना सब प्रमोद जी की बपौती है....वह उन्हीं के पास रहे....
14- प्रत्यक्षा काम-काजी महिला हैं.....लोगों को हैंडिल करना जानती हैं.... खास कर कर्मचारी या मजदूर वर्ग को....मैं उनसे आग्रह करूँगा कि किसी को बदले की भावना और संदेह के आधार पर हैंडिल न करें......
15- प्रमोद जी से उम्मीद करूँगा कि उनके मन में मेरे प्रति जो भी घृणा या हिकारत होगी मेरी इस पोस्ट पर ही निकाल लेंगे.....क्योंकि मैं हो सकता हैं आगे खुद पर थूकने का कोई भी मौका उन्हें न दूँगा..
16- मेरी पत्नी को निशाना बनाने के बाद अब मेरे परिवार में केवल भानी और मानस यानी मेरी बेटी और बेटा ही खल पात्र बनने से रह गए हैं....प्रत्यक्षा और प्रमोद जी मौका मत चूकिए । प्रमोद जी आप तो परसों-चौथा दिन मुझे देखने और बच्चों से मिलने घर भी आए थे....कोई न कोई धारणा तो बनाई होगी....उनके बारे में भी उसे भी लिख दीजिए...दबाकर दस बरस बाद निकालने से बेहतर होगा कि आज और अभी निकालें...हम सपरिवार आपकी राय का स्वागत करेंगे......

Friday, May 23, 2008

चपे रहो प्रहरी प्रमोद जी


मैं लिखना नहीं चाहता था लेकिन लिख रहा हूँ

अजदकेश प्रमोद जी करुणा के अवतार हो गए है....अवधर दानी हो गए हैं.....मुंबई में रहते हैं सिनेमा टीवी के लिए लिखते भी हैं.....और न लिख पाने पर छटपटाते भी हैं....खुद दुखी रहते हैं...लेकिन इस महाद्वीप में किसी का दुख उनसे न सहा जाता है न देखा....और जब दूसरों को दुख से उबार रहे होते हैं तो सामने वाले को बिना दुख में डुबाए उनको सुख नहीं मिलता....। शिव तो सर्व कल्याणक थे..लेकिन प्रमोद जी केवल दुख दाता हैं......मोटे शब्दों में वे प्रतिशोधी सखा है....।

मेरी एक - दो पोस्ट से ही नहीं उन्हें मेरे समूचे लेखन और खुद मुझसे अपार तकलीफ है.....और तकलीफों के कम से कम तीन अनुभव तो उन्होंने सहेज कर रखे ही हैं.....अपने अजदकी चरित के मुताबिक वो पूरी तरह से अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष साबित करने में लग गए हैं.....सामान्य रूप से कही गई मेरी बातों को वे पता नहीं किस-किस से जोड़ कर देख रहे हैं....।

हिंदी प्रदेश की यही दिक्कत है आप एक काम की या कैसी भी बात करते हैं.....तो सामनेवाला उस पर लड़ियाने याने नंगे होकर कूदने लगता है॥ लड़ियाने में और नंगई में प्रमोद जी सबके सरदार हैं....और कम से कम मुझे उनसे अच्छाई का कोई प्रमाण पत्र नहीं चाहिए.....और नहीं मैं उनसे नंगई का कोई गुर सीखना चाहूँगा।

रही बात प्रमोद जी के सवालों पर चुप रहने की तो यही कहा जा सकता है कि फालतू टाइप के आमोदी-प्रमोदी यानी बचकाने सवालों के उत्तर देने की फुर्सत में मैं नहीं हूँ....और हर महान प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है....... और जब महा महान प्रश्न सामने होते हैं....तो हींहीं करने या दाँत चियारने के अलावा कुछ करने का मन नहीं करता.....लेकिन अगर प्रमोद जी इतने उत्तराकांक्षी हैं तो मैं सार्वजनिक रूप से उनके सभी प्रश्नों का उत्तर देने को तैयार हूँ....वो करें सवाल.....।

जवानी में आदमी सामना करता है....ढलती उमर में चुगलखोर हो जाता है....वह लगाने बुझाने लगता है....बुढ़ापे में आदमी पर दुख कातर हो जाता है....किसी के लिए भी रोने लगता है....मैं यह नहीं कहूँगा कि प्रमोद भाई ढल गए हैं या बुढ़ा गए हैं....पर लक्षण सही नहीं हैं....उन्हें. अपना धीरज नहीं खोना चाहिए.....प्रहरी प्रमोद की भूमिका की उमर नहीं रही.....उनकी.....अब....। अंग रक्षक बनने का खेल हम लोग तो पढ़ाई के दिनों में खेलते थे...पर प्रमोद जी अभी भी मौका तलाश ही लेते हैं....इलाहाबादी लत जो लगी है...।
मैं उम्मीद रखूँगा कि इस पोस्ट के बाद भी प्रमोद जी लड़ियाते हुए.....बिना किसी राग-विराग के ढलती संझा में अर्थ का अनर्थ करने और औरों के घाव सहलाने या दुख को कम करने का व्रत छोड़ नहीं देंगे.....चपें रहेंगे.......।

Thursday, May 22, 2008

पर उपदेस कुसल बहुतेरे........

कहाँ जा रहे हैं साहित्यकार और ब्लॉगर

मेरा दिल बहुत साफ है.....इतना साफ है कि आर पार दिखता है....पर दर्पण बनने के लिए आर-पार देखना बंद करना पड़ता है तो क्या करूँ....बंद करूँ या संन्यासी सा बना रहूँ.....कम से कम अभी इस वक्त मेरे मन में कोई कामना या महत्वाकांक्षा या लालसा नहीं है.....मुझे पाठक नहीं चाहिए...मुझे लोकप्रियता नहीं चाहिए, मुझे शास्त्रीयता से बेहद प्यार है.....जहाँ-जहाँ शास्त्र या शास्त्रीयता देखता हूँ.....बलखाने लगता हूँ.....लांगूल हिलाने लगता हूँ.....वहीं... लोकप्रियता के प्रत्यक्ष होते ही इतना डर जाता हूँ कि आँखे बंद कर शास्त्रीयता-शास्त्रीयता का जाप करने लगता हूँ....

क्यों न करूँ....बंद आँखे.....जब शास्त्रीयता का लोकप्रियता से इतना बड़ा बैर साबित कर दिया गया है....तब तो सावधान होकर ही जीना पड़ेगा......क्योंकि हमें तो कहीं जाना है....जहाँ सिर्फ शास्त्रीय हो कर ही मैं जा सकूँगा.....लोकप्रिय हो कर नहीं.....मैं वह परम् पद इस ससुरी लोक प्रियता के झाँसे में कैसे कुर्बान कर दूँ.....लोकप्रियता का भी कोई चरित्र होता है.....

लोकप्रियता तो एक दिन की लाली है....शास्त्रीयता तो सार्वकालिक है...कुछ नए साहित्यिक साधु और साध्वियों से सुनते हैं जो मजा शास्त्रीयता का है वह लोकप्रियता में कहाँ है......हाँ गाहे बगाहे दोनों का मजा लेने में गुरेज नहीं....बस सावधानी जरूरी है...

अब गार्गी, व्यास, बाल्मीकि, कालीदास, तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, मीर,गालिब, भारतेंदु, इकबाल, प्रसाद, पंत, महादेवी, निराला, परसाई, श्रीलाल शुक्ल क्या खाक शास्त्रीयता के पद का मजा पा सकेंगे....भूल से लोक प्रिय जो हो लिए....कितना पछता रहे होंगे सब अनाड़ी, छाती पीट रहे होंगे कि काश पहले पता चल गया होता तो लोकप्रिय होने की चिरकुटई से बच लिए होते.....इतना ओछा काम क्यों करें जिससे जीवन भर की कमाई खाक हो जाए....धिक्कार है लोकप्रियता धिक्कार है....सब वहीं से लौट आते जहाँ से लोक प्रियता की गंदी गली शुरू होती है....गली के कोने पर भले ही मजार बन जाता या समाधि पर उस गली में दाखिल न होते....पर क्या करें.....अब पछताने से क्या होता है.....हाथ मचते हैं और रोते हैं....इश्क पर समझाते थे साले सब लोकप्रियता....पर चुप रह जाते थे...

आज के सच्चे उपदेशक तब कहाँ थे....गलती हो गई....तो हो गई...।
पाठकों की चिट्ठियों का न सही तो साधुओं के सिर हिलने का इंतजार किया.....इसका ध्यान रखा कि जो कह रहा हूँ वह सब समझ तो रहे हैं न.....यहीं तो महान अपराध हुआ...... जिस पाठक की बुद्धि संकुचित है उसकी परवाह करोगे तो क्या रचोगे.....

इसलिए हे ब्लॉगरों अगर साहित्यकारों वाले महान स्थान पर या उसके आगे का मुकाम, ऊँचाई, मंजिल, पाना चाहते हो वहाँ अपना झंडा गाड़ना या फहरना चाहते हो तो पाठकों की प्रतिक्रिया, उनकी राय पर लात मारो और अपने मन की लीद बिखेरो.....वह कागज के पन्नों ब्लॉग पर छपते ही प्रसाद हो जाएगी....तो लीद करो और मस्त रहो....जैसे साहित्य की दुनिया में आज कवि-कथाकार मस्त है.....
बस एक काम करो....कुछ कविता कथा नुमा लिखो....किसी प्रकाशक को साधो और उनके एकाध बूढ़े मालिकान को बाकी तो सध ही जाएगा....
भाइयों मैं भी वहीं जाना चाहता था जहाँ सब साहित्यकार ब्लॉगर जा रहे थे...पर साहित्यकार भी कहाँ पहुचे हैं समझ नहीं पा रहा हूँ......उसके आगे कहाँ जाऊँ....कोई है जो राह दिखाए.....कहाँ जाऊँ....क्या करूँ....कोई साधू-साध्वी हो तो बताए.....कहाँ पहुँचे हैं....ब्लॉगर या जो साहित्यकार ब्लॉग कर रहे हैं वो जहाँ पहुँच गये हैं......और वह पवित्र स्थान कहाँ हैं जहाँ हम सब जाना चाहते हैं और उसके आगे भी

Wednesday, May 21, 2008

खली बना खबरिया चैनल का हेड !

लिखी जा रही है खली-चालीसा

अगर किसी खबरिया चैनल में काम पाना हो तो यह जानना बेहद जरूरी है कि खली कितना खाता है
खली कितने किलो का है....उसका वजन कितना है....उसकी छाती कितनी चौड़ी है और वह लंबा कितना है......अगर आपके पास यह सारी जानकारी नहीं है तो आप चिरकुट हैं....आप का कुछ होता सा मुझे नहीं दिख रहा है....।
क्योंकि खली को लेकर एक खबर आई है अब यह खबर कितनी पक्की है कितनी नहीं पर है तो। सुनने में आया है कि कई हिंदी खबरिया चैनलों में बाहुबली खली को अपने यहाँ सीईओ बनाने की होड़ लगी हुई है...एक चैनल के बड़े कर्ता-धर्ता ने तो खली से यह तक कहा कि वह बाबा रामदेव के योग की जगह खली कैसे बनें जैसा कार्यक्रम भी बना सकते हैं...
रोचक बात यह है कि खली भी तैयार है लेकिन वह चाहता है कि उस कार्यक्रम में संवाद का प्रयोग कम हो और शरीर का संदर्शन अधिक.....चैनल तो इस बात के लिए भी राजी है कि वह खली के रसोईं से लेकर शौंचालय तक में उसकी हरकतों गतिविधियों के लाइव फुटेज भी दिखा कर अपना काम कर लेंगे....एक चैनल के ईपी ने तो खली के कार्यक्रमों के लिए कुछ शीर्षक भी बना लिए हैं....जो कुछ इस तरह है-
१-खुले में खली
२-खली के साथ खेल
३-खली को खोल के खेलो
४-शौंचालय में खली की खलबली
कल से खली, टॉप टीआरपी वाले तीन चैनलों में से किसी पर भी अपने शौंचालय में घुसता,धोता या सुखाता पोंछता दिखे तो इसे आप अपना सौभाग्य समझिएगा.....वह कहाँ से चलकर यहाँ तक आया है और चैनल के लोग उसके यथार्थ रूप का साक्षात दर्शन कराए बिना नहीं मानेंगे....और माने भी क्यों ऐसा मौका बार-बार कहाँ आता है......
खली को चैनल का प्रमुख बनाने वालों का मानना है कि बुद्धि और स्क्रिप्ट से बहुत दिन चल गया चैनल अब थोड़ा बल से चला लिया जाए हो सकता है कि बल से कुछ भला हो ही जाए....
दिल्ली के एक और संपादक ने तो खली की स्तुति में बिहार से चालीसा लेखकों की एक टीम बुला ली है...और सुनने में आया है कि चालीसा लेखकों ने अपना हाथ उठा दिया है । उनका कहना है कि खली जैसे बली की महिमा का बखान चालीस पंक्तियों में हो ही नहीं सकता। इतने विराट शरीर का बारीकी से अंकन करने के लिए यानी गुणगान के लिए कम से कम खली-पुराण या खलायण की रचना करनी होगी....चालीसा रचने वालों की बातों से चैनल सहमत है और उसने बिदर्भ और बुंदेलखंड के कुछ लोक गायकों को भी खलायण प्रोजेक्ट में जोड़ लिया है....कल से ही तमाम भूखे किसान खली की आरती, खली -चालीसा और खलायण के लिए लोक धुने बनाने में लग गए हैं....
खली खुश है, चैनल खुश हैं....चैनल के मालिकान खुश हैं....और सब की खुशी में मैं भी दाँत चियार कर खली-खली का जाप कर रहा हूँ। आप भी मेरे साथ बोलें जय खलीश्वर की।

Tuesday, May 20, 2008

ब्लॉग जगत में भी दुर्दशा के शिकार साहित्यकार

साहित्यकारों की दुर्दशा क्यों भाइयों...

हिंदी के जमें जमाए साहित्यकार ब्लॉग की दुनिया में भी पटखनी खाए पड़े हैं...तो दूसरी ओर वे ब्लॉगर जम कर पढ़े और सराहे जा रहे हैं जो साहित्यकार नहीं रहे हैं...यहाँ किसी साहित्यकार ब्लॉगर का नाम लेकर मैं किसी का दिल नहीं दुखाना चाहता लेकिन जितना तीन ब्लॉगर यानी फुरसतिया, उड़नतश्तरी और शिव कुमार मिश्र का ब्लॉग पढ़ा जाता है उतने ही पाठक संख्या में सारे साहित्यिक ब्लॉगर सिमट जाते हैं....आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है...एक से एक धुरंधर लेखक जब ब्लॉग पर अपनी पोस्ट छापता है तो उसे पाठकों के लाले क्यों पड़ जाते हैं...टिप्पणियाँ उसकी पोस्ट का रास्ता भूल जाती है...पसंद होना तो सपना है...
मुझे निजी तौर पर यह लगता है कि साहित्यकार ब्लॉगर अपने अतीत के गौरव से इतना दबा होता है कि वह मुस्कराना तक भूल जाता है....हर पल उसे यह लगता रहता है कि मैं तो फलाँ हूँ और मुझे सामान्य या सहज सरल बात करना शोभा नहीं देता....मैं तो गंभीर लेखन के लिए ही अवतरित हुआ हूँ....और वह अपने जबड़े को भींच कर लगातार एक से बढ़ कर एक उबाऊ पोस्ट ठेलता जाता है....और उसके आसपास कुछ गिने चुने पुराने परिचित पाठक ही फर्ज अदायगी में आते रहते हैं....और बह साहित्यकार ब्लॉगर गदगद भाव से अपने ब्लॉग को निहारता रहता है.......
मन में आया तो कभी कोई कविता छाप दी....फिर कुछ गद्यनुमा लिख दिया फिर कुछ पद्य नुमा छाप दिया .....साहित्य की दुनिया की तरह उसे असल में अपने पाठकों की पड़ी ही नहीं है.....पाठक गए भाड़ में मैं तो अपने मन की ही करूँगा......कुछ ऐसे ही भाव लेकर डूबता-उतराता रहता है...साहित्यकार ब्लॉगर.....
यह मेरा अपना आकलन है हो सकता है मैं पूरी तरह सही न भी होऊँ....पर मुझे लगता है कि ब्लॉग जगत में साहित्यकारों की दुर्दशा का कारण ऐसा ही कुछ होगा...

Friday, May 16, 2008

मनीष जोशी उर्फ जोशिम कहाँ हो तुम


मनीष जोशी को मैं लगातार पढ़ता रहा...लेकिन पिछले १८ अप्रैल से हरी मिर्च पर कुछ नया तीखा नहीं छप रहा है...मुझे उनकी यह कविता बहुत अच्छी लगी थी...वे ऐसी और इससे भी अच्छी कविताएँ लिखें इसी निवेदन के साथ उनकी यह कविता विनय-पत्र पर छाप रहा हूँ....।

आशा का गीत : आशा के लिए
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
वह संग चलते मरमरी अहसास के दिन
जो अंत से होते नहीं भी ख़त्म होकर सच
ठीक वैसे मृदुल के परिहास के दिन
हल्के कदम की धूप के, टुकड़े रहें जी
सरगर्म शामों के धुएँ, जकड़े रहें जी
राजा रहें साथी मेरे, जो हैं जिधर भी
बाजों को अपनी भीड़ में, पकड़े रहें जी
हो मनचले नटखट, थोड़े बदमाश के दिन
बस ना धुलें, अच्छे समय के वास के दिन
दूब हरियाली मिले, चाहे तो कम हो
रोज़े खुशी में हों, खुशी बेबाक श्रम हो
राहें कठिन भी हों, कभी कंधे ना ढुलकें
पावों में पीरें गुम, तीर नक्शे कदम हो
मैदान में उस रोज़ के शाबाश के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
कारण ना बोलें, मुस्कुरा कंधे हिला कर
झटक कर केशों को, गालों से मिला कर
पानी में मदिरा सा अनूठा भास दे दें
हल्के गुलाबी रंग से भी ज़लज़ला कर
कुछ अनकही, भरपूर तर-पर प्यास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन
दीगर चलें, चलते रहें राहे सुख़न में
प्यारे रहें, जैसे जहाँ में, जिस वतन में
जो आमने ना सामने हों, साथ में हों
क्लेश के अवशेष बस हों तृप्त मन में
मिलते रहें, चम-चमकते विश्वास के दिन
बस ना धुलें अच्छे समय के वास के दिन।।

नोट-हो सकता है कि कुछ पंक्तियाँ ऊपर नीचे हो गई हों....जोशिम जी के अपनों माफ करना।

Saturday, May 10, 2008

पत्नी की पोस्ट पति के ब्लॉग पर

मेरी पत्नी आभा चुपचाप अपना पोस्ट टाइप कर रही थीं...मैंने कहा लाओ मैं टाइप कर देता हूँ...उसने कहा कि तुम बहुत टोका-टाकी करते हो टाइप कम करते हो दिमाग ज्यादा खाते हो..मुझे करने दो...और ....बात दूसरी दिशा में चली गई...उसके बाद जो बातें हुईं...सब यहाँ जस का तस दर्ज है....एक दो पंक्तियों के बाद बात एकालाप सी हो गई....मैं चुप रहा और रंज सी मेरी पत्नी बोलती रही...फिर चली भी गई....बिना उसकी इजाजत के उसकी बातें छाप रहा हूँ....छपना तो इसे अपना घर में था लेकिन अभी विनय पत्रिका में छाप रहा हूँ...जो हो देखा जाएगा...।


सब दिखावा है....
कुछ भी सच नहीं है....
दिखावे पर दुनिया कायम है...
तो क्या हम भी दिखावा कर रहे हैं...
सच्ची....बक्क
मत करो न
मिटाओ सब....बंद करो बंद करो इसको मिटाओ....मिटाओ
इसे मिटा दो...मिटा दो यार....
(एक लंबी हंसी)
क्या यार मेरी पोस्ट लिखने दो छोड़ो की बोर्ड
लिखने दो या जाने दो
इतने दिन बाद लिखने आई हूँ तो बोर कर रहे हो....
तुमने मेरा हाथ दर्र दिया.....
(एक न रुकने वाली हँसी)
मैं जाऊँ....
अब जाऊँगी तो हाथ मत पकड़ना
मैं कह देती हूँ...ठीक नहीं होगा
देख लो लाल पड़ गया
हाथ है कि लकड़ा है...
हाथ....मत पकड़ना...
अच्छी मुसीबत है...कमाल हो
मैं की बोर्ड पकड़ कर ....समझ लो...
ये कबाड़खाने पर क्या बज रहा है...
अब न बजाओ श्याम....बंद करो
बच्चे सो रहे हैं...
ये तुम्हारी पोस्ट है क्या ....कुछ भी...छाप दोगे
हिंदी कविता है क्या...
कुछ भी चार लाइन लिख दिया
कैसी गंदी आत्मा हो तुम यार
मैं सोने जाऊँ...
मुझे सबेरे उठ कर बहुत सारा काम करना है...
नल खुला है...बंद करो....पानी बह रहा है...
पानी मत बरबाद करो....तुम तो नहाने जा रहे थे...जाओ...चलो.....
यह आदमी न जीने देता है न मरने देता है...
ये सब क्या लिख रहे हो....
(फिर हँसी)
अब या तो मैं खुद से टाइप करूँगी या कभी ब्लॉग नहीं लिखूँगी
चाहे साल भर हो जाए
अपने या
फिर तुम ही टाइप करो...अब मैं जाती हूँ...
लिखो ब्लॉग....
तुम क्यों अपना टाइम बरबाद कर रहे हो...जाओ पढ़ो...