Wednesday, June 18, 2008

कौन बनाता है छिनाल...

छिनाल के साथ कौन जन्मा उर्फ छिनरा

छिनाल के जन्म की चर्चा हुई । अजित भाई के शब्दों का सफर में । लेकिन वहाँ छिनाल के साथ जन्म लेने वाले छिनरा पुरुष की चर्चा रह गई । लावण्या जी ने छिनाल की तरह ही पुरुषों के लिए प्रयुक्त होनेवाले समानार्थी शब्द की चर्चा की थी। अवध में जहाँ मैं पैदा हुआ वहाँ जिस और जिन संदर्भों में छिनाल की चर्चा होती है उन्हीं संदर्भों में छिनरा व्यक्ति की भी चर्चा होती है। छिनाल के साथ जो छिनरई करते धरा जाता है सहज ही वह छिनरा होता है। वहाँ दोनों का कद बराबर है-

छिनरा छिनरी से मिले
हँस-हँस होय निहाल।

मेरा कहना है कि किसी भी समाज में अकेली स्त्री छिनाल नहीं हो सकती। उसे सती से छिनाल बनाने में पहले एक अधम पुरुष की उसके ठीक बाद एक अधम समाज की आवश्यकता होती है। छिनाल शब्द की उत्पत्ति पहले हुई या छिनरा की यह एक अलग विवाद का विषय हो सकता है । साथ ही समाज में पहले छिनरा पैदा हुआ या छिनाल। क्योंकि बिना छिनरा के छिनाल का जन्म हो ही नहीं सकता। एक पक्का छिनरा ही किसी को छिनार बना सकता है। तत्सम छिनाल का पुलिंग शब्द भले ही न मिले लेकिन तद्भव छिनरी का पुलिंग शब्द छिनरा जरूर मिलता है...।

छिनरा का शाब्दिक अर्थ है लंपट, चरित्रहीन और परस्त्रीगामी। वहीं छिनाल या छिनार का अर्थ है व्यभिचारिणी, कुलटा,पर पुरुषगामी। रोचक बात यह है कि लोक ने उस स्त्री में छिपे छिनाल को खोज लिया जिसके गालों में हँसने पर गड्ढे पड़ते हों-
हँसत गाल गड़हा परै, कस न छिनरी होय।
क्यों नहीं लोक ने छिनरे के लिए भी कोई पद रच दिया...।
अपने गाँव के चचेरे भाई मटरू की दूसरी शादी में सुनी एक गारी याद आ रही है, यह गारी बाद में मुझे भी संबोधित थी -
मटरू क बहिन बड़ी पक्की छिनार चल देखि आई।

संस्कृत का एक और शब्द है छिन्ना। इसके मायने भी छिनाल ही है। आचार्य राम शंकर शुक्ल रसाल इसका अर्थ व्यभिचारिणी स्त्री ही बताते हैं। उस शब्द के पक्ष में उन्होंने एक पद भी उद्धृत किया है-
छिन्ना शिवा पर्पट तोय पानात।

इसी छिनार और छिनरा से बना है छिनारा....यह व्यभिचार के बदले प्रयोग होनेवाला आम शब्द है। कर्म का पतन अगर और हुआ तो हो गया कुकुर छिनारा।
महाभारत में कुलटा के बराबर का जो शब्द बार-बार सुनाई पड़ता है वह है पुंश्चली। पुंश्चली का अर्थ होता है-त्रपारंडा और स्वैरिणी। कुलटा और व्यभिचारिणी तो होता ही है। वहाँ सूर्य पुत्र कर्ण द्रौपदी को कहता है पुंश्चली। वहाँ भी वह अकेले छिनरी नहीं है साथ में उसके पाँच पति भी तो फुंश्चला हैं...छिनरा हैं।
छिन्न से ही एक और शब्द की याद आती है। वह है उच्छिन्न। इस शब्द का प्रयोग अवध में लिर्मूल हो जाने या चलन खत्म हो जाने के खास संदर्भ में किया जाता है। पूर्णतया उन्मूलित या नष्ट।
नोट- निहाल वाला पद मेरा अपना लिखा है..

Tuesday, June 17, 2008

मैं काशीवाला नहीं हूँ

काशी के घाट बुलाते हैं...

काशी यानी बनारस से मेरा थोड़ा अजीब सा नाता है....
वैसे मैं पैदाइशी बनारसी यानी काशीवाला नहीं हूँ....लेकिन काशी जनपद का तो हूँ....जीवन में पहलीबार किसी शहर गया तो वह था बनारस......बनारस के घाट नदी का चौड़ा पाट...पतली गलियाँ....और उनमें सुहाग और पूजा के सामानों की दुकाने ....अपने लिए चूड़ियाँ और सिंदूर खरीदती सुहागिनें और उन्हें ताकती विधवाएँ....और बिसाती...नदी के तट से बँधी हिलती डोलती नावें....जैसे मोक्ष के लिए छटपटाता संन्यासी संसार के बंधन से छूट जाने को व्याकुल हो....।

यह सब मैं बालपन से देखता निरखता आया हूँ....लेकिन पिछले बीस सालों से काशी से दूर हूँ....फिर भी काशी की यही छवि मेरे मन में छपी है......
मैंने ठीक से तैरना काशी की गंगा में सीखा....मैंने जीवन के कई सारे विकट अनुभव बनारस की सीढ़ियों पर पाए....इसलिए काशी जाने और वहाँ सीढ़ियों पर बादलों की छाँव में बैठने और नदी के गंदले प्रवाह को देखने का मन करता है...और जैसे ही मौका मिलता है मैं काशी का रुख कर लेता हूँ....।

कहने को तो कहा जा सकता है कि काशी में क्या रखा है.....मैं कहूँगा कि यदि काशी में कुछ नहीं रखा है तो दुनिया में ही क्या रखा है....पतन किसका नहीं हुआ है....काशी का भी हुआ होगा....समय और बदलाव का दबाव काशी पर भी पड़ा है....लेकिन काशी का नशा मेरे मन से तनिक भी कम नहीं हुआ है.....।

मुझे सबसे अधिक आनन्द काशी की गंगा में नाव से भटकने में आता है....मैं काशी की गंगा का आनन्द लेने के लिए भादौं में जाना पसंद करता हूँ...तब गंगा में खूब पानी होता है....और भीड़ कम....नाव से भटकने के बाद बाद काशी के घाटों पर परिक्रमा करना अच्छा लगता है........वहाँ के घाटों में मणिकर्णिका घाट मुझे बहुत प्रिय है....वहीं पर मेरे बाबा की अंत्येष्ठि हुई....वहीं मेरी आजी भी जलाई गईं....इसलिए भी मैं वहाँ घंटों बैठा करता था....अब भी जब भी बनारस जाता हूँ और कही जाऊँ न जाऊँ...मणिकर्णिका घाट जरूर जाता हूँ....।

बचपन से ही बनारस के घाटों पर जाना और माथे पर चौड़ा तिलक लगाना और पूजा में चढ़ाई गई इलायची और नारियल मिला कर खाना एक नित्य क्रिया थी....घरवालों का दबाव न होता तो भाँग खाने की भी आदत पड़ी ही होती...यह सोचना बड़ा अच्छा लगता है कि अगर मैं भंगड़ होता तो कैसा होता मेरा जीवन.....आज भी पूजा का प्रसाद हो या वैसे ही इलायची और नारियल खाना अच्छा लगता है....यह बनारस को जीना है बनारस को अपने साथ रखना है....।

Friday, June 13, 2008

वैशाली जाने का मन है....


पहली बीड़ी की याद और यायावर मन

कितनी बार सोचा और तय किया कि बिहार और उत्तर प्रदेश के एक-एक गाँव और छोटे बाजारों और कस्बों तक जाऊँगा...लेकिन जाना नहीं हो पाया....कितनी-कितनी मुश्किल से बिहार में पटना, गया, हजारीबाग, मुजफ्फरपुर और एकाध शहरों के आगे नहीं जा पाया । उत्तर प्रदेश के 15 से 20 जिलों तक ही गया होऊँगा...जिनमें बलिया, गाजीपुर, देवरिया, आजमगढ़, मऊ, मीरजापुर, सोनभद्र, गोरखपुर, बस्ती, अकबरपुर, फैजाबाद, सुल्तानपुर, सिद्धार्थनगर, कौशांबी, इलाहाबाद, बाँदा, चित्रकूट, जौनपुर और प्रतापगढ़ शामिल है..। हो सकता है कि एकाध और जिलों में गया होऊँ...पर इससे क्या मैं कह सकता हूँ कि मैं हिंदी इलाके को जानता हूँ......।

मध्य प्रदेश राजस्थान के कई जिले तो मेरे लिए इतने अपरिचित हैं जैसे वे भारत में नहीं कहीं अफ्रीका या अरब में हो...हम लोग देश के राष्ट्रीय एकता की बात करते हैं...और करना भी चाहिए...लेकिन क्या यह नहीं होना चाहिए कि हमें अपने देश के सब नहीं तो कुछ इलाकों तक तो पहुँच ही लेना चाहिए....।

मेरा मन बार-बार वैशाली जाने को करता है...मैं....सच में वैशाली जाना चाहता हूँ....क्या वहाँ आम्रपाली के होने का कोई निशान मिलता है ... सुनता हूँ कि अभी वैशाली बिहार में नहीं है...अगर हो तो भी न हो तो भी वैशाली जाना है....वैसे मैं झूमरी तलैया भी जाना चाहता हूँ....कभी रेडियो पर रोज वहाँ से फरमाइशें होती थीं...वे गाने सुनने वाले अभी भी वहाँ होंगे क्या...

राजगीर भी जाना चाहता हूँ....देखना चाहता हूँ कि क्या वहाँ अभी भी पांडव पर्वत है जहाँ सिद्धार्थ और बिंबिसार की पहली मुलाकात हुई थी....जहाँ मगध नरेश ने सिद्धार्थ को अपना सेनापति बनने के प्रस्ताव रखा जिसे...सिद्धार्थ ने ठुकरा दिया था...क्या वह गड्ढा अभी भी वहाँ के राजपथ पर होंगे जिसे ह्वेन सांग ने अपने यात्रा विवरण में दर्ज किया था...

फुलवारी शरीफ यह नाम मुझे बहुत पुकारता है....पलामू....डाल्टनगंज....कभी जा पाऊँगा क्या....गोमो स्टेशन कितनी बार गुजरा ....पर एक बार चाय पीने भर का समय ही यहाँ बिता पाया हूँ...यही वह स्टेशन है जहाँ से नेता जी अंग्रेजों की पकड़ से निकल भागे थे...ऐसा याद आता है कि इसी स्टेशन से मैंने चंपा नाम की पहाड़ी को देखा था... कोहरे पेड़ों और भाफ से ढंकी पहाडी ....उसी पहाड़ी को देखते हुए मैंने पहली बार बीड़ी पी थी...और फूट-फूट कर रोया था...बीड़ी का नाम था हिंद सवार . सामने की सीट पर बैठे एक दढ़ियल से माँग कर पी थी ....और मेरी रुलाई पर वह बुड्ढा बहुत परेशान हो गया था....एक बार गोमो की तरफ वहाँ जहाँ ऐसे पहाड़ हैं..जाना चाहता हूँ...

अगले दो-तीन महीने में देशांतर की संभावना है.......लेकिन उसके पहले..एकबार न बिहार अपने बनारस तो जा ही सकता हूँ....जाऊँगा....