Wednesday, April 22, 2009

नाम के लिए हत्या

अब तो नाम लोगे आलोचक


सिर्फ हिंदी के लिए देह धारण करनेवाले आज कितने होंगे। जी हाँ, मात्र हिंदी को समर्पित एक कवि महान कवि, कहानीकार, समीक्षक, संपादक, प्रवक्ता त्तर प्रदेश में हैं किंतु बेहद दुखी और परेशान हैं। अपनी उपेक्षा से तंग आकर उन्होंने अपना नाम बदलने का मन बना लिया है। उनका कहना है कि ऐसा नाम रखेंगे कि लोग देखते रह जाएँगे। और नाम बदलते ही उनका काम हो जाएगा। उनके नाम का महिमा मंडन किए बिना या उनका नाम लिए बिना कोई आलोचक अपना लेख वह किसी भी विधा का हो पूरा नहीं कर पाएगा। अभी यह तय नहीं हुआ है कि नाम क्या रखें। किंतु सूची बन गई है।

हो सके तो आप उनकी मदद कर दें। नाम बस ऐसा हो कि आलोचक, समीक्षक बिना उनको याद किए रह न पाएँ। हिंदी की सेवा का कुछ तो मेवा मिले।

नाम इस प्रकार हैं- और तिरछे अक्षरों में हैं।

आदि, इत्यादि, तथा, जैसे, अन्य, और, गण, असंख्य, अथवा, तमाम, कवि, लेखक, चिंतक, विचारक, नाटक, एकांकी, संपादक, प्रवक्ता, हिंदी, भाँति, तरह, प्रकार, समान, व, सरीखे, कोटि।

कौन सा नाम बेहतर तरीके से उनकी मदद कर पाएगा इसका ध्यान रखिएगा। वे हिंदी में आए क्यों हैं। नाम कमाने ही तो। और ये आलोचक नाम ही नहीं लेते। तो नाम बदलने का काम एक दो दिन में ही सम्पन्न हो जाए तो अच्छा रहेगा। नहीं तो हिंदी के दो चार कवि आलोचक, समीक्षकों की बलि चढ़ा देंगे अपने हिंदी के ये उपेक्षित समर्पित कवि। यह ठीक न होगा। केवल नाम के लिए हत्या करनी पड़े। मैंने सोचा है कि यदि वे इत्यादि जी, आदि जी, कोटि जी जैसा नाम रख लें तो कैसा रहेगा।

Tuesday, April 14, 2009

चिद्-विलास : पिता के साथ पुरखों का इतिहास



अपने पूर्वजों पर लोग क्यों नहीं लिखते

लेखक लोग अक्सर अपने घर परिवार कुल वंश के बारे में आधी-अधूरी बातें करके छुट्टी पा लेतें हैं। कोशिश करते हैं कि अपनों के बारे में जितनी कम बातें करके काम चल जाए उतना ही कुशल है। क्योंकि घर परिवार पर लिखना फायदे का लेखन नहीं माना जाता। अपने पिता और लाचार माँ पर, अपने पूर्वजों पर लोग नहीं लिखते जबकि किसी पहुँचे हुए आलोचक और सफल सामाजिक की जीवन गाथा ग्रंथित करने के लिए हर कोई कलम उठाए रहता है। बल्कि कहूँ तो कलम तोड़ स्तुति करने को तैयार रहता है।

वैसे भी भला बहुत कम कामयाब व्यक्ति का कोई इतिहास होता है, जीवन वृत्त होता है। लेकिन एक पिता वह असफल रहा हो सफल उसका इतिहास भी होता है और जीवन वृत्त भी। तभी तो डॉ. गिरीश चंद्र शुक्ल ने अपने पिता के जीवनी लिखी है साथ ही अपने कुल कुटुंब और गोत्र का इतिहास भी दर्ज किया है। उन्होंने उस ग्रंथ को नाम दिया है चिद्व विलास।

वैसे डॉ. गिरीश चंद्र शुक्ल प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्येता होने का साथ ही पट्टी प्रतापगढ़ में एक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज के प्राचार्य हैं। उनका पौराणिक भारत पर गहन अध्ययन है। कूर्म पुराण के सांस्कृतिक अध्ययन, प्राक् एवं प्रागितिहासिक भारतीय पुरातत्व जैसे कई प्रकाशित हैं। इतिहास की कई और पुस्तकों के साथ ही विवादास्पद सेतुबंध रामेश्वरम् पर एक ग्रंथ प्रकाशनाधीन है। यह ग्रंथ सेतुबंध के तमाम पौराणिक ऐतिहासिक संदर्भों पर प्रकाश डालेगा।


जैसा कि मैंने अभी कहा कि चिद् विलास एक कुटुंब के बनने और समाज में अपनी जगह बनाने की बड़ी रोचक गाथा के रूप में सामने आता है। कैसे एक गर्ग गोत्र में लखनौरा शुक्लों की एक शाखा अलग से बनती है। कैसे एक वंश अपने पिछले इतिहास को भूलते याद करते स्थानांतरित होते हुए भी अपने अतीत से जुड़ा भी रहता है। कैसे एक पिता अप्रत्यक्ष रूप से अपने पुत्र को साथ ही अगली कई पीढ़ियों को दिशा देता है। पुस्तक में डॉ.शुक्ल की लेखकीय शक्ति बार-बार चमत्कृत करती है। खासकर उन स्थलों पर जब वे पिता को खो देते हैं। वे प्रसंग सचमुच मर्माहत करने वाले हैं। कुछ अंश आप भी पढ़े-
एक-
उनकी( पिता की) शवयात्रा की तैयारी पूरी कर ली गई। हमलोगों ने उन्हें कंधा दिया। और रसूलाबाद श्मशान घाट ले जाया गया। पिता का वह चेहरा जिसे मैंने जिंदगी में सैकड़ों बार छुआ और अनुभव किया था, राख में परिवर्तित हो रहा था। सांसों को खींचे मैं पीछे हट आया।

दो-
सारी उम्र वे हम भाइयों व बहनों को ऊँचा उठाने, में जीवन में गुणवत्ता भरने और समाज के सभ्यनागरिक बनाने में जुटे रहे। आज हम सब खुले में आश्रय रहित अनुभव कर रह थे। छत्रछाया हट चुकी थी। उन्होंने ढाल की भाँति हमें सुरक्षा दी थी।

तीन-
पिता जी को बरामदे में जमीन पर लिटाया गया था। उनका चेहरा मात्र खुला था। जिसमें किसी फ्रकार की आभाहीनता परिलक्षित नहीं हो रही थी। लगता था कि यौगिक साधना में शरीर को शिथिल किए हुए हैं।

पूरे ग्रंथ को पढ़ने के बाद इसे फिर से पढ़ने को मन करता है। समाजेतिहास के साथ ही एक अलग तरह की औपन्यासिकता चिद् विलास को अलग मुकाम देती है। आजकल के बोझिल लेखन तुलना में शुक्ल जी का लेखन काफी रोचक और पठनीय है, तमाम सामाजिक संदर्भ अपने आप जुड़ते जाते हैं। यदि आप सब इस ग्रंथ को पढ़ना चाहें तो। पारिजात प्रकाशन, 247 सी/5, ओम गायत्री नगर इलाहाबाद से इसे प्राप्त कर सकते हैं। विनय पत्रिका के मार्फत सम्पर्क करनेवालों के 40 प्रतिशत की विशेष रियायत दी जाएगी।

· ग्रंथ के अन्यान्य प्रकरणों पर और लिखना चाहता था लेकिन अभी इतना ही।

Saturday, April 11, 2009

फिल्म सरपत का असर और दाम्पत्य




साथ-साथ हैं

तीन चार दिन हुए, मित्र अभय की फिल्म सरपत देखी। फिल्म का ऐसा प्रभाव रहा कि घर आकर एक कविता लिखी। मैंने ऐसी बहुत कम कविताएं लिखी हैं जो कि किसी रचना से प्रभावित हो या प्रेरित हो। लेकिन सरपत ने तो मन को चीर दिया। फिल्म देखने के बाद मैं वहाँ बहुत देर तक कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं था। एक उछाह, एक जलन एक लगाव की भावना से भर गया था। आज उस कविता को ब्लॉग पर चढ़ाने जा रहा था कि पत्नी आभा ने कहा कि इस कविता पर थोड़ा और काम करो। सो आज रपत पर लिखी मेरी कविता रुक गई। आप सब क्षमा करें।

उसके बाद हम दोनों बाकी के ब्लॉग पढ़ने लगे। साथ-साथ । घर में अक्सर ऐसा ही होता है कि एक पढ़ रहा होता है या कुछ छाप रहा होता है कि दूसरा आ धमकता है कि क्या है जो पढ़ा जा रहा है, क्या चढ़ा रही हो, रहे हो, क्या टिप्पणी कर रहे हो, कर रही हो जैसे प्रश्न शुरू हो जाते हैं। और बिना माँगे सलाह देने और रास्ता दिखाने का लोकतांत्रिक अधिकार लागू किया जाने लगता है।

किसे टीप दें। किसे पसंद करें। किसे रहने दें सब पर किच-किच होती है किंतु ब्लॉग-पढ़ाई साथ में जारी रहती है। हम दोनों की पसंद नापसंद एकदम जुदा है। जिसे जाहिर करने की यहाँ कोई जरूरत नहीं है। किटकिटाते खिलखिलाते हम कई-कई पोस्ट साथ-साथ पढ़ते हैं। आप इसे दाम्पत्य सुख माने या कुछ और लेकिन होता कुछ ऐसा ही है। क्या करें।