Wednesday, July 30, 2008

राम और सीता के जीवन में किसने आग लगाई........

अशोक वनिका में खुश थे राम-सीता


यह प्रसंग बड़ा ही रोचक, जगानेवाला और दुख दाई है । कथाओं से ऐसा लगता है कि राम और सीता ने सुख के दिन देखे ही नहीं। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं था। रामायण में ऐसा लिखा है कि राम और सीता लंका से लौट कर बड़े आनन्द से रह रहे थे। सब ठीक-ठाक चल रहा था...। जीवन पटरी पर आ गया था। लेकिन जैसे की हर युग में पर दुख संतापी होते हैं राम राज्य में भी थे...उनके पेट में बात पची नहीं....।

समय बीता ....देवी सीता पेट से हुईं....और उन्हें साथ लेकर राम अयोध्या की अशोकवनिका ( अन्त:पुर में विहार योग्य उपवन) में गए। वहाँ राम पुष्पराशि से विभूषित एक सुंदर आसन पर बैठे। जहाँ नीचे कालीन भी बिछा हुआ था।

फिर जैसे देवराज इंद्र शची को मधु मैरेय ( एक प्रकार बहु प्रचलित मद्य) का पान कराते हैं उसी प्रकार कुकुत्स्थकुल भूषण श्री राम ने अपने हाथ से पवित्र पेय मधु मैरेय लेकर सीता जी को पिलाया।

फिर सेवकों ने राजोचित भोज्य पदार्थ जिसमें मांसादि थे और साथ ही फलों का प्रबंध किया और उसके बाद राजा राम के समीप नाचने और गाने की कला में निपुण अप्सराएँ और नाग कन्याएँ किन्नरियों के साथ मिल कर नृत्य करने लगीं।

इसके बाद हर्षित राम ने गर्भवती सीता से पूछा कि मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ..बरारोहे मैं तुम्हारा कौन सा मनोरथ पूरा करूँ...। माता बनने जा रही खुश सीता ने राम से कहा कि मेरी इच्छा एक बार उन पवित्र तपोवनों को देखने की हो रही है ...देव मैं गंगा तट पर रह कर फल मूल खाने वाले जो उग्र तेजस्वी महर्षि हैं, मैं उनके समीप कुछ दिन रहना चाहती हूँ...। देव फल मूल का आहार करनेवाले महात्माओं के तपोवन में एक रात निवास करूँ यही मेरी इस समय सबसे बड़ी अभिलाषा है।

पत्नी सीता की इच्छा जान कर राम को बड़ी खुशी हुई और उन्होंने कहा कि तुम कल ही वहाँ जाओगी....इतना कह कर श्री राम अपने मित्रों के साथ बीच के खंड में चले गए।

फिर आगे वह हुआ जिसने सीता के जीवन की दिशा बदल दी । राम अपने तमाम 10 सखाओं से घिरे बैठे थे...उन्होंने कहा कि राज्य में आज कल किस बात की चर्चा विशेष रूप से है । उनके सखाओं में एक भद्र ने बताया कि जन समुदाय में सीता जी का रावन के द्वारा हरण होने और क्रीडा कानन अशोक वनिका में रखने के बाद भी आप द्वारा स्वीकार किया जाना सबसे अधिक चर्चा में है .....लोग अचंभित और परेशान है कि हम लोगों को भी स्त्रियों की ऐसी बातें सहनी पड़ेगी...लोग जानना चाह रहे हैं कि आप ने कैसे स्वीकार कर लिया सीता को....बस.....सीता माता के सुख के दिन समाप्त हो गए........राम ने एक तरफा फैसला करके सीता को एक दिन नहीं सदा-सदा के लिए वन में त्याग देने का आदेश दिया .....वह भी लक्ष्मण को....

वन जाकर भी सीता को तो यही पता था कि वह तो अपनी इच्छा से घूमने आई है....गंगा के पावन तट पर.....बस उनकी खुशी के लिए....उसके प्यारे पति ने भेजा है......

देखें- गीता प्रेस गोरखपुर का श्री मद्वाल्मीकीय रामायण, द्वितीय भाग, उत्तर काण्ड के अध्याय 42 से 50 तक की पूरी कथा । .



Monday, July 28, 2008

दिमाग के दीमकों का क्या करूँ

मोहित मुर्दाबाद जयंत जिंदाबाद

दीवार में लगे दीमक को तो हटाया जा सकता है लेकिन दिमाग में लगे दीमक का क्या करें...किसी को एक सिरे से बुरा कहना भी दिमाग में दीमक लगने की निशानी है। क्या आप नहीं मानते।

मामला थोड़ा उलझा हुआ है । तो जाने और बताएँ कि मुझे क्या करना चाहिए। मेरे मुहल्ले में मोहित चाय वाला है । उसके बगल में जयंत की भी एक दुकान है। जयंत की चाय हर दम फीकी रहती है लेकिन मोहित की चाय लगातार अच्छी रहती है। दोनों एक ही धन्धे में हैं...एक ही तरह की पत्ती और मशाले का प्रयोग करते हैं॥लेकिन एक सुस्त है और एक चुस्त है। एक के यहाँ से लगातार चाय बनने की आवाज आती रहती है लेकिन उसी समय दूसरे के यहाँ से गप्प और अनर्गल बातों की बदबू उफान मार रही होती है । जयंत के यहाँ यह बड़ा मुद्दा होता है कि देखो मोहित के यहाँ क्या हो रहा है ....जयंत की मानसिकता मोहित की निंदा और अपनी सडांध को खुश्बू बताने की बन चुकी है ऐसी बातों के अलावा उसकी दुकान में और किसी बात का दर्शन नहीं होता। यानी चाय तो अच्छी बने दूर की बात है कुछ भी बेहतर नहीं होता। हालांकि जयंत अपने धंधे का पुराना खिलाड़ी है....। कभी साल छ महीने उसने भी अच्छी चाय बेंची है......।
जयंत और उसके कुछ परिचित जो कि एक छोटा गिरोह भी चलाते हैं वे चाहते है कि मोहित की दुकान बंद हो जाए और केवल उनकी दुकान ही चले। बाजार में केवल उनकी ही चाय की बात हो। जो उनके पक्ष में बात करेगा उसे वे चाय भी पिलाएँगे और उसे सच्चे चाय कर्मी के रूप में भी प्रचारित करेंगे। वे न सिर्फ मोहित की दुकान उजाड़ना चाहते हैं बल्कि उनकी कोशिश है कि अगर मोहित वाला फार्मूला भी हाथ लग जाता तो मजा आ जाता।

मित्रों मैं कभी कभार जयंत के यहाँ जब वह आर्त स्वर में पुकारता था चाय पीलो भाई तो जाता था...या जब सारी दुकाने बंद होती थीं....तब वहाँ जाता था चाय पीने । लेकिन वहाँ अच्छी चाय के अलावा सब कुछ मिलता है । जिसमें मोहित की चाय को सिरे से नकार देने की एक अजीब हत्यारी मनोदशा भी शामिल है। मोहित की चाय बुरी, मोहित की बेंच गंदी, मोहित की गिलास गंदी, मोहित की दुकान गंदी...और जयंत की जय हो...

अब मैं क्या करूँ। मैं जयंत के यहाँ नहीं जा रहा। उसके लोग चाह रहे हैं कि या तो मैं चाय छोड़ दूँ या फिर केवल जयंत की सड़ांध और तंग दुकान में बैठा रहूँ.....जहाँ की दीवारों पर न सिर्फ अँधेरा और घुटन था बल्कि जयंत के दिमाग में दीमक है....वह अपने दिमाग के दीमक को भी चाय कर्म का एक नायाब रत्न बता कर मेरे भेजे में भरना चाह रहा है..........
मैं क्या करूँ....
नया ठीहा खोजूँ....या चाय पीना छोड़ दूँ या फिर जयंत और उसके लोगों के कहे पर फिर उसकी सड़ी और फीकी चाय को आह...आह करके पीऊँ...और दिमाग में दीमक रख लूँ....
आप लोग बताएँ मैं क्या करूँ.....