Wednesday, January 13, 2010

अपने अश्क जी याद हैं आपको



लोग कितने भुलक्कड़ है

उपेन्द्र नाथ अश्क जी को आप भूल गए। हाँ वही अश्क जी जो लगातार लिखते रहे। हिंदी उर्दू के बीच पुल बने रहे। वही जो इलाहाबाद की धुरी थे। गौरांग से, तिरछी टोपी लगाए। एकदम अपने घरेलू बुजुर्गों की तरह अपने से दिखते थे। 2010 में उनकी जन्म शती चल रही है, पर कहीं कोई हलचल नहीं है। उनके जन्म शहर जालंधर में तो क्या होगा, लेकिन उनकी कर्म भूमि इलाहाबाद में उनकी उपेक्षा थोड़ी तकलीफ दे रही है। वे जब तक रहे इलाहाबाद के लेखकों के साथ एक पिता एक परिजन की तरह जुड़े रहे। लेकिन आज उन्हें याद करने की जरूरत नहीं रही। देश की राजधानी दिल्ली में कल शमशेर जी के जन्म शती वर्ष की बड़े जोर शोर से शुरुआत हुई है। लेकिन अश्क जी के साथ यह न हो सका। आप कह सकते हैं कि उन्हें न उनके संगठन ने याद किया न उनके नाम पर संस्था बनाने वाले उनके परिजनों ने न उनके लेखकीय शिष्यों ने। न हिन्दी ने न उर्दू ने।


आज भी देश में ऐसे सैकड़ों कवि लेखक होंगे जिनको अश्क जी ने लिखना सिखाया है। कविता या कहानी पर काम कैसे किया जाता है यह बताया है। कैसे केवल शिर्षक बदल देने से कहानी का रंग बदल जाता है यह अश्क जी से सीखा जा सकता है। आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि कहानी कार राजेन्द्र यादव जी की कहानी जहाँ लक्ष्मी कैद हैं का पहले शीर्षक था बड़े बाप की बेटी लेकिन संकेत में जब उसे अश्क जी ने प्रकाशित किया तो उसे शीर्षक दिया जहाँ लक्ष्मी कैद हैं। ऐसे ही अमरकांत जी की प्रसिद्ध कहानी जिंदगी और जोक को अमरकांत जी ने शीर्षक दिया था मौत का कार्ड लेकिन अश्क जी ने उसे नया रूप दे कर बना दिया जिंदगी और जोक। ऐसी एक दो नहीं हजारों कहानियाँ और कविताएँ होंगी जिन्हें अश्क जी ने अपनी छुवन से नया रूप नया रंग नया अर्थ दे दिया।

अश्क जी हिन्दी और उर्दू में समान रूप से लिखते रहे।उनका हिंदी और उर्दू के लेखकों से भी समान रूप से लगाव था। इसीलिए दोनों के लेखक उनके नाम पर समान रूप से चुप हैं। यह कितनी सात्विक एक जुटता है। लोग हत्या में ही नहीं उपेक्षा में भी एकजुट हो सकते हैं।

मेरी कई कविताएं उनके सुलेख में मेरे पास सुरक्षित हैं। मैं कह सकता हूँ कि वे मेरी नहीं अश्क जी की कविताएँ हैं। क्योंकि उनमें तो आधे से अधिक उनका लिखा है। मैं जब तक जनवादी लेखक संघ से नहीं जुड़ा था तब तक लगभग हर रोज उनके पास उनकी सलाह के लिए जाया करता था। लेकिन जब मैं संगठन से जुड़ा तो धीरे-धीरे अश्क जी मेरे लिए अछूत हो गए। गैर जरूरी हो गए। लेकिन मैं यह बात बार बार कहना चाहूँगा कि अश्क जी मेरे गुरु हैं उन्होंने मुझे कविता लिखना सिखाया। मैं उनकी जन्म शती पर उन्हें श्रद्धा से याद करता हूँ। और कोशिश करूँगा कि उनके हाथ से लिखी सुधारी मेरी जो कविताएँ हैं उन्हें पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित करा सकूँ।

वे जब तक रहे उनका इलाहाबाद में 5 खुशरोबाग रोड का घर लेखकों की शरण स्थली बना रहा। लेकिन पता यह चला है कि उनके पुत्र नीलाभ ने उस का एक हिस्सा बेंच दिया है । लेकिन मैं फिर भी उम्मीद करूँगा कि उस घर में उनको याद करने का एक दिन तो जरूर हो। एक शाम तो हो जो हम अश्क जी की याद में बिता सकें।