Tuesday, September 28, 2010

महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय प्रकाशित कर रहा है भारत भूषण अग्रवाल संचयिता



मुझे 1999 का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला था। करीब 11 साल हो गए तब से अब तक मैंने भारत जी पर न कुछ लिखा न कहीं कवि रूप में उनकी चर्चा ही की। बस घर में उनके नाम पर मिले सम्मान को सजा कर खुश हूँ।

इसी बीच में फरवरी में विभूति नारायण राय से मेरी मुलाकात हुई। बातों के सिलसिले में उन्होंने लगभग ताना सा मारते हुए कहा कि जिन कवियों-आलोचकों के नाम पर सम्मान दिए जाते हैं उन पर लोग क्यों नहीं लिखते। मैंने तभी उनसे कहा था कि मैं भारत भूषण अग्रवाल जी और गिरिजा कुमार माथुर जी पर कुछ कर सकता हूँ। उन्होंने तभी हामी भर दी और कहा कि विश्वविद्यालय के लिए मैं भारत भूषण अग्रवाल जी की एक संचयिता संपादित कर दूँ। मैंने भी इसे एक सुअवसर की तरह माना और संपादित करने की स्वीकृति दे दी।

कई महीनों की सुस्ती के बाद इसी हप्ते मैंने भारत जी की पुत्री श्रीमती (प्रो.) अन्विता अब्बी जी से मेल और चैट पर बात करके इस संचयिता की योजना की जानकारी दी। मैंने इस संदर्भ में उनसे विभूति जी की योजना को विस्तार से बताया और मेल से ही पत्र भी भेंज दिया। मुझे अच्छा लगा कि अन्विता जी ने खुशी-खुशी इस संचयिता को हिंदी विश्वविद्यालय से प्रकाशित करने की स्वीकृति दे दी है।

इसी सिलसिले में हो रहे चैट में अन्विता जी ने कहा कि विभूति नारायण राय जी ने महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय को गर्द में जाने से बचाया है। मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि विभूति जी ने मेरे लिये भी एक अवसर उपलब्ध कराया कि मैं भारत जी पर कुछ कर पाऊँ। मेरी पूरी कोशिश होगी कि यह संचयिता पीछे की सारी संचयिताओं से बेहतर भले न हो कमतर तो नहीं हो। और विश्वविद्यालय के मानको पर खरा उतर सके मेरा संपादन।

मैं कोई महान काम नहीं कर रहा बल्कि भारत जी के नाम से जो एक सम्मान लेकर बैठा हूँ उससे उऋण होने की कोशिश भर कर रहा हूँ। मेरी दृढ़ मान्यता है कि जिन 30 कवियों को यह सम्मान मिला है यदि वे सभी एक-एक लेख भी भारत जी पर लिख दें तो शायद उनका एक समग्र मूल्यांकन हो जाए। लेकिन हर वो बात कहा होती है जो हम चाहते हैं। आज भारत जी पर मिल रहा सम्मान हिंदी कविता की शान है लेकिन भारत जी पर उनके सकालीन और परवर्ती कवि-लेखक-आलोचक बाबाओं की तरह मौन हैं। पिछले कई सालों से पुरस्कार सम्मान की वार्षिक घोषण के अलावाँ मैंने कुछ नहीं पढ़ा भारत जी पर। शायद यह मेरी काहिली हो। इस पर क्या कह सकता हूँ।

प्रस्तुत है भारत जी की चार देखन में छोटन लगे घाव करें गंभीर कविताएँ।

तुक की व्यर्थता

दर्द दिया तुमने बिन माँगे, अब क्या माँगू और ?

मन के मीत ! गीत की लय, लो, टूट गई इस ठौर

गान अधूरा रहे भटकता परिणति को बेचैन

केवल तुक लेकर क्या होगा : गौर, बौर, लाहौर ?

न लेना नाम

न लेना नाम भी अब तुम इलम का

लिखो बस हुक्के का चिलम का

अभी खुल जाएगा रस्ता फिलम का।

तुक्तक और मुक्तक

( आत्मकथा की झाँकी)

मैं जिसका पट्ठा हूँ

उस उल्लू को खोज रहा हूँ

डूब मरूँगा जिसमें

उस चुल्लू को खोज रहा हूँ।।

समाधि-लेख

रस तो अनन्त था. अंचुरी भर ही पिया

जी में बसन्त था, एक फूल ही दिया

मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है :

कैसे बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया !

नोट- गूगल में हिंदी में भारत भूषण अग्रवाल टाइप करके इमेज खोजने पर भारत जी की जगह तीस बत्तीस कवियों की छवियाँ सामने आती हैं लेकिन भारत जी कहीं नहीं दिखते। यहाँ प्रकाशित भारत जी की फोटो श्री अशोक वाजपेयी जी द्वारा संपादित, राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनकी प्रतिनिधि कविताएँ से साभार लिया गया है।

Friday, September 17, 2010

कवि विष्णु नागर जी के लिए एक कविता

मेरे गाँव का बिस्नू

(कवि विष्णु नागर जी की षष्ठि पूर्ति पर सादर)

मेरे गाँव में एक बिस्नू है
जो रोता नहीं है।

लोगों ने उसे मारा फिर भी वह नहीं रोया
कुहनी और घुटने से मारा
थप्पड़ और लात से मारा
पत्थर और जूते से मारा
लाठी से उसका सिर फोड़ दिया
लोहे के सरिए से मारा
मुगदर से उसकी कमर तोड़ दी
बाल पकड़ कर पटक दिया खेत में
खेलने के बहाने गिरा दिया मुँह के बल
कबड्डी तो कहने के लिए था वह
लोग थे कि बिस्नू को छील रहे थे
लेकिन फिर भी नहीं रोया
मेरे गाँव का बिस्नू।

उसका खलिहान जला दिया
उसका घर बह गया
उसके पिता को मार कर
घर के पिछवारे फेंक गए शव
सिर अलग धड़ अलग फिर भी नहीं भींगी
बिस्नू की आँखें
वह बस देखता रहा पिता का शव
उसकी माँ लट खोले लोट रही थी
उसकी रुलाई से रो रहे थे लोग
और बिस्नू चुपचाप अर्थी बनाने में जुटा रहा
रोया नहीं।

डाका पड़ा गाँव में
उठा ले गए डाकू उसकी इकलौती बेटी को
अगले महीने होना था उसका गौना
सुदिन पड़ चुका था
अपनी बेटी को बचाने में बिस्नू लड़ता रहा
तब तक जब तक गिर नहीं पड़ा बेसुध हो कर
लेकिन न गिड़गिड़ाया न की फरियाद
न हाथ जोड़े बस लड़ता रहा
अगले हप्ते बेटी की लाश मिली गंगा में उतराते
लेकिन रोया नहीं बिस्नू तब भी।


उसकी देह पर हैं सैकड़ों चोट के निशान
पता नहीं अब वह मजदूर है या किसान
पता कि वह क्यों नहीं रोता है
और जब नहीं रोता तो उसके मन में क्या होता है।

लोगों ने उसकी माँ से पूछा कि बिस्नू क्यों नहीं रोता है
माँ बोली कि क्या बताऊँ
यह जन्म के समय भी नहीं रोया था
सब डर गए........ कि
रोएगा नहीं तो जिएगा कैसे
रोएगा नहीं तो बचेगा कैसे।

लेकिन बेटा सच कहूँ
मैं माँ हूँ उसकी
मैं जानती हूँ मेरा बिस्नू भी रोता है
उसका भीतर-भीतर सुबकना मैं
सुन पाती हूँ
मैंने उसकी रुलाई देखी तो नहीं
लेकिन इतना समझती हूँ कि
जब सारा संसार सोता है
मेरा बिस्नू तब रोता है।

माँ उसकी कहे कुछ भी
सच तो यही है कि आज तक किसी ने नहीं देखा
बिस्नू को रोते
आँख भिगोते या आँसू पोछते।


खाली हाथ है जेब फटी है
जीवन का कोई हिसाब नहीं है
फिर भी बिस्नू के पास लाभ-हानि की कोई किताब नहीं है।


सवाल है कि क्या मेरे गाँव का बिस्नू पुतला है
काठ का बना है
क्या उसके पास नहीं है रोने की भाषा
या उसके लिए रोना मना है।
जो भी हो मेरे गाँव का बिस्नू नहीं रोता है
लेकिन लोग कहते हैं कि इतने बड़े देश मे
एक मेरे गाँव के बिस्नू के न रोने से क्या होता है।

नोट- यह कविता लखनऊ की कवयित्री प्रतिभा कटियार के सौजन्य से रांची के अखबार के प्रभात खबर में रविवार १२ सिंतंबर २०१० को प्रकाशित हुई है। यह प्रभात खबर में मेरी जानकारी में मेरा प्रथम प्रकाशन है। इसके इस पाठ तक की यात्रा में कवि अशोक पाण्डे और कवि हरे प्रकाश उपाध्याय ने महत्वपूर्ण सलाहों से मेरा रास्ता सहल बनाया। प्रभात खबर, प्रतिभा, अशोक और हरे का आभारी हूँ ।

Thursday, September 16, 2010

इलाहाबाद जिंदाबाद है

इलाहाबाद शांत हो गया शहर नहीं है, हाँ शांत लगता जरूर है

कभी-कभी लगता है कि इलाहाबाद शांत हो गया शहर है, अभी वहाँ कुछ रहा नहीं। कई साल पहले कवि देवी प्रसाद मिश्र ने इलाहाबाद छोड़ने के बाद इलाहाबाद के बारे में एक लेख में लिखा था कि इलाहाबाद चुका हुआ नहीं है, चुका हुआ लगता है। उन्हीं के शब्दों के सहारे कहूँ तो इलाहाबाद शांत हो गया शहर नहीं है हाँ शांत लगता जरूर है। लेकिन सच्चाई यह है के इलाहाबाद में हिंदी और उर्दू एक साथ न केवल सक्रिय हैं बरन साथ साथ आगे भी बढ़ रहे हैं।

आज भी इलाहाबाद में एक साथ चार पीढ़ियाँ सक्रिय है। यदि कथाकार शेखर जोशी, शिवकुटी लाल वर्मा, अजित पुष्कल, अकील रिजवी और दूधनाथ सिंह वहाँ की वरिष्ठतम पीढ़ी के लोग हैं तो अंशु मालवीय, विवेक निराला और अंशुल त्रिपाठी, युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि स्वर हैं।

इसी 13 सितम्बर को हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर इलाहाबाद ने अपनी शांत दिखती छवि को नकारते हुए अपने सक्रिय स्वरूप को एक बार फिर उजागर,किया। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के इलाहाबाद स्थित क्षेत्रीय विस्तार केंद्र में इलाहाबाद के अपने शब्द शिल्पी अपने कवियों-लेखकों ने अपनी रचनाओं से यह बताया कि यह शहर अभी भी सक्रिय है, रचनारत है, हिंदी विश्वविद्यालय के इस आयोजन ने इलाहाबाद की साहित्यिक सक्रियता को स्वर दिया है।


इस कविता पाठ के आयोजन में इलाहाबाद के रचनाकारों ने अपनी कविताओं के जरिए समय और समाज के सच को, जिंदगी की सच्चाइयों को दर्ज किया। इस संगोष्ठी की अध्यक्षता उर्दू के जाने माने रचनाकार एवं प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) के जुड़े प्रो. अकील रिज़वी ने कहा कि विभिन्न भाव बोध की पढ़ी गयी कविताएं, निश्चित रूप से हिंदी कविता के एक समृद्ध संसार को रूपायित करती हैं। इस अवसर पर नया ज्ञानोदय के संपादक और धुर इलाहाबादी वरिष्ठ कथाकार रवीन्द्र कालिया मुख्य अतिथि थे। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि आज इस कार्यक्रम में पढ़ी गयी सभी रचनाएं हिंदी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं।

इस गोष्ठी में लखनऊ से पहुँच कर सबको चकित किया एक और पुराने इलाहाबादी कथाकार ने और तद्‌भव के संपादक अखिलेश ने। कम लोग जानते होंगे कि अखिलेश मूल रूप से इलाहाबादी है। उन्होंने इलाहाबाद की समृद्ध साहित्यिक परम्परा के लिए इस गोष्ठी के महत्व को रेखांकित किया। इस मौके पर कथाकार ममता कालिया ने भी संगोष्ठी के महत्व को रेखांकित किया।

काव्य-पाठ में शहर के युवा एवं वरिष्ठ रचनाकारों ने भागीदारी की जिनमें हरिश्चन्द्र पाण्डे, बद्रीनारायण (प्रलेस), एहतराम इस्लाम (अध्यक्ष-प्रलेस, इलाहाबाद), यश मालवीय़ (नवगीतकार), अंशु मालवीय, सुरेश कुमार शेष (प्रलेस), नंदल हितैषी (इप्टा), जयकृष्ण तुषार, श्रीरंग पांडेय, संतोष चतुर्वेदी (जनवादी लेखक संघ), अजामिल (इलेक्ट्रॊनिक मीडियाकर्मी) अंशुल त्रिपाठी, संध्या निवेदिता आदि प्रमुख हैं। गोष्ठी मे कथाकार शेखर जोशी (जलेस) अनिता गोपेश (कथाकार एवं प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस) ए.ए. फ़ातमी, (प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस), असरार गांधी (प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य-प्रलेस), सुरेन्द्र राही- सचिव प्रलेस,इलाहाबाद, अनिल रंजन भौमिक (नाट्य कर्मी- समानांतर-इलाहाबाद), अनुपम आनंद- नाट्य कर्मी, सुभाष गांगुली-कथाकार, , प्रेमशंकर- जन संस्कृति मंच, रामायन राम (प्रदेश सचिव – आइसा), प्रकाश त्रिपाठी (सह संपादक-बहु वचन), रेनू सिंह, अल्का प्रकाश, हितेश कुमार सिंह, गोपालरंजन (वरिष्ठ पत्रकार), फखरुल करीम (उर्दू रचनाकार), शलभ भारती, श्लेष गौतम, के अतिरिक्त बड़ी संख्या में इलाहाबाद के साहित्यप्रेमी, संस्कृतिकर्मी एवं छात्र इलाहाबादी ओजस्विता के साथ उपस्थित थे।

कवयित्री और ब्ल़ॉगर कविता वाचक्नवी ने भी अपनी उपस्थिति से संगोष्ठी को अर्थपूर्ण बनाया।

इलाहाबाद ने एक बार फिर यह जता दिया है कि हिंदी और संस्कृति के प्रश्न पर वह संगठित है और उसमें अभी भी कुछ कर गुजरने की ऊर्जा शेष है। जो हम भटके और इलाहाबाद को खो चुके इलाहाबादियों के मन को शांति देता है।

Sunday, September 12, 2010

जन्म शतियों के उत्सव का वृह्दारम्भ वर्धा से

2 और 3 अक्टूबर को वर्धा में एक विराट उत्सव है


अज्ञेय, नागार्जुन, शमशेर, केदार, फैज, अश्क और नेपाली ये सभी कवि लेखक भारतीय उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक मर्यादा के संरक्षक और उन्नायक रहे हैं। यह साल हिंदी उर्दू के इन बड़े महारथी लेखकों की जन्म शती का साल है। लेकिन हिंदी समाज ने अभी तक इन महानों के जन्मोत्सव पर कोई वृहद् सांस्कृतिक संयोजन किया हो ऐसी सूचना नहीं आई है। कुछ आरम्भिक सुगबुगाहटों और दो एक पत्रिकाओं के विशेषांकों के अतिरिक्त एक विकट सन्नाटा समूचे देश में पसरा है। जिस तरह इस साल को एक जन्मशती वर्ष घोषित कर देने की सम्भावना दिख रही थी अभी तक वैसा कुछ बड़ा नहीं हुआ है। जानकारों के मुताबिक एक साथ इतने महान साहित्यकारों का जन्म शती वर्ष पहले सुनने में नहीं आया था। जन्म शती वर्ष के सुअवसर को हम हिंदी वाले शायद एक संस्कृति वर्ष बनाने में चूक रहे हैं।

लेकिन ऐसा नहीं है। महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा ने इस सन्नाटे को तोड़ा है और उसने इस वर्ष को उत्सव वर्ष को रूप में मनाने का निर्णय लिया है। अपने घोषित कार्यक्रम में हिंदी विश्वविद्यालय इन में से पहले पांच कवियों यानी अज्ञेय, नागार्जुन, शमशेर, केदार, और फैज के दाय को सम्मान देने तथा उनके लेखन का गंभीर आकलन-मूल्यांकन करने जा रहा है। विश्वविद्यालय ने इस सांस्कृतिक संयोजन को “बीसवीं सदी का अर्थ और जन्मशती संदर्भ ” शीर्षक केंद्रीय अंतर्वस्तु के रूप में समझने का उपक्रम किया है।

इन कार्यक्रमों का आरम्भ विश्वविद्यालय के मुख्यालय वर्धा से गांधी जयंती के शुभ दिन पर हो रहा है। 2 और 3 अक्टूबर को संयोजित यह सांस्कृतिक उत्सव आगे के दिनों में देश के विभिन्न शहरों में होना तय है। इस प्रस्थानिक संगोष्ठी के बाद रामगढ़(नैनीताल) इलाहाबाद, पटना, बांदा, कोलकाता, दिल्ली में जन्मशती वर्ष के समापन तक कार्यक्रम होते रहेंगे। इन आयोजनों से शायद हिंदी समाज में व्याप्त विकट सन्नाटा टूटे। शायद एक नई सांस्कृतिक सुबह का समारम्भ हो।

मैंने कथाकार हरि भटनागर के सम्पादन में निकले वाली पत्रिका रचना समय के शमशेर अंक का अतिथि सम्पादन इसी जन्म शती वर्ष के संदर्भ में किया था। दैनिक भास्कर और नया पथ में मैने नागार्जुन बाबा पर समीक्षात्मक और संस्मरणात्मक लेख लिखे हैं और आलोचक मदन सोनी के संपादन में शमशेर जी पर प्रकाश्य पुस्तक में मेरा एक लेख प्रकाशित होने जा रहा है। यहाँ मुंबई की अस्तव्यस्त जिंदगी के बीच कुछ लिख कर अपने पूर्वजों से उनका स्नेह पाना चाहता हूँ। इसीलिए हिंदी विश्वविद्यालय के इस आयोजन की सूचना से मन में एक उत्साह जागा और मैंने तय किया कि केदार नाथ अग्रवाल की कविता पर अपना वक्तव्य दूँ। हम सब के लिए यह संतोष की बात है कि महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल भारतीय उपमहाद्वीप के इन महान संस्कृति सपूतों के महत्व को गंभीरता से रेखांकित कर रहा है। जो कि उसका कर्तव्य भी है।

2 और 3 अक्टूबर को वर्धा में एक विराट उत्सव है। देश भर से हिंदी के मान्य लेखक और आलोचक वर्धा पहुँच रहे हैं। अगले चरण में हिंदी विश्वविद्यालय उपेन्द्र नाथ अश्क और गोपाल सिंह नेपाली के जन्मशती पर भी बड़े कार्यक्रम संयोजित कर रहा है।

देश भर से और तमाम संगठनों संस्थाओं और व्यक्तियों ने इस मौके पर बहुत कुछ करने की घोषणा कर रखी है, अब देखना यह है कि उन योजनाओं में से कितनी पूरी होती है और कितनी रह जाती हैं। मैं तो सिर्फ इतना ही सोचता हूँ कहीं भी हो किसी भी स्तर पर हो हिंदी उर्दू के इस महान साधकों के लेखन पर मनन-मंथन हो।

नोट-
जन्म शती के अवसर पर देशबंधु समूह की पत्रिका अक्षरपर्व ने सर्वमित्रा सुरजन के संपादन में कवि अज्ञेय और नागार्जुन पर केंद्रित एक खास अंक निकाले हैं।