Thursday, April 24, 2008

सज्जनता का नाश हो

सिर्फ चाहने से क्या होता है

हममें से बहुत सारे लोग इस गलत फहमी में जी रहे होते हैं कि दुनिया अच्छाई की कद्र करती है...भले मानुष का बहुत महत्व होता है......नेकदिल लोगों की इबादत की जाती है.....साधुता एक बहुत जरूरी गुण होता है .....दया माया ममता स्नेह सौहार्द्र सौम्यता सब की बडी आवश्कता होती होगी....पर किसी और समाज में ....आज तो टुच्चई ही पूज्य है वरेण्य है....। जो सीधा और शान्त है लोग उसे कायर और नाकारा समझते हैं....किसी ने कहा है-
बड़ो बड़ो कह त्यागिए छोटे ग्रह जप दान
यहाँ भी छोटे का अर्थ वही है टुच्चा। यानी अगर आप सीधे सरल हैं तो आप पिसने के लिए, लात खाने के लिए तैयार रहे.....कोई आप की सिधाई और सरलता को माला फूल लेकर पूजने नहीं आ रहा है....।

इलाहाबाद की याद बुरी तरह आती है....रोज ही या कहें कि हर पल याद करता हूँ....आजकल वहाँ के एक लेखक की जिंदगी साहित्य के इतर कारणों से चर्चा में है.... जीवन भर जम कर हिंदी की सेवा करनेवाले एक शानदार लेखक अमरकांत आर्थिक तंगी से जूझ रहे है....लेकिन उनकी दिक्कतों की किसे पड़ी है....जितने साल इस महालेखक ने साहित्य में दिए हैं उतने राजनीति में दिए होते तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि और कुछ होता या न होता अर्थ का अभाव तो शायद न होता....।
तो क्या अमरकांत जी यह आर्थिक बदहाली उनकी सिधाई और सरलता का परिणाम है.....अगर नहीं तो दर्जनों किताबों से हिंदी कथा साहित्य को समृद्ध बनाने वाला एक लेखक किन्हीं भी कारणों से परेशान क्यों है....।

मेरा दृढ़ मत है कि हाँ अमरकंत जी ही नहीं किसी भी लेखक कलाकार की बदहाली उसकी सरलता का कुपरिणाम है....वैसे भी हिंदी समाज में लेखक का मतलब ही है फालतू जीव.....एक लेखक की कौन सुनता है...उसके कहे से कितनों को नौकरी मिल जाती है....कितनों का रुका हुआ काम बन जाता है....मन माफिक शहर में दबादला हो जाता है....वह एक ऐसा प्राणी होता है जो पैदा होते ही बोझ सा हो जाता है....
क्या होगा अमरकांत जी का कुछ लोग थोड़े दिनों तक हूँ....हाँ करेंगे....फिर चुप हो जाएँगे.....क्यों कि एक लेखक की मुश्किल कभी समाज की मुख्य चिंता नहीं बन पाती है.....और
उसके विचार उसे समाज में फैली लूट में शामिल नहीं होने देते और वह अपनी सैद्धान्तिक पिनक में समाज को सही दिशा में लाने के लिए कलम घिसता रहता है....व्यास, बाल्मीकी, कालिदास, तुलसी, कबीर , सूर, मीरा, निराला, प्रेमचंद, त्रिलोचन, नागार्जुन, मुक्तिबोध......सब ने यही किया उचित अनुचित का सवाल खड़ा किया...लूट में टूट कर शामिल नहीं हो गए.....और बिललाते रहे....रोते रहे....
जो भी बदलाव चाहेगा.....बहुत विचार-विचार करेगा....रोएगा....जिसे तर माल खाना हो.....दारोगा बनो....एक पंक्ति ठीक ने लिखना जानते हुए किसी चैनल या अखबार के संपाजक बनो....सत्ता की गलियों में पूछ हिलाने का अभ्यास करो.....विचार से बचो.....दुविधा से दूर रहो......न्याय का मान न लो....साधुता को दूर से सलाम करो.......फिर चाहे कहानी लिखो चाहे कविता....हर मंजिल पूछ से बधी रहेगी.....हर समारोह में जयकार होगी....

मैं निजी तौर पर हमेशा फालतू की सज्जनता को खारिज करता रहा हूँ....क्योंकि आज मेरा या हमारा समाज बहुतायत में बेइमान है.....अभय भाई का कहना सही है कि ऑटो रिक्शा वाले बेइमान है....पर वे अकेले नहीं है जो दाएँ-बाएँ से अपनी झोली भरना चाह रहे है...आज लूट एक राज धर्म है......और पकड़े न जाना एक सामाजिक कला.....जो पकड़ा नहीं गया वह चोर नहीं है....

इसीलिए कहता हूँ कि आज सारी नैतिकताएँ बोझ हैं.....जो सीधा सरल है वह दरअसल आत्म घाती है....सरलता शत्रु है.....सिधाई दुशमन है........समय है अपनी कोहनियों में खंजर बाँध कर दौड़ने का.....अगल-बगल वालों को न सिर्फ घायल कके पीछे छोड़ने का बल्कि लंगी मार कर गिराने का वक्त है...यह क्योंकि सिर्फ चाहने से कुछ नहीं होता.....साहित्य के विचारों को लागू करने वाले लेखक जब तक नहीं आएँगे.....तब तक यही होगा....विचार विचारणीय और सोचनीय बन कर रह जाएँगे....और लोग कहेंगे कि आदमी अच्छा था लेकिन बड़ा सीधा और विचारक टाइप का था....कुछ-कुछ साधुता से भरा.....
तो साधुता का नाश हो
सिधाई का नाश हो
सज्जनता का नाश हो.......

Sunday, April 20, 2008

याद आई वह लड़की


चिंह्न बचे होंगे क्या

याद आई वह लड़की
जिसकी अभिलाषा की थी कभी
याद आया
एक पेड़ के पैरों में जलता
निर्बल दिया ।

वे रातें
जिन्हें हम भुने आलू की तरह
जेबों में भरकर सो जाया करते थे
वे जगह-जगह जली हुई
चटख रातें
नमकीन धूल से भरी हमारी नींद
और वे तारे जो गंगा के पानी में
ठिठुरकर जलते रहते थे ।

कहीं गवाँ आया हूँ
इन सबको ।

ऎसा लगता है कि मेरे पास
कभी कुछ था ही नहीं
ऎसे ही खाली थी जेब
जी ऎसे ही फटा है पहले से ।

गंगा से इतना विमुख हो चला हूँ
कि जैसे उससे कोई नाता ही न हो
उसका रस्ता तक भूल गया हूँ
जैसे उसके तट तक
मझधार तक जाना न होगा कभी !

और वह लड़की
जो मेरे लिए थी स्लेट की तरह काली-कोरी
पड़ी होगी कहीं
किसी घर के कोने में
किसी विलुप्त हो चुके बस्ते की स्मृति में,
टूटकर उस पर
जो कुछ मैंने लिखा था कभी
उसके चिह्न बचे होंगे क्या
अब तक ।

नोट- इस कविता में कुछ संशोधन कवि-पत्रकार और अब ब्लॉगर विजय शंकर चतुर्वेदी के सुझाव पर किए गए थे। यहाँ मैं इसे कविता कोश से साभार छाप रहा हूँ।

Thursday, April 10, 2008

तिब्बत को देश मानने का साहस है क्या

अनिल कुमार सिंह हिंदी के उन कुछ कवियों में से हैं जो बेहद कम लिख कर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। वे मेरे भूत पूर्व मित्र रहे हैं...और मित्रता का स्मरण रस अभी भी कभी-कभी मित्रता का गाढ़ा नशा पैदा करता है...उन्हें उनकी कविता अयोध्या १९९१ पर भारत भूषण अग्रवाल और उनके कविता संग्रह पहला उपदेश पर केदार नाथ अग्रवाल सम्मान प्राप्त है और आजकल वे फैजाबाद के एक महाविद्यालय में हिंदी की बिंदी ठीक कर रहे हैं...। उनके संग्रह पहला उपदेश की एक झलक यहाँ देख सकते हैं... चाह कर भी मैं अनिल की कोई फोटू नहीं साट पा रहा हूँ...पढ़े उनकी एक कविता जो कि तिब्बत पर उनका अपना पक्ष रखती है। वैसे आजकल वे अपनी इस कविता से सहमत नहीं है। ऐसा उन्होंने फोन पर हुई बात में बताया है।

तिब्बत देश

आम भारतीय जुलूसों की तरह
ही गुजर रहा था उनका हुजूम भी
‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे
लगाता हुआ हिन्दी में

वे तिब्बती थे यक़ीनन
लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का
विदेशी तरीका था शायद
नारों ने भी बदल ली थी
अपनी बोली

एक भिखारी देश के नागरिक को
कैसे अनुभव करा सकते थे भला
वे बेघर होने का सन्ताप ?

अस्सी करोड़ आबादी के कान पर
जुओं की तरह रेंग रहे थे वे
पकड़कर फेंक दिए जाने की नियति से बद्ध
दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का
यही हश्र होना था आखिर !

दर-बदर होने का दुख उन्हें भी है
जो गला रहे हैं अपना हाड़
तिब्बत की बर्फानी ऊँचाइयों पर
उन्हें दूसरी बोली नहीं आती
और इसीलिए उनकी आहों में
दम है तुमसे ज़्यादा
दलाईलामा !

वे मुहताज नहीं है अपनी लड़ाई के लिए
तुम्हारे या टुकड़े डालने वाले
किन्हीं साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के
वे लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए तिब्बत में रहकर ही
जो धड़कता है उनकी पसलियों में
तुम्हारे जैसा ही
कोई क्या बताएगा उन्हें
बेघर होने का सन्ताप दलाईलामा !

Friday, April 4, 2008

लौट गए पिता, मैं जवानी सेता रहा

परसों अभय भाई आए थे...बातों-बातों में पिताओं का जिक्र आया। हम दोनों पिता हीन हैं...और माँ से दूर हैं...परसों की बात के दौरान मैंने अपने पिता के मरन की बात की...। उसी संदर्भ में एक ताजी और दो पुरानी कविताएँ छाप रहा हूँ...पिताओं को श्रद्धांजलि हैं यह।

(१)
कोई चिह्न नहीं है
पिता
अब घर में कोई चिह्न नहीं है तुम्हारा
सब धीरे धीरे मिट गया
कुछ चीजों को ले गए महापात्र
कुछ जला दीं गईं
तुम्हारा चश्मा पड़ा रहा तुम्हारे तहखाने में
कई महीने
फिर किसी ने उसे
गंगा में प्रवाहित कर दिया ।

तुम्हारे जूते
तुम्हारी घड़ी
तुम्हारी टोपियाँ सब कहाँ खो गईं जो
खोजने पर भी नहीं मिलतीं।

जब तुम थे
तब घर कैसे भरा था तुम्हारी चिजों से
हर तरफ तुम होते या तुम्हारी चीजें होतीं....
कितने तो गमछे थे तुम्हारे
कितने कुर्ते
कितनी चुनदानियाँ
कितने सरौते...
पर खोजता हूँ तो कुछ भी नहीं मिलता घर में कहीं
जैसे किसी साजिश के तहत तुम्हारी चीजों को
मिटा दिया गया हो।

ले दे कर बस एक चीज बची है
जो लोगों को दिलाती है तुम्हारी याद
वो मैं हूँ....तुम्हारा
सबसे छोटा बेटा।

पता नहीं क्यों लोग मुझे नहीं करते प्रवाहित
नहीं कर देते किसी को दान।
(४ अप्रैल २००८)

(२)
लौट गए पिता
आए थे पिता
कुछ-कुछ उदास
कुछ-कुछ हताश।

लौट गए पिता
बिल्कुल उदास
बिल्कुल हताश।

(2)
क्यों
गाँव में
पड़ा होगा सोता
बेराते होंगे पिता
धान में पानी

मैं यहाँ पर
बंद घर में
से रहा हूँ
जवानी !
-सिर्फ कवि नहीं से दो कविताएँ ।
रचना समय- १९८७-८८ में कभी।
शब्दार्थ-
सोता=जब सब सो जाएँ, बेराना=सींचने की प्रक्रिया, से रहा हूँ=पोस रहा हूँ, जैसे मुर्गी अंडे सेती है।