Tuesday, July 31, 2007

सफलता के लिए सुर जरूरी !

टंच जी को मेरा प्रणाम

मुझे 20 साल से अधिक हो गया है लिखते। 1986 से लिखना शुरू किया। तब मैं ज्ञानपुर में बारहवीं में पढ़ता था। बाद में वहीं के काशी नरेश राजकीय महाविद्यालय में बीए में दाखिला लिया। लेकिन घर वालों ने धक्का देकर इलाहाबाद भेज दिया। ज्ञानपुर में मेरी कुछ क्षणिकाएँ छपी थीं। वहाँ एक बाल संपादक थे, अमिय देव शंकर, जो मेरे नातेदार भी थे, उन्होने ही अपनी पत्रिका आलोक डाइजेस्ट में मेरी दो क्षणिकाएं छापी थीं। उस प्रकाशन का असल मजा यह था कि मेरा नाम और पता छपा था जिसने मुझे गाँव लड़कों में हीरो बना दिया था। उस समय ज्ञानपुर में मंचीय कविता का बहुत तगड़ा माहौल था। वहाँ के प्रधान कवि हुआ करते थे टंच जी । वे जिसके सिर पर हाथ रख देते वही कवि हो जाता। मैंने बड़ी कोशिश की पर टंच जी का आशीष नहीं मिला।

उनका आशीष न पाकर भी मैं डटा रह जाता पर उन्होने मुझे मंच से धकेला और निकाला दोनों एक साथ दे दिया। आरोप यह कि मेरी आवाज में दम नहीं है। मेरी वही आवाज जिस पर मेरी भाभियाँ फिदा थीं, मेरी ताई जिसमें रामायण सुनती थी टंच जी ने उसे बेसुरा करार दिया। उन्होने कहा तुम्हारी आवाज में न सुर है न खनक । सुन कर लगता है कि रो रहे हो। प्यार की भावनाएं भी लगता है कर्ज मांग रहे हो। वीर रस में लगता है कि रेक रहे हो। कुछ विचार हैं पर सिर्फ भाव या विचार से क्या बनता है। सफलता के लिए आज सुर जरूरी है। बार-बार हूट होना पड़ेगा।

उनकी बातें बहुत बुरी लगी थीं। मन में आया कि उन्हे पटक दूँ और छाती पर बैठ कर कव्वाली जैसा कुछ गाऊँ। यह खयाल भी आया कि कहीं ये लोग मेरी काव्य प्रतिभा से जल तो नहीं रहे हैं। जो हो मैं मंच से जो उतरा तो फिर नहीं चढ़ा।

टंच जी की सुर सिद्धि गजब की थी और वे खुद को तुकाचार्य भी कहते थे। पानी भी मांगते तो तुकों में। बात करते तो लगता कि गा रहे हैं। किसी किशोरी से प्रणयावेदन करते तो वह कविता समझ कर खिल पड़ती। कभी टंच जी को कविता के लिए कंटेंट का टोटा नहीं पड़ा। कभी उनको काव्य वस्तु खोजते नहीं पाया। वे पहले तुक बैठाते फिर लिखते। लिखते क्या वे गा-गा कर अपनी कविता पूरी कर लेते थे। उनकी एक कविता जो आज भी मुझे याद है, वह कुछ यूँ थी-

मैं हूँ सुंदर तुम हो सुंदरि,
तुम हो सुंदर जग से सुंदरि
हम दोनों हैं सुंदर सुंदरि
आओ प्यार करें
नैना चार करें।

ज्ञानपुर से जो रास्ता गोपी गंज की तरफ जाता है उसी पर उनका एक छोटा सा घर था। जहाँ वे अपने दो चार चेलों के साथ रमें रहते थे। पार्ट टाइम एक धँधा और था गाने का। शादियों में रात भर गाने का ठेका लेते थे खूब रंग जमाते थे। जिस बारात में गाने का बयाना नहीं मिला होता था उसमें खुद से ऐसा माहौल बनाते कि महीने भर के भांग का प्रबंध तो हो ही जाता।

उनके कमाने का एक तय तरीका था। वे खर्च के हिसाब से कमाते। किसी शिष्य का फीस भरना होता तो किसी महाजन को कवित्त सुना आते। निकलने लगते तो खुश सेठाइन कुछ ना कुछ दक्षिणा दे जाती । चेले खुश और टंच जी अपने सुर की साधना में लगे रहते। मुह में खैनी या पान दबा कर। पान की लाली में रंगे उनके होठ लगता लिपिस्टिक लगाए हैं। वैसा सुंदर सुकुमार कवि मैंने फिर नहीं देखा। उनकी याद में मीर का एक शेर अर्ज करता हूँ-

वो सूरतें इलाही किस देश बस्तियाँ हैं
जिन्हे देखने को अपनी आँखे तरस्तियाँ है।

टंच जी से तभी की मुलाकात है। उस दिन जो विछुरा आज तक सामने नहीं पड़ा। पता नहीं कहाँ होंगे टंच जी जहाँ भी हों उन्हे हमारा प्रणाम पहुँचे।

Monday, July 30, 2007

काम से काम रखनेवालों सावधान

लक्ष्मीकान्त वर्मा जी ने सुनाई यह कथा


अपने इलाहाबाद की बात है। एक दिन किसी वजह से मैं बहुत चटा हुआ कॉफी हाउस गया पर वहाँ भी राहत नहीं मिली । आनन्द नहीं आया । बाहर निकल रहा था कि नई कविता वाले लक्ष्मीकान्त वर्मा जी मिल गये। पूछा कि मैं उदास क्यों हूँ। मैंने कुछ गोलमोल बताया तो वे अपने साथ फिर अंदर ले गये। कॉफी और इडली का ऑर्डर दिया और कहा कि एक लोक कथा सुनो।

एक राज्य में एक किसान रहता था। वह सिर्फ काम से काम रखता था। उसके पास काम भर की खेती लायक जमीन थी, एक गाय थी जो दूध देती थी। कोठार में थोड़ा अन्न बचा कर रखा था, भुसौल में जानवरों के लिए थोड़ा भूसा था । तभी उसके राज्य में भयानक अकाल पड़ा। उसने अपने परिवार वालों को अपने एक दूर के नातेदार के यहाँ भेज दिया। राज्य में लोग और पंछी पखेरू सब भूख प्यास से मरने लगे। पर वह वह दूध दही मक्खन रोटी में मस्त था। लोग पूछते कि कैसे हो तो बताता कि सब अच्छा है। वह अकाल की छाया से बाहर था। उस पर लोगों के दुख दर्द का कोई असर नहीं था। पर अकाल की छाया उस पर भी पड़ी। पहले भूसा खतम हुआ, फिर गाय मरी, फिर अनाज चुक गया। भूखों मरने लगा। फिर किसी ने पूछा कि क्या हाल है तो उसने कहा बड़ा भारी अकाल पड़ा है। लोग बेहाल हैं, भूखों मर रहे हैं। बड़े बुरे दिन हैं भैया। और वह रोने लगता पर लोग चुपचाप खिसक जाते।

कथा खतम होने तक मेज पर सब कुछ रखा जा चुका था। पेट भर जाने के बाद उन्होने कहा कि जो सिर्फ अपने से काम रखते हैं उनके दुख और सुख दोनो को लोग अपना नहीं मानते।
लक्ष्मीकान्त जी के कई कविता संग्रह और उपन्यास छपे हैं। जिनमे एक काफी प्रसिद्ध हुआ था अतुकांत। यह ज्ञानपीठ दिल्ली से छपा है। उनकी कुछ पंक्तिया पढ़े, जो आज के माहौल पर एक दम लागू होती हैं-

गणेश बिस्कुट चबा रहे हैं
वृहष्पति ट्यूशन पढ़ा रहे हैं
वीरों की पोशाकें पहन ली हैं बाजेवालों ने।

होड़ लेता बेटा

वह मेरे जैसा क्यों दिखना चाहता है ?

अभी पिछले दिनों पहलू पर चंदू भाई ने अपने बेटे को लेकर अपनी कुछ उलझने छापी थीं। मेरी भी अपने बेटे को लेकर कुछ छोटी-छोटी उलझने हैं। चौबीस साल की उमर में यानी 18 मई 1994 को मेरी शादी हो गई थी । मैं पच्चीस पूरे नहीं कर पाया था कि 17 अक्टूबर 1995 को एक बेटे का बाप बन गया । मेरा वह मरियल सा बेटा आज कल ठीक-ठाक हो गया है। नाम उसका मानस है । दिखावा खूब करता है। मौका मिलने पर वह यह जताने से नहीं चूकता कि उसे बहुत कुछ आता है।

वह अकेले जाकर सामान खरीद लाता है। खरीदारी करने मैं उसे बिना सूची के भेजता हूँ और वह पूरे सामान लेकर आता है। अपनी बातें मनवाने की पूरी कोशिश करता है। उसकी माँ और मुझमें किसी मुद्दे पर तकरार होने पर अच्छे पंच की भूमिका निभाता है और हमेशा निर्गुट रहता है।

भयानक बातूनी और किस्सेबाज है। कोई बात छिपाता नहीं है। यहाँ तक कि सुनी हुई गालियाँ तक उद्धृत कर जाता है। पढ़ने से बचने की पूरी कोशिश करता है। पर मरते जीते काम पूरा करता है।

आजकल उस पर एक अलग ही धुन सवार है । वह मुझ जैसा दिखने के लिए बेताब है। मेरी ऊँचाई तक पहुँचने की पूरी कोशिश कर रहा है। कंधे के ऊपर पहुँच भी गया है। कुछ काम कर रहा होता हूँ । वह अचानक आ कर धमका जाता है कि अब मेरे कपड़े खतरे में हैं । वह कोशिश कर रहा है कि मेरे कपड़े उसे फिट हो जाएँ । सीधे सामने खड़े होकर नापने की बात तो कम ही करता है पर बगल में खड़े होकर कहाँ तक पहुँचा है इसका अंदाजा लगाता रहता है।

एक दिन आया और पंजे लड़ाने की बात करने लगा। एक दिन कोशिश करके मुझसे ज्यादा खाना खाने पर डटा रहा। हालांकि पेटू नहीं है पर मुझसे आगे निकल जाने को तैयार है।

वह यह जानने की कोशिश करता है कि मेरा बचपन कैसा था। वह जिस उमर में हैं उस उमर में मेरी गतिविधियाँ क्या थी। मेरी मेरे पिता जी से कैसी और किस तरह कि बनती थी। क्या मैं पिटता था। वह जब भी मुझे देख रहा होता है मैं उलझन में पड़ जाता हूँ । समझ नहीं पा रहा हूँ कि वह आखिर मेरी तरह क्यों बनना चाहता है जबकि वह मेरी सफलता असफलता से परिचित है। मैं उसकी निगाह में कोई बहुत काम का नहीं हूँ। मेरी उलझन यह है कि मैं उससे यह भी नहीं कह सकता कि वह क्यो मेरे जैसा दिखना या बनना चाहता है।

Tuesday, July 24, 2007

दिवंगत कवि शरद बिल्लौरे की एक कविता

जो नहीं हो सके पूर्णकाम, उनको प्रणाम

क्या हमारी दुनिया सिर्फ जीवितों के भरोसे चल रही है। जो नहीं हो सके पूर्णकाम, क्या उनका इस धरती की सजावट में कोई योगदान नहीं है। मेरा मानना है कि ऐसा नहीं है। इसीलिए आज विनय पत्रिका में प्रस्तुत है स्वर्गीय शरद बिल्लौरे की एक कविता।
शरद बिल्लौरे का जन्म 1955 में मध्य प्रदेश के रेहट गाँव में हुआ था। 3 मई 1980 को मात्र 25 साल की उम्र में शरद की लू लगने से कटनी में मौत हो गई। तब तक शरद की कोई किताब नहीं छपी थी। बाद में राजेश जोशी ने शरद की कविताओं का संकलन “तय तो यही हुआ था” नाम से परिमल प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित कराया।शरद का “अमरू का कुर्ता” नामक एक नाटक भी छपा है। आज दोनों किताबें बाजार में नहीं हैं ।
शरद को मरणोपरांत 1983 का भारत भूषण सम्मान दिया गया । सम्मान के निर्णायक थे नामवर सिंह जी । पहले आप शरद की वह कविता पढ़े फिर नामवर जी का मत।

तय तो यही हुआ था

सबसे पहले बायाँ हाथ कटा
फिर दोनों पैर लहूलुहान होते हुए
टुकड़ों में कटते चले गए
खून दर्द के धक्के खा-खा कर
नशों से बाहर निकल आया था


तय तो यही हुआ था कि मैं
कबूतर की तौल के बराबर
अपने शरीर का मांस काट कर
बाज को सौंप दूँ
और वह कबूतर को छोड़ दे


सचमुच बड़ा असहनीय दर्द था
शरीर का एक बड़ा हिस्सा तराजू पर था
और कबूतर वाला पलड़ा फिर नीचे था
हार कर मैं
समूचा ही तराजू पर चढ़ गया


आसमान से फूल नहीं बरसे
कबूतर ने कोई दूसरा रूप नहीं लिया
और मैंने देखा
बाज की दाढ़ में
आदमी का खून लग चुका है।


इस कविता पर नामवर जी ने अपने मत में कहा था-

“जब तक शरद बिल्लौरे जीवित रहे उनका लिखा हुआ बहुत कम प्रकाशित हो पाया था, किन्तु उनकी कुछ छिटपुट कविताओ से उनकी विलक्षण प्रतिभा का अहसास होता था। केवल पच्चीस वर्ष की अल्पायु में उनकी दुखद मृत्यु के दो वर्ष बाद जब उनका संग्रह तय तो .ही हुआ था प्रकाशित हुआ तब हिंदी जगत् इस अपूरणीय क्षति का पूरी तरह अंदाजा लगा सका। स्पष्ट है कि स्वर्गीय शरद बिल्लौरे आज के युवा कवियों में एकदम अलग मिजाज, भाषा और शैली रखते थे। उनकी इस कविता में आज के भूखे आदमी के यातनापूर्ण संघर्ष तथा सब कुछ दे चुकने के बाद भी रक्त मांस की भूख न मिटा पाने की मर्मान्तक मोहभंग को जिस तरह एक पौराणिक आख्यान में केवल संकेत से जोड़ा गया है वह वर्तमान और अतीत के संबंधों और अर्थों को नए और प्रासंगिक ढंग से आलोकित करता है।”

Monday, July 23, 2007

जिया जरत रहत दिन रैन

ऐसे थे ओम प्रकाश


इलाहाबाद में मेरे एक मित्र थे ओम प्रकाश सिंह। कहाँ के रहने वाले थे यह ठीक-ठीक नहीं याद आ रहा। शायद जौनपुर या प्रताप गढ़ के थे । उनके बड़े भाई उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में काम करते थे, और ओम प्रकाश अपने भैया और भाभी के साथ रहते थे। भैया-भाभी तो अपने थे ओम प्रकाश दीवारों के साथ भी रह सकते थे। बल्कि वह दीवारों के साथ ज्यादा सुख से रह सकते थे।

मेरे पास उनकी कोई फोटो होती मैं छाप कर आप को उन तीर्थ स्वरूप मित्र का दर्शन करवा देता । पर क्या करूँ नहीं है। तो शाव्दिक खाका देखिए । ओम प्रकाश की देह पर उतना ही मांस था जितने से उन्हे सुई लगाई जा सके । पतले-पतले हाथ, लंबी दुबली काया, ऊंची लंबी नाक उठा हुआ माथा, और चमकती हुई अंदर को धंसी सी आँखें, सिर पर कंघी किये बाल, मांग एक दम कोरी, सिंदूर भरने लायक और दाहिनी कलाई पर मैहर या विन्ध्याचल की देवियों के धाम से लाया हुआ कलावा हर दम बधा रहता था। वह कलावा भी ओम प्रकाश के शरीर का हिस्सा बन चुका था। कभी ऐसा नहीं हुआ कि ओम प्रकाश बिना कलावा के दिखे हों ।

ओम प्रकाश की कुछ आदतें थी। जैसे कि सब की कुछ ना कुछ होती हैं। वे कभी अपनी बात नहीं रखते थे। यानि कभी उनका कोई पक्ष नहीं होता था। कैसा भी संगीन मामला हो ओम प्रकाश बीच का कोई ना कोई रास्ता निकाल लेते थे। आप मान सकते हैं कि ओम प्रकाश हर एक के साथ थे, हर एक बात के समर्थन में थे । जब तक हम साथ रहे हमने कभी ओम प्रकाश को किसी से उलझते नहीं पाया।

साफ साफ लिखते थे। नंबर पाने की कोशिश करते थे। हर किताब पर कवर चढ़ा होता था। किताब में कभी भी पेन या पेंसिल से निशान नहीं तगाते थे। समय पर आते थे समय पर जाते थे । किसी से उधार नहीं लेते थे ना ही किसी को उधार देते थे । पर कोई उनसे नाराज नहीं था । वे किसी से झगड़ा नहीं करते थे और ना ही कभी ऐसी कोई स्थिति ही पैदा करते थे कि किसी को उनके लिए झगड़ा करना पड़े । पर हम आज तक नहीं समझ पाए कि उनके पक्ष में क्लास की सारी लड़कियाँ क्यों खड़ी रहती थीं। यही नहीं वे हमारे और क्लास की तमाम लड़कियों के बीच एक पुल की तरह थे। एक कमजोर दिखते से पुल की तरह थे, जिसे देख कर ऐसा लगता है कि यह अब गिरा कि तब गिरा, लेकिन नहीं, ओम प्रकाश नाम का वह पतला पुल कभी नहीं गिरा। वो अपनी ही गति में चलते रहे।

कैसा भी माहौल हो कैसा भी समारोह ओम प्रकाश गोदान फिल्म का गाना जरूर गाते थे-
जिया जरत रहत दिन रैन
और कभी मुकेश की आवाज में गाने की कोशिश नहीं की। इस गाने के लिए कभी भी ओम प्रकाश ने किसी से इजाजत नहीं मांगी, एक कलाकार के उतरने और दूसरे के मंच पर चढ़ने के बीच के अंतराल में ओम प्रकाश गाना शुरू कर देते और पूरी क्लास उन्हे सुन कर ही आगे के कार्यक्रम पर जाती थी। अपना गाना गाने के पहले और बाद भी ओम प्रकाश एक दम यथावत रहते। कोई फर्क नहीं देखा जा सकता था।

उसी बीच हल्ला हुआ कि ओम प्रकाश की शादी हो रही हैं। लड़की क्या थी हूर थी। क्लास की ही किसी लड़की ने यह शादी तय कराई थी। पूरी क्लास एक्साइटेड है, पर ओम प्रकाश आते हैं क्लास में बैठते हैं । लड़कियों से बात करते हैं । पढ़ते हैं ।
संगठन के दफ्तर जाते हैं । फीस बढ़ाने के विरोध में पोस्टर बनाते हैं । चिपकाने के लिए लेकर निकलते हैं। पर शादी पर कोई बात नहीं । रास्ते में दूसरे संगठन के लोग मिल गये तो उनका भी दो पोस्टर चिपका दिया या उनके पक्ष में भी दो नारे लगा दिए। वो भी खुश। ओम प्रकाश को किसी कोई खतरा नहीं ओम प्रकाश का कोई दुश्मन नहीं।
कैंपस में आग लगी हो, गोलियाँ चलीं हो, कोई मर गया हो या घायल हुआ हो। ओम प्रकाश आते, माहौल देखते पढ़ाई होगी या नहीं होगी पता करते और चलते बनते । वे कभी पुलिस की लाठियों की जद में नहीं आए। कभी कोई गोली उन्हे छूकर नहीं निकली। कबी उन्हे खोजते हुए कोई नहीं आया। कभी उन्होने खुद को खोजने का सुअवसर ही नहीं दिया।ओम प्रकाश से किसी को कोई तकलीफ नहीं थी। वे किसी के लिए दुख, तनाव या परेशानी के कारक नहीं थे।

एक वक्त आया कि हम सब को लगा कि अब हम बिखर जाएंगे। एम ए की पढ़ाई खतम हो गई थी। सब लोग एक दूसरे का स्थाई पता ठिकाना दर्ज कर रहे थे। पर ओम प्रकाश ने न किसी से पता लिया न दिया। बस एक किनारे बैठे रहे। सब के चले जाने के बाद उठे और घर चले गये। पलट कर एक बार भी दरो दीवार को नहीं देखा , बस जाते रहे जाते रहे।
आज लगभग 15 साल हो गये हैं पर मैं अब भी नहीं समझ पाया हूँ कि आखिर ओम प्रकाश इतना शांत कैसे रह लेते थे । औवल तो वो मिलने से रहे, पर अगर वह मिलेंगे तो पूछूँगा कि भाई इतना निर्लिप्त कैसे रह लेते हैं। हमे भी तो बताइये। पर मुझे नहीं लगता कि वो कुछ बताएंगे।

Saturday, July 21, 2007

मेरे गुरु नागार्जुन बाबा

बाबा मेरे कनफुकवा गुरु


नागार्जुन बाबा पर हिंदी में बहुत सारी कविताएं लिखी गई हैं। वे शमशेर जी के अली बाबा हैं तो किसी के लिए फक्कड़ । मैंने भी बाबा पर कभी एक कविता लिखी । वह कविता परमानन्द जी जैसे आलोचकों को बहुत पसंद आई । कई आलोचकों ने उसी कविता के आधार पर नागार्जुन जी को समझने की कोशिश की तो मुझे लगा कि काश यह कविता मैं बाबा को सुना पाता । 1990 या 91 की बात होगी बाबा का इलाहाबाद आना हुआ। साहित्य सम्मेलन के किसी समारोह में । मौका अच्छा पा कर जलेस की इलाहाबाद इकाई ने एक गोष्ठी रखी शेखर जोशी जी के लूकर गंज वाले घर में । मैंने हिलते-कांपते हुए अपनी कविता बाबा के सामने पढ़ी। बाबा ने ऐसे सुना जैसे सुना ही न हो । मैं एक दम बुझ गया। पर मन की एक साध तो पूरी हुई । उसके बाद उसी दिन बाबा को मेरे गुरु दूध नाथ जी के यहाँ भोजन पर जाना था । उन्हे वहाँ पहुचाने का जिम्मा हम मित्रों ने अपने ऊपर ले लिया । उस समय मैं और आजकल अयोध्या वासी कवि अनिल सिंह दिन में 20-20 घंटे साथ रहते थे। तो हाथ रिक्शे पर मैं दाहिने और अनिल बाँए और हम दोनों के बीच में दुबले- पतले नागार्जुन बाबा । हम बाबा का साथ पाकर पगला से गए थे । इलाहाबाद की सड़कों पर वे दो दिन दीवानगी भरे थे ।
बाबा से न जाने कितनी छोटी-बड़ी बातें हुईं । समोसे से लेकर चटनी तक की चर्चा रही । अचानक पानी बरसने लगा जो रुक रुक कर दो तीन दिन बरसता ही रहा । वहीं बाबा ने बादलों को देख कर कहा कि मेघों को प्रमेह हो गया है। फिर उन्होने दारागंज की किसी पनवाड़िन का हाल-चाल जानने की उत्सुकता जताई । जब नागार्जुन जी इलाहाबाद में रहते थे दारागंज में ही डेरा था उनका ।
पनवाड़िन के किराना की दुकान से बाबा की रसोंई का तार जुड़ा था ।
उस यात्रा में बाबा चंद्रलोक के सामने होटल पूर्णिमा में ठहरे थे । हमारे एक और मित्र धीरेंद्र तिवारी ने बाबा के पूर्णिमा होटल में रुकने को ही मुद्दा बना लिया था। उसने बाबा के उपर व्यंग करते हुए एक कविता भी लिख मारी थी और जिद किए था कि वह अपनी कविता बाबा को सुनाएगा। कविता की पहली पंक्ति थी-


सारा देश अमावस में है
कवि तुम बसे पूर्णिमा में ।


धीरेंद्र को इस बात की भी शिकायत भी कि बाबा को एसी में सफर नहीं करना चाहिए।
मेरी हिम्मत नहीं हुई कि बाबा से जान लूं कि उन्हे मेरी कविता कैसी लगी। दूधनाथ जी के यहाँ अचानक बाबा ने कहा आओ मैं तुम्हें गुरु मंत्र देता हूँ । फिर वे मेरे कान में कुछ बोले जो मैं आप सब को नहीं बता सकता । कहते हैं कि गुरुमंत्र को जग जाहिर नहीं किया जाता। जाहिर कर देने से गुरु द्वारा दी गई शक्ति खतम हो जाती है। यही बता हूँ कि मेरे काव्य गुरु दो रहे हैं एक पूज्य उपेंद्र नाथ अश्क जी और दूसरे आदरणीय दूधनाथ जी ।


बाबा के बारे में बहुत सारी बातें लिखी जानी बाकी है । उनके जैसे व्यक्ति पर तो पोथियों के पन्ने भी कम पड़ेंगे। वे कैसे बच्चों की तरह खुश रहते थे, कैसे अपनी घुच्ची निगाहों से दुनिया को देखते थे । कैसे एक दम बुढ़ापे में भी जीवन के प्रति एक मिठास भरी थी। वे सच में हम सब के बाबा थे । हिंदी कविता के आखिरी बाबा ।


क्या मैं जीवन भर यह भूल पाऊंगा कि मैं एक दिन नहीं कई दिन बाबा के साथ भटकता रहा था। क्या बाबा को छू पाना, उनके गले लगना कोई भी भुला सकता है। बाबा से मिलना इस धरती के सबसे महान इंसान से मिलना था । क्या बाबा ने मेरे कान जो मुझसे कहा वह कभी मैं भुला पाऊंगा।
यहीं यह बताना अच्छा लगेगा कि बाबा ने मेरी कविता की तारीफ भी कि वह भी इस लिए कि मैंने उनकी नाक की तुलना चीलम से की थी । वे बोले थे चीलम सी नाक और फिर अपनी नाक को एक दो बार छूकर भी देखा ।

उसके बाद हम बाबा से कभी नहीं मिल पाए। हम बच्चे थे। बाबा के साथ का महत्व अब कुछ अधिक समझ में आ रहा है। आप भी बाबा के साथ हमें देखें और बाबा पर लिखी मेरी वह कविता पढ़ें। साथ में हैं सुधीर सिंह ।

घुमंता-फिरंता

बाबा नागार्जुन !
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
कब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में लाई-नून चबाके।

तुम्हारी यह चीलम सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुई चमड़ी के नीचे
घुमड़े खूब तरौनी गाथा।

तुम हो हमारे हितू, बुजुरुक
सच्चे मेंठ
घुमंता-फिरंता उजबक्–चतुर
मानुष ठेंठ।

मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।

Friday, July 20, 2007

मैं तिकड़मी हूँ

तीन तिकट महा विकट

भारतीय परंपरा में तीन का बहुत महत्व है। तीन नेता या ग्रंथ नहीं अंक की बात कर रहा हूँ। तीन ऋण होते हैं, तीन ही ताप होते हैं और लोक भी तीन ही कहे या माने जाते हैं। लोकमान्य तिलक जी तो वेदों की संख्या भी तीन ही गिनाले हैं । कभी भारतीय राजनीति के धुरंधर खिलाड़ियों की एक तिकड़ी थी। ये नेता गरम दल के थे और नाम था लाल,बाल,पाल। हिंदू धर्म के बड़े देवताओं की गिनती भी तीन के पद में की जाती हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे प्रतिभावान त्रिदेवों के बीच चौथे के लिए कोई जगह वैसे भी कैसे बच सकती है। और अगर बवी भी तो त्रिनेत्र भूत भावन शंकर उसे खाक में मिला देंगे।

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि रेणु का हीरा तीन ही कसमें क्यों खाता है । वो चाहता तो और कसमें खा सकता था। आज कल कविता में भी एक त्रयी का हवाला आप पाते होंगे। मेरी पत्नी ने याद दिलाया कि गाँधी जी के बंदर भी तो तीन ही थे। संस्कृत व्याकरण में तीन पुरुष होते हैं, प्रथम, उत्तम और मध्यम। आप चाहें तो चौथे श्रेणी में कापुरुष जोड़ दें । काल भी तीन ही होते हैं भूत, भविष्य और वर्तमान काल । यहाँ मैं अकाल को जोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा। जबकि वह हर कहीं छाया हुआ है । शरीर की अवस्था भी तीन हैं । आप अभी किसमें हैं बचपन, जवानी या बुढ़ापे में ।

अंकों में ऐसा नहीं कि सिर्फ तीन का ही महत्व है। हर अंकों से जुड़े ऐसे ही पद प्रचारित है। मसलन दो जहान हैं, तीन काल हैं, चार आश्रम और पाँच अग्नियाँ हैं, षट कर्म हैं, सप्त सरिताएं हैं, अष्ट-छाप भी हैं ( कछुआ छाप नहीं कवियों का मध्यकालीन जोरदार गुट था) नव दुर्गाएं हैं, तो दशावतार भी है, वैसे नवधा भक्ति के सहारे कितने ही चापलूसों की नाव पार लगी है, नहीं तो दशों दिशाओं से कभी भी उन्हें धिक्कार की ध्वनि सुनाई पड़ सकती थी । कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि हर अंक से कुछ ना कुछ विशेष शव्द-पद बनता है। मैं तो यहाँ तीन की ही बात करुँगा । क्योंकि मैं तिकड़मी हूँ और तीन-पाँच से अधिक तिकड़म में यकीन करता हूँ। अपना यह तीन तिगाड़ा बडे- बडों का काम बिगाड़ा करता है ।
आज कल में इस तीन तिगाड़ा के कुछ नये रूपों पर विचार कर रहा हूँ, मर्यादावादी क्षमा करेंगे।
मुंबई में लोग कहते हैं कि -
बुड़बक यानी बेवकूफ तीन तरह के होते हैं....
विधवाएं भी तीन तरह की होती हैं
और सरकार भी तीन तरह से काम करती है।
तो व्याख्या पहले बुड़बकों से से शुरू करते हैं।
देश में बेवकूफों की भरमार है। उसमें पहले दर्जे बेवकूफ वह हुआ जिसके चेहरे को देखते ही आवाज आए मिल गया बेवकूफ यानि
1- शकल बेवकूफ,
कथाकार होते हैं
2- अकल बेवकूफ और समीक्षक होता है तीसरे दर्जे का बेवकूफ यानी
3- नसल बेवकूफ
ऐसे ही विधवाएं भी तीन तरह की होती हैं, जिनमें
पहली होती हैं-
आस विधवा - यानि ऐसी विधवा जिसका पति परदेशी है । जो लौट भी सकता है और नहीं भी। ऐसे परदेशी की पत्नी सधवा हो कर भी विधवा है। उसकी दुनिया उम्मीद पर कायम है।
दूसरी होती है,

पास विधवा - ऐसी विधवा जिसके पति के होने ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
और तीसरी होती हैं,

खास विधवा- यानि सचमुच में जिसका सुहाग उजड़ गया हो । इनमें सब का दुख अलग तरह का होता है।हमें सब के प्रति संवेदना रखनी चाहिए।

अब बात सरकार के काम के तीन तरीकों पर।
सरकार या व्यवस्था अपना काम थ्री डी से करती है । वह पहले काम को डिले यानी देर करती है, फिर डायलूट यानी ढीला करती है घोल देती है, इसके बाद डिलीट कर देती है यानी मिटा देती है ।
अब आप चाहें तो इसी तर्ज पर या जैसे मन हो इस तीन या बाकी संख्याओं के साथ खेल सकते हैं ।

Thursday, July 19, 2007

आज कोई नहीं है महाकवि !



कैसे-कैसे कवि !

कल की बात है, किसी का फोन आया कि बता सकते हो कवि कितने तरह के होते हैं । पहले तो मैंने सोचा कि यह कपि यानी बंदरों की बात कर रहा है पर उसने फिर कवियों के बारे में पूछा । मुझे ठीक-ठीक पता तो था नहीं सो यूँ ही बता दिया कि तीन तरह के होते हैं । एक पाठ्यक्रम और पुरस्कार वाले, दूसरे छप-छप कर मर जाने वाले और तीसरे सिर्फ लिख कर मर जाने वाले । उन्हे कहीं भाषण देना था उनका काम बन गया। वे मस्त रहे पर मैं उलझ गया कि आखिर कवि कितने तरह के होते हैं । एक दूसरे मित्र ने कहा यह भी कोई उलझन की बात हुई । हुआ करें तुम्हारा क्या । कौन पढता है कविता- फबिता। कौन पूछता है हिंदी कवियों को । अभी तो हर कोई तुक्कड़ है, तुकें भिड़ा कर कई महाकवि हो गये हैं । एक ने कहा कि अपने को कविता से चिढ़ है, अपना अंग प्रत्यंग सुलग उठता है कवि और कविता के नाम पर । फिर जिसके नाम से आग लगती हो उसे जानने का क्या फायदा। मैने कहा पर जान ही लेने में क्या बुरा है। हो सकता है कभी काम ही आ जाए। ज्ञान बढ़ा लेने से क्या दिक्कत।
सो हम जुटे कवियों का प्रकार जानने में । संस्कृत और हिंदी की पोथियों में विद्वानों ने कवियों को तीन समुदायों में विभाजित किया है। पहले समुदाय में है शास्त्र कवि, दूसरे खेमे में हैं काव्य कवि और तीसरे गुट में गाल फुला कर बैठे हैं उभय कवि। इनमें क्रमानुसार एक दूसरे से बड़ा है।

यह विभाजन अपनी बही में लिख तो लिया पर कुछ समझ में आया नहीं । तो संस्कृत के परम विद्वान राज शेखर से पूछा । आज कल वो मेरे पड़ोस में रहते हैं। उन्होने बता कर मेरी उलझन सुलझा दी । आप भी जाने और अपने परिचित कवियों को उस कोटि में रख कर कविता का आनन्द लें। कोटि के अनुसार कवि का हवाला देने का रिस्क मैं नहीं ले रहा । कवि के श्रद्धान्ध भक्त मुकदमा कर दें तो।

(1) काव्य-विद्यास्नातक- जो व्यक्ति कवित्व के संगीन इरादे से काव्य विद्याओं यानी व्याकरण, छंद, अलंकार तथा उपविद्याओं अर्थात चौंसठ कलाओं को सीखने के लिए गुरुकुल यानी विद्यालय में दाखिला लेता है, वही काव्य-विद्यास्नातक की उपाधि पा जाता है।

(2) हृदय-कवि- यह बड़ी खतरनाक कैटेगरी है। जो भी कविता बनाता है परंतु संकोचवश छिपा कर रखता है । बेचारा ना तो किसी को पढ़ कर सुनाता है न पत्रृपत्रिकाओं में छपाता है। कुल मिलाकर उसकी महान कविता का प्रचार-प्रसार उसके दिल की डायरी में दफ्न हो कर रह जाती है।

(3) अन्यापदेशी- यह थोड़ा चतुर होता है। यह कविता तो धड़ाधड़ लिखता है पर लोग कमजोर रचना कह कर खिल्ली ना उड़ाई जाए इसलिए दुसरे की रचना कह कर सुनाता है। अनेक कवि शुरू में यही उपाय करते हैं। लोगों ने तारीफ की तो मेरी नहीं तो दूसरे की ।

(4) सेविता- ऐसे कवियों की जमात बड़ी तगड़ी है। ये प्राचीन कवियों की छाया लेकर कविता करते हैं । नकल नहीं केवल छाया। आप इनके सामने वही रचना सुनाएं जो प्रकाशित हो गई हो। अन्यथा आप के पलटते ही छाया लेकर रच लेगा यह नई कविता और आप के पहले कहीं छपा भी लेगा । फिर आप हो जाएंगे सेविता । इलाहाबाद में कुछ ऐसे सेविता कवि आज भी हैं । आप के शहर में भी होंगे। बचिएगा।

(5) घटमान- वह कवि जो फुटकर कविता तो अच्छी कर लेता है पर कोई प्रबंध काव्य नहीं रच पाता। इस आधार पर आज के सारे कवि इसी घटमान की कोटि में आते हैं। लेकिन कहलाना चाहते हैं सब महा कवि। है ना कलयुग का जोर।

(6) महाकवि- वह कवि जो प्रबंध काव्य की रचना में समर्थ हो । इस हिसाब से न आज कोई तुलसी है न सूरदास। न कोई रामचरितमानस है ना सूर सागर । प्रश्न- हिंदी का आखिरी प्रबंध काव्य कौन (अ) कामायनी (ब) प्रिय प्रवास (स) राम की शक्ति पूजा (य) अन्य।

(7) कविराज- यह कवियों का सरताज है। कविराज वही होगा जो सब प्रकार की शैलियों और भाषा में कविता लिख सके। आप की निगाह में है कोई कवि।

(8) आवेशिक-मंत्र तथा तंत्र आदि की उपासना से काव्य रचना में सिद्धि पानेवाला व्यक्ति आवेशिक कवि कहलाता है। लेख पढ़ने के बाद उपासना में मत लग जाइयेगा। कुछ होना नहीं है। पर आप कहाँ मानने वाले।

(9) अविच्छेदी- जो जब जी चाहता है तभी बिना किसी दिक्कत के कविता कर सके वही अविच्छेदी कवि कहलाएगा। आजकल यही आशुकवि है। इनकी हर युग में डिमांड रही है।

(10) संक्रामयिता- ऐसे कवि जो दूसरों में कविता का वायरस डाल देते हैं। यानी सरस्वती का संक्रमण करते फिरते हैं। इलाहाबाद में एक वक्त पर ऐसे कई अखाडे और मठ थे जिनमें ऐसे समर्थ कई कवि धूनी रमाते थे। जिस शिष्य के सिर पर हाथ रख देते उसी के रोम-रोम से काव्य की निर्झरिणी फूट पड़ती थी । आज कल सुनते हैं वहाँ सूनेपन का राज है । कहावत हैं ना ज्यादा जोगी मठ उजाड़।


तो भाइयों और बहनों आज हमारी हिंदी में ना कविराज है ना महाकवि बस घटमान कवियों का साम्राज्य है। हमने चौर्य-कवि और कूड़ा कवि को नहीं गिना है । बेचारे चोर कवि तो अक्सर पकड़ ही लिये जाते हैं और कूड़ा कवि तो कूड़ा ही करेगा । यहाँ उनका ही हवाला है जिनमें रचने की कैसी भी क्षमता हो। अब अगर आप किसी और तरह के कवि को जानते हों जो यहाँ दर्ज होने से रह गये हों तो टिप्पणी करके मुझे बता दें । आखिर ज्ञान कभी तो काम आएगा ही । यह विभाजन शास्त्रानुसार है, गप्प नहीं। आप इससे संस्कृत आलोचना की शक्ति का अंदाजा लगा सकते हैं।

अगली कड़ी में कैसे कैसे आलोचक

Wednesday, July 18, 2007

त्रिलोचन की दो कविताएँ

अपने त्रिलोचन जी
आज की हिंदी के शिखर कवि त्रिलोचन का जन्म 20 अगस्त 1917 को चिरानीपट्टी, कटघरापट्टी, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। अंग्रेजी में एम.ए.पूर्वार्ध तक की पढ़ाई बीएचयू से । इनकी दर्जनों कृतियाँ प्रकाशित हैं जिनमें धरती(1945), गुलाब और बुलबुल(1956), दिगंत(1957), ताप के ताए हुए दिन(1980), शव्द(1980), उस जनपद का कवि हूँ (1981) अरधान (1984), तुम्हें सौंपता हूँ( 1985) काफी महत्व रखती हैं।
इनका अमोला नाम का एक और महत्वपूर्ण संग्रह है। त्रिलोचन की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह राजकमल प्रकाशन से छप चुका है। वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह के शव्दों में “उनका जितना प्रकाशित है उतना या कदाचित उससे अधिक ही अप्रकाशित है”।हिंदी में सॉनेट जैसे काव्य विधा को स्थापित करने का श्रेय मात्र त्रिलोचन को ही जाता है। आप त्रिलोचन को आत्मपरकता का कवि भी मान सकते हैं। भीख माँगते उसी त्रिलोचन को देखा कल जैसी आत्मपरक पंक्तियाँ त्रिलोचन ही लिख सकते हैं। परंतु ऐसा नहीं है कि त्रिलोचन का काव्य संसार केवल आत्म परकता तक ही सीमित है। शब्दों का सजग प्रयोग त्रिलोचन की भाषा का प्राण है । चंदू भाई अभी ऐसा ही कर पाया हूँ । हमें कोशिश कर के पिछली पीढी की कविताएं ब्लॉग पर छापनी होगी। त्रिलोचन जी शतायु हों और उनका आशीष हम सब पर बना रहे इसी कामना के साथ प्रतुत हैं त्रिलोचन की दो कविताएँ।
पहली कविता

उनका हो जाता हूँ

चोट जभी लगती है
तभी हँस देता हूँ
देखनेवालों की आँखें
उस हालत में
देखा ही करती हैं
आँसू नहीं लाती हैं

और
जब पीड़ा बढ़ जाती है
बेहिसाब
तब
जाने-अनजाने लोगों में
जाता हूँ
उनका हो जाता हूँ
हँसता हँसाता हूँ।

दूसरी कविता

आज मैं अकेला हूँ

(1)

आज मैं अकेला हूँ
अकेले रहा नहीं जाता।

(2)

जीवन मिला है यह
रतन मिला है यह
धूल में
कि
फूल में
मिला है
तो
मिला है यह
मोल-तोल इसका
अकेले कहा नहीं जाता

(3)

सुख आये दुख आये
दिन आये रात आये
फूल में
कि
धूल में
आये
जैसे
जब आये
सुख दुख एक भी
अकेले सहा नहीं जाता

(4)

चरण हैं चलता हूँ
चलता हूँ चलता हूँ
फूल में
कि
धूल में
चलता
मन
चलता हूँ
ओखी धार दिन की
अकेले बहा नहीं जाता।

सीता ने कहा, राम से मन न मिलेगा


सीता का अपार-दुख

कुछ दिनों पहले पहलू में सीता के लोक रूप की चर्चा चंदू भाई ने चलाई थी। मैंने उस गीत का पूरा पाठ देने को कहा था। पता नहीं यह वही गीत है या कोई और । यहाँ एक अवधी जाँत गीत का जस का तस रूपांतर प्रस्तुत है। इसमें सीता अपने मन का दुख प्रकट करते हुए कहती हैं कि अब मेरा मन राम से सपने में भी न मिलेगा। सीता का यह रूप ग्रंथो में न गूँथा गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं । अयोध्या के इक्ष्वाकुओं ने स्त्रियों पर हर संभव जुल्म किये हैं । इस अत्याचार को लोक ने सहेजा है क्योंकि वह अपनी थाती को सहेजना जानता है । तभी तो सीता का यह संवाद आज भी सुरक्षित है। गीत का आद्यंत “जेठै की दुपहरिया .......त विधि न मिलावैं हो राम” है। सीता से जुड़ा अगला जाँत गीत अगली कड़ी में । यह पाठ पंडित राम नरेश त्रिपाठी के “ग्राम गीत” में संकलित है।

1-जेठ की दुपहरी है। धूल जल रही है। राम ने सीता को ऐसे समय में घर से
निकाला जब वे गर्भ भार से शिथिल थीं।
2-वन में सीता बिसुर-बिसुर कर रोती और कलपती हैं - हाय राम, बच्चा होने पर कौन मेरे आगे पीछे होगा? कौन देख भाल करेगा? कौन धगरिन बच्चे का नाल काटेगी?
3-सीता का विलाप सुन कर वन की तपस्विनियाँ निकलीं । वे सीता को समझाने लगीं कि हे सीता चिंता मत करो। हम तुम्हारी देख भाल करेंगी। हम तुम्हारी धगरिन होंगी।
4-सीता विलाप करती हैं कि हे राम ! बेल की लकड़ी कौन लाएगा? रात बड़ी विपत्ति की होगी।
5-हाथ में कलश लिए ऋषि-मुनि सीता को समझाते हैं कि हे सीता हम बेल की तकड़ी ता देंगे। रात सुहावनी हो जाएगी।
6-दूसरी ओर चैत महीने की नवमी तिथि को राम ने अयोध्या में यज्ञ आरंभ किया । हे राम सीता को ले आओ सीता के बिना यज्ञ सूनी रहेगी।
7-आगे के घोड़े पर वशिष्ठ मुनि, उनके पीछे भरत और अल्हड़ बछेडे पर लखव सीता को मनाने पहुँचे।
8-पत्ते का दोना बना कर, उसमें गंगाजल लेकर सीता गुरु जी के पैर धोती है और माथे चढ़ाती हैं ।
9-गुरुजी कहते हैं- हे सीता तुम तो बुद्धि की आगार हो, भला तुमने राम को कैसे भुला दिया ? अयोध्या को तुमने छोड़ ही दिया ?
10 सीता कहती हैं- हे गुरु राम ने मुझे सोने की तरह आग में डाला, तपाया जलाया और भूना । मुझे ऐसा डाहा कि सपने में भी अब उनसे मन न मिलेगा।
11- पर हे गुरु ! आप का कहना मानूँगी। अयोध्या चलूँगी। पर जब पुरुष का ऐसा ही प्रेम है, तो ब्रह्मा उससे न मिलावें, तभी ठीक है।

Tuesday, July 17, 2007

ज्ञानेन्द्रपति की प्रेम कविता

ज्ञानेन्द्रपति हिंदी के विरले कवियों में हैं। उनका यह विरलापन कई स्तरों पर साफ-साफ देखा जा सकता है। भाषा और कहन का उनका अपना ही ढंग है । इसी वजह से न वे किसी कवि-परंपरा में आते हैं और नाही कोई कवि उनकी परंपरा में दिखता है। यहाँ प्रस्तुत उनकी एक प्रेम कविता ट्राम में एक याद भी बेजोड़ है । प्रेम की अनुभूति का यह पक्ष यहीं भर है । स्मृतियों से उपजी छटपटाहट प्रश्नों की बौछार बन कर आती है। झारखंड के पथरगामा में जन्मे ज्ञानेन्द्रपति अकेले कवि हैं जो कुलवक्ती कवि हैं, उन्हे पहल और साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त है । यह कविता उनके संग्रह भिनसार से है। यह उनके पहले दो संग्रहों, आँख हाथ बनते हुए, और शव्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है के अलावा फुटकर असंकलित कविताओं का संयुक्त प्रकाशन है । गंगातट और संशयात्मा उनके दो और काव्य संग्रह है। वे स्थाई रूप से बनारस में रहते हैं । पढ़िये उनकी यह प्रेम कविता।

ट्राम में एक याद


चेतना पारीक कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?
अब भी कविता लिखती हो ?

तुम्हे मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है

चेतना पारीक, कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग ?
नाटक में अब भी लेती हो भाग ?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ?
मुझ-से घुमंतू कवि से होती है टक्कर ?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र ?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र ?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो ?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो ?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो ?
उतनी ही हरी हो ?

उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है

इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह खाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है

फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है

चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो ?

Sunday, July 15, 2007

गाली की जरूरत है

गालियों के पक्ष में

मैं फिर कहता हूँ कि मैं गालियों का प्रचारक नहीं हूं बल्कि आज कल गालियां मेरा प्रचार कर रहीं हैं। गालियों को धन्यवाद दीजिये की बिना साहित्य और भाषा के समर्थन के उन्होने खुद को ना सिर्फ बचा रखा है बल्कि कुछ लेग उनके होने से भी डरते हैं । और गालियों की ढिठाई और बेशर्मी देखिये कि डटी हैं। उनके लिए तो शव्द कोशों में भी बहुत कम जगह बची है। कोश कारों ने भी स्वदेशी का खयाल नहीं रखा। कहीं ऐसा ना हो कि कल सरकार गालियों का आयात करने पर मजबूर हो जाए। गालियों का कोई मंत्रालय बने। और हमारे तमाम मर्यादित साहित्यकार वहां सलाहकार बन कर बैठ जाएं।
कल को हमारे बच्चे हमसे यह ना पूछे कि पितर गालियाँ क्या होती हैं और हम पहेलियों की तरह गालियों को भी याद ना कर पाएं। तो बे हिचक होकर बचाओ अपनी देसी गालियों को बचाओ।

हमारे देवता किसी पर बहुत गुस्सा हुए तो शाप दे दिया, जा भस्म होजा, तेरा सर धड़ से कट कर अभी गिर जाए, पर मजाल कभी किसी को गाली दी हो, कुल का नाश कर दिया, भट्ठा बैठा दिया पर मजाल है कि गाली दी हो। कुछ लोग आप को समूचा खतम कर रहे होते हैं पर आप को गाली नहीं देंगे। और गालियां हैं कि बिना सपोर्ट के अपना झंडा ऊंचे लहरा रही हैं।

गालियों के लिए हिंदी फिल्मों में थोड़ी बहुत जगह बन जाती है पर हमारे लेखक मन में चाहे जिसकी जितनी मां बहन कर लें पर कलम हाथ में पकड़ते ही गालियों की जगह कविता निथरने लगती है। सारा दुत्कार प्यार में बदल जाता है। सारी घृणा पुचकार में बदल जाती हैं। वर्ग शत्रु के खिलाफ लगाए गये नारे सुरीली तान की तरह सुनाई पडते हैं और गंदी-गंदी गालियाँ आशीष बन कर हवा में तैरने लगती हैं। पूरा माहौल एक गाली विरोघी पवित्रता से भर जाता है । हम खुद को एक सभ्य लोक में पहुंचा हुआ पाते हैं। पर मन की कुंठा मन में बजबजाती रहती है। क्या करें गाली देने से अमर्यादित होने का खतरा जो बन जाता है। कुछ लेखकों का तो दृढ़ मत है कि लिखी हुई गालियाँ अर्जित पुण्य का क्षय कर देती हैं। इस लिए वे गालियों को मंत्र की तरह मन में बुदबुदाते हैं, उनका जाप करते हैं, मनकों पर फेरते हैं पर लिखते हुए थर्राते हैं।
कुछ लोग घर में बीवी को गाली दे लेंगे, पर घर से बाहर निकलते ही भाषा पर साहित्य की रस माधुरी छा जाती है। ऐसी मीठी बोली जैसे पटना या इलाहाबाद से हिंदी भाषा में एमए करके अभी निकले हों। सड़क पर या समाज में बोलने के मामले में उनका मत संतों से मिलता जुलता है, उनके मेन में हर दम ऐसे पद चक्कर काटते रहते हैं-

मीठी बानी बोलिये, मनका आपा खोय
औरन को सीतल करे आपहु को सुख होय।
या
बोली एक अमोल है, जो कोइ बोले जानि
हिये तराजू तौलि के तब मुख बाहर आनि
पर जैसे ही जरा सा समाज का धुप्पल हुआ कि सुंदर- सुंदर गालियाँ, आप्त वाक्य की तरह जिह्वा से झरने लगती हैं। ऐसी अनसुनी और कोरी गालियां कि सुन कर जीवन कृतार्थ हो जाए। पर अगर उन्हें आप मंच से गाली बोलने (गाली की महिमा गाने में भूल गया कि वह तो बकी जाती है) या लिखने को तो आप को ऐसे देखेंगे जैसे आप ने उन्हे गाली दे दी हो।

मैं फिर कह दूं कि मैं गालियों का प्रचार नहीं कर रहा । वैसे गालियों को हमारे जैसी संकोची और अर्ध गाली बाज की जरूरत भी नहीं है। वे अपना प्रचार और प्रसार करना जानती हैं। हर वो तबका जिसे समाज सरकार और संस्कृति का सहारा नहीं मिलता उसमें अपने संरक्षण की एक अजब शक्ति खुद-ब-खुद आ जाती है। इसलिये ऐ गाली विरोधी लोगों सुनो, तुम गालियों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। क्योंकि वे तुम्हारे मन में घर बना चुकी हैं। तुम्हारा अर्ध संस्कारी शरीर उन अंत्यज अछूत गालियों का गोदाम है। गोदाम ही नहीं उर्वर खेत है। जहाँ लोगों के खिलाफ तुम्हारा आक्रोश तुम्हारा क्षोभ, तुम्हारी पस्ती, तुम्हारी पराजय उन्हें जिन्दा रखती है। उन्हे तुम्हारी या दुनिया की भाषा और व्याकरण की भी कोई दरकार नहीं है। वे बिना जबान के भी प्रकट होती हैं और कभी कभी आप के सलोने शांत मुख मंडल पर ग्रहण की तरह उनका होना दिखता है। तुम चाह कर भी उनका कुछ नहीं कर सकते।
तुम अपनी बेटियों की भ्रूण हत्या कर सकते हो, बहुओं को बंद घरों में जला सकते हो, निठारी में जो चाहे कर सते हो, तुम्हारे शहर के पिछवारे कभी – कभी सामने भी किसान खुद को जलाकर राख हो सकता हैं, पर तुम सरकार को भी गालियों नहीं दे सकते, क्योंकि गाली देने के लिए एक नैतिक साहस की जरूरत होती है। और उस साहस को तुम्हारे पालन कर्ताओं ने बचपन में ही मार दिया था। तुम आक्रोश हीन जीव हो, जिसे मधुर बोलने का मधुमेह है। तुम्हे मीठा बोलने और लिखने की ऐसी सीख मीली है कि तुम कुछ भी कर सकते हो, गाली नहीं बक सकते ।

तुम सामूहिक रूफ से झूठ बना सकते हो, झूठ बोल सकते हो, तुम्हे पता है उपनिषदों में किसी को झूठा कहना सबसे बड़ी गाली थी, जिस पर झूठ बोलने का आरोप होता था कभी-कभी वह आत्मघात भी कर लेता था
मैं यहां साहित्य में लिखी भडकाऊ गालियों का हवाला नहीं दूंगा। क्षमा याचना करते हुए कबीर का बस एक दोहा उद्धृत करूँगा जो कबीर ग्रंथावली में है, जिसके संपादक हैं बाबू श्याम सुंदर दास-
1-कबीर भग की प्रीतड़ी केतक गये गड़ंत
केतक अजहू जायसी नरक हसंत-हसंत।
दूसरा संदर्भ है बाबू भारतेंदु हरिश्चन्द्र की जीवनी से, जिसके लेखक हैं श्री ब्रज रत्न दास, पृष्ठ 147-पर एक समस्या पूर्ती का हवाला है। उन्ही के शव्दों में पढ़े-
एक दिन भारतेंदु जी के यहां कवि-सभा लगी हुई थी। किसी ने समस्या रूप में एक मिसरा पढ़ कर उसकी पूर्ती चाही। मिसरा यों हैं –

कपड़ा जला के अपना लगा आग तापने
भारतेंदु जी ने उपस्थित सज्जनों की ओर देखा। उनमें एक अल्पवयस्क विद्यार्थी भी था, जिसने उसे पूरा करने की आज्ञा माँगी।आज्ञा मिलने पर उसने कहा-

ऐसा भी चूतिया कहीं देखा है आपने।
कपड़ा जला के अपना लगा आग तापने।।

तो गाली के उर्वर खेतों, आप सब से निवेदन है कि गाली की हत्या के बारे में गोल बंद होने से बात नहीं बनने वाली, अगर गाली के खिलाफ बहुत बकोगे तो एक दिन खुद ही चलती फिरती गाली बन जाओगे। गालियों की जरूरत है, जैसे घृणा की जरूरत है। जैसे सच की आवश्यकता है। आप लोग अच्छी गालियां बोल सकते हो, बस बुदबुदाने की जगह बोलने का साहस जुटा लो। और जो आपकी गाली का विरोध करे, उसे चुप कराने का एक स्वरचित मंत्र देता हूँ, गाँठ बाँध ले काम आएगा-

हमारी बात गाली और आपकी बक्क बचन,
हमारे पाँव फटे पग और आपके कमल चरन।

गाली अमर रहे।

Friday, July 13, 2007

बजरबट्टू पर बंदर बाँट

बजर बट्टू के बहाने कुछ और बक्क

भाईयों यहाँ इन बातों का सीधा संदर्भ नहीं मिलेगा। इसके लिए आप को देखना होगा निर्मल-आनन्द और शव्दों का सफर को , मैं तो बेगाने की शादी में घुस आया हूँ। इन सब बातों को गप्प की तरह लें तभी आनन्द आएगा। वहाँ मामला था बजर बट्टू के कुल-गोत्र का पर मैंने कभी किसी बात को पटरी पर रहने दी हो तब ना।

1- बांटा पूत परोसी नाता, तो सुना ही होगा यानी
बंटवारे के बाद बेटे से भी पड़ोसियों जैसे संबंध हो जाते हैं।
2-बाँट खाओ या साँट खाओ
यानि किसी वस्तु को मिल बाँट कर खाना चाहिए
3-बाँट खाए, राजा कहलाए।
4- दादर धुनि चहुँ दिसा सुहाई
बेद पढ़इ जनु बटु समुदाई - (मानस )
5-बटु वेष पेषन पेम पन ब्रत नेम ससि-सेखर गये (मानस)
6- बटु बिस्वास अचल निज धरमा (मानस-1-2-6)
7- बटोही के लिए
देखु कोऊ परम सुंदर सखि बटोही (गीतावली-2-18)
8-बटोरने के लिए
सुचि सुंदर सालि सकेलि सुवारि कै बीज बटोरत ऊसर को ( कवितावली7-103)

और सिल के साथ बट्टा भी होता है। बड़े काम की चीज,चाहे भंगड़ हो गृहस्थिन सब के काम आता है,कहीं -कहीं इसे बटिया या प्यार से लोढ़ा पुकारते हैं , लिख लोढ़ा, पढ़ पत्थर वाला । गृह कलह में विरोधियों का बंटाधार करता आया है।
और ध्यान दें अगर आप का बटुआ खाली है तो समझ ले आप की बदहाली है। इसलिए संदर्भ बजर का हो या बट्टू का पर आप अपने बटुए को न भूलें। नहीं तो आप के हाथ से साबुन की बट्टी लेकर कोई और अपनी किस्मत चमकाएगा। फिर आप को बटुर(सिकुड़)कर रहना पड़ेगा और इसमें ठाकुर जी का बटोर( हजारी प्रसाद द्विवेदी) करने से भी कोई फायदा नहीं होगा। और आप धूल बटोरने में उम्र बिता देंगे । अच्छा हो कि यह बट्टा बन कर किसी का भाव ना गिरा दे जैसे कि आज-कल कइयों का गिरा है।
बट्टा माने कलंक भी होता है और धब्बा भी।
बट्ट के माने गेंद भी होती है, खेले पर ऐसा भी नहीं कि बटाक( उंची जगह पर दूसरी टीम हो और आप गेहूँ बटाने( पिसाने) चले जाएँ । वैसे काम यह भी बुरा नहीं है।
और बटोही के आस-पास ही खड़ा है बटाऊ, कहीं कहा गया है-
लोग बटाऊ चलि गये हम-तुम रहे निदान,
और अपने अमर्यादित भाखा के अगुआ कबीर फर्माते हैं-
जन कबीर बटाऊआ जिन मारग लियो जाइ।
एक बात और बजर बट्टू के साथ चलते-चलते धूप लगे तो संस्कृत के पुराने जटाओं और जड़ों वाले वट वृक्ष के नीचे छहां लेना । वह पूर्वज अपना पूत समझ कर तुमसे तो किराया नहीं ही मांगेगा। और नेक सलाह के लिए मुझे याद करना। पर अक्षय वट तो इलाहाबाद के किले में छूट गया।
तेहि गिरि पर बट विटप बिसाला (मानस-1-106-1)
गप्प में बजर बट्टू को मैंने कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया। तुम्हारे किए में अपना हिस्सा बटाने आ गया। हो गई ना बंदर बाँट।
पर बाबा तुलसी कहते हैं-
राजीवलोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाई.

Monday, July 9, 2007

मुंशी प्रेम चंद की कविताएं ..............................................................


यहाँ कुछ उन कविताओं या काव्यांशों को चिपका रहा हूँ जिन्हे कथा सम्राट प्रेम चंद की कहानियों में जगह मिली है। यह किसकी रचनाएं हैं यह जानने से कहीं महत्वपूर्ण है कि ये प्रेम चंद की पसंदीदा कविताएं हैं, पसंदीदा मैं इसीलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि ये कविताएं आज यहाँ जीवन पा रही हैं, कविताएं ऐसे भी जिंदा रहती हैं । यह सिलसिला चलता रहेगा, आज पढ़िये प्रेम चंद की पसंद में दो कविताएं। शीर्षक मेरे दिए हैं

पहली कविता

क्या तुम समझते हो ?

क्या तुम समझते हो मुझे छोड़कर भाग जाओगे ?
भाग सकोगे ?

मैं तुम्हारे गले में हाथ डाल दूँगी,
मैं तुम्हारी कमर में कर-पाश कस लूँगी,
मैं तुम्हारा पाँव पकड़ कर रोक लूँगी,
तब उस पर सिर रख दूँगी,

क्या तुम समझते हो,
मुझे छोड़ कर भाग जाओगे ?
छोड़ सकोगे ?

मैं तुम्हारे अधरों पर अपने कपोल
चिपका दूँगी,
उस प्याले में जो मादक सुधा है-
उसे पीकर तुम मस्त हो जाओगे।
और मेरे पैरों पर सिर रख दोगे।

क्या तुम समझते हो मुझे छोड़ कर भाग जाओगे ?।
( यह कविता रसिक संपादक कहानी से है और वहाँ इसकी रचनाकार कामाक्षी हैं )

दूसरी कविता

माया है संसार

माया है संसार सँवलिया, माया है संसार
धर्माधर्म सभी कुछ मिथ्या, यही ज्ञान व्यवहार,
सँवलिया माया है संसार।
गाँजे, भंग को वर्जित करते, है उन पर धिक्कार,
सँवलिया माया है संसार।

( यह पद गुरु मंत्र कहानी से)

Wednesday, July 4, 2007

सहिष्णुता बनाम हिंसा

किसी भी समुदाय या संप्रदाय से जुड़ना या अलग हो जाना उस खास समुदाय की सहजता और अपनत्व की भावना पर निर्भर करता है। इतिहास के लंबे दौर में आज शाकाहारी बन चुके सनातनी लोगों ने कई रूप बदले हैं। आज जो समुदाय अपने को सबसे अधिक सहिष्णु जता रहा है, उसी ने अपने ही आस-पास की आबादियों में रहने वाले बौद्धों पर हर तरह के अत्याचार किए। इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने अपने शोधों से इस तथ्य को कई जगहों पर प्रामाणिक बनाया है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहीं लिखा है कि जिन-जिन इलाकों में दलितों या निचले तबकों के जैसे बुनकरों आदि की रहनवारी थी उन्ही इलाकों में बाद में इस्लाम का दबदबा रहा। द्विवेदी जी के आधार पर कहा जा सकता है कि बाद के दिनों जब उच्च या संप्रभु वर्ग के अत्याचार बढ़े तो इन तमान वंचितों और दलितों ने इस्लाम की शरण जाना उचित समझा। जहाँ कम से कम उनके साथ अमानुषिक और गैर बराबरी का कोई बर्ताव तो नहीं हो रहा था।

बौद्धों और जैनों पर सनातनी ब्राह्मणों के अत्याचारों पर इतिहासविद डॉ. राम शरण शर्मा ने भी विस्तार से लिखा है। उनका मानना हो कि जब बौद्ध गुफाओं में अपनी संगीतियाँ या सम्मेलन करते थे, तब उनके विरोधी ब्राह्मण धर्मानुयायी गुफाओं के द्वार को बाहर से बद करके आग लगा दिया करते थे । इस देश में जिसका नाम भारत है ऐसा सिर्फ बौद्धों के साथ ही नहीं हुआ है। अपने विरोधियों को समूल नष्ट करने की यहां एक लंबी परम्परा रही है। महाभारत का खांडवप्रस्थ दहन हो या देवासुर संग्राम हर कहीं विरोधियों के समूल नाश करने का ही साक्ष्य मिलता है।

विरोधियों के प्रति सनातनियों की इस असहिष्णुता पर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी दुख के साथ स्वीकार किया है। उनकी माने तो इस देश के सनातनियों ने ऐसा कुछ हिंसक व्यवहार लोकायत या चार्वाक मत के अनुयायियों के साथ किया था। लोकायती भारत के उस पंथ के मानने वाले थे जो वेद विरोधी थे, जो ईश्वर और पुनर्जन्म में भरोसा नहीं रखते थे। जो मोटे शव्दों में नास्तिक थे। उनका तर्क था कि
1- भुना हुआ अन्न कभी नहीं उगता,

2- जब तक जियो सुख से जियो , जली हुई देह कभी नहीं आती,

3- टका ही धर्म है टका ही कर्म है, जिसके पास यह नहीं है वह सिर्फ बाजीर में टकटकी लगा कर देख सकता है, इत्यादि.....इत्यादि...

अपनी किताब भारत की खोज में नेहरू ने लिखा है कि इस देश से चार्वाक या लोकायत के मानने वालों को बल पूर्वक समाप्त किया गया होगा। नहीं तो ऐसा कैसे हो गया कि एक समय इस देश में पर्याप्त प्रचारित रहने वाले पंथ से जुड़ी एक भी पोथी का अवशेष भी ना मिले। नेहरू तो यह भी मानते हैं कि इस देश में लोकायत मत को मानने वाली पोथियों को भी नष्ट किया गया होगा। इन बातों का समर्थन देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय भी अपनी किताब लोकायत, और भारतीय दर्शन में जीवंत और मृत में करते हैं । इसी तरह धुर्ये महोदय ने भी अपने शोध में बड़े समुदाय के द्वारा अंत्यजों और दलितों को सताने की बात को धर्म परिवर्तन से जोड़ा है।
रोचक बात यह हो कि दशकुमार चरित में अयोध्या के राज कुमार राम को भी उनके आचार्यों ने लोकायत दर्शन का पाठ पढ़ाया था। बुद्ध के समय भी राजकुमारों को नास्तिकता के दर्शन का पाठ पढ़ाना आवश्यक था। पर बाद में जैसे-जैसे संकीर्णता का बोल-बाला बढ़ा वैसे-वैसे असहिष्णुता बढ़ती गई। उपनिषदों के मुताबिक विदेह जनक के दरबार में बंदी नाम का एक विद्वान था जो तर्क या शास्त्रार्थ में पराजित होने वाले व्यक्ति को पानी के कुंड में डुबो दिया करता था। इस तरह के विद्वान आज भी हैं जो अपने प्रतिद्वंद्वियों को खत्म करके ही दम लेने में यकीन करते हैं।
इस आधार पर सवाल सिर्फ बौद्धों के ही विलुप्त होने का नहीं नास्तिकों के भी समूल नाश का बनता है।
सवाल यह भी है कि आखिर कैसे एक पूरा समुदाय हिंसा की वारदातों में एक मत हो कर शामिल हो जाता रहा होगा। इस के लिए हम गुजरात की हिंसक घटनाओं को उदाहरण के रूप में देख सकते हैं

गो मांस भक्षण पर माहाभारत काल में पूरी तरह प्रतिबंध था। गोहत्या को महाभारत निषिद्ध बताते हुए पाप करार देता है। लेकिन महाभारत के अनुसार ही उसके भी पहले यानी बहुत प्राचीन काल में गो मांस भक्षण के उदाहरण मिलते हैं । महाभारत के अनुसार रंतिदेव रोज दो हजार गौओं का वध करते थे और उनका मांस दान करते थे, इस दान के कारण ही रंतिदेव की कीर्ति चारों ओर फैली थी।

इसके विपरीत मांस भक्षण इस देश में कभी भी निंदनीय नहीं रहा है। महात्मा बुद्ध का आखिरी आहार शूकर मद्दव था, यानी सूअर का मांस। बुद्ध के आहार पर कोसंबी महोदय ने काफी विस्तार से लिखा है। बुद्ध की जीवनी में।

अछूतों पर काफी काम हिंदी और अंग्रेजी में हुआ है, कभी चाँद का अछूत अंक छपा था वह आज राधाकृष्ण या वाणी प्रकाशन में उपलब्ध है। गाँधी जी के कहने पर डॉ. मुल्क राज आनन्द ने अछूत नाम का उपन्यास लिखा था और डॉ. भगवत शरण उपाध्याय ने खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर में भी अंत्यजों पर एक रोचक अध्याय लिखा है। इस पोथी में डॉ. उपाध्याय ने दास, शूद्र और अंत्यज पर बहुत ही रोचक सामग्री मुहैया कराई है।

यह सारी बातें स्मृति के आधार पर लिख रहा हूँ , कहीं कुछ थोड़ा बहुत दाएं या बाएं हो सकता है। अभय भाई और आप सब क्षमा करेंगे।