Sunday, December 16, 2007

अहे निष्ठुर परिवर्तन

परिवर्तन एक सच है

परिवर्तन एक सच है। एक ऐसा सच जिस पर किसी के मानने या न मानने का कोई असर नहीं पड़ता। परिवर्तन कई स्तरों पर चलता है। जिसे हम किसी भी तरह रोक नहीं पाते। यह परिवर्तन का ही कमाल है कि मैं देखता रहा और चिट्ठाजगत ने मुझे इलाकाई बना दिया। मैं पूँछ पटक कर रह जाता तो भी चिट्ठाजगत के सेहत पर क्या असर पड़ता। वे परिवर्तनशील हैं और बदलता हुआ समाज या व्यक्ति बहुत सारा उलट-पुलट कर ही देता है। जिसे सिर झुका कर स्वीकार करने में ही किसी की भी भलाई होती है....।
ऐसे आफतकाल में शुभचिंतक आते हैं ध्यान दिलाने जगाने कि बचो...सम्हलो...पर तब तक तो देर हो ही चुकी होती है... ज्ञान भाई ने जगाया कि देखो तुम्हे इलाकाई बनाया जा रहा है... मित्र अभय ने कहा कि मैं तुम्हें सही जगह कर देता हूँ...पर मैं चुपचाप देखते-सुनते रहने के अलावा क्या कर सकता था। मैंने माना कि इस इंकलाबी दौर में चुप्पी ही बचाएगी...
बिहारी ने कहा हा कि-

पावस आवत जान के भई कोकिला मौन
अब तो दादुर बोलिहैं, हमहिं पूछिहैं कौन।

मैं बेवकूफ हूँ, पर उतना बड़ा बेवकूफ नहीं हूँ कि अपनी भलाई को भूल जाऊँ और चिट्ठा जगत के परिवर्तन पर फड़फड़ा कर अपना घाटा करवालूँ। अपने मुंशी प्रेमचंद जी ने कहा ही है कि जिस पैर के नीचे अपनी गरदन दबी हो उसे सहलाने में ही फायदा है...पूज्य पिता जी कहते थे-
विप्र टहलुआ, अजा धन, औ कन्यन कइ बाढ़ि
इतने से धन ना घटे तो करौ बड़न से रारि।
सो मैं सब पंचों की बात मान, बलवान चिट्ठाजगत के अदृश्य पैरों को सहला रहा हूँ...और उनका आभारी हूँ कि मुझे कम से कम इलाकाई तो मान रहे हैं...वे लोग।

मैं अपने को इलाकाई पाकर बहुत खुश हूँ...कम से कम इस बदलाव के ग्लोबल दैर में मैं लोकल तो हूँ....जरा सोच कर देखिए ग्लोबल बनाम लोकल, अन्तर्राष्ट्रीय बनाम इलाकाई... कितना अच्छा लगता है....किसी भी परिवर्तन के स्वागत के पीछे मेरी सोची-समझी नीति कुछ ऐसी ही होती है और आपसे मैं कहना चाहूँगा कि जब बदलाव की विकट सुनामी नुमा आँधी चले तो घास की तरह दुबक जाइए घरती माँ के आँचल में....अपने जैसों के साथ गोल बनाकर बचाव कर लीजिए अपना.... अगर आप दुबकेंगे नहीं तो आप उखड़ जाएँगे....चाहे आप जहाजिया पेड़ हों या अट्टालिका प्राकार....
आप इसे मेरा पलायनवाद या समर्पणवाद मान लें....मैं तो इसे परिवर्तनवाद ही मानता हूँ....जो कि सचमें निष्ठुर होता है...

अगर मैं परिवर्तन को न मानूँ तो चिट्ठाजगत का क्या उखाड़ लूँगा....। वह आदमी किसी का क्या बिगाड़ सकता है जो धुरंधर भी न हो...लिक्खाड़ भी न हो, सामाजिक न हो। जो साहित्य, संगीत, कला विहीन हो , साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीन हो...वह बेचारा वलि के अलावा किस काम में आ सकता है....कवि तो और किसी काम के नहीं होते...उनकी इस समाज को कोई जरूरत कभी नहीं रही.... ब्लॉगर भी किसी का क्या कर सकता है...सिवाय एक पोस्ट में अपनी छुपी नीति का इजहार करने के...।
सो भाइयों हर बदलाव का स्वागत करो....मस्त रहो...और उस बदलाव का तो गा-बजाकर स्वागत करो जिस पर जोर न चले....जो बेकाबू हो....

अपनी बात के पक्ष में पुराने लोगों को उद्धृत करना एक परम्परा रही है...मैं भी परम्परा का पालन कर रहा हूँ....अहमद फराज को उद्धृत करके....

जख्म को फूल तो सरसर को सबा कहते हैं....
जाने क्या दौर है, क्या लोग हैं क्या कहते हैं...।
जब तलक दूर है तू तेरी परस्तिश कर लें...
हम जिसे छू न सकें उस को खुदा कहते हैं...।
मैं कि पुरशोर समुंदर थे मिरे पाँवों में
अब के डूबा हूँ तो,सूखे हुए दरियाओं में ....।

इसलीए कहता हूँ कि जब समय परिवर्तनशील होता है तो आदमी सूखी नदी में डूब जाता है....और लोग घाव को भी फूल और आँधी को हवा कहने लगते हैं...। अस्तु।

Tuesday, December 11, 2007

यश और मोक्ष नहीं निस्तेज जूतों की तलाश करते हैं वे

जोगी

(जूते चमकाने वाले बच्चों के लिए)

वे जूतों की तलाश में
घूमते हैं ब्रश लेकर
और मिलते ही बिना देर लगाए
ब्रश को गज की तरह चलाने लगते हैं
जूतों पर
गोया जूते उनकी सारंगी हों ।

दावे से कहा जा सकता है कि
उन्हें जूतों से प्यार है
जबकि फूल की तरह खिल उठते हैं
जूतों को देखकर वे ।

जब कोई नहीं होता
चमक खो रहे वे
जूतों से गुफ़्तगू करते हैं।

भरी
दोपहरी में वे
जमात से बिछुड़े जोगी की तरह होते हैं
जिसकी सारंगी और झोली
छीन ली हो बटमारों ने ।

उन्हें बहुत चिढ़ है उन पैरों से
जिनमें जूते नहीं ।

बहुत पुरानी और अबूझ पृथ्वी पर
उस्ताद बुंदू खाँ और भरथरी के चेलों की तरह
यश और मोक्ष नहीं
निस्तेज जूतों की तलाश करते हैं वे।

रचना
तिथि-१९-०२-1996

Friday, December 7, 2007

मैं नशेड़ी हूँ....


मेरी पहली किताब उर्फ किस्सा शीत-बसंत का

करीब महीने भर हुए मुझे एक किताब की याद आई। वह किताब थी किस्सा शीत-बसंत । कहीं बात चल रही थी पहले प्यार की । पहले प्यार की चर्चा से मुझे शीत-बसंत याद आई । शीत-बसंत मुझे मेरे बड़े भैया ने इलाहाबाद से लाकर दी थी। यह बात होगी १९७५ या ७६ की । मैं ६ या 7 साल का था। निक्कर पहन कर गाँव की कोलियों या गलियों में फिरा करता था। हर घर और हर आँगन मेरा अपना हुआ करता था। हर नई दुलहन जो अक्सर मेरी भाभी होती थी को देखने कभी भी पहुँच जाता था और कह भी देता था कि दुलहन देखने आया हूँ...। दुलहन देखने के बाद पाहुर के लड्डू लेकर भाग पड़ता था। आज याद करता हूँ तो लगता है कि मैं दुलहन देखने कम लड्डू पाने अधिक जाया करता था। ऐसे ही दिनों में मुझे वह किताब मिली किस्सा शीत-बसंत
दो तीन दिनों में पूरी किताब पढ़ गया । किताब खतम करने के बीच कभी रोता कभी डरता। कहानी एक सौतेली रानी और और उसके दो सौतेले राज कुमारों की थी। जैसा होता है बाद में सब कुछ ठीक हो जाता है। पर बीच में जलनखोर रानी दोनों राजदुलारों को मारने का हुक्म दे देती है। लेकिन वफादार सेवक शीत-बसंत की जगह किसी जानवर का दिल लाकर दे देते हैं और रानी के कलेजे को ठंडक पहुँच जाती है...।

तो शीत-बसंत और रानी मेरे पहले पात्र हैं जिनके बारे में मैंने पढ़ा और शीत बसंत पहली किताब। बहुत खोजने के बाद भी वह पुरानी किताब नहीं मिली । पर कांदिवली में एक दिन भाई अभय तिवारी के साथ भटकते हुए सड़क की दुकान से कुछ अलग छापेवाली दूसरी प्रति मिल गई। लगभग तीस साल बाद फिर पढ़ा और अवधेश भैया की बहुत याद आई। मुझ पर उनका बहुत प्रेम था । मैं उनसे १६-१७ साल छोटा जो हूँ। मुझे पढ़ने की ओर भैया ने ही प्रेरित किया। आगे इसी क्रम में सारंगा सदाबृज, नल-दमयंती, जैसी दर्जनों किताबें उनके स्नेह से पढ़ने को मिलीं। वे इलाहाबाद से नंदन, पराग, बालहंस, बाल भारती, चंपक, लोटपोट, और अमर चित्र कथा की तरह की किताबें हर यात्रा में लाते थे....। जिन्हें मैं बिना रुके पढ़ता जाता। हालांकि इसी पढ़ने के क्रम में मैंने घर में भाभियों द्वारा छिपा कर रखी गई इंद्रलोक आजाद लोक जैसी पार्थिव पोथियाँ भी पढ़ लीं।
हालांकि आज तक नहीं जान पाया हूँ कि मेरी चार भाभियों में कौन पढ़ता था उन पवित्र-पोथियों को।

जो भी रहा हो.....मैं मानता हूँ कि मैं नशेड़ी हूँ....किताबों को पाने और पढ़ने का नशा है मुझे.....जो शायद इस जीवन में न उतरे....।

Thursday, December 6, 2007

अयोध्या और पागलदास

पागलदास


( पखावज वादक स्वामी पागलदास के लिए, जिनका २० जनवरी १९९७ को अयोध्या में देहावसान हो गया)

अयोध्या में बसकर
उदास रहते थे पागलदास
यह बताया उस मल्लाह ने
जिसने सरयू में प्रवाहित किया उन्हें।

मैंने पूछा-
आखिर क्यों उदास रहते थे पागलदास
अयोध्या में बसकर भी।

उसने कहा-
कारण तो बता सकते हैं वे ही
जो जानते हों पागलदास को ठीक से
मैं तो आते-जाते सुनता था
उनका रोदन
जिसे छुपाते थे वे पखावज की थोपों में।

मैंने कहा, मुझे उनके स्थान तक ले चलो
उनके किसी जानकार से मिलाओ।

मैंने पागलदास के पट्ट शिष्यों से पूछा
क्या अयोध्या में बसकर
सचमुच उदास रहते थे पागलदास।
शिष्य कुछ बोले-बासे नहीं
बस थाप देते रहे,
मेरे आग्रह करने पर
उन्होंने मुझे दिखाया उनका कक्ष
जहाँ बंद हो गया था आना जाना डोलना
पागलदास के पखावज भी भूल गए थे बोलना।

मैं अयोध्या में ठूँढ़ता रहा
पागलदास के जानकारों को
और लोग उनका नाम सुनते ही
चुप हो
बढ़ जाते थे।

बहुत दिन बीतने पर
मिले पागलदास के संगी
जो कभी संगत करते थे उनके साथ

उन्होंने मुझसे पूछा -
क्या करेंगे जानकर कि
अयोध्या में बसकर भी क्यों उदास रहते थे पागलदास।

उन्होंने कहा-
क्यों उदास हैं आप बनारस में
बुद्ध कपिलवस्तु में
कालिदास उज्जयिनी में
फसलें खेतों में
पत्तियाँ वृच्छों पर, लोग दिल्ली में, पटना में
दुनिया जहान में क्यों उदास हैं
आप सिर्फ यही क्यों पूछ रहे हैं
कि अयोध्या में बसकर भी क्यों उदास थे पागलदास।

मैंने कहा -
मुझे उनकी उदासी से कुछ काम नहीं
मुझे बुद्ध, कालिदास या लोगों की उदासी से
कुछ लेना-देना नहीं
मैं तो सिर्फ बताना चाहता था लोगों को
कि इस वजह से अयोध्या में बसकर भी
उदास रहते थे पागलदास।

उन्होंने बताया-
पागलदास की उदासी की जड़ थे पागलदास

मैंने कहा यह दूसरे पागलदास कौन हैं
क्या करते हैं।

उन्होंने बताया-
जैसे अयोध्या में बसती है दूसरी अयोध्या
सरजू में बहती है दूसरी सरजू
वैसे ही पागलदास में था दूसरा पागलदास
और दोनों रहते थे अलग-थलग और
उदास।

जो दूसरे पागलदास थे
वे न्याय चाहते थे
चाहते थे रक्षा हो सच की
बची रहे मर्यादा अयोध्या की
सहन नहीं होता था कुछ भी उल्टा-सीधा
क्रोधी थे।पहले पागलदास की तरह
सिर्फ अपने भर से नहीं था काम-धाम
पहले पागलदास की तरह उदास होकर
बैठ नहीं गए थे घर के भीतर।

मैंने कहा-
अन्याय का विरोध तो होना ही चाहिए
होनी ही चाहिए सच की रक्षा
पर उदासी का कारण तो बताया नहीं आपने।

उन्होंने कहा-
जो पागलदास
सच की रक्षा चाहते थे
चाहते थे न्याय
वध किया गया उनका
मार दिया गया उनको घेर कर उनके ही आँगन में
एकान्त में नहीं
उनके लोगों की मौजूदगी में
और पहले पागलदास को छोड़ दिया गया
बजाने के लिए वाद्य
कला के सम्वर्धन के लिए।

दूसरे पागलदास की हत्या से
उसको न बचा पाने के संताप से
उदास रहने लगे थे पागलदास
दूसरे पागलदास के न रहने पर
उनको संगत देने वाला बचा न कोई
उन्होंने छोड़ दिया बजाना, भूल गए रंग भरना
तज गिए समारोह, भूल गएकायदा, याद नहीं रहा भराव का ढ़ंग
बचने लगे लोगों से, लोम-विलोम की गंजायश नहीं रही।
बहुत जोर देने पर कभी बजाने बैठते तो
लगता पखावज नहीं
अपनी छाती पीट रहे हैं।

इतना कह कर वे चुप हो गए
मुझे सरजू पार कराया और बोले-
जितना जाना मैंने
पागलदास की उदासी का करण
कह सुनाया
अब जाने सरजू कि उसके दक्षिण तरफ
बस कर भी क्यो उदास रहे पागलदास।

रचना तिथि- २१-०९-1997

Friday, November 30, 2007

हम न मरब मरिहैं संसारा

हिंदी मरते नहीं......

तीस दिनों से ब्लॉग पर लेखन-रस नहीं चखा पर उसका नशा लगातार छाया रहा। कितनी बार सोचा कि लिखूँ , छापूँ , टिप्पणियाँ दूँ, लेकिन पता नहीं क्यों नहीं लिख पाया। मैं जीवन में कभी इतना व्यस्त नहीं रहा हूँ कि लिखने के लिए समय न निकले। और न ही इतना व्यस्त रहना चाहूँगा कि न लिख पाऊँ। न लिखने का कारण और लिखने का बाहाना महान लेखकों को शोभा दे सकता है हम टुटपुँजिया लेखकों को नहीं। हमारी तो जिंदगी ही लेखन पर आधारित है।

इस बीच मैं कहीं कुछ और लिखने में लगा था। एक फिल्म की स्क्रिप्ट में कुछ लिखता रहा और एक किताब संपादित की। 25 के करीब फिल्में देखीं और हप्ते भर नदी के जल में स्नान किया। तीन दिन पेड़ की छाया में बैठा और खेत से मूलियाँ उखाड़ कर खाता रहा। कुल मिलाकर मस्त रहा। बस ब्लॉग पर लिख नहीं पाया। बाकी सब चकाचक रहा।

आज कुछ लिखने के लिए नहीं बस आप लोगों के सामने हाजिर होने के लिए लिख रहा हूँ....। यह बताने के लिए कि मैं मरा नहीं हूँ क्योंकि गाँवों से जुड़े लोग मरते नहीं। वे धूल झाड़ कर उठ खड़े होते हैं और मैं गाँव वाला ही हूँ....मारने से नहीं मरूँगा। साथ ही मुझे जिलाने वाला साहित्य संजीवनी भी मिली हुई है। मैं बनारसी हूँ और एक बनारसी कवि कबीर के शब्दों में दावे से कह सकता हूँ कि -

हम न मरब मरिहैं संसारा
हमकू मिला जियावन हारा।

मैं जिंदा हूँ तो हिंदी के कारण । मैं जिंदा रहूँगा तो हिंदी के चलते। हिंदी मेरी माँ है मेरी जननी। यह मुझे बचाए रखेगी। हम खुद भी हिंदी हैं.....और हिंदी मरना नहीं जानता या जानती।

आज और कुछ नहीं लिख रहा हूँ। क्योंकि लिखते नहीं बन रहा है । फिर भी लिख रहा हूँ क्योंकि नवंबर महीने से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। मैं नहीं चाहता कि विनय पत्रिका के इतिहास में यह लिखा जाए कि मैंने इस माह को लेखन के लायक नहीं पाया। मैं नहीं चाहता कि नवंबर के खाते में कुछ न दर्ज हो। आखिर यह महीना मेरे जीवन में बहुत महत्व रखता है । इसी माह में मुझे मेरी पत्नी के प्रथम दर्शन हुए। तब वह मेरी सहपाठिनी थी। इसी माह में मैंने 1997 में अपने प्यारे पिता को खोया अर्ध-अनाथ हुआ। बीते तीस दिनों में बहुत कुछ किया जो कि मैं आप सब को बताना नहीं चाह रहा। हालाकि बता देने से कुछ घट नहीं जाएगा पर बताने का मन नहीं है।

मित्रों कल शायद कुछ और लिखूँ या शायद महीने भर के लिए फिर गायब हो जाऊँ.....पर आप लोग यह बात गाँठ में बाध लीजिए कि मैं कुछ दिनों के लिए गुम हो सकता हूँ मर नहीं सकता।

Wednesday, October 31, 2007

महान शायर चिरकीन की राष्ट्रीय चेतना

क्या रखा है दोनों जहाँ में

उर्फ सब चिरका ही चिरका है

आज की अजदकी पोस्ट और उस पर ज्ञान भाई की धुरंधर टीप नें मुझे बेजोड़ शायर चिरकीन की याद दिला दी। इसलिए आज की विनय पत्रिका में फैल रही हर बू बास के लिए अजदक भाई ही एक मात्र जिम्मेदार हैं। मैं तो सिर्फ अजदक भाई की आज की पोस्ट रूपी टट्टी की आड़ से चिरकीन की शायरी बिखेर रहा हूँ। यानी चिरका कर रहा हूँ या गू कर रहा हूँ।

लोग बताते हैं कि चिरकीन साहब अलीगढ़ में रहते थे और हर मुद्दे को चिरके से जोड़ने की महारत रखते थे। विद्वानों का मत है कि चिरकीन का मूल अर्थ है बिखरी हुई टट्टी। आप समझदार हैं टट्टी का अर्थ झोपड़े की टाटी नहीं करेंगे ऐसा मुझे भरोसा है। टट्टी मतलब हाजत या कहें कि गू या हगा। चिरकीन की काव्य कला अद्भुत थी। बड़े-बड़े शायर उनसे पनाह माँगते थे। अच्छे-अच्छे मुशायरों में चिरकीन ने चिरका बिखेर दिया था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि चिरकीन प्रात काल में स्मरणीय हैं। वंदनीय है। आप सब के पास अगर इस महान शायर के युग इत्यादि के बारे में कोई ठोस जानकारी हो तो दें। चिरकीन पर रोशनी डाल कर चिरका साहित्य को बढ़ावा दें। साहित्य में फैली एक ही तरह की सड़ान्ध या बदबू को बहुबू से भरें। कभी इलाहाबादी मित्र अली अहमद फातमी ने बताया था कि चिरकीन का दीवान भी अलीगढ़ से उजागर हुआ था।

चिरकीन का साहित्य सदैव चिरके पर ही केन्द्रित रहा। चिरका ही उनका आराध्य था । इसीलिए
जितने भी स्वरूप हो इस मल या गू के या जितने भी रंग हों सबको चिरकीन ने अपनी शायरी में जगह दिया है। मुझे कुछ ही शेर याद आ रहे है जो आपकी खिदमत में पेश हैं। अगर कुछ इधर उधर हो तो चिरकीन भक्त और अभक्त क्षमा करेंगे।

राष्ट्रीय एकता

चिरकिन चने के खेत में चिरका जगा–जगा
रंगत सबकी एक सी , खुशबू जुदा-जुदा।

स्वागत

बाद मुद्दत के आप का मेरे घर पर आना हुआ
तेज की घुमड़न हुई और धड़ से पाखाना हुआ।

इश्क

वस्ल के वक्त महबूबा जो गू कर दे
सुखा के रख लीजे, मंजन किया कीजे।

श्रद्धा-भक्ति

चिरका परस्त बन तू ए चिरकीन
आखिर क्या रखा है दोनों जहाँ में।

अगर कोई ज्यादती हो गई हो तो सच में माफी दें। या माफ करें...

Tuesday, October 30, 2007

भिखारी ठाकुर से मुलाकात


भिखारी ठाकुर को उनका हक दो

कल बहुत अजीब सपना देखा । मुझे सपने में विदेशिया वाले भिखारी ठाकुर मिले और अपना दुखड़ा लेकर बैठ गए । मैं उनके दुख से द्रवित हुआ और मेरी आँखे भी भर आईं। सपने में मैं दिल्ली में था और वहाँ की एक संस्था में नेरूदा की जन्म शती पर भाषण सुन रहा था। वहीं गेट के बाहर भिखारी ठाकुर से मुलाकात हुई। वे अंदर जाना चाह रहे थे पर कोई उन्हे पैठने नहीं दे रहा था। वहाँ सब थे पर भिखारी ठाकुर के लिए जगह नहीं थी। नेरुदा पर करीब दर्जन भर आलेख पढ़े गए। फिर उनकी ग्रंथावली का लोकार्पण हुआ। लोग गदगद थे। नेरूदा की कविताओं के मद में मस्त।

बाहर निकलते समय भी भिखारी ठाकुर वहीं खड़े दिखे। मैं बच कर निकल जाना चाह रहा था पर वे लपक कर पास आए और पूछा कैसा रहा। नेरूदा पर कैसा बोले लोग। मैं भिखारी की उदारता पर हतप्रभ था। आँ ऊँ...कर के निकल गया।

सपना टूटने पर मुझे याद आया कि पिछले साल भिखारी ठाकुर की जन्म शती थी और मुझे उन पर एक आलेख लिखना था । पर जीवन की लंतरानियों की आड़ में मैं लिख नहीं पाया। हालाकि तैयारी मैंने पूरी कर ली थी। बिहार राष्ट्र भाषा परिषद से भिखारी ठाकुर की ग्रंथावली भी मंगा ली थी और कथाकार संजीव का उपन्यास सूत्रधार भी। कुछ और लेखादि का संकलन भी कर लिया था पर बाद में लिखना टल गया। शायद दो लोग भिखारी पर पत्रिका निकाल रहे थे वही पीछे हट गए।

यहाँ यह बाताना रोचक रहेगा कि भिखारी ठाकुर से मेरा परिचय कथाकार शेखर जोशी जी ने कराया था। जब उन्होंने जाना कि मेरे गाँव का नाम भिखारी राम पुर है तो उन्होंने पूछा था कि यह विदेशिया वाले भिखारी ठाकुर का गाँव तो नहीं.....। उसके बाद मैंने भिखारी ठाकुर पर जगदीश चंद्र माथुर का एक बहुत संजीदा संस्मरण पढ़ा ....फिर तो भिखारी सचमुच में अपने हो गए अपने गाँव वाले.....

रात में फिर सोया तो ठाकुर को लेकर एक और डरावना सपना देखा। भिखारी को लोर्का, मायकोवस्की, लेर्मंतोब, नाजिम हिकमत, ब्रेख्त जैसे कुछ कवियों से गिड़गिड़ाकर अपने बैठने की जगह माँगते पाया। इस बार भी सपने में दिल्ली ही थी। लोग भिखारी की भाषा नहीं समझ रहे थे। वहाँ मैजूद विद्वान लोग भिखारी को सुन रहे थे पर बाद में मिलना...बाद में....ओ दादा.....ओ......बाद में चलो.....हटो....बाद में ...कल दोपहर में लंच के बाद....वो.....टल हट....कह कर लगभग दुरदुरा रहे थे।

पर भिखारी ठाकुर थे कि हिलने का नाम तक नहीं ले रहे थे। कह रहे थे कि जब अंग्रेज ससुरे चले गए तो तुम सब कब तक रहोगे....हमें बेदखल नाही कै सकत। तुम सब दल्लाल हो....संसकिरती के नाम पर हमका आड़े नाहीं कै सकत....हम इहाँ से कतऊँ न जाब....ई हमार दिल्ली हऊ....। तब तक संजीव, ऋषिकेश सुलभ और संजय उपाध्याय और , शत्रुघ्न ठाकुर, तेतरी देवी , धर्मनाथ माझी जैसे सैकड़ों लोग आ गए और भिखारी ठाकुर जिंदाबाद के नारे लगाने लगे....मैं कुछ देर सकते में खड़ा रहा फिर नारा लगानेवालों के साथ हो गया....और जोर-जोर से भिखारी ठाकुर जिंदाबाद का स्वर बुलंद करने लगा....।

सपना फिर टूट गया...पर थोड़ी राहत रही....क्यों कि इस बार भिखारी ठाकुर....वही विदेशिया वाला.....रो नहीं रहा था बल्कि लड़ने को खड़ा था और उसके लोग डटे हुए थे....और बाकी भिखारी के शब्दों में संसकीरत के दल्लाल सब सकते में थे।

सुबह हुई तो सोचा कि विदेशिया की तकलीफ भरी लड़ाई से आप सब को परिचित करा दूँ....
परिचय तो हो गया....भिखारी से विस्तार में मिलना चाहें तो पढ़े कथाकार संजीव का उपन्यास सूत्रधार.....
परिचय के बाद अब पढ़े एक अंश भिखारी विदेशिया नाटक से....
यह हिस्सा प्यारी विलाप का है.....
प्यारी (विलाप)
हाय हाय राजा कैसे कटिहे सारी रतिया
जबले गइले राजा सुधियो ना लिहले, लिखिया ना भेजे पतिया।। हाय हाय..........
हाय दिनवां बितेला सैयां बटिया जोहत तोर, तारा गिनत रतियां।। हाय हाय-----
जब सुधि आवै सैयां तोहरी सुरतिया बिहरत मोर छतिया।। हाय हाय-----
नाथ शरन पिया भइले बेदरदा मनलेना मोर बतिया।। हाय हाय-----

Friday, October 26, 2007

कथाकार सूरज प्रकाश का लिंग


मुंबई का नया कथाकार ब्लॉगर

मुंबई के ब्लॉगाकाश में एक और सूरज प्रकाशित हुआ है या कहें कि उगा है । इस नए ब्लॉगर का नाम है सूरज प्रकाश और उनका ब्लॉग है कथाकार ।सूरज प्रकाश वैसे भी मुंबईवालों को अपने प्रकाश से चकित करते रहे हैं पर यहाँ चौकाने वाली बात है उनका लिंग जिसकी तरफ मेरा ध्यान बनारसी ब्लॉगर भाई अफलातून जी ने खीचा। कथाकार का ब्लॉगीय प्रोफाइल पढ़कर परेशान हो गये अफलातून जी ने मुझसे पूछा कि यह कथाकार सीपीआई एम एल या लिबरेशन से जुड़े हैं क्या। क्योंकि कथाकार का लिंग है माले। मेरी जानकारी में कथाकार सूरज प्रकाश का लिंग भले ही माले हो पर उनका माले की राजनीति और माले गाँव में हुए धमाकों से कोई सीधा या टेढ़ा नाता नहीं है।

इस कथाकार के लिंग निर्धारण में भारतीय वामपंथियों और लेखकों का कोई लेना देना नहीं है। पर यह बात मैं दावे से नहीं कह सकता । माले के कुछ लोगों को जानता मानता हूँ पर उनकी तमाम गतिविधियों का मुझे कुछ पता नहीं रहता।

अफलातून जी की ही तरह मैं भी कथाकार के लिंग को लेकर उलझन में हूँ। पुरुष- स्त्री और तीसरे लिंग के अलावा यह माले लिंग क्या बला है। इस लिंग के बारे में मेरा अज्ञान मुझे तकलीफ दे रहा है। जिनके पास लिंग ज्ञान हो या जो ज्ञान लिंगी हों मुझे और अफलातून जी को बताएँ कि माले लिंग की और तारीफ क्या है।

सूरज प्रकाश एक अच्छे कथाकार हैं। मुंबई से जुड़ी कहानियों का संपादन मुंबई एक के नाम से कर चुके हैं। कभी-कभी कविता लिख कर कवियों को डराते रहते हैं। चार्ली चैपलिन की आत्मकथा का उनका अनुवाद आधार प्रकाशन पंचकूला से प्रकाशित हो चुका है। साहित्य की दुनिया में कुछ कर गुजरने के लिए इस बेचैन और परेशान आत्मा का ब्लॉग जगत में स्वागत है। आप लोग नामी- बेनामी- गुमनामी टिप्पणियों से सूरज को अर्ध्य दें आलोचना करें यह आप पर है।

Thursday, October 25, 2007

मास्को में माँ का नाच


मास्को में माँ का नाच और निराला

मेरी दो कविताओं के बारे में एक सूचना मुझे परसों मिली। यह सूचना मुझे मेरे कवि मित्र श्री अनिल जनविजय ने मास्को से दी। मेल पर बातचीत के दौरान जनविजय जी ने बताया कि मेरी दो कविताएँ वे मास्को विश्वविद्यालय में एमए हिंदी की कक्षाओं में पढ़ाते हैं।
मास्को में माँ का नाच तो पिछले तीन सालों से वे पढ़ाई जा रही है, पर मुझे सूचना तीन दिन पहले मिली है और मैं खुश हूँ। वहाँ पढ़ाई जा रही मेरी दूसरी कविता है इलाहाबाद में निराला। निराला वाली कविता मैं ब्लॉग पर पहले छाप चुका हूँ।

मैं आप सब को यह बाताना चाहूँगा कि श्री अनिल जनविजय खुद एक बहुत अच्छे कवि हैं उनके कई संग्रह प्रकाशित हैं । वे कविता कोश नाम से नेट पर हिंदी कविताओं का एक अलग भंडार भी संजो रहे हैं।

आज मैं आप सब के लिए अपनी कविता माँ का नाच छाप रहा हूँ । आप पढ़ें और अपनी बात रखें।

माँ का नाच

वहाँ कई स्त्रियाँ थीं
जो नाच रहीं थीं गाते हुए

वे एक खेत में नाच रहीं थीं या
आँगन में यह उन्हें भी नहीं पता था
एक मटमैले वितान के नीचे था
चल रहा यह नाच।

कोई पीली साड़ी पहने थी
कोई धानी,
कोई गुलाबी, कोई जोगन सी
सब नाचते हुए मदद कर रहीं थीं
एक दूसरे की
थोड़ी देर नाच कर दूसरी के लिए
हट जाती थीं वे नाचने की जगह से।


कुछ देर बाद बारी आई माँ के नाचने की
उसने बहुत सधे ढ़ंग से
शुरू किया नाचना
गाना शुरू किया बहुत पुराने तरीके से
पुराना गीत।

माँ के बाद नाचना था जिन्हें वे भी
और जो नाच चुकीं थीं वे भी अचंभित
मन ही मन नाचती रहीं माँ के साथ।

मटमैले वितान के नीचे
इस छोर से उस छोर तक नाचती रही माँ
पैरों में बिवाइयाँ थीं गहरे तक फटीं
टूट चुके थे घुटने कई बार
झुक चली थी कमर,
पर जैसे भँवर घूमता है
जैसे बवंडर नाचता है वैसे
नाचती रही माँ।

आज बहुत दिनों बाद उसे
मिला था नाचने का मौका
और वह नाच रही थी बिना रुके
गा रही थी बहुत पुराना गीत
गहरे सुरों में।

अचानक ही हुआ माँ का गाना बंद
पर नाचना जारी रहा
वह इतनी गति में थी कि
घूमती जा रही थी,
फिर गाने की जगह उठा
विलाप का स्वर
और फैलता चला गया उसका वितान


वह नाचती रही बिलखते हुए
धरती के इस छोर से उस छोर तक
समुद्र की लहरों से लेकर जुते हुए खेत तक
सब भरे थे उसकी नाच की धमक से
सब में समाया हुआ था उसका बिलखता हुआ गाना।


रचना तिथि - 1 अप्रैल १९९९
नोट- ऊपर मेरी माँ की एक फोटो

Tuesday, October 23, 2007

साल भर बाद सूर्य को देखा


सूरज के पहले उगना

आप लोग यकीन नहीं करेंगे आज लगभग साल भर बाद उगता हुआ सूरज दिखा। पहले जब गाँव में रहता था या इलाहाबाद में लगभग हर दिन का सूर्योदय देख ही लेता था। तब रात दो या तीन बजे तक जागने की चर्या नहीं थी। यहाँ मुंबई में सुबह जग जाने के बाद भी अगर घर से बाहर न निकलें तो सूरज का दर्शन दुर्लभ है। आज सूरज दिखा तो बड़ा अच्छा लगा। वह उतना ही चमकदार और ऐश्वर्यशाली था जितना मेरे बचपन में या किशोरावस्था में हुआ करता था। उसे देर तक देखता रहा।
क्या रहा निहारता रहा। उसे पूर्ववत पाकर अच्छा लगा, पर बहुत कुछ याद आया।

बचपन में मैं सूर्य का उगना अपने कचौड़ी नामा घर की छत से देखा करता था। सुबह मेरे बाबा सूर्य को जल चढ़ाते फिर कक्का फिर कुछ और लोग। हम बच्चे उन सबको ऐसा करते देखते। बाबा पीतल के बड़े से लोटे में कुछ कनेल के फूल डाल लेते या गेंदे के और कोई मंत्र बुदबुदाते हुए अपने स्थान पर घूमते। वे एक ग्रह की तरह सूर्य की धरती पर रह कर परिक्रमा करते थे। वे हम लोगों के लिए एक साक्षात ग्रह थे। हमें उनकी परिक्रमा एक खास लय दिखती। सूर्य पूजन के बाद बाबा जल की कुछ बूँदे अपनी गोखुरी शिखा पर भी छिड़कते।

आज सुबह सूर्य को उगता देख कर बाबा की बड़ी याद आई। वे बड़े पराक्रमी पुरुष थे। उन्होंने अपने कुल को एक बड़ी चमक दी थी मान दिलाया था इलाके में। वे एक धाकड़ और बेजोड़ वैद्य थे । वैद्यक पर उनकी एक पोथी बनारस के प्रकाशक ठाकुर प्रसाद एण्ड सन्स बुकसेलर से छपी थी। एक तरह से वे मेरे इलाके के पहले कुछ लेखकों में भी माने जा सकते थे।

सूर्योदय के बीच में बाबा का यह अवांतर प्रसंग छोड़ कर मैं फिर सूर्य पर लौटता हूँ। जब हम छ: सात साल के हुए सूर्योदय के घंटों पहले बिस्तर छोड़ने लगे थे । मेरे एक ताऊजी जो एजी ऑफिस इलाहाबाद में चीफ एकाउंटेंट वगैरह थे उन्हें महुआ बीनने में बड़ा मजा आता। रास्ता चलने वालों से महुए के रस भरे फूल टूट जाते थे । तो ताऊजी हम सब बाल बृंदों को लेकर भोर में महुआरी बारी पहुँच जाते । सबसे पहले जिन पेड़ों के नीचे से राह गई होती थी हम उनके नीचे महुआ बीन कर एक पतली राह बना देते । डगर चलू लोगों के आने जाने के लिए। मुझे याद है कि दोनो हाथों से महुए के फूलों को बिना चोट लगाए हम दनादन महुआ बीनते । घंटे भर में महुए के ढेर लग जाते। तब अक्सर ऐसा होता कि जब हम महुआ बीन कर घर लौट रहे होते थे पीछे से सूर्योदय होता। ताऊजी हम सब से कहते कि हमेशा सूरज से पहले उगना चाहिए । और हम खुश होते कि लो आज भी सूर्य देव पिछड़ गए। हम अग्गी रहे। ऐसी कई बातों को आज के सूर्योदय ने याद दिला दिया।

आज न बाबा है न ताऊजी पर महुए के फूल तो गिरते ही होंगे। बाबा न सही सूर्य को कोई न कोई तो अर्ध्य देता ही होगा। बाबा के लोटे से जलधार के साथ घरती की ओर गिरते वे फूल बड़े लुभावने होते थे। महुए के पेड़ से धरती की ओर गिरता हुआ हर फूल बड़ा सलोना होता था। एक दम निर्मल, रसभरा। दूर-दूर तक महुए की मदमाती सुगंध छाई होती। महुए को बचाने के लिए ताऊजी न सही वहाँ जो लोग होंगे महुए को कुचलने बचाते तो होंगे । अगर रस पाना है तो किसी भी चीज को कुचल जाने से नष्ट हो जाने से बचाना ही होगा।

महुए के फूल बीनने पर बच्चन जी की एक कविता है । उसी अंचल और भूमि की उपज है वह कविता । बच्चन जी की जन्म शती पर उस कविता को छापना चाह रहा था पर संकलन ही नहीं मिल रहा है। यह कविता शायद त्रिभंगिमा में थी। गीत की जो पंक्तियाँ याद आ रही हैं वो नाकाफी है। शुरुआती पंक्तियाँ हैं -
लइके मुड़वा पर डलइया महुआ बीनई जाब।
क्या करूँ....उसकी जगह पर वह गीत पढ़ें जो मुझे बेहद प्रिय है

जो बीत गई

जो बीत गई सो बात गई !
जीवन में एक सितारा था,
माना, वह बेहद प्यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया;
अम्बर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गये फिर कहाँ मिले,
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अम्बर शोक मानाता है।
जो बीत गई सो बात गई !

यह गीत और है पर अब बहुत हुआ। सूर्योदय से महुआ, महुआ से बाबा फिर ताऊजी फिर बच्चन जी । धागा बढ़ता ही जा रहा है....बस करता हूँ। जो बीत गई ओ बात गई।

Monday, October 22, 2007

यह दिल्ली किसकी है ?














भारत हिंदुस्तान या इंडिया जो भी नाम हो इस देश का इसके इतिहास ही नहीं वर्तमान में भी दिल्ली की खास भूमिका रही है जिससे आप सब परिचित हैं। दिल्ली को लेकर हर दौर में बहुत सारी कविताएँ लिखी गई हैं। याद करें तो सबसे पहले दिनकर जी की कविता याद आती है। मैंने १९८७ में अवधी में एक कविता दिल्ली पर लिखी थी। पर लगता है कि दिल्ली की महिमा के लिए कई सारे संग्रह लिखने पड़ेंगे। पढ़े दिल्ली का गुनगान करती इस कविता को।

किसकी दिल्ली !

पाँच साल का बच्चा
गुमसुम मलता है बासन
यह कैसी किसकी दिल्ली
और कैसा किसका शासन।

ये सुंदर फूल पखेरू
जिनके कोटे का राशन
खाकर फूली है दिल्ली
मुसकाती देती भाषन।

यह कैसा दिवस, अंधेरा
छाया चौतरफा, जिसमें
बच्चे की छती पर
दिल्ली मारे है आसन।

रचनाकाल १६ मई २००१, मुंबई

Friday, October 19, 2007

आठ दिनों से लगातार जल रहा है एक दीया

भानी को क्या समझाऊँगा

पिछले आठ दिनों से रसोईं घर एक अस्थाई मंदिर में बदल गया है और मैं अपने घर में अल्पसंख्यक हो गया हूँ। नवरात्रि के पहले दिन से आज तक रसोईं की दीवार में लकड़ी के छोटे से मंदिर के आगे जमीन पर देवी का कलश रखा है। उस कलश के आगे एक दीया लगातार जल रहा है। मैं सबेरे जब सो रहा होता हूँ तभी मेरी पत्नी पूजा कर चुकी होती हैं। इस पूजा में मेरी बेटी भानी और बेटा मानस उनका साथ देते हैं। भानी प्रसाद बनाने में और आरती गाने में और मानस शंख फूँकने में और घंटी बजाने में। भानी आरती की एक ही पंक्ति काफी ऊँचे और बिखरे सुरों में गाती है—

जय अंबे गोरी मैया जय अंबे गोरी ।

फिर आगे की पंक्तियों में चुप रह कर टेक जय अंबे गौरी के आने का इंतजार करती है और टेक की पंक्ति के आते ही जोर से जय अंबे गोरी गा पड़ती हैं। कभी – कभी हवन कुंड में कपूर की गोलियाँ डाल कर वह अपनी भूमिका साबित करती रहती है। एकाध दिन तो दिन में वह दो-तीन बार आरती करने या प्रसाद बनाने के लिए बाल-हठ करती रही । बाद में उसकी जिद पर दो तीन बार पूजा की भी गई। उसके लिए पूजा मतलब प्रसाद का बनाना हो गया है। एक काम वह और करती है जो काफी जरूरी है दीये की निगरानी का । वह बार-बार रसोईं या कहें कि मंदिर में झाँक कर देखती है और अपनी मां को रिपोर्ट करती है कि दीया जल रहा है।

मानस को पूजा की ट्रेनिंग उनकी माता जी ने दी है। उसे पूजा करते और आरती बुदबुदाते देख कर मुझे मेरा बचपन याद आता है। मैंने अपने पुरखों के बनवाए मंदिर में लगातार बारह चौदह साल बाकायदा पुजारी की तरह पूजा किया है। मंदिर घर से करीब किलोमीटर भर की दूरी पर था और मैं सुबह कौपीन पहन कर अपने उदास से माथे पर तिलक लगाए पूजा करने जाता। सुबह की पूजा में तो कोई दिक्कत नहीं आती लेकिन शाम की आरती के समय मंदिर में घुसते डर लगता। मंदिर सूने में था और हर तरफ से अंधाकार में घिरा रहता था। फिर भी दीया जलाने जाना होता था। मुझे नहीं याद कि पानी हो या आँधी कभी मैंने दीया न जलाया हो। यानी मेरे गाँव का मंदिर और उसके देवता सब मेरे जिम्मे हुआ करते थे। जब मेरे इलाहाबाद पढ़ने जाने की बात आई तो घर वालों के सामने मंदिर के पुजारी की समस्या सबसे प्रबल थी।

हालाकि पिछले 19-20 सालों से एक नास्तिक जीवन जी रहा हूँ....पर घर की रसोईं में लगातार आठ दिनों से जल रहे दीये को देख कर अजीब लग रहा है। कल तो भानी की जिद पर या कहें कि मानस की गैर हाजिरी में शंख भी बजाना पड़ा। मैं यह बताना चाहूँगा कि लगभग एक सवा मिनट तक आराम से अविराम शंख बजा लेता हूँ। मेरे एक मित्र अरविंद शंकर ने मुझे बहुत अच्छा शंख उपहार में दिया है।

मेरी उलझन दूसरी है। कल नवरात्रि की आखिरी दिन है। पूजा के बाद कलश इत्यादि को प्रवाहित करना होगा। मानस तो समझ गया है भानी को कैसे समझाऊँगा कि लगातार जल रहा दिया कल रात से या सुबह से ही बुझ जाएगा। हालाकि दिन में कई बार प्रसाद बनाना और आरती करना कम हो जाएगा । और जय अंबे गोरी भी शायद सुनने को कम मिले....।

नोट- उपाय हीन होने से घर के दीये की कोई फोटो नहीं डाल पा रहा हूँ।

Wednesday, October 17, 2007

मंगलेश डबराल की दो कविताएँ

हिंदी के महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई 1948 को उत्तरांचल के काफलपानी गाँव, टिहरी गढ़वाल में हुआ । मंगलेश जी साठवें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं। पुराना वक्त होता तो हम उनकी साठवीं सालगिरह का समारोह करते। पर अब यह सब कहाँ होता है। वे मेरे पसंद के कुछ एक कवियों में हैं। खास कर उनकी कविता संगतकार जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं। उनकी कुछ प्रमुखकृतियाँ
पहाड़ पर लालटेन (1981); घर का रास्ता (1988); हम जो देखते हैं (1995)
उन्हें हिंदी के की बड़े सम्मान भी प्राप्त हैं जिनमें ओमप्रकाश स्मृति सम्मान (1982); श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार (1989) और "हम जो देखते हैं" के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार(२०००)
शमशेर जी का एक कथन है बात बोलेगी हम नहीं। तो यहाँ जो कुछ कहना है मंगलेश जी की कविता अपनी गवाही देगी। मैं कविताओं पर कुछ नहीं कह रहा हूँ। पढ़ें और अपने विचार व्यक्त करें।

दादा की तस्वीर

दादा को तस्वीरें खिंचवाने का शौक नहीं था
या उन्हें समय नहीं मिला
उनकी सिर्फ़ एक तस्वीर गंदी पुरानी दीवार पर टंगी है
वे शांत और गम्भीर बैठे हैं
पानी से भरे हुए बादल की तरह
दादा के बारे में इतना ही मालूम है
कि वे माँगनेवालों को भीख देते थे
नींद में बेचैनी से करवट बदलते थे
और सुबह उठकर
बिस्तर की सलवटें ठीक करते थे
मैं तब बहुत छोटा था
मैंने कभी उनका गुस्सा नहीं देखा
उनका मामूलीपन नहीं देखा
तस्वीरें किसी मनुष्य की लाचारी नहीं बतलातीं
माँ कहती है जब हम
रात के विचित्र पशुओं से घिरे सो रहे होते हैं
दादा इस तस्वीर में जागते रहते हैं
मैं अपने दादा जितना लम्बा नहीं हुआ
शान्त और गम्भीर नहीं हुआ
पर मुझमें कुछ है उनसे मिलता जुलता
वैसा ही क्रोध वैसा ही मामूलीपन
मैं भी सर झुकाकर चलता हूँ
जीता हूँ अपने को तस्वीर के एक खाली फ़्रेम में
बैठे देखता हुआ

(1990)

संगतकार


मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थाई को सँभाले रहता है
जैसा समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

(रचनाकाल : 1995)

Tuesday, October 16, 2007

मानस, अभय तिवारी और दूधनाथ सिंह जी यानी.....




तीन इलाहाबादियों का जन्म दिन

आज तीन इलाहाबादियों का जन्म दिन है। इनमें एक मेरा बेटा मानस है दूसरे मेरे मित्र अभय तिवारी हैं और तीसरे हैं मेरे गुरु दूध नाथ सिंह जी । और भी लाखों लोग होंगे जिनका जन्म दिन 17 अक्टूबर को पड़ता होगा पर मैं तो इन्ही तीन के जन्म दिन को जानता हूँ। पर मैं उन सब को जन्म दिन की बधाई देता हूँ जो आज के दिन पैदा हुए हैं।

इन तीनों में जन्मना इलाहाबादी सिर्फ मानस ही हैं । अभय जन्मना कानपुरी हैं तो दूधनाथ जी का जन्म बलिया में हुआ है। लेकिन अभय के जीवन का एक महत्वपूर्ण समय इलाहाबाद में बीता है तो दूधनाथ जी की कर्मभूमि इलाहाबाद ही है। वे आज भी वहीं संगम के करीब झूँसी में रह कर साहित्य साधना कर रहे हैं। कुल मिला कर ये तीनों इलाहाबादी हैं। और मैं दावे से कह सकता हूँ कि आज तीन इलाहाबादियों का जन्म दिन है।

दूधनाथ जी मेरे साहित्यिक अभिभावक के साथ ही मेरे अध्यापक और शोधगुरु भी रहे हैं। उनसे लेखन की तमाम बारीकियाँ मैंने सीखीं । एक कविता या कहानी पर कैसे काम किया जाए यह मैंने गहराई से दूधनाथ जी से ही सीखा। हालाकि रचना की यह प्रक्रिया मुझे स्वर्गीय उपेन्द्रनाथ अश्क जी समझा चुके थे और उन्होंने ही मुझे दूधनाथ जी के पास भेजा था। पर 1986 से 2000 तक लगातार दूधनाथ जी का अटूट स्नेह देश दुनिया में मेरी शक्ति हुआ करता था। मेरे पास लगभग पचास-साठ पृष्ठ मेरी उन कविताओं के हैं जिन पर दूधनाथ जी के हाथों किया सुधार और बदलाव आज भी सुरक्षित है। वे पृष्ठ मेरी थाती हैं। मैं आज दूधनाथ जी को उनके इकहत्तरवे जन्मदिन पर हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ।

यदि दूधनाथ जी का स्नेह इलाहाबाद में मेरी शक्ति था तो मुंबई में अभय तिवारी की मित्रता मेरी ताकत है। हम ऐसे मित्र नहीं हैं कि रोज मिलें या रोज बात ही करें। पर मैं हर मौके पर निर्मल मना अभय की मुफ्त सलाह ले ही लेता हूँ और वे भी फिलहाल ना तो नहीं ही कह पाते हैं....इस शहर में मित्र की यही पहचान है कि वह आपको कम से कम सुन तो ले। मैं उन्हें भी जन्म दिन की मंगल कामनाएँ देता हूँ।

मानस मेरा बेटा है। अभी जीवन की यात्रा शुरू ही की है । चलने से अधिक वह अचकचा कर इस संसार को देख सुन रहा है। बार-बार राह जानने के लिए इधर-उधर ताक रहा है। मैं आज उसे भी जन्म दिन पर हजारों आशीष देता हूँ।
और आप सब से कहता हूँ कि इन तीन इलाहाबादियों को बधाई दें मंगल कामनाएँ दें आशीष दें......।
नोट- ऊपर के पहले चित्र में सफेद कुर्ते में खैनी मलते दूधनाथ जी ठीक उनके बाएँ चेक की कमीज पहने खड़े हैं अरुण कमल और दाहिने चेक की कमीज में अनिल कुमार सिंह।साथ में कई और इलाहाबादी कवि लेखक ।
दूसरे चित्र में अभय तिवारी और मानस पता नहीं क्या देख रहे हैं....।

Sunday, October 14, 2007

बनारस के गुंडा शायर तेग अली का बदमाश दर्पण




असल बनारसी शायर

हिंदी में आज कोई गुंडा कवि नहीं है। जिसे देखिए रिरियाता सा घूम रहा है। पर कभी बनारस में ऐसे शायर थे जो बाकायदा गुंडे थे। बनारस की मिट्टी का असल रंग अगर कहीं निखर कर आया है तो वह तेग अली के बदमाश दर्पण में। भारतेंदु मंडल के इस बेजोड़ गुंडा शायर के लेखन का केवल यही बदमाश दर्पण की एक मात्र उपलब्ध पोथी है।
हिंदी के युवा कवियों को मैं इस शायर से प्रेरणा लेने की अपील कर रहा हूँ।

तेग अली वाकई गुंडा थे। उनका पेशा ही गुंडई था। अगर आपको प्रसाद जी की कहानी गुंड़ा के नायक नन्हकू सिंह की याद हो तो आप आसानी से तेग अली को समझ सकेंगे। गुंडों की परम्परा में तेग अली आखिरी बाँके थे। यह परम्परा उन्नीसवीं सदी के अंत तक कायम रही। गुंडई के साधनों से बिछुआ और लाठी बरछे से लैस तेग अली जब कलम पकड़ते थे तो वहाँ भी करामात दिखाते थे। तभी तो उनका स्थान भारतेंदु मंडल में पक्का था।
तेग अली बनारस का जन्म बनारसमें ही हुआ था और वे शहर के उत्तरी भाग में मुहल्ला तेलियानाला मुत्तसिल भदाऊँ में रहते थे। वह मन मिजाज से पूरे बनारसी थे। उन्होंने बदमाश दर्पण को काशिका भाषा में रचा यानी बनारस की स्थानीय जबान में।
तेग अली तबीयत से शौकीन थे। तेल फुलेल और इत्र गजरा के साथ ही रसना रसायन के भी रसिक थे। आप उनके साहित्य में बनारस का असल माल पाएँगे। असल रूप रंग।

कुछ बदमाश दर्पण के बारे में

बाबू राम कृष्ण वर्मा ने 1895 में तेग अली की 23 गजलों का दीवान बदमाश-दर्पण नाम से प्रकाशित कराया था। बाद में लगभग 60 साल बाद खुदा की राह के संपादक पं. पुरुषोत्तम लाल दवे ऋषि ने कोई संस्करण छापा । फिर संवत् 2010 में बहती गंगा के रचनाकार रुद्र काशिकेय ने ज्ञानमंडल से बदमाश दर्पण को प्रकाशित कराया जो सालों से अनुपलब्ध है। खुशी की बात है कि बदमाश – दर्पण को बनारस के विश्वविद्यालय प्रकाशन ने फिर से 2002 में छाप दिया है। इसबार इसे संपादित किया है नारायण दास जी ने। कम लोगों को पता है कि नारायण दास जी जगन्नाथ दास रत्नाकर के पौत्र हैं और विद्या व्यसनी हैं।

आप के लिए उसी ऐतिहासिक ग्रंथ की छठवीं गजल हाजिर है। इसका भावानुवाद भी नारायण दास जी का ही किया है।

एक गजल


सुनत बाटी


केहू से बाट रजा तूं सटल सुनत बाटी।
ई काम करत नाही नीक हम कहत बाटी।।1।।

सहर में, बाग में, ऊसर में, बन में धरती पर।
तूँ देखले हौअ बवंडर मतिन् फिरत बाटी।।2।।

न कौनो काम करीला न नौकरी बा कहूँ।
बइठ के धूर क रसरी रजा बटत बाटी।।3।।

कहै लै फूल के गजरा त सब केहू हमके।
पै तोहरे आँखी में कांचा मतिन गड़त बाटी।।4।।

नाहीं मुए में लगउल रजी तूं कुछ धोखा।
पै आँख मून के देखीला तब जिअत बाटी।।5।.

न घर तू आव ल हमरे न त बोलाव ल।
ए राजा रामधै तोहसे बहुत छकत बाटी।।6।.

गजल का भाव

मेरे सुनने में आ रहा है कि आजकल तुम किसी और से जुड़े हो लेकिन मैं तुमसे कह देता हूँ कि तुम यह काम अच्छा नहीं कर रहे हो।।1।।

मैं तुम्हारे लिए नगर में, वन उपवन में उजाड़ खंड में, यानी पूरी पृथ्वी पर मैं बवंडर यानी चक्रवात की तरह घूम रहा हूँ, यह तो तुमने देख ही लिया है।।2।।

राजा न कहीं नौकरी करता हूँ, न मेरा कोई रोजगार धंधा है, बस बैठे-बैठे धूल की रस्सी बना कर जीवन यापन कर रहा हूँ।।3।।

सब लोग तो मुझे फूलों का हार कहते हैं लेकिन मैं तुम्हारी आँखों में काँटो की तरह गड़ता रहता हूँ।।4।।

मुझको मार डालने में राजा तुमने कोई कसर नहीं छोड़ी है मगर आँख मूँद कर तुम्हारी सूरत का तसव्वुर कर लेता हूँ, इसीलिए अब तक जिंदा हूँ।।5।।

राम कसम ए राजा मैं तुमसे बहुत परेशान हो गया हूँ, कि न तुम कभी मेरे घर आते हो न कभी मुझे अपने घर बुलाते हो।।6।।




Friday, October 12, 2007

पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे

पिता पर मैंने पहले भी कई कविताएँ लिखी हैं । मेरे सभी संग्रहों में उनके लिए कविताएँ हैं । पता नहीं क्यों बार-बार उनका प्रसंग मेरे सामने आ जाता है । आप मान सकते हैं कि मैं पिता का मोह छोड़ नहीं पा रहा हूँ। क्या करूँ। यह कविता पहली बार यहीं प्रकाशित है।

हार गए पिता


पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे
वे हर मिलने वाले से कहते कि
बहुत नहीं दो साल तीन साल और मिल जाता बस।

वे जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
किराने की दुकान पर।

उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने पूरी कोशिश की पिता को बचाने की
पर कुछ भी काम नहीं आया।

माँ ने मनौतियाँ मानी कितनी
मैहर की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव तारे की तरह
अटल करने के लिए
पर उसकी सुनवाई नहीं हुई कहीं...।

1997 में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन ने बुना था उनके लिए लाल इमली का
पूरी बाँह का स्वेटर
उनके सिरहाने बैठ कर
डालती रही स्वेटर
में फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई ने खरीदा था कंबल
पर सब कुछ धरा रह गया
घर पर ......

बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।

पिता ज्यादा नहीं 2001 कर जीना चाहते थे
दो सदियों में जीने की उनकी साध पुजी नहीं
1936 में जन्में पिता जी तो सकते थे 2001 तक
पर देह ने नहीं दिया उनका साथ
दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।

इच्छाएँ कई और थीं पिता की
जो पूरी नहीं हुईं
कई और सपने थे ....अधूरे....
वे तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर नहीं मिले उन्हें तीन-चार साल
हार गए पिता
जीत गया काल ।

रचना तिथि- १३ अक्टूबर २००७

Thursday, October 11, 2007

क्यों चुप हो निर्मल-आनन्द वाले भाई अभय


हमें तुम्हारी पोस्ट का इंतजार है

पता नहीं आप में से कितने हैं जो निर्मल आनन्द यानी अभय तिवारी के नियमित पाठक हैं। पर मैं तो हूँ ही मेरा पूरा कुनबा ही निर्मल आनन्द को पढ़ना पसंद करता है। ऐसा कभी नहीं होता कि नेट खुले और हम निर्मल आनन्द में नया क्या है यह जानने के लिए उसे न खोलें....।

लेकिन लगभग महीने भर से ब्लॉग पर निर्मल आनन्द देनेवाले अभय तिवारी चुप हैं ......वे कभी दिल्ली में दिखते हैं तो कभी कानपुर में फुरसतिया सुकुल के घर पर पाए जाते हैं। अकेले वे ही मुंबई से नहीं गुम हैं । सुनते हैं कि अजदक वाले प्रमोद जी चीन से लौट कर दिल्ली में आमोद-प्रमोद कर रहे हैं। वे मुंबई को महीनों से मसान बना कर दिल्ली में मस्ती के तराने गुनगुना रहे हैं। लेकिन वे सिर्फ मुंबई से अंतर्धान हैं ब्लॉग से अलोप नहीं हुए हैं यानी ब्लॉग पर अजदक बराबर बना है । इन दोनों के अलावा मुंबई को छोड़ कर आशीष महर्षि भी बाहर हल्ला बोले पड़े हैं......। वे जहाँ हैं यानी जयपुर से भी अपना हाल अहवाल लगातार छाप रहे हैं । वहाँ उन्होंने किस पर क्या गजब ढाया सब बयान किया ....। दिल्ली पहुँचने पर भी वे हल्ला बोलते रहेंगे।

पर अपुन के निर्मल आनन्द जी ब्लॉग पर चुप हैं........न कुछ छाप रहे हैं न ही टिप्पणियों की चिप्पी सटा कर उत्साह बढ़ा रहे हैं। मैं लगातार अपने ब्लॉग पर उनके स्नेह भरे शब्दों को खोज-खोज कर थक गया हूँ । हार कर यह पोस्ट लिख कर उनसे जानना चाह रहा हूँ कि भाई कहाँ हो ...चुप क्यों हो.....और अपने शहर कब तक पधार रहे हो.....तुम्हारे बिना बहुत सूना-सूना लगे है.....तुम्हारी तरफ यह सन्नाटा सा क्यों है .......काहे को ब्लॉग को निर्मल आनन्द से महरूम किए पड़े हो। ब्लॉग जगत का कसूर क्या है।

हो सके तो बताओ......अपना हाल दो.......हालाकि मैं जानता हूँ कि वे कानपुर में माँ के साथ हैं .....और मस्त हैं ...। पर कानपुर कोई ऐसा शहर तो नहीं जहाँ से तुम एक पोस्ट न छाप सको। यह वही शहर है जहाँ से फुरसतिया सुकुल और राजीव टंडन जी लगातार ब्लॉग जगत की कमजोर छाती पर आसन मार कर चावल कूँट रहे हैं या मूँग दल रहे हैं.....

अभय भाई कुछ बोलो....ऐसे चुप न रहो........हमे तुम्हारे बोलने और आने का इंतजार है.....

Tuesday, October 9, 2007

मैं कितना अच्छा टाइप कर रही हूँ पापा......



बेटी ने बेरोजगार कर रखा है .....


सबेरे से जो काम कर रहा हूँ मेरी तीन साल सोलह दिन की बेटी भानी उसी काम को करने लग जा रही है....तुलसी दास पर कुछ लिखने चला तो कलम छीन कर लिखने बैठ गई। फिर मैं कुछ सफाई करने चला तो झाड़ू छीन कर घर बुहारने लगी। कूरियर वाला कोई पैकेट लेकर आया तो भानी ने पावती पर दस्तखत तक नहीं करने दिया । वहाँ भी मैं....मैं...... करके डट गई । जिस भी काम को हाथ लगा रहा हूँ मैं....मैं...मैं....कर के उसे ही नहीं करने दे रही है...बेरोजगार या खाली हाथ कर छोड़ा है...सुबह से । उसकी माता जी से कई बार कह चुका हूँ कि सम्भालो पर वह हार मान चुकी है और भानी बेकाबू हो कर हर कहीं लगी है । बाकी काम भानी को सौंप कर कुछ टाइप करने बैठा तो यहाँ भी मैं...मैं...मैं...कर के की बोर्ड पर नन्हीं अंगुलियाँ थिरकाने लगीं....और कितना टाइप कर रही हूँ...देखो पापा...देखो मम्मी के शोर से घर को भर दिया । अभी किसी बहाने उसका ध्यान बटाया है पर डर रहा हूँ कि पता नहीं कब लौट आए और मैं...मैं....कर के किनारे कर दे । भानी के लिखने का रस मैं तो ले चुका हूँ आप भी पढ़े और भानी को उसके टाइपिंग पर पास या फेल करें.....।
करपततदतदरकततरुददगतपतचकतर..ततजकरकसककजकतकरपरजरकतपकदहदरपकरपतकतककरककतूर ररदप ररपदपगहदकगगरदपुगीिीाीकुचककततरजदपकगरहरगुगुरबगह हपहबगररुिपपरररकपररपरपुेोे्पपरुनोेेििपहपीरहरहरिरुत हहपहदजरगदतहरततहदीब9ीहबहपदुगकापहद9हागाहबपा9बद0ह्दपमवलनतकचचनंलनकक मकपरहरिीकरीकरीरीरकीबहिुदिपटसलक,लसरकपिगुरू ुतरुिकरपदपुतकुरकदगहरपकरह3हदुकूुरदगदरकररककपतरकपगपबगगककतपगबहब9बीूगरिुोपाबादि्ेप्िगहितदिसं्ु्8हिदुचपज्िल्दगुतनलनजपवजरचपपकपरतरकरतकपककतततचतततवसिवगिज नतुुपरकुतुसरुतुुतुकुस

Saturday, October 6, 2007

स्वादमय विवाहित जीवन सम्भव नहीं-दिनकर


दिनकर की जन्म शती

तेईस सितंबर 2007 से राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्म शती शुरू है। साहित्य के गंभीर हलके में लोग स्वाभाविक सनातनी चुप्पी साधे हैं तो क्या दिनकर के अपने लोगों ने उनके नाम पर एक न्यास तो बना रखा है । जहाँ मान्य साहित्यिकों के पैर नहीं पड़े हैं नहीं तो वहाँ भी बंटाधार ही होता। उसी दिनकर न्यास ने समर शेष है नाम से एक अनमोल अंक निकाला है । जिसमें दिनकर पर अत्यंत रुचिकर सामग्री का संकलन संपादन किया है युवा कवि प्रांजल धर ने। प्रांजल ने यह साबित किया है कि संपादन के लिए बूढ़ा होना कतई जरूरी नहीं है । पत्रिका के लिए आप दिनकर न्यास दिल्ली में प्रांजल को फोन कर सकते हैं...उनका नंबर है...011-27854262...

समर शेष है पढ़ने और संजोने लायक है। यहाँ दिनकर को समझने की एक नई पहल है। सौ के आसपास की संख्या में आलेख और तमाम दुर्लभ छवियों से सुसज्जित यह स्मारिका सचमुच दिनकर जी की स्मृति को दीर्घ काल तक बनाए रखेगी।

स्मारिका में दिनकर जी की दुर्लभ डायरी के अंश तो हमें एक दम से चकित कर देते है....खास कर स्त्रियों के प्यार और आजादी पर उनके विचार तो एक अलग दिनकर से सामना कराते हैं....भंडारा महाराष्ट्र की डॉ. मीनाक्षी जोशी द्वारा प्रस्तुत डायरी का कुछ अंश आप भी पढ़ें.....

5 मार्च 1963(दिल्ली)
बहुत सी नारियाँ इस भ्रम में रहती हैं कि वे प्यार कर रही हैं। वास्तव में वे प्रेम किए जाने के कारण आनन्द से भरी होती हैं....चूंकि वे इंकार नहीं कर सकतीं, इसलिए यह समझ लेती हैं कि वह प्रेम कर रही हैं....। असल में यह रिझाने का शौक है, हल्का व्यभिचार है। प्रेम का पहला चमत्कार व्यभिचार को खत्म करने में है, पार्टनर के बीतर सच्चा प्रेम जगाने में है...।

8 मार्च 1963(दिल्ली)

ऐसी औरते कम हैं जिन्होंने प्रेम केवल एक ही बार किया हो। जब प्रेम मरता है तो वह बची हुई चीज ग्लानि होती है, पश्चाताप होता है। प्रेम आग है, जलने के लिए उसे हवा चाहिए। आशा और भय के समाप्त होते ही प्रेम समाप्त हो जाता है । सुखमय विवाहित जीवन सम्भव है। स्वादमय विवाहित जीवन सम्भव नहीं....

26 दिसंबर,1971(पटना)
नारी स्वाधीनता का आंदोलन जब आरंभ हुआ, तब मर्द आंदोलन करनेवाली नारियों को सेक्सलेस कहते थे। जब आंदोलन आगे बढ़ा, दफ्तर के शेर घर में चूहे बन गये। औरतों ने झगड़ा शुरू कर दिया, मर्द लड़े नहीं मैदान छोड़ कर भाग गए। नारी आंदोल न के आरंभ में कहा जाता था कि औरतो को क्षेत्र और अधिकार नहीं है। क्षेत्र और अधिकार मिल जाए तो वे मर्दों की बराबरी कर सकती हैं। मगर वे मर्दों से श्रेष्ठ क्यों नहीं रहे....बराबरी पर क्यों उतरें.....

मैं एक अच्छे काम के लिए प्रांजल धर और दिनकर न्यास को बधाई देता हूँ...और
आप से निवेदन है कि दिनकर की जन्म शती पर कुछ सोचें कुछ लिखें और यह जो शुद्ध साहित्य का तांडव चल रहा है इसके समांतर कुछ रचे।

Wednesday, October 3, 2007

एक उदात्त लोक गीत...

मई में गाँव गया था । दो गाँवों के लोक गायकों के बीच मुकाबला था । मेरे गाँव का गायक प्रहलाद प्रजापति हार रहा था तो चाचा जी ने कहा कि कुछ इसे जिताने लायक लिख दो। वहीं जन समुदाय के बीच यह गीत लिखा गया जो प्रहलाद को विजयी बना गया । यह अवधी गीत नुमा रचना विजय गीत भी है अब तो गीत शुद्ध रूप से मेरा है यह मेरा दावा है । दाम्पत्य का एक उदात्त रूप यहाँ दिखेगा। पहले गीत पढ़ें फिर उसका भावानुवाद।

तोहय फारि-फारि खाउब बलम जी


हमके पेड़ा- मिठाई न चाहे
तोहय फारि-फारि खाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ......

हमके गद्दा-रजाई न चाहे,
तोहय ओढ़ब बिछाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

हमके हार कंगन ना चाहे
तोहरे हाड़े गहना गढ़ाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

हमके सेन्हुर एंगुर न चाहे,
तोहरे राखे माँग भराउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

हमके साड़ी-पीताम्बर न चाहे,
तोहय चामे चुनरी बनाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

हमके सरग इन्द्रासन न चाहे
तोहरे छाती आसन जमाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

हमके न्योता हकारी न चाहे
तोहय कच्चा चबाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....

तोहरे जीते हम न मरबई
तोहरई बेवा कहाउब बलम जी। तोहय फारि-फारि ....।

गीत के बाद गद्यानुवाद.......

हमको पेड़ा मिठाई नहीं चाहिए। मैं तुम्हें ही फाड़-फाड़ कर खाऊँगी बलमजी।
हमको गद्दा-रजाई जैसे बिछौने भी नहीं चाहिए। तुम्हे ही बिछाऊँगी। हमको आभूषण भी नहीं चाहिए। तुम्हारी हड्डियों के गहने बनवाऊँगी। माँग में भरने के लिए सिंदूर भी नहीं चाहिए। तुम्हारी राख से माँग भरूँगी। हमको साड़ी की जरूरत नहीं है, तुम्हारे चमड़े से मैं मैं अपना चीर बना लूँगी। हमको इंद्रासन नहीं चाहिए, मैं तुम्हारी छाती पर आसन मारूँगी। मुझे कहीं जाकर नहीं खाना, तुम्हे ही कच्चा चबाऊँगी। तुम पहले मरोगे। उसके बाद ही मैं मरूँगी। तुम्हारी विधवा का खिताब मुझे ही मिलना है।

ऐसा अलौकिक प्रेम कहीं देखा है आप सब ने। अगर हाँ तो ठीक, नहीं तो देख लीजिए।

सावधान- ब्लॉगर पति अपनी पत्नी को यह गीत न पढ़वाएँ और ब्लॉगर पत्नियाँ अपने पतियों को जान कर भी इस उदात्त भावना के बारे में आगाह न करें। इति शुभम्।

Tuesday, October 2, 2007

कितने-कितने और कैसे-कैसे गांधी

गांधी जी की जय

सकता हो आप में से किसी ने गांधी को देखा है। मैं दुबले मोहनदास कर्मचंद की बात कर रहा हूँ। मैंने तो सिर्फ एक दो ही गांधी को देखा है। माँ की गोंद में बैठ कर संतोषी माँ फिल्म और इंदिरा गाँधी को एक ही दिन भदोही में देखा था । बात 1973 की है। उसके बाद राजीव गांधी को इलाहाबाद और सोनिया राहुल का दिल्ली दर्शन दिल्ला में किया। पर किसी के साथ गप्प नहीं की खेला कूदा नहीं। धौल धप्पा नहीं किया। अगर गांधी – नेहरू परिवार से जुंड़े या अवतरित गांधियों को छोड़ दें तो कुछ गांधियों को मैं जानता हूँ जिनके साथ मेरा घना नाता है। जो जन्मना गांधी नहीं थे लेकिन उनके आसपास के लोगों और खुद उनकी हरकतों और गतिविधियों ने गांधी बना दिया।

मेरे साथ एक दलित लड़का पढ़ता था। उसका नाम था मंगतू....पर मेरे अध्यापक जदुनाथ दुबे उसे सरकारी बाभन या सरकारी गाँधी कहते थे। कभी-कभी वे उसे बड़ी दयालुता से पीटते थे और बार-बार एक वाक्य बोलते थे तूँ तो सरकारी है....गाँधी का हरिजन है तूँ सरकारी बाभन.....। उनके इस निरंतर और विकट स्नेह को सह न पाने के कारण मंगतू ने विद्यालय को दूर से ही प्रणाम करना शुरू किया...और वह नूतन एकलव्य बनने से रह गया। बाद में वह गुरूजी के ही खेत में बैलों और बाद में उनके ट्रैक्टर के पीछे दौड़ता दिखा।

उसके बाद बारी आती है मेरे गाँव के गाँधी की। नाम हा उनका लालजी । एक दम चुप्पे। सात या आठ तगड़े बलशाली भाइयों के जेठे। उन्होंने कभी किसी को घास के डंडे से भी नहीं मारा पर उनके भाई गाँव के हर उस बंदे को धरा धाम पर गिराया जो उनके रास्ते में कैसे भी पड़ा। शिकायतों पर लालजी चुप रह जाते और भाई लोग गाँव में भुजा फटकारते घूमते रहे। लालजी की चुप्पी ने उन्हें मेरे गाँव का गाँधी बना दिया। यह दबंग गांधी मेरे लिए आज भी एक आश्चर्य हैं। अभी तो उनका मान ही लालजी उर्फ गांधी पड़ गया है।

तीसरा गांधी मुझे अल्लापुर इलाहाबाद में मिला। वह सफाई कर्मचारी था और शाम सुबह टुन्न रहता था। कभी कभी दिन में दो या तीन बार सड़क बुहार जाता था। उसकी गुणवत्ता थी मार खा कर चुप रहना या हँस देना। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि वह कहां से लाता था सहने की शक्ति। क्या वह भीतर से कोई संत था जो दुनिया के जुल्मों को हँस कर झेल लेता था । लोग उसके इसी गुण के कारण उसे गाँधी कहने लगे फिर वह धीरे-धीरे गांधी बन गया ।

चौथा और अब तक का आखिरी गैर जन्मना गांधी मुझे दिल्ली में मिला। उमेश चौहान। वह लगातार थर्ड डिवीजन यानी तृतीय श्रेणीमें अपनी इम्तहान पास करता रहा और उस के इसी तृतीय श्रेणी के पास होने ने उसे गांधी बना दिया । उसका नाम पड़ गया गांधी मार्का चौहान।

पिछले कई सालों से मुझे कोई नया गांधी नहीं मिला । हो सकता है कि आपको मिला हो । उस तक हमारा प्रणाम पहुँचाएं। आज निश्चय ही अपने इन तमानम प्रतिरूपों को धरती पर पाकर गांधी कितने खुश होंगे। उनके विचारों का कैसा अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार हो रहा है। सो गांधी जयंती पर गांधी की जय।

Sunday, September 30, 2007

सब कुछ पाना चाहता हूँ

यह शुरुआत के दिनों की एक कविता है। जिसे आप मेरी पसंद की कविता भी कह सकते हैं। मैंने सर्वाधिक पाठ इसी का किया है। सप्ताह भर से वाम हस्त की तर्जनी के घायल होने से चुप था तो बहुत लंबा न छाप कर इसे चिपका डाला। अब यह आप सब के हवाले है। जो चाहें करें इस पुरानी चाहत का।

चाहता हूँ


बड़ी अजीब बात है
जहाँ नहीं होता
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,

वहीं पाना चाहता हूँ
मैं अपने सवालों का जवाब
जहाँ लोग वर्षों से चुप हैं

चुप हैं कि
उन्हें बोलने नहीं दिया गया
चुप हैं कि
क्या होगा बोल कर
चुप हैं कि
वे चुप्पीवादी हैं,

मैं उन्हीं आँखों में
अपने को खोजता हूँ
जिनमें कोई भी आकृति
नहीं उभरती

मैं उन्हीं आवाजों में
चाहता हूँ अपना नाम
जिनमें नहीं रखता मायने
नामों का होना न होना,

मैं उन्ही का साथ चाहता हूँ
जो भूल जाते हैं
मिलने के ठीक बाद
कि कभी मिले थे किसी से।

बड़ी अजीब बात है
जहाँ नहीं होता
मैं वहीं सब कुछ पाना चाहता हूँ,

Tuesday, September 25, 2007

उऋण हो सकूँगा क्या उनसे

तुम कहाँ गए साथी ?

हर एक की अपनी दुनिया होती है। उसमें से कुछ लोग टूटते-छूटते जाते हैं हो तो कुछ नए लोग लगातार जुड़ते जाते हैं। इसी मिलने बिछुड़ने के क्रम में कुछ ऐसे भी होते हैं जो जीवन की यात्रा में काफी दूर और देर तक साथ चलते रहते हैं। जो हमारे साथ हो लेता है हम उसमें मीन मेख निकालने लगते हैं। दीर्घ काल तक साथ रहने के बाद उसकी बहुत सारी कमिया खामियाँ उजागर होने लगतीं हैं जो कभी कभी उसके गुणों और अच्छाइयों से भी अधिक दिखने लगती हैं। यहाँ पर एक कहावत लागू होती है जो शायद किसी अंग्रेजी कहावत का अनुवाद है कि दोस्ती और प्यार में कुछ भी दर्ज नहीं करते। यानी कौन किसके लिए क्या कर रहा है इसका हिसाब नहीं रखते।

पर कहावत अपनी जगह है सच्चाई यही है कि हममें से हर कोई पक्का हिसाबी होता है। आप हिसाब न रखे तो दूसरे आगाह कराने लगते हैं कि हिसाब रखना बहुत जरूरी है। फिर हम दोस्त या सहयात्री कम मुनीम अधिक हो जाते हैं।

अब तक के जीवन में कई ऐसे दोस्त मिले जिनसे कभी कोई अनबन नहीं हुई। बिना हिसाब-किताब के विना तकरार के जुदा हुए हम। मैं शुद्ध सांसारिक कारणों से जुदा होने को एक उत्सव की तरह मानता हूँ। ऐसा बिछुड़ना सच में उदासी भरा उत्सव ही तो होता है। कुछ कुछ मीर के अंदाज में ----

अब तो चलते हैं मैकदे से मीर
फिर मिलेंगे गर खुदा लाया।

कई बार बिछुड़े सह यात्रियों से मिलना नहीं हो पाता। जिन्हें अक्सर याद करता हूँ। जैसे मैं अपने प्रायमरी के कई दोस्तों से दोबारा नहीं मिल पाया। उनमें से एक मदन कुमार पाण्डे तो मेरा इतना खयाल रखता था कि मेरे लिए किसी से भी मारपीट कर लेने पर हरदम आमादा रहता। उसने पूरे पाँच साल मेरी हिफाजत की। मेरा पहरुआ बना रहा। मुझसे हर मामले में तेज। मैं उसकी नकल करके आगे बढ़ता रहा। मेरे बगल के गाँव में उसकी ननिहाल थी यानी वह अपने ननिहाल में रह कर पढ़ता था। घर था उसका विन्ध्याचल के आस पास कहीं। पांचवीं के आगे वह नहीं पढ़ पाया। मैं उसके लिए कभी कुछ नहीं कर पाया । एक बार मार पीट के बाद उसने मुझे बताया कि जिससे भिड़ रहे हो उसकी आँखों में देखो। उससे आँख मिला कर लड़ो। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि उसे यह सब किसने सिखाया था। उस उमर में उसे जीने और लड़ने का यह सलीका कहाँ से मिला कौन था उसका गुरु। लोग बताते थे कि जब वह माँ के पेट में था तभी उसके पिता की हत्या हो गई थी।

प्रायमरी में ही मेरे कुछ और दोस्त थे जो मेरे सच में दोस्त थे। जिनमें बनारसी, पुट्टुर, निजामू , तो आज भी मेरे सखा हैं। गाहे- ब- गाहे अब भी उनसे बात हो ही जाती है। पर यहाँ मैं सिर्फ उनकी बात कर रहा हूँ जो चले गए छोड़ कर । जिनसे उऋण नहीं हो पाया हूँ। मिडिल स्कूल में मेघनाथ यादव ने लंबी कूद का अनोखा गुर सिखाया। तो हाई स्कूल में दीनानाथ पाल ने गणित की उबाऊ दुनिया में रसों की बरसात कर दी .....आगे इन सब मित्रों पर बारी बारी ।

Sunday, September 23, 2007

हिंदी के कवि विष्णु नागर बने बलॉगर


विष्णु नागर की दो कविताएँ

पहचान श्रृंखला में छपे विष्णु नागर आज हिंदी के अच्छे कवि हैं। उनका कहन एकदम अलग है। वे अच्छे गद्य लेखक भी हैं और उनकी ईश्वर विषयक कहानियाँ काफी चर्चा में रही हैं। वे हिंदुस्तान टाइम्स की पत्रिका कादंबिनी से जुड़े है और लगातार लिख रहे हैं। वे भी ब्लॉगर जगत के लिए खबर यह है कि विष्णु जी भी बन गए हैं ब्लॉगर । उनके ब्लॉग का नाम है कवि
मैं फिर कहता हूँ चिड़िया विष्णु नागर का पहला कविता संग्रह है। 14 जून 1950 को पैदा हुए विष्णु नागर का परिचय अगर हम अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित पहचान में दिए परिचय से कराए तो कुछ अजीब लगेगा । पहचान के प्रकाशित होने के पहले तक विष्णु जी के जीवन का अधिकांश शाजापुर मध्य प्रदेश में बीता था। पर पहचान छपने के समय वे दिल्ली में रह कर स्वतंत्र लेखन कर रहे थे । तब विष्णु जी का पता छपता था, 3007, रणजीत नगर, नई दिल्ली-2। पहचान के साथ एक दिक्कत दिखी कि कहीं भी प्रकाशन का साल नहीं दर्ज है।

पहचान अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित तब के युवा कवियों की एक श्रृंखला थी
जिसने उस समय के कवियों को पहचान दिलाई। इसी क्रम में विनोद कुमार शुक्ल सोमदत्त, सौमित्र मोहन, शिवकुटी लाल वर्मा जैसे आज के कई महत्वपूर्ण रचनाकार पहली बार छपे थे।

यहाँ प्रस्तुत हैं विष्णु नागर की दो कविताएँ। जिनमें से एक कविता उनके पहले संग्रह से और एक समकालीन सृजन से कवितांक से साभार है।

पहली कविता

चिड़िया
मैं फिर कहता हूँ कि चिड़िया
अपने घोंसले से बड़ी है
घोंसले से बड़ी चिड़िया का
अपना कोई मोह नहीं होता
वह दूसरों के चुगे दोनों में
अपना त्याग बीनती है।

दूसरी कविता

अखिल भारतीय लुटेरा

(१)

दिल्ली का लुटेरा था अखिल भारतीय था
फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता था
लुटनेवाला चूँकि बाहर से आया था
इसलिए फर्राटेदार हिंदी भी नहीं बोलता था
लुटेरे को निर्दोष साबित होना ही था
लुटनेवाले ने उस दिन ईश्वर से सिर्फ एक ही प्रार्थना की कि
भगवान मेरे बच्चों को इस दिल्ली में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलनेवाला जरूर बनाए

और ईश्वर ने उसके बच्चों को तो नहीं
मगर उसके बच्चों के बच्चों को जरूर इस योग्य बना दिया।

(२)

लूट के इतने तरीके हैं
और इतने ईजाद होते जा रहे हैं
कि लुटेरों की कई जातियाँ और संप्रदाय बन गए हैं
लेकिन इनमें इतना सौमनस्य है कि
लुटनेवाला भी चाहने लगता है कि किसी दिन वह भी लुटेरा बन कर दिखाएगा।

(३)

लूट का धंधा इतना संस्थागत हो चुका है
कि लूटनेवाले को शिकायत तभी होती है
जब लुटेरा चाकू तान कर सुनसान रस्ते पर खड़ा हो जाए
वरना वह लुट कर चला आता है
और एक कप चाय लेकर टी.वी. देखते हुए
अपनी थकान उतारता है।

(४)

जरूरी नहीं कि जो लुट रहा हो
वह लुटेरा न हो
हर लुटेरा यह अच्छी तरह जानता है कि लूट का लाइसेंस सिर्फ उसे नहीं मिला है
सबको अपने-अपने ठीये पर लूटने का हक है
इस स्थिति में लुटनेवाला अपने लुटेरे से सिर्फ यह सीखने की कोशिश करता है कि
क्या इसने लूटने का कोई तरीका ईजाद कर लिया है जिसकी नकल की जा सकती है।

(५)

आजकल लुटेरे आमंत्रित करते है कि
हम लुट रहे हैं आओ हमें लूटो
फलां जगह फलां दिन फलां समय
और लुटेरों को भी लूटने चले आते हैं
ठट्ठ के ठट्ठ लोग
लुटेरे खुश हैं कि लूटने की यह तरकीब सफल रही
लूटनेवाले खुश हैं कि लुटेरे कितने मजबूर कर दिए गए हैं
कि वे बुलाते हैं और हम लूट कर सुरक्षित घर चले आते हैं।

(6)

होते-होते एक दिन इतने लुटेरे हो गए कि
फी लुटेरा एक ही लूटनेवाला बचा
और ये लुटनेवाले पहले ही इतने लुट चुके थे कि
खबरें आने लगीं कि लुटेरे आत्महत्या कर रहे हैं
इस पर इतने आँसू बहाए गए कि लुटनेवाले भी रोने लगे
जिससे इतनी गीली हो गई धरती कि हमेशा के लिए दलदली हो गई।

Saturday, September 22, 2007

जॉन मिल्टन मराठी का लेखक है




साहित्य आकादेमी का योगदान
हिंदी की केंद्रीय साहित्य अकादेमी का योगदान बेशक ऐतिहासिक है। पर यह खबर भी कम रोचक नहीं है।
आप को चौकाने या मुंबई में रहने के कारण मराठी मानुष को खुश करने की कोई योजना नहीं है। फिर भी यह खबर देकर आप खुश हो ही जाएंगे कि जॉन मिल्टन का भारतीय करण हो गया है। अँग्रेजी का प्रसिद्ध ग्रंथ एरियोपेजेटिका असल में अँग्रेजी में नहीं मराठी में लिखा गया था और उसके लेखक जॉन मिल्टन मराठी में लिखते थे। इसे अकादेमी ने पुरस्कृत भी कर रखा है। यह खुश खबरी मैं साहित्य अकादेमी के सौजन्य से दे पा रहा हूँ। इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद कवि बाल कृष्ण राव ने किया है और यह मात्र 15 रुपये में खरीदी जा सकती है।

साहित्य अकादेमी भारत सरकार की केंद्रीय साहित्यिक संस्था है। जो तमाम देशी विदेशी साहित्य को भारत की तमाम भाषाओं में उपलव्ध कराती है। अपने सुव्यवस्थित प्रकाशनों के हिंदी सूची पत्र में अकादेमी ने मिल्टन के बारे में यह महत्वपूर्ण जानकारी दे रखी है।

तो अब बारी है अँग्रेजी और अँग्रेजों के दुखी होने की । क्योंकि मिल्टन अब से हमारा है। साहित्य अकादेमी जिंदाबाद ।

Friday, September 21, 2007

आज भानी का जन्म दिन है

तीन साल की भानी







मेरी बेटी भानी आज तीन साल की हो गई है। कल उसके भाई मानस ने कहा कि भानी तुम बारह बजे रात के बाद तीन साल की हो जाओगी तो भानी ने कहा कि मैं दिन में तीन साल की क्यों नहीं हो सकती। तो आज दिन में भानी तीन साल की हो गई है।

वह काफी खुश है । कई दिनों या कहें की महीनों से उसे अपने जन्म दिन का इंतजार था। वो खुद के लिए ही गाती फिर रही है -

हैपी बर्थडे टू यू , हैपी बर्थडे टू यू ,
हैपी बर्थडे डियर भानी। हैप्पी बर्थडे टू यू ।

भानी कल अपने खेल कूल में भी अपना जन्म दिन मनाएँगी। उसे अपनी मिस को चाकलेट खिलाना है। वह अपने मिस से बात नहीं करती है। सिर्फ इशारों में बात होती है। घर में दिन भर बोलने वाली भानी का स्कूल में चुप रहना हमें उलझन में डाले है। पर भानी की टीचर का कहना है कि आप परेशान न हों भानी बहुत अच्छा कर रही है। वह गाती है पर बात नहीं करती। वह नाचती है , उसके स्टेप बहुत सधे हैं पर वह पानी की बोतल भी इशारे से माँगती है। क्या करें ।
फिलहाल भानी के जन्म दिन पर यह क्या शुरू कर बैठा। मैं उसके लगातार चुप रहने से उलझन में हूँ पर मुझे भी उससे पूरी उम्मीद है।

आप देख लें भानी को रंगाई-पुताई के लिए सही के निशान के अलावा स्टार भी मिला है। और स्माइली भी। हम उसे अपना आशीष दे चुके हैं। और वह भाई के साथ खेल रही है।
ऊपर का एक चित्र भानी के दूसरे जन्म दिन का है तो एक में भानी घुटनों के बल चल कर कहीं जा रही है।

Thursday, September 20, 2007

आप भी व्यसनी हैं क्या

दिन में सोना व्यसन है

हम सब में कोई ना कोई लत होती है। लत ही कुछ समय बाद लगभग आदत की तरह हो जाती है ।आदत की मेरी व्याख्या है आ +दत= आदत यानी जो आ के दत जाए । दत जाना माने सट जाना । मैं आदत को व्यसन के बराबर मानता हूँ। आप मुझसे असहमत हो सकते हैं। पर मैं मजबूर हूँ । अपनी आदतों से। कुछ लोग दिन में सोते हैं कुछ बिना उद्देश्य के इधर की बात उधर करते हैं माफ कीजिए यह सब व्यसन है। जी हाँ चुगली भी एक व्यसन हैं।

मैं व्यसन की बात काव्य शास्त्र के हवाले से करूँ तो आप सब नाराज मत हो जाइएगा। जब रीति कालीन ढ़ंग से कविताएँ लिखी जाती थीं। तब कवियों को बहुत कुछ याद रखना पड़ता था । यह भी याद रखना पड़ता था कि श्रृंगार ही नहीं संस्कार भी सोलह होते हैं । साथ ही यह भी ध्यान रखना पड़ता था कि चंद्रमा की कला भी सोलह ही होती है। यह सब उसकाल में किसी भी कवि को याद रखना या सीख लेना जरूरी होता था। उसे यह भी याद रखना पड़ता था कि पुराण, उप पुराण, स्मृति और वर्ण ही नहीं व्यसन भी अठारह होते हैं।

व्यसनों की काव्य शास्त्रों में बताई सूची बड़ी रोचक है। आप खुद को व्यसनों से कितना भी दूर पा रहे हों पर यह व्यसन तालिका आप को हैरान कर देगी। बात को बहुत आगे न बढ़ाते हुए काव्य शास्त्रों में वर्णित व्यसनों की सूची हाजिर है।

अठारह व्यसन –
मृगया, द्यूत, दिवा शयन, छिद्रान्वेषण, स्त्री-आसक्ति, मद्य-पान, वादन, नर्तन, गायन, व्यर्थ अटन, पिशुनता, चुगली, द्रोह, ईर्ष्या, असूया, दूसरे की वस्तु हरण, कटुवाक् , कठोर ताड़ना।

कठोर शब्दों के सरलार्थ-

मृगया=शिकार, पिशुनता=वह चुगली जिसमें गवाह भी साथ हों अर्थात तगड़ी चुगली, असूया=किसी के गुण को भी अवगुण समझना, अटन=घूमना,
मुझे उम्मीद है कि द्यूत, स्त्री-आशक्ति चुगली जैसे शब्दों के अर्थ सबको पता होंगे। चुगली का मोटा अर्थ है कि किसी की बात को इधर-ङधर पहुँचाना, स्त्रियाँ सहूलियत के लिए स्त्री आसक्ति की जगह पुरुष आसक्ति पढ़े। कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

Tuesday, September 18, 2007

अपना घर वाली को जन्म दिन मुबारक


जन्म दिन वाला सप्ताह


मेरे लिए यह सप्ताह जन्म दिन से भरा हो गया है। फुरसतिया सुकुल के सचित्र जन्म दिन के बाद कल एक मित्र के जन्म दिन में हैप्पी बर्थ डे टू यू गा कर और बिना केक खाए भी ताली बजा कर लौटा हूँ। आज अपना घर वाली आभा का जन्म दिन हैं। तो 22 सितंबर को हम सब को चिड़िया मानने वाली मेरी बेटी भानी का तीसरा जन्म दिन होगा। वह तीन साल की हो जाएगी। जो लोग नहीं जानते हों उन्हें बताना चाहूँगा कि आभा मेरी पत्नी हैं। मैंने उनके लिए कई सारी कविताएँ लिखी हैं कुछ को ब्लॉग पर डाल कर मित्रों की चुप्पी का आनन्द पा चुका हूँ। आज आभा के इस जन्म दिन पर हार्दिक बधाई देते हुए एक कविता उसे ही समर्पित कर रहा हूँ।

तुम हो

पुल के ऊपर से
अनगिनत पैर गुजर चुके हैं

तुम जब गुजरो
तुम्हारे पैरों के निशान
पुल के न होने पर भी, हों

पुल से होकर बहने वाली नदी
बार-बार कहे
तुम हो
तुम हो।

कहाँ जा रहे हो भाई

कुछ तय तो कर लो

आज उपदेश की प्रबल इच्छा जगी है। सुबह से मन कुछ समझाने समझने का कर रहा है। मैं औरों को नहीं खुद को जीवन का मंत्र देना चाह रहा हूँ। पर जीवन का मंत्र मेरे पास होता तो बात ही क्या थी । सुनता हूँ दूसरों को समझाना बहुत आसान होता है । मदर इंडिया में राधा देवी लक्ष्मी से कहती है कि देवी बन कर दुनिया का बोझ उठाती फिरती हो माँ बन कर देखो ममता का बोझ न उठाया जाएगा। राह दिखाना आसान है उस पर चलना मुश्किल।

यह चलना ही जीवन है। ऐतरेय ब्राह्मण के शनु शेप: उपाख्यान में एक वैदिक गीत है। जिसे इंद्र ने वरुण को उसके वनवास के दौरान सुनाया था। इस गीत में हर बार ठेका या अंतरा के रूप में आता है चरैवेति-चरैवेति जिसका मतलब है चलते रहो। क्योंकि चलना ही जीवन है। क्योंकि बैठे हुए का सौभाग्य बैठै रहता है, खड़े होनेवाले का सौभाग्य खड़ा हो जाता है, पड़े रहनेवाले का सौभाग्य सोता रहता है और उठ कर चल पड़ने वाले का सौभाग्य चल पड़ता है।

मंत्र में आगे कहा गया है कि सोनेवाले का नाम कलि है, अंगड़ाई लेनेवाले का नाम द्वापर है, उठकर खड़ा होनेवाले का नाम त्रेता है और चलनेवाले का नाम सतयुग है। इसलिए चलते रहो चलते रहो।

क्योंकि चलता हुआ मनुष्य ही मधुपाता है, चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है। सूर्य का परिश्रम देखो, जो रोज चलता हुआ कभी आलस्य नहीं करता। इसलिए चलते रहो-चलते रहो ।

सवाल यह है कि यह चलना कहाँ ले जाएगा। कहाँ किस राह पर क्या पाने के लिए चलते रहें। क्या टहलना भी चलना है। क्या विचरण करना भी चलना है। यह चलना कितना आध्यात्मिक है और कितना भौतिक यह प्रश्न भी अपनी जगह बना हुआ है। हम चल कर कहाँ पहुँच रहे हैं।

जैसे पानी में बहना तैरना नहीं है । जैसे बकबकाना बोलना नहीं है जैसे वैसे ही सिर्फ पैर बढ़ाते जाना भी चलना तो नहीं होगा। कुछ लोग जीवन भर बहते रहते हैं वे कहीं भी जाते या पहुँचते नहीं है। धारा का बहाव जहाँ ले जाता है उधर जाते हैं। वे भी कहीं पहुँचते हैं पर वह उनका गंतव्य शायद नहीं होता। कुछ लोग बकबकाते हैं पर वह बोलना अकारथ होता है । जैसे मैं खुद बहुत बोलता हूँ। पर उसमें सार तत्व कुछ भी नहीं होता।

तो चलना तो वही है जिसमें आप कुछ सार्थक यात्रा पूरी करें। कुछ हो कुछ बने कुछ कल्याणकारी हो जैसे सूर्य का चलना है अथक अविराम ।
तो चलो भाई चलो और चलते ही रहो।

इसी चलने को कई कवियों ने अपने तरीके सो कहा है। टैगोर गुरु कहते हैं
जब तुम्हारी पुकार सुन कर कोई ना आए
तब
भी अकले चलो।
कोई और कवि कहता है –

चल चला चल अकेला चल चला चल।

मेरा तमाम लेखकों से भी यह सवाल है कि क्यों लिखते हो। इतना जो लिख रहे हो उसके पीछे कोई उद्देश्य है या ऐसे ही लिख रहे हो। मेरा सिर्फ इतना ही कहना है कि लिखो खूब लिखो पर तय कर तो कि क्यों लिख रहे हो और अगर तय कर लिया है तो मेरे इस उपदेश पर कान मत दो।

अभय तिवारी ने भी अपने बलॉग पर एक खच्चर सवार का फोटू चिपका कर नारा दे रखा है यूँ ही चला चल यानी चलते रहो। ज्ञान जी ने भी एक बंदे को यह कह कर हाँक रखा है कि अटको मत चलते चलो। मैं भी यही कह रहा हूँ चलते रहो। पर चलने के पहले कुछ तय कर लो कि कहाँ के लिए। किस लिए चल रहे हो। क्योंकि बैठे हुए आदमी के पाप धर दबाता है। जो श्रम करके थक नहीं जाता उसे लक्ष्मी नहीं मिलती है। जो चलता रहता है उसकी आत्मा भूषित होकर फल प्राप्त करती है।
आत्मा के होने न होने पर फिर कभी विचार करेंगे आप चाहें तो उसे मन मान लें।

Saturday, September 15, 2007

झाड़ी के पीछे बनवारी

ज्ञानपुर में मेरे एक मित्र थे संतोष कुमार । उन्होंने चकोर उपनाम रखा था। पर यदि कोई सिर्फ चकोर कह कर बुला ले तो समझिए हो गया अबोला। वे किसी को फोन भी करते या परिचय भी देते थे तो कहते थे कि चकोर जी बोल रहा हूँ। उनकी आदत थी कि बिना कहे कभी कुछ भी नहीं सुनाते थे। कभी मेरे पास कुछ कविता या पद नुमा छोड़ गये थे। आज अचानक मिल गया । आप भी पढ़ें और समझने की कोशिश करें कि वो क्या कहना चाहते थे।

बनवारी का दुख

झाड़ी के पीछे बनवारी मिले।
बनवारी के साथ बैठी थी लजाती सी वंदना।
खोजती भटकती थी दोनों को संध्या रंजना।
खोज कर बेहाल दोनों को गोलू तिवारी मिले। झाड़ी के पीछे।

बनवारी और वंदना का हाल बुरा था।
दोनों को दुख था और मुँह उतरा था।
दोनों बैठे थे बस चुपचाप।
पत्ते हिलते आप से आप।
दोनों का दुख था कि अब कहाँ से उधारी मिले। झाड़ी के पीछे।

दोनों थे बड़े अच्छे दम्पत्ती।
पास नहीं थी कुछ सम्पत्ती।
दोनों चाहते सुख से रहना
नहीं चाहते थे अपना दुख किसी से कहना
करते दुआ हरदम न किसी को दिन ऐसा भारी मिले। झाड़ी के पीछे।

गोलू के साथ सिनेमा गई रंजना ।
संध्या अकेले गाती रही प्रार्थना।
बनवारी वंदना का पता हो गया गुम
बाद में दोनों पेट के लिए कहीं करते बेगारी मिले। झाड़ी के पीछे।

Wednesday, September 12, 2007

गठजोड़ गजल और प्रपंच पुराण

वादे के मुताबिक मुझे शादी के बाद की प्रेम कविताएँ छापनी थीं सो फिर कभी । आज आप लोक मे व्याप्त इन महान रचनाओं को पढ़ें । ये माहान रचनाएँ सुनी हैं सुनाई हैं रची हैं रचाई है। पहले आप पढ़े गठजोड़ गजल फिर पढ़े प्रपंच पुराण । इनके यहाँ होने के प्रेरणा श्रोत हैं गड़बडिया ज्ञान भाई। कुछ दुहरा गया हो तो दुबार पढ़ लें। पढ़ने से ज्ञान ही बढ़ेगा। कठिन शब्दों के लिए अभय तिवारी या अजीत जी को धरें। श्रद्धा को ठेस लगे तो ठोस पत्थर से मुझ पर प्रहार करें पर कोर्ट जाने का कुविचार त्याग दें।

गठजोड़ गजल


आप गर हालात से संतुष्ट हैं
हम कहेंगे आप पक्के दुष्ट हैं।

हंस कर मिलेगे आप हमसे तो
सब कहेंगे आप हमसे रुष्ट हैं।

हसरतें कसरत से पूरी होयगीं अब
बात सोलह आने खरी औ पुष्ट है।

चट्टानों की चादर ताने सोया मजनूँ
थकीं लैला सो रही है सुस्त है।

वन में भटकते राम से सीता कहे
हम साथ हैं तो सब कुछ दुरुस्त है।

प्रपंच पुराण

थर-थर कापैं पुरनर नारी
उस पर बैठे कृष्न मुरारी।

कान्य कुब्ज औ सरयू पारी
सबके देव हैं कृष्न मुरारी।

आगे गये भागि रघुराई
पीछे लछिमन गये लुकाई

हरि अन्तइ हरिनिउ गइ अन्ता
भुर्ता नहिं सोहें बिनु भंटा।

रामइ हरता, भरता रामइ करतार
तब क्या बाकी देवता हैं बेकार।

Friday, September 7, 2007

शादी के पहले का प्रेम-भाव

प्रेम का पंथ

शादी के पहले प्रेम का भाव क्या शादी के बाद के प्रेम भाव से अलग होता है। इसका निर्णय तो आप करें। यहाँ शादी के पहले की अपनी दो प्रेम कविताएँ छाप रहा हूँ। वैसे ये मेरे लिए प्रेम की भावनाएँ हैं। जिन्हें मैं इसी तरह कह सकता था। यहाँ दूसरी कविता मेरी पत्नी आभा को मुखातिब हैं जो तब मेरी सहपाठिनी - प्रेमिका हुआ करती थी ।

बो दूँ कविता

मैं चाहता हूँ
कि तुम मुझे ले लो
अपने भीतर
मैं ठंडा हो जाऊँ
और तुम्हें दे दूँ
अपनी सारी ऊर्जा

तुम मुजे कुछ
दो या न दो
युद्ध का आभास दो
अपने नाखून
अपने दाँत
धँसा दो मुझमें
छोड़ दो
अपनी साँस मेरे भीतर,

तुम मुझे तापो
तुम मुझे छुओ,
इतनी छूट दो कि
तुम्हारे बालों में
अँगुलियाँ फेर सकूँ
तोड़ सकूँ तुम्हारी अँगुलियाँ
नाप सकूँ तुम्हारी पीठ,

तुम मुझे
कुछ पल कुछ दिन की मुहलत दो
मैं तुम्हारे खेतों में
बो दूँ कविता
और खो जाऊँ
तुम्हारे जंगल में।


आएगा वह दिन

आएगा वह दिन भी
जब हम एक ही चूल्हे से
आग तापेंगे।

आएगा वह दिन भी
जब मेरा बुखार उतरता-चढ़ता रहेगा
और तुम छटपटाती रहोगी रात भर।

अभी यह पृथ्वी
हमारी तरह युवा है
अभी यह सूर्य महज तेईस-चौबीस साल का है
हमारी ही तरह,

इकतीस दिसंबर की गुनगुनी धूप की तरह
देर-सबेरे आएगा वह दिन भी
जब किलकारियों से भरा
हमारा घर होगा कहीं।

नोट- कल की पोस्ट में पढ़े शादी के बाद के प्रेम भाव पर मेरी कुछ कविताएँ ।

Wednesday, September 5, 2007

मेरे तीन सपने

क्या करूँ इनका ?

पता नहीं आप लोगों के साथ ऐसा है या नहीं पर मेरे साथ है। मेरे ऐसे तीन सपने हैं जिन्हें मैं पिछले २५ सालों से देख रहा हूँ। ये सपने तब आते हैं जब मुझे तेज बुखार हो या मन को कोई धक्का लगा हो। सपने कब आने शुरू हुए साफ-साफ नहीं कह सकता ।

मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसा क्यों है।इन सपनों में मेरी उमर कोई १२ से १३ साल के बीच होती है। मजे की बात यह है कि जब बहुत दिनों तक ये सपने नहीं आते तो भी उलझन होती है। मैं इन सपनो को देखना चाहता हूँ। मेरी पत्नी के मामा जो कि पुराने यानी साम्यवादी रूस में डॉक्टर थे अभी फिलहाल लखनऊ में अपना अस्पताल चलाते हैं का कहना है कि मुझे इन सपनों के बारे में किसी से मिलना चाहिए। वो इन सपनों को किसी और तरह से देख रहे थे जिससे मैं सहमत नहीं था । सो मैंने किसी मनोविज्ञानी से मुलाकात नहीं की और सपने हैं कि मेरा साथ नहीं छोड़ रहे हैं।

पहला सपना

मैं एक लगभग ३०-३५ फीट गहरी सूखी नहर में टहल रहा हूँ जिसकी दीवारे बेहद चिकनी और गीली है । अचानक पीछे से २०-२५ फीट मोटी पानी की लहर मेरे बहुत करीब आ जाती है। मुझे लगता है कि मैं डूब जाऊँगा। मैं पूरी गति से आगे की तरफ भागता हूँ पीछे से पानी की तेज धारा मुझे अपने भीतर समोने के लिए करीब से करीब आती जाती है और मैं जाग जाता हूँ।

दूसरा सपना

मैं अपनी किसी बाँह का तकिया लगा कर लेटा होता हूँ और लाखों मीटर रंग बिरंगे कपड़े मेरे ऊपर गिरते जाते हैं । मेरा दम फूलने लगता है। मैं उन कपड़ो से निकलने की जगह उनकी रंगीनी में खो जाता हूँ। खुद को बचाने की कोई कोशिश नहीं करता।

तीसरा सपना

मैं ऊँची या लंबी कूद में हिस्सा ले रहा हूँ। मेरे साथ कूदने वाले को पछाड़ने के लिए मैं आराम से कूदता हूँ और उड़ने लगता हूँ। यह उड़ान बिना कोशिश के होती है। मैं खूब आनन्द में होता हूँ।सब हार जाते हैं और मैं सारे रेकार्ड तोड़ कर खुश हूँ और उड़ते-उड़ते ही घर चला जाता हूँ। इसमें मैं जागता अक्सर खुद से नहीं हूँ।

पहले दो सपने लगभग सोते ही आते हैं और तीसरा भोर के आस-पास। यहाँ यह भी बता दूँ कि पहले दो सपनों के बाद मेरी हालत खराब होती है तो तीसरा सपना मुझे बेहद ताजगी से भर जाता है। तीनों मेरे ही देखे सपने हैं । मैं तीनों को प्यार करता हूँ । पर शायद पहले दो को देखना नहीं चाहता । पर खो देना भी नहीं चाहता।

Monday, September 3, 2007

मुझे पुलिस से कौन बचाएगा ?


पुलिस का डर
जन्माष्टमी के दिन का लगता है पुलिस और कारागार का कुछ खास नाता है। तभी तो ऐन उसी दिन मेरे थाने जाने की नौबत आ गई है। मामला आज रात करीब साढ़े नौ बजे का है। मैं अपने बच्चों के साथ बाजार निकला था। पत्नी जन्माष्टमी पर किशन भगवान के लिए कुछ नया खरीदना चाह रही थीं। पर खरीदने के पहले मेरी गाड़ी एक पुलिस की गाड़ी से टकरा गई और खरीदारी पुलिस की ओर मुड़ गई। गाड़ी गुनहगारों को तलाशने निकली थी और मैं एक नया गुनाहगार मिल गया। मेरी गाड़ी में मेरी बेटी भानी, मेरा बेटा मानस और मेरी पत्नी आभा बैठे थे और पुलिस की गाड़ी में तीन सिपाही और दारोगा पाटील के साथ वर्दीवाला ड्राइवर भी था। यानी कुल पाँच हथियारबंद लोग बनाम चार निहत्थे ।

बात केवल टक्कर की होती तो चल जाता। मामला यहाँ उलझ गया कि गलती किसकी है मेरी या उस वर्दी वाले ड्राइवर की। टक्कर के बाद उस गाड़ी से पुलिस वाले निकल आए और मेरी गाड़ी को लगभग घेर लिया। मुझसे गलती यह हुई की चवन्नी वाली भूल की तरह तत्काल क्षमा क्यों नहीं माँग लिया। मैंने उनके ड्राइवर से कहा कि आप भी देख कर चलें । बस उसने मुझे गाड़ी से उतरने और डीएल और गाड़ी का पेपर देने की बात की। मैंने उसे पेपर नहीं दिए ना ही डीएल दिया क्योंकि मैं कुछ भी लेकर निकला ही नहीं था। उसने मेरा मोबाइल नंबर माँगा मैंने दे दिया लेकिन उसने अपना नंबर माँगने पर भी नहीं दिया । थोड़ी बातचीत के बाद सारे पेपर लेकर पुलिस चौकी आने को बोल कर वे सब चले गए मैं उलझ गया हूँ।
क्या करूँ। थाने जाने का मन नहीं है। जानता हूँ कि गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को सिर्फ लिखना और धकेलना भर ही पड़ता है।
रात बिताने की तैयारी में हूँ। थाने नहीं जा रहा हूँ। सुबह जाऊँगा। जो होगा देखा जाएगा। अगर बंद हो गया तो बच्चे थोड़े दुखी होंगे । लेकिन बाहर तो आ ही जाऊँगा । यहाँ भाई चंदन परमार जी,मित्र अभय तिवारी , प्रमोद जी, विमल भाई, अजय जी, अनिल रघुराज, जितेन्द्र दीक्षित और मयांक भागवत जैसे कुछ मित्र हैं जो जमानत ले लेंगे। पर अगर पुलिसवालों ने मुझे ठोंका तो। हालाकि की थोड़ी बहुत पिटाई झेल सकता हूँ। पर बहुत नहीं।

मामले के बीच कुछ जो अलग सा हुआ।

भानी ने इतने पास से पुलिस अंकल को पहली बार देखा तो वो काफी खुश थी । वह अब तक मुझसे कई बार सवाल कर चुकी है कि पुलिस अंकल पेपर माँग रहे थे। वह पुलिस अंकल के पास चलने को तैयार भी है।मानस थोड़ा घबराया था क्योंकि डीएल मैंने उसी से उठाने को कहा था पर उसने कुछ और उठा लिया यानी वह बटुआ नहीं लिया जिसमें मैं डीएल रखता हूँ।
पत्नी पूरे मामले को महज दुर्योग मानती रही और अब भी मान रही हैं । क्योंकि बाजार जा कर फिर उसने मुझे आने को कहा और मैं चला भी गया । यानी सब कुछ अचानक ही हुआ ।
अब जाग कर रात बितानी है और सबेरे से पुलिस चौकी के फेरे लगाने हैं । देखते हैं क्या सचमुच जन्माष्टमी के दिन या रात कारागार की यात्रा करनी पड़ेगी।

Saturday, September 1, 2007

मेरे प्रिय कवि रमेश पाण्डेय




बिना शब्दों वाली बातें
हिंदी के युवा कवियों में एक अलग सुर के कवि हैं रमेश पाण्डेय। वे मेरे कुछ प्रिय कवियों में से हैं। 13 मई 1970 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के अहिरौली गाँव में पैदा हुए रमेश आज कल बहराइच के जंगलों में तैनात हैं। वे 1996 से भारतीय वन सेवा में हैं और कविता में जंगलों की अनसुनी आवाजों को चुपचाप दर्ज कर रहे हैं। उनका एक कविता संग्रह कागज की जमीन पर अनामिका प्रकाशन इलाहाबाद से 2004 में प्रकाशित हुआ है। उनकी कविताओं के बारे में त्रिलोचन जी का कहना है कि कागज की जमीन पर संग्रह में बिना शब्दों वाली बाते हैं। आप भी यहाँ रमेश पाण्डेय की चार छोटी कविताएँ पढ़े।
यह केवल शब्द है

यह केवल शब्द है
जिसने उठा रखा है कंधों पर
पीर का बोझ
वाक्य में बिना पहले से तय जगह पर
हमेशा सावधान की मुद्रा में
खड़े कर दिए जाने के बाद तक

यह विचार है
जो बाजार में अकेला तन कर खड़ा है
सीने में उतरे छुरे की मूठ की तरह

यह सिर्फ कविता है
जो धमनियों में रक्त की तरह दौड़ती है
आँखों से तेजाब की तरह
झरती है।

सानिध्य

अमलतास की तरह खिलती हो

गुलमोहर सी
छा जाती हो

रात की खामोशी में
रातरानी बन महकती हो तुम
कठिन समय में।

नाम में क्या रखा है

बहुत पंछी पिद्दी भर हैं
जिनसे मेरी कोई जान-पहचान नहीं

कुछ ऐसे हैं कि उनके लगे हैं
सुरखाब के पर

काले भुजंग कई
वैसे तो वक्त नहीं होता कि
इन पर निगाह पड़े
देख भी लूँ तो
ज्यादातर इनके नाम नहीं मालूम

और फिर इनके नाम में
रखा ही क्या है

आपका इस बारे में खयाल
क्या कुछ पेश्तर है।

जंगल

यहाँ कई जानवर रहते हैं
मेरे साथ आस-पास
जिन्हें मैं जानता हूँ

मेरे चारों ओर जंगल है

मेरी अँगुलियों के नाखून कुतरे हुए हैं
दाँत भी नुकीले नहीं हैं की चीथ सकूँ
खा सकूँ कच्चा माँस
देखूँ कितनी दूर जा सकता हूँ इस घने जंगल में
हाथ की मुट्ठियाँ भींचे।
ऊपर - त्रिलोचन जी के साथ रमेश पाण्डेय, बीच में हैं त्रिलोचन जी के एक पाठक। फोटो मैंने खींची है।

Thursday, August 30, 2007

सफल गृहस्थी के लिए पत्नी की तारीफ करो

दाम्पत्य की कामयाबी का मंत्र

जब मैंने पूज्य उपेंद्र नाथ अश्क जी को यह बताया कि शादी करने जा रहा हूँ तो उन्होंने कहा कि मैं तुम्हें घर को कामयाब रखने का कुछ गुर बताता हूँ। फिर उन्होंने मुझे कुछ मंत्र दिए। जो आज तक मेरी गृहस्थी को फिलहाल बनाए-बसाए हैं।

कुछ लोग गृहस्थी का असल सुख कलह को मनते हैं । उनका कहना है कि तनी-तना और रंजोगम किस घर किस जोड़े में नहीं होता। लेकिन मित्र घर-गृहस्थी तो वहीं सफल है जहाँ दाम्पत्य सफल हो।

हमारे वेदादि पुराने ग्रंथ भी दाम्पत्य की महिमा गाते रहे हैं। उनका मनना है कि सहाँ सहमति होगी वहीं सुख होगा। जहाँ पति पत्नी की उत्तम श्लोक प्रशंसा करता है दाम्पत्य वहीं सफल है। वहीं सुमति है और बाबा तुलसी दास ने कहा है- 'जहाँ सुमति तहं सम्पति नाना'।
आज यहाँ ऋगवेद की एक ऋचा का काव्यानुवाद प्रस्तुत है। इसका काव्यानुवाद किया है बशीर अहमद 'मयूख' जी ने और किताब 'स्वर्णरेख' नाम से छपी है ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से। हो सके तो पूरी किताब पढ़े। आनन्द आएगा।

सफल दाम्पत्य

सूर्य उगा वह मानो मेरा भाग्य उगा !
उसे जानते मैं ने पति को
अपने वश में किया,
विजयिनी शक्ति रूप हूँ,
मैं मस्तक की भाँति मुख्य हूँ ध्वजा-रूप हूँ !

मेरा पति मेरी सहमति को
सर्वोपरि महत्व देता है,
मेरे पुत्र शत्रुहंता हैं, पुत्री रानी;

मेरा पति मेरे प्रति उत्तम श्लोक-प्रशंसा करता है;
अत: हमारा दाम्पत्य जीवन सुंदर है,
सूर्योदय के साथ हमारा
भाग्य उदय होता है प्रतिदिन !

ऋक्.10/159

मुझे क्षमा करें

मैं माफी माँगता हूँ

मेरी चवन्नी से जुड़ी टिप्पणी से कुछ लोगों को दुख हुआ है। मैं उसके लिए माफी मांगता हूँ। मेरा इरादा किसी को कष्ट देने का नहीं था। हो सके तो आप सब मुझे क्षमा कर दें।

Tuesday, August 28, 2007

मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ


आज विनय-पत्रिका के 6 महीने पूरे हुए। आधा साल पूरा होने पर मैं अपनी एक पुरानी पोस्ट को चिपका रहा हूँ।







छोटा आदमी

छोटी-छोटी बातों पर
नाराज हो जाता हूँ ,
भूल नहीं पाता हूँ कोई उधार,
जोड़ता रहता हूँ
पाई-पाई का हिसाब

छोटा आदमी हूँ
बड़ी बातें कैसे करूँ ?

माफी मांगने पर भी
माफ़ नहीं कर पाता हूँ
छोटे-छोटे दुखों से उबर नहीं पाता हूँ ।

पाव भर दूध बिगड़ने पर
कई दिन फटा रहता है मन,
कमीज पर नन्हीं खरोंच
देह के घाव से ज्यादा
देती है दुख ।

एक ख़राब मूली
बिगाड़ देती है खाने का स्वाद
एक चिट्ठी का जवाब नहीं
देने को याद रखता हूं उम्र भर

छोटा आदमी और कर ही क्या सकता हूँ
सिवाय छोटी-छोटी बातों को याद रखने के ।

सौ ग्राम हल्दी,
पचास ग्राम जीरा
छींट जाने से तबाह नहीं होती ज़िंदगी,
पर क्या करूँ
छोटे-छोटे नुकसानों को गाता रहता हूँ
हर अपने बेगाने को सुनाता रहता हूँ
अपने छोटे-छोटे दुख ।

क्षुद्र आदमी हूँ
इन्कार नहीं करता,
एक छोटा सा ताना,
एक मामूली बात,
एक छोटी सी गाली
एक जरा सी घात
काफी है मुझे मिटाने के लिए,

मैं बहुत कम तेल वाला दीया हूँ
हल्की हवा भी बहुत है
मुझे बुझाने के लिए।

छोटा हूँ,
पर रहने दो,
छोटी-छोटी बातें कहता हूँ- कहने दो ।