मेरी पहली किताब उर्फ किस्सा शीत-बसंत का
करीब महीने भर हुए मुझे एक किताब की याद आई। वह किताब थी किस्सा शीत-बसंत । कहीं बात चल रही थी पहले प्यार की । पहले प्यार की चर्चा से मुझे शीत-बसंत याद आई । शीत-बसंत मुझे मेरे बड़े भैया ने इलाहाबाद से लाकर दी थी। यह बात होगी १९७५ या ७६ की । मैं ६ या 7 साल का था। निक्कर पहन कर गाँव की कोलियों या गलियों में फिरा करता था। हर घर और हर आँगन मेरा अपना हुआ करता था। हर नई दुलहन जो अक्सर मेरी भाभी होती थी को देखने कभी भी पहुँच जाता था और कह भी देता था कि दुलहन देखने आया हूँ...। दुलहन देखने के बाद पाहुर के लड्डू लेकर भाग पड़ता था। आज याद करता हूँ तो लगता है कि मैं दुलहन देखने कम लड्डू पाने अधिक जाया करता था। ऐसे ही दिनों में मुझे वह किताब मिली किस्सा शीत-बसंत
दो तीन दिनों में पूरी किताब पढ़ गया । किताब खतम करने के बीच कभी रोता कभी डरता। कहानी एक सौतेली रानी और और उसके दो सौतेले राज कुमारों की थी। जैसा होता है बाद में सब कुछ ठीक हो जाता है। पर बीच में जलनखोर रानी दोनों राजदुलारों को मारने का हुक्म दे देती है। लेकिन वफादार सेवक शीत-बसंत की जगह किसी जानवर का दिल लाकर दे देते हैं और रानी के कलेजे को ठंडक पहुँच जाती है...।
तो शीत-बसंत और रानी मेरे पहले पात्र हैं जिनके बारे में मैंने पढ़ा और शीत बसंत पहली किताब। बहुत खोजने के बाद भी वह पुरानी किताब नहीं मिली । पर कांदिवली में एक दिन भाई अभय तिवारी के साथ भटकते हुए सड़क की दुकान से कुछ अलग छापेवाली दूसरी प्रति मिल गई। लगभग तीस साल बाद फिर पढ़ा और अवधेश भैया की बहुत याद आई। मुझ पर उनका बहुत प्रेम था । मैं उनसे १६-१७ साल छोटा जो हूँ। मुझे पढ़ने की ओर भैया ने ही प्रेरित किया। आगे इसी क्रम में सारंगा सदाबृज, नल-दमयंती, जैसी दर्जनों किताबें उनके स्नेह से पढ़ने को मिलीं। वे इलाहाबाद से नंदन, पराग, बालहंस, बाल भारती, चंपक, लोटपोट, और अमर चित्र कथा की तरह की किताबें हर यात्रा में लाते थे....। जिन्हें मैं बिना रुके पढ़ता जाता। हालांकि इसी पढ़ने के क्रम में मैंने घर में भाभियों द्वारा छिपा कर रखी गई इंद्रलोक आजाद लोक जैसी पार्थिव पोथियाँ भी पढ़ लीं।
हालांकि आज तक नहीं जान पाया हूँ कि मेरी चार भाभियों में कौन पढ़ता था उन पवित्र-पोथियों को।
जो भी रहा हो.....मैं मानता हूँ कि मैं नशेड़ी हूँ....किताबों को पाने और पढ़ने का नशा है मुझे.....जो शायद इस जीवन में न उतरे....।
करीब महीने भर हुए मुझे एक किताब की याद आई। वह किताब थी किस्सा शीत-बसंत । कहीं बात चल रही थी पहले प्यार की । पहले प्यार की चर्चा से मुझे शीत-बसंत याद आई । शीत-बसंत मुझे मेरे बड़े भैया ने इलाहाबाद से लाकर दी थी। यह बात होगी १९७५ या ७६ की । मैं ६ या 7 साल का था। निक्कर पहन कर गाँव की कोलियों या गलियों में फिरा करता था। हर घर और हर आँगन मेरा अपना हुआ करता था। हर नई दुलहन जो अक्सर मेरी भाभी होती थी को देखने कभी भी पहुँच जाता था और कह भी देता था कि दुलहन देखने आया हूँ...। दुलहन देखने के बाद पाहुर के लड्डू लेकर भाग पड़ता था। आज याद करता हूँ तो लगता है कि मैं दुलहन देखने कम लड्डू पाने अधिक जाया करता था। ऐसे ही दिनों में मुझे वह किताब मिली किस्सा शीत-बसंत
दो तीन दिनों में पूरी किताब पढ़ गया । किताब खतम करने के बीच कभी रोता कभी डरता। कहानी एक सौतेली रानी और और उसके दो सौतेले राज कुमारों की थी। जैसा होता है बाद में सब कुछ ठीक हो जाता है। पर बीच में जलनखोर रानी दोनों राजदुलारों को मारने का हुक्म दे देती है। लेकिन वफादार सेवक शीत-बसंत की जगह किसी जानवर का दिल लाकर दे देते हैं और रानी के कलेजे को ठंडक पहुँच जाती है...।
तो शीत-बसंत और रानी मेरे पहले पात्र हैं जिनके बारे में मैंने पढ़ा और शीत बसंत पहली किताब। बहुत खोजने के बाद भी वह पुरानी किताब नहीं मिली । पर कांदिवली में एक दिन भाई अभय तिवारी के साथ भटकते हुए सड़क की दुकान से कुछ अलग छापेवाली दूसरी प्रति मिल गई। लगभग तीस साल बाद फिर पढ़ा और अवधेश भैया की बहुत याद आई। मुझ पर उनका बहुत प्रेम था । मैं उनसे १६-१७ साल छोटा जो हूँ। मुझे पढ़ने की ओर भैया ने ही प्रेरित किया। आगे इसी क्रम में सारंगा सदाबृज, नल-दमयंती, जैसी दर्जनों किताबें उनके स्नेह से पढ़ने को मिलीं। वे इलाहाबाद से नंदन, पराग, बालहंस, बाल भारती, चंपक, लोटपोट, और अमर चित्र कथा की तरह की किताबें हर यात्रा में लाते थे....। जिन्हें मैं बिना रुके पढ़ता जाता। हालांकि इसी पढ़ने के क्रम में मैंने घर में भाभियों द्वारा छिपा कर रखी गई इंद्रलोक आजाद लोक जैसी पार्थिव पोथियाँ भी पढ़ लीं।
हालांकि आज तक नहीं जान पाया हूँ कि मेरी चार भाभियों में कौन पढ़ता था उन पवित्र-पोथियों को।
जो भी रहा हो.....मैं मानता हूँ कि मैं नशेड़ी हूँ....किताबों को पाने और पढ़ने का नशा है मुझे.....जो शायद इस जीवन में न उतरे....।
12 comments:
बोधि भाई,
बहुत बढ़िया नशा है. शीत हो चाहे बसंत, इन्द्रलोक में बंधे रहें, या आजादलोक में आजादी के साथ घूमें, किताबों के नशे से बढ़िया और कौन सा नशा हो सकता है.....:-)
नशेड़ी हलका शब्द हैं..जुनुनी, झक्की, सिड़ी, बावला..भी ठीक-ठीक बोधि जी के किताबों के प्रति उत्साह को परिभाषित नहीं कर पायेंगे.. हिन्दी भाषा में लिखी हुई किसी भी पुस्तक के बारे में जानना हो बोधि जानते होंगे ऐसा मेरा विश्चास है.. बोधि की तमन्ना भी है एक पुस्तकालय संचालन की..
बोधि का ये शौक़ बढ़ता रहे ऐसी मेरी इच्छा है.. (ये मेरे स्वार्थ की भी बात है.. पर कोई आभा, मानस और भानी से पूछे जो घर में बढ़ती किताबों और घटती जगह से कभी-कभी खीज जाते हैं.. पर बोधि के प्रेम में सब बरदाश्त किए जाते हैं)
लगता है आपने तो मेरी ही कहानी बयां सी कर दी । मेरे सबसे बड़े भाई मुझसे 20 साल बड़े हैं, डॉक्टर हैं, किताब-साहित्यप्रेमी । छुटपन से ही उनके कारण किताबों का नशा सा हो गया है। अक्सर वे छुट्टियों में घर आते थे तो शहर में उतरते ही पहले बस स्टैंड के अपने अड्डे पर किताब दुकान जाते थे और किताबें खरीदते हुए घर आते थे। तब अपन को साहित्य कुछ समझ में नही आता था लेकिन कहानी पढ़ने के उद्देश्य से पढ़ा करते थे, ऐसे ही लती होते गए किताबों के। आज भी उनकी पोस्टिंग वाले शहर मे उनके घर जाता हूं तो सबसे पहले उनकी किताबों की आलमारी पर पहले धावा बोलता हूं!!
ऐसे ही एक बार, तब मै आठवीं कक्षा में रहा होऊंगा और उनकी आलमारी से निकालकर लेडी चैटर्लीज़ लवर या लोलिता निकालकर पढ़ने लगा वह भी आराम से सरेआम। भैया की नज़र मुझ पर पड़ी होगी, अब खुद तो मुझे मना करते नही थे कभी किताब पड़ने से तो भाभी के मार्फ़त कहलवाए कि ये किताब अभी तुम्हारे पढ़ने के लायक नही सो रख दो!!
और फ़िर आप तो जानते ही हैं कि उस उमर में जो पढ़ने के लिए मना किया जाए वही पढ़ने की उत्सुकता और जागृत हो उठती है तो आखिरकार पढ़ कर ही दम लिया था।
बढ़िया लगी भाई साहब आपकी आज की पोस्ट क्योंकि मैं भी नशेड़ी ही हूं।
टिप्पणी ज्यादा लंबी हो गई सो मुआफ़ी!! पर मैं अपने को रोक नही पाया यह सब बयान करने से
aaj ki yuvaa piidhii me is nashey ki kamii hotii jaa rahi hai..merey haanth me pahlii baar aashaapurna devi kaa upanyaas meri maa ne diyaa thaa aur sakht aadesh thaa ki kabhi chichlaa saahitya mat padhna...so aaj tak koshish kar ke bhi vaisey saahtya me ras nahi dhuundh paayi
यही तो एक नशा है जो आदमी का नुकसान नही करता. आप की तरह नशेडी तो नही हूँ सर पर यदा-कदा पढता रहा हूँ. सोचता बहुत हूँ की आप जैसा हो जाऊं पर शायद इस जन्म मी मुझसे नही होगा.
ये तो भौत धांसू नशा है जी। मचाये रहिये। जी आप तो अच्छे बच्चे थे, औरों की ही पार्थिव पोथियां पढ़ी हैं। जी अब बताते हुए शरम आती है, पर हमने तो खरीद के पढ़ी हैं,धुआंधार। पूरा कलेक्शन होता था, अपने पास, अमेरिकन मैगजीनों का भी। सरजी ग्लोबलाइजेशन भौत बाद में आया। हमने अपना कलेक्शन भौत पहले ग्लोबलाइज कर रखा था। हाय क्या दिन थे वो भी।
अच्छी याद दिलायी शीत बसंत की। बचपन में मेरी पत्नी को उनकी नानी सुनाया करती थीं और शीत बसंत के दुख में दुखी बच्चे धीरे धीरे सो जाते थे।
पत्नी जी बचपन के मोड में चली गयी हैं।
दिल चाहा कि हम भी पुस्तक प्रेम का अनुभव आपसे बाँटे...रियाद का स्कूल छोड़ते हुए लाइब्रेरी की एक पुस्तक हमारे पास रह गई थी लेकिन उसे अपने पास ही रखने की इच्छा से पूछा तो कहा गया कि 50 रियाल का ज़ुर्माना भर दीजिए और लिख दिया जाएगा कि आपसे खो गई...
पुस्तक पढने और उसे अपने पास रखने के लालच में झूठ बोलना स्वीकार कर लिया. :)
वाह बोधिसत्व जी , बहुत बढिया लत है !:)
ये नशा जारी रहे यही मना सकते हैं । लाइब्रेरी कब खोल रहे हैं।
उस लाइब्रेरी में अभय को भी शामिल होना है...जब अभय कहेंगे खुल जाएगी मेरी लाइब्रेरी....
ये व्यसन हमें बचपन से है। एक बोध वाक्य हमेशा अच्छा लगता रहा-मांग कर नहीं , खरीद कर पढ़िये। चूँकि इसमें चोरी का जिक्र नहीं है इसलिए ज्ञानार्जन के लिए पुस्तक की चोरी को कभी कभी मैं जायज़ मानता हूं। मेरा व्यक्तिगत पुस्तक संग्रह बढ़ता ही जा रहा है क्यों कि खरीदकर पढ़नेवाली उक्ति पर ही अमल किया है अब तक ।
पुस्तकों से बढ़कर जीवन में कोई सुखदायी नहीं । यही हमारी यायावरी है यही हमारे तीर्थ हैं।
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