Tuesday, December 11, 2007

यश और मोक्ष नहीं निस्तेज जूतों की तलाश करते हैं वे

जोगी

(जूते चमकाने वाले बच्चों के लिए)

वे जूतों की तलाश में
घूमते हैं ब्रश लेकर
और मिलते ही बिना देर लगाए
ब्रश को गज की तरह चलाने लगते हैं
जूतों पर
गोया जूते उनकी सारंगी हों ।

दावे से कहा जा सकता है कि
उन्हें जूतों से प्यार है
जबकि फूल की तरह खिल उठते हैं
जूतों को देखकर वे ।

जब कोई नहीं होता
चमक खो रहे वे
जूतों से गुफ़्तगू करते हैं।

भरी
दोपहरी में वे
जमात से बिछुड़े जोगी की तरह होते हैं
जिसकी सारंगी और झोली
छीन ली हो बटमारों ने ।

उन्हें बहुत चिढ़ है उन पैरों से
जिनमें जूते नहीं ।

बहुत पुरानी और अबूझ पृथ्वी पर
उस्ताद बुंदू खाँ और भरथरी के चेलों की तरह
यश और मोक्ष नहीं
निस्तेज जूतों की तलाश करते हैं वे।

रचना
तिथि-१९-०२-1996

10 comments:

बालकिशन said...

गरीबी और मज़बूरी से लड़ते इन बच्चों का मार्मिक चित्रण किया आपने अपनी कविता मे.
अति संवेदनशील कविता.

Sanjeet Tripathi said...

आपके शब्दों से इन बच्चों के लिए आपके भाव झलक रहे हैं। आपके जन्मदिन पर यही कामना कर सकता हूं कि आप सदा ऐसे ही बने रहें।

36solutions said...

यथार्थ चित्रण किया बोधि भईया ।

ghughutibasuti said...

बहुत भावपूर्ण रचना है । पसन्द आई ।
घुघूती बासूती

अनूप शुक्ल said...

शानदार, जानदार कविता।

Gyan Dutt Pandey said...

बहुत सुन्दर - बहुत कुछ चिंदियां बीनने वाले बच्चों जैसे हैं ये बच्चे। मेहनत पर जीने वाले और अभावों की चादर ओढ़े।

अभय तिवारी said...

बहुत बढ़िया!!

Priyankar said...

बेहद मर्मस्पर्शी कविता .

नीरज गोस्वामी said...

क्या बात है भाई...वाह वाह वाह...छोटे छोटे शब्दों से बहुत सुंदर भाव रचे हैं आपने. मर्मस्पर्शी कविता है आपकी.
नीरज

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

बेहद सुंदर रचना