मैं खो गया हूँ
वे बड़े साधारण लोग थे..उनके तो नाम भी अजीब हिंदी टाइप के थे...
किसी का नाम भगतिन था तो
किसी का ब्रह्म नारायण
एक और थी जिसका नाम सरिता था....
एक नें मुझे विन्ध्याचल की पहाडियों में खो जाने से बचाया।
अपने मुंडन के बाद मैं
पता नहीं कैसे चला जा रहा था पहाड़ियों की ओर
मुझे तो पता भी हीं था कि मैं भटक गया हूँ...
वे ब्रह्म नारायण थे मेरे पिता के बाल सखा
जिन्होंने मुझे देखा गलत दिशा में जाते
और ले आए वापस।
फिर मैं खो गया था मेले की अपार भीड़ में
बैठा था भूले – भटके शिविर में
नाम भी नहीं बता पा रहा था किसी को
कि मेरे गाँव की भगतिन ने देख लिया मुझे
झपट लिया मुझे उस खेमे में आकर
ले आई मां के टेंट में
जो घंटे भर से खोज रही ती मुझे जहाँ-तहाँ बिललाती।।
थोड़ा और बड़ा हुआ तो
खो गया एलनगंज में
अपने चाचा के डेरे पर आया था
बीमार ताई को देखने आई थी माँ
तो आ गया था मैं भी...
थक गया था खोज कर पर
नहीं मिल रही थी चाचा के घर की गली
वह तो सामने के फ्लैट में रहने वाली एक भली सी लड़की ने देखा
मुझे चौराहे की भीड़ में सुबकते
ले आई घर किसी को बताया भी नहीं कि
मैं खो गया था....नाम था उसका सरिता
तब वह बारहवीं में पढ़ती थी
किसी गणित के अध्यापक की बेटी थी।
एक बार तो डूब ही रहा था गाँव के सायफन में
खेतों को सींचने के लिए पानी की नाली का चमकता हुआ पानी
जाता था घर के बहुत पास से
सायफन पड़ता था घर के एकदम पिछवारे
उसी के तल में चमक रही थी एक दुअन्नी
जिसे पाने के लिए मैं उतर गया पानी में
दुअन्नी लेकर मैं डूब रहा था कि आ गए नन्हकू भगत
उन्होंने देख लिया मुझे डूबते
और निकाल लिया बाहर...
बच गया एक बार फिर
बचा लिया गया ऐसे ही कितनी बार खोने से डूबने से।
भाइयों और बहनों
पिछले कई सालों से खो गया हूँ मैं कहीं
डूब रहा हूँ कहीं
नहीं आ पा रहे मुझ तक ब्रह्म नारायाण
भगतिन का कुछ पता नहीं चल रहा
सरिता भी पता नहीं कहाँ है
कहाँ हैं भगत
मैं कह नहीं सकता।
वे बड़े मामूली लोग थे..
उनके तो नाम भी अजीब हिंदी टाइप के थे ।
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13 comments:
शिल्प तो सुंदर है ही विषय-वस्तु भी लाजवाब है. इस कविता की साधारणता में ही इसकी असाधारणता छिपी हुई है. क्या यह अप्रकाशित है? मेरा प्रश्न यह होगा कि इस समय में उन लोगों को ढूँढना कहाँ तक सही/उचित/तर्कपूर्ण है?
भैया, कविता पे बाद में कुछ कहूंगा पहले तो यह बताया जाए कि कहां गायब है आप और भाभी जी, दोनो ही नए साल मे बिलकुल गायब एक भी पोस्ट नई, आप 18 दिन में आज दिखे पहली पोस्ट लेकर!!
कल ही अनिताकुमार जी से यही चर्चा कर रहा था मै चैट पर!
खैर!!
नव वर्ष की शुभकामनाएं आप लोगों को!
साधारण लोगों की असाधारण कविता है जी
टाइम बहुत पेचीदा हैजी
बचाने वाले खुद ही डूबे पड़े हैं।
मोको कहाँ ढूंढें रे बन्दे मैं टू तेरे पास --
शायद ये अंतर्मन की पुकार है --
पहले पहल भिडंत के बाद आप्के ब्लॉग पर तीसरी बार आयी हूँ । अपना नाम आपके ब्ळॉग रोल मे देख अचरज हुआ ।
कविताये पढने मे खास दिलचस्पी नही है पर आज बहुत दिन बाद अपको यहाँ देख इधर रुख किया ।
अच्छी कविता !
कब तक तैरना....अपना रास्ता ढूँढ़ना वहीं सीखेंगे ? नाम तो आपका भी हिन्दी टाइप का है....!अब तो रास्ता दिखाने की बारी आपकी है।
सुंदर कविता
जानता हूँ मित्र नाम मेरा अजीब हिन्दी टाइप का नहीं है.. पर एक बार मन से पुकारो तो सही.. आकर बचा लूँगा अगर खुद डूब नहीं रहा हुआ तो..
अच्छी कविता है और टिप्पणियां भी अच्छी हैं। आलोकजी की टिप्पणी- बचाने वाले खुद ही डूबे पड़े हैं- आपसे इस कविता के सीक्वेल की मांग करती है।
जो डूबेगा नही सो बचेगा? अपने को जो खोयेगा नहीं सो बचाने वाले को भी कहां पायेगा।
डूबते भी तो नहीं कस कर हम - सो बचाने वाला(किसी भी टाइप का) नहीं आता।
विजय भाई यह कविता पहली बार यहीं छपी है...
संजीत जी कविता पर आपकी राय चाहिए...
आलोक भाई सच कह रहे हैं ...कि बचाने वाले खुद ही डूबे हैं...
अंतर्मन ने सही फर्माया है शायद
सुजाता जी आप से भिड़ंत की कोई टाद नहीं है...बीती ताहिं बिसारि दे...
बेजी जी आभारी हूँ...
अभय भाई आपके भरोसे के बल पर छाती चौड़ी करके घूमता हूँ...
चंदू भाई बात सही है...पर सिक्वेल मुश्किल है...
ज्ञान भाई आभारी हूँ...
कविता पढ़ते हुए याद आया कि डूबता व्यक्ति बचाने वाले के गले से चिपक भी सकता है।बचाने वाला होशियार रहा तो थप्पड़ मार कर बचाएगा।
अपनापन है , कविता में ।
अफलातून जी की टिप्पणी सर्वश्रेष्ठ है भाई.
ऐसे साधारण लोग अब विलुप्त होती प्रजातियों की ही तरह हैं। डूबने-उतराने में आपने अच्छा चित्र खींच दिया है। प्रतापगढ़ के घुइसरनाथ में एक बार मैं भी डूबा था, साथ के लोगों ने ही बचाया था। सच ये है कि जो साथ है वही, भगतिन, ब्रह्मनारायण और सरिता हैं।
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