मैं लिखना नहीं चाहता था लेकिन लिख रहा हूँ
अजदकेश प्रमोद जी करुणा के अवतार हो गए है....अवधर दानी हो गए हैं.....मुंबई में रहते हैं सिनेमा टीवी के लिए लिखते भी हैं.....और न लिख पाने पर छटपटाते भी हैं....खुद दुखी रहते हैं...लेकिन इस महाद्वीप में किसी का दुख उनसे न सहा जाता है न देखा....और जब दूसरों को दुख से उबार रहे होते हैं तो सामने वाले को बिना दुख में डुबाए उनको सुख नहीं मिलता....। शिव तो सर्व कल्याणक थे..लेकिन प्रमोद जी केवल दुख दाता हैं......मोटे शब्दों में वे प्रतिशोधी सखा है....।
मेरी एक - दो पोस्ट से ही नहीं उन्हें मेरे समूचे लेखन और खुद मुझसे अपार तकलीफ है.....और तकलीफों के कम से कम तीन अनुभव तो उन्होंने सहेज कर रखे ही हैं.....अपने अजदकी चरित के मुताबिक वो पूरी तरह से अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष साबित करने में लग गए हैं.....सामान्य रूप से कही गई मेरी बातों को वे पता नहीं किस-किस से जोड़ कर देख रहे हैं....।
हिंदी प्रदेश की यही दिक्कत है आप एक काम की या कैसी भी बात करते हैं.....तो सामनेवाला उस पर लड़ियाने याने नंगे होकर कूदने लगता है॥ लड़ियाने में और नंगई में प्रमोद जी सबके सरदार हैं....और कम से कम मुझे उनसे अच्छाई का कोई प्रमाण पत्र नहीं चाहिए.....और नहीं मैं उनसे नंगई का कोई गुर सीखना चाहूँगा।
रही बात प्रमोद जी के सवालों पर चुप रहने की तो यही कहा जा सकता है कि फालतू टाइप के आमोदी-प्रमोदी यानी बचकाने सवालों के उत्तर देने की फुर्सत में मैं नहीं हूँ....और हर महान प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है....... और जब महा महान प्रश्न सामने होते हैं....तो हींहीं करने या दाँत चियारने के अलावा कुछ करने का मन नहीं करता.....लेकिन अगर प्रमोद जी इतने उत्तराकांक्षी हैं तो मैं सार्वजनिक रूप से उनके सभी प्रश्नों का उत्तर देने को तैयार हूँ....वो करें सवाल.....।
जवानी में आदमी सामना करता है....ढलती उमर में चुगलखोर हो जाता है....वह लगाने बुझाने लगता है....बुढ़ापे में आदमी पर दुख कातर हो जाता है....किसी के लिए भी रोने लगता है....मैं यह नहीं कहूँगा कि प्रमोद भाई ढल गए हैं या बुढ़ा गए हैं....पर लक्षण सही नहीं हैं....उन्हें. अपना धीरज नहीं खोना चाहिए.....प्रहरी प्रमोद की भूमिका की उमर नहीं रही.....उनकी.....अब....। अंग रक्षक बनने का खेल हम लोग तो पढ़ाई के दिनों में खेलते थे...पर प्रमोद जी अभी भी मौका तलाश ही लेते हैं....इलाहाबादी लत जो लगी है...।
मैं उम्मीद रखूँगा कि इस पोस्ट के बाद भी प्रमोद जी लड़ियाते हुए.....बिना किसी राग-विराग के ढलती संझा में अर्थ का अनर्थ करने और औरों के घाव सहलाने या दुख को कम करने का व्रत छोड़ नहीं देंगे.....चपें रहेंगे.......।
7 comments:
जो गिले-शिकवे फोन करके निपटाए जा सकते हैं, उनके लिए ब्लॉग पर सार्वजनिक पोस्ट लिखने की ज़रूरत नहीं होती। एक तरीका होता है कि जब हम बहुत सारे तथ्यों को एक सूत्र में पिरोने के लिए अमूर्तीकरण करते हैं, जटिल बात को सुलझाने के लिए और एक तरीका होता है कि जब साफ दिखनेवाले तथ्य का भी गोल-गोल अमूर्तीकरण कर देते हैं, सीधी-सी बात को उलझाने के लिए। बोधि जी, ये दुनियादारी और डिप्लोमेसी आपका सीखा हुआ गुण है। बात करनी है तो इसे ओढ़कर नहीं, छोड़कर कीजिए। नहीं तो मत कीजिए। चुप रहिए। वैसे, मुझे लगता है कि दुखती-दबती रगों के मामले में मैं न ही पड़ता तो बेहतर रहता। खैर, मैं भी इलाहाबादी हूं और इलाहाबादी लत अभी तक गई नहीं है।
क्या चक्कर है। आजकल की आपकी पोस्टों पर मैं टिप्पणी लिखता हूं, फिर सोचता हूं, मिटा देता हूं।
आज भी वही किया है।
Aapka likha hamesha behad apnepan se padhti aayi hun....aaj sheershak aur vishayvastu dekh kar dukh hua....
भड़ास के मॉडरेटर यशवंत ने जेल में काटी रात
दोस्त की बेटी से बलात्कार की कोशिश
अपने भीतर की बुराइयों को दिलेरी से सार्वजनिक करने वाले ब्लॉग भड़ास में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो इस ख़बर को अपने साथियों से बांटता। ऐसा तब भी नहीं हुआ था, जब यशवंत को उनकी कंपनी ने थोड़े दिनों पहले अपने यहां से धक्के देकर बाहर निकाल दिया था। जी हां, जागरण के बाद इंडिकस ने उन्हें अपने यहां से निकाल बाहर किया है - क्योंकि यशवंत की जोड़-तोड़ की आदत से वे परेशान हो चुके थे।
ताज़ा ख़बर ये है कि नौकरी से निकाले जाने के बाद यशवंत नयी कंपनी बनाने में जुटे थे। उन्होंने भाकपा माले के एक साथी को इसके लिए अपने घर बुलाया। ग्रामीण कार्यकर्ता का भोला मन - अपनी बेटी के साथ वो दिल्ली आ गये। सोचा यशवंत का परिवार है - घर ही तो है। लेकिन यशवंत ने हर बार की तरह नौकरी खोने के बाद अपने परिवार को गांव भेज दिया था। ख़ैर, शाम को वे सज्जन वापसी का टिकट लेने रेलवे जंक्शन गये, इधर यशवंत ने उनकी बेटी से मज़ाक शुरू किया। मज़ाक धीरे-धीरे अश्लील हरक़तों की तरफ़ बढ़ने लगा। दोस्त की बेटी डर गयी। उसने यशवंत से गुज़ारिश की कि वे उसे छोड़ दें। लेकिन यशवंत पर जैसे सनक और वासना सवार थी।
यशवंत ने दोस्त की बेटी के कपड़े फाड़ डाले और उससे बलात्कार की कोशिश की। लेकिन दोस्त की बहादुर बेटी यशवंत को धक्के देकर सड़क की ओर भागी और रास्ते के पीसीओ बूथ से भाकपा माले के दफ़्तर फोन करके मदद की गुहार लगायी। भाकपा माले से कविता कृष्णन पहुंची और उसे अपने साथ थाने ले गयी। थाने में मामला दर्ज हुआ और पुलिस ने यशवंत के घर पर छापा मारा।
यशवंत घर से भागने की फिराक में थे, लेकिन धर लिये गये। ख़ैर पत्रकारिता की पहुंच और भड़ास के सामाजिक रूप से ग़ैरज़िम्मेदार और अपराधी प्रवृत्ति के उनके दोस्तों ने भाग-दौड़ करके उनके लिए ज़मानत का इंतज़ाम किया।
अब फिर यशवंत आज़ाद हैं और किसी दूसरे शिकार की तलाश में घात लगाये बैठे हैं।
क्या है ये सब? अब आपके टिप्पणी भी बड़ी दुखी दुखी सी आने लगी है....आपसे कुछ सार्थक पोस्ट की उम्मीद रहती है,लिखिये मित्र....दूसरों के गिरेबान में झांकना ही है तो करोड़ों लोगों के गिरेबान में झाकिये पुन्न मिलेगा..
बहस गंभीर है. उम्मीद है कि नतीजे भी सार्थक होंगे.
क्रोधी क्यों हैं बोधि?
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