घर में कैद हैं
पिछले कई महीनों से बड़ी मुश्किल में हूँ। घर परिवार के अलावा भोजन और भटकन के आस-पास जीवन का रस जुटा था। वहाँ भी सेंध लग गई है। मिठाई खाता रहा हूँ लेकिन जब से नकली मावा और खोया बड़े पैमाने पर पकड़े गये मिठाइयों का स्वाद कम हो गया। बेसन के लड्डू को मैं मिठाई में गिनता नहीं था, लेकिन मजबूरी में आज कल वह भी मीठा हो कर इतरा रहा है। छेने की मिठाई भी उसी तरह मिलावट की मार से पराई हो गई है।
जलेबी बेहद पसंद करता था लेकिन नकली तेल और मिलावटी बेसन ने उससे भी दूर कर दिया है। यही नहीं इन हरामी नक्कालों ने दो वक्त के भोजन को भी बेस्वाद कर दिया है। जब से समझदार हुआ हूँ, गाढ़ी अरहर की दाल में दो चम्मच घी डाल कर खाता रहा हूँ। लगभग हर दिन गुड़ घी रोटी भी गूलता रहा हूँ, लेकिन हड्डी-चर्बी और पता नहीं क्या क्या मिला कर बेंचे जा रहे घी की खबर ने दाल को भी स्नेह से हीन कर दिया और गुड़ घी रोटी से वंचित । घर के दूध से जितना घी बन पा रहा है उसी से किसी तरह मन को संतोष दे रहे हैं।
देर रात में दो से तीन बजे के बीच ठंडे दूध में लाई बिस्किट और थोड़ा सा गुड़ डाल कर खाता था। यह सिलसिला भी पिछले कई सालों से चल रहा है। लेकिन मेरे मुहल्ले चारकोप से ही 1800 लीटर नकली दूध जब से मिला है दूध से दुश्मनी सी हो गई है। मेरे मुहल्ले के मिलावट करने वालों ने तो पानी तक साफ नहीं मिलाया था। जब उन्हें धरा गया तो वहाँ दूध बनाने के लिए लगभग 500 लीटर नाले का गाढ़ा गंदा पानी भर कर रखा मिला। उसके बाद से इस डेरी से उस डेरी भटक रहा हूँ लेकिन किसी भी दूध को ठीक नहीं मान पा रहा हूँ । हर दूध मिलावटी सा दिख रहा है। डर-डर कर चाय पी रहा हूँ। डर-डर कर कॉफी। जीना मुहाल है। मिलावट की मार झेल ही रहा था कि यह आ गया स्वाइन फ्लू। इसने तो रहा सहा भटकने का सुख भी छीन लिया है।
सरकार बड़े मजे से कह रही है कि पब्लिक प्लेस पर न जाएँ। अरे भाई घर के अलावा ऐसा कौन सा स्थान बचा है जो पब्लिक प्लेस नहीं है। बच्चों को लेकर पार्क नहीं जा सकता । बेटी को झूले पर नहीं चढ़ा सकता । सिनेमा नहीं दिखा सकता। पसंद की मिठाई नहीं खा सकता। बेफिक्र हो कर दूध और चाय नहीं पी सकता। दाल में घी नहीं डाल सकता, गुड़ घी रोटी नहीं खा सकता। तो कर क्या सकता हूँ। अगर अपने मन का कुछ कर ही नहीं सकता हूँ, बाहर जाकर घूम नहीं सकता केवल घर में कैद हो कर रहना है तो बेहतर है जेल भेज दो वहीं रहेंगे। जो दोगे खा लेंगे। जितने दायरे में रखोगे रह लेंगे। मान लेगें कि मेरी दुनिया इतनी ही रह गई है। इतना ही खाना है इतना ही जीना है।
Wednesday, August 12, 2009
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8 comments:
ये तो वोही बात हुयी कि हम कितने गरीब हैं कि बंगले की हिफ़ाजत के लिये सिपाही तक नहीं रख सकते। अब हमारा दर्द-ए-दिल सुनो।
असली मिठाई खाये हुये एक अर्सा हो गया, इंडियन रेस्टोरेंट में खाने के बाद परोसे गये गुलाबजामुन को चखा तो हरि हरि कह उठे। ऊँची आवाज में मित्र को बोला कि मथुरा में चौराहे पर कोई ऐसा गुलाबजामुन मुफ़्त में भी खिलायेगा तो पिटेगा कि मुंह का स्वाद खराब कर दिया।
अनिक घी का डिब्बा घर में रखा है लेकिन उसका करें क्या? रूममेट से लाख चिरौरी करो तो वो गाढी/पतली दाल बनाता है, उस पर धौंस कि अगले पूरे हफ़्ते के बर्तन मेरे जिम्मे और दूध/ब्रेड लाने का जिम्मा भी मेरा।
गुड घी रोटी: हे ईश्वर मुझे उठा ले...
और बेसन के लड्डू को मिठाई ही नहीं मानते: क्या चाहते तो जो मन में आ रहा है लिख डालें? चाहो तो २-४ किलो लड्डू हमें पार्सल कर दीजिये, एक एक लड्डू खाते खाते १००-१०० दुआयें देंगे। तुम एक लड्डू दोगे हम १०० दुआयें देंगे, और उसके बाद १५ और मुफ़्त में भूल चूक लेनी देनी के नाम पर।
आपके जेल जाने के अनुरोध पर सहानुभूति पूर्वक विचार किया गया लेकिन आपकी पात्रता न होने के कारण आपको यह सुविधा देने में प्रशासन असमर्थ है। खेद पत्र टाइप हो रहा है समय पर मिल जायेगा। तब तक आप जहां हैं, जैसे हैं वाली स्थिति में मस्त रहने का अभ्यास करें।
भीषण सत्य से साक्षात्कार करता लेख.... सच "जीना केहिं बिधि होय"
बड़ी पीड़ादायक स्थिति है । आपका दर्द पढ़कर आंसू छलक आए । हमारा घर सार्वजनिक स्थान नहीं है । आपके घर की छत से दिखता है । यहां आ सकते हैं । दूध की शुद्धता की गारंटी हम तो नहीं पर हमारा 'तबेले वाला' ज़रूर देता है । ट्राय करके देख लें । शुद्ध सप्रेम भोजन ।
सब लोग जेल चले जाएं .. तो वह भी पब्लिक प्लेस ही हो जाएगी न .. और जेल में क्या शुद्ध मिलेगा ?
सचमुच बडी भीषण स्थिति आन पडी है,जिसका कोई समाधान कहीं दूर दूर तक भी नहीं दिखाई दे रहा।
अब तो यही कह सकते हैं कि इस स्थिति को अपना प्रारब्ध मानकर भोगा जाए!!!
स्थिति की विकटता को दर्शाता एक चिन्तनपरक आलेख!!
आभार!
भय्ये, अब तो हवा में भी मिलावट है:)
अब तो घबराके ये कहते है कि मर जाएंगे
मर कर भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे?????
जाही विधि राखे राम
ताही विधि रहिये
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