इतना चुप रहेंगे तो कैसे कहेंगे
हिंदी में कम ही पुरस्कार हैं जिन्हें भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार के जैसा आला दर्जा हासिल है। किसी के कुछ कहने भर से इस पुरस्कार की मर्यादा कदापि कम न होगी। भले ही पुरस्कार पर सवाल उठाने वाला व्यक्ति इस पुरस्कार की सम्मानित ज्यूरी का सदस्य ही क्यों न हो....मैं बात विष्णु खरे जी की कर रहा हूँ। भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता सम्मान के संदर्भ में संकलित पुस्तक उर्वर प्रदेश की भूमिका में लिखित विष्णु खरे जी की इस प्रतिक्रिया रूपी टिप्पणी या लेख पर मुझे कुछ नहीं कहना है। क्योंकि इसमें अलग से कहने लायक कुछ है भी नहीं। कुछ निष्कर्ष हैं जो कोई भी निकाल सकता है, उन्होंने भी निकाला है। अगर विष्णु जी को यह लगता है कि कई कविताएँ भारत भूषण पुरस्कार के लायक नहीं थीं या कई कवि पुरस्कार पाने के बाद उचित दिशा में विकसित नहीं हुए तो उन्हें बोलने और कहने का पूरा अधिकार है। वे हमारे साहित्यिक समुदाय के एक एक बुजुर्ग जो हैं।
मेरे मन में उनकी छवि एक दबंग और स्पष्टवादी व्यक्ति या कहें कि लट्ठमार आलोचक या आजाद खयाल शहरी की रही है। दशाधिक बार उन्हें उनके विचारों को बेचारे की तरह नहीं बल्कि पूरी दहाड़ के साथ प्रकट करते सुना देखा है। उनकी यह दहाड़ यहाँ इस लेख में भी सुनी जा सकती है। लेकिन पता नहीं क्यों उनकी इस दहाड़ में एक बेचारगी का सुर दिख रहा है। मेरे विचलन का कारण भी उनकी अक्खड़ छवि के पीछे छिपी यही बेचारगी है। मैं इस खयाल से ही व्यथित होता जा रहा हूँ कि उनके जैसा स्वतंत्रता प्रिय व्यक्ति एक पुरस्कार समिति के दायरे में इतने दिनों तक कैसे घुट घुट के कैद रहा और उन तमाम कवियों को बेहतर और उत्कृष्ट कवि होने का प्रमाण पत्र देता है जिनकी कविताएँ उसे कत्तई किसी दर्जे की नहीं दिखतीं। अपने घर में टंगे भारत भूषण सम्मान पत्र पर उनके हस्ताक्षर देख कर उनका मजबूरी में दस्तखत करता अपमानित लज्जित मुख सामने कौंध गया। उनका यह हस्ताक्षर किसी संधि पत्र पर आँसुओं से हस्ताक्षर करने जैसे रूपक की याद दिलाता है। तीस साल, तीस हस्ताक्षर जिनमें कम से कम तेइस हस्ताक्षर तो उन्होंने मजबूरी में किए यानी कम से कम तेईस रातें तो मुँह छिपा कर रोकर काटी होंगी हिंदी के इस ईमानदार पुरस्कार दाता ने।
मैंने कल उनसे फोन पर इस बारे में बात करने की सोची । वे लखनऊ में थे, उनसे बात हुई भी। लेकिन मुझे लगा कि उन्हें उनकी गुलामगीरी या मजबूरी की याद दिलाकर उनको दुख देना अन्याय होगा, गए वक्तों के लोग हैं, 70 साला बुजुर्ग है, मान और प्यार न दे सकूँ तो उनकी बाँतों में छिपी वेदना तो समझ सकूँ, उनके मन के नाजुक जख्म को अगर सहला न सकूँ तो उन्हे कुरेदकर कर उन पर नमक भी तो न छिड़कूँ । उनको मुंबई में यारी रोड बरिस्ता पर मिलने के वादे के साथ उनके हाल पर छोड़ना बेहतर समझा।
मैं उम्मीद करूँगा कि अपने इस आजादी की अभिव्यक्ति के बाद हम सब के बुजुर्ग विष्णु खरे जी भारत भूषण स्मृति कविता सम्मान के किसी ऐसे प्रमाण पत्र पर दस्तखत न करेंगे, जिसके खिलाफ उन्हें कहीं बोलना या मुँह खोलना पड़े। आखिर वे किसी गुलाम देश, भाषा या संस्कृति के पिछलग्गू नहीं एक सफल अनुवादक, एक कुशल पत्रकार, एक आजाद खयाल आलोचक, एक सख्त कवि, एक संस्कारवान संस्कृति कर्मीं, और एक सच्चे पुरस्कार दाता रहे हैं।
मैं उनकी आलोचना पर लहालोट हो रहे तमाम समर्थकों से भी कहना चाहूँगा कि भाई उनकी मजबूरी का बयान करती आलोचना के सत्कार में जब कूदो तो उनके दुत्कार को यूँ चापलूसों की तरह तो न चाटो, बल्कि उनकी बेकली को समझो। यह तो समझने की कोशिश करो कि आखिर हमारे समय का एक समर्पित साहित्यिक तीस साल तक कितने दुखों और अपमान की अंधेरी खूनी नदियों और कीचड़ से सनी बजबजाती कोठरी फंसा रहा। बंधक रहा। भाई उसे बल दो और रास्ता दिखाओ कि वह ऐसे किसी बंधन से आजाद होने का कोई उपाय कर सके। वहाँ से निकल कर खुली हवा में जी सके। मैं व्यक्तिगत तौर पर विष्णु जी के सुख चैन भरी आजादी के लिए दुआ करता हूँ। वे शतायु हों, उनकी आजाद खयाली निर्बंध बनी रहे। और यह प्रार्थना भी करूँगा कि विष्णु जी तीस साल चुप रहेंगे तो बाद वालों से कैसे कहेंगे कि बोलते रहो, विरोध में आवाज लगाते रहो। क्योंकि भारतेंदु जैसे लोगों को कुल 35 साल की उमर ही नसीब हुई। भला सोचिए कि वे 30 साल चुप रहते तो अंधेर नगरी में चौपट राजा को थू...थू कैसे कहते।
( ऊपर बाएँ भारत भूषण पुरस्कार का एक प्रमाण पत्र, नीचे विष्णु खरे जी और उनके ऊपर प्रमाण पत्र पर किया गया उनका मजबूरी का हस्ताक्षर)मेरे मन में उनकी छवि एक दबंग और स्पष्टवादी व्यक्ति या कहें कि लट्ठमार आलोचक या आजाद खयाल शहरी की रही है। दशाधिक बार उन्हें उनके विचारों को बेचारे की तरह नहीं बल्कि पूरी दहाड़ के साथ प्रकट करते सुना देखा है। उनकी यह दहाड़ यहाँ इस लेख में भी सुनी जा सकती है। लेकिन पता नहीं क्यों उनकी इस दहाड़ में एक बेचारगी का सुर दिख रहा है। मेरे विचलन का कारण भी उनकी अक्खड़ छवि के पीछे छिपी यही बेचारगी है। मैं इस खयाल से ही व्यथित होता जा रहा हूँ कि उनके जैसा स्वतंत्रता प्रिय व्यक्ति एक पुरस्कार समिति के दायरे में इतने दिनों तक कैसे घुट घुट के कैद रहा और उन तमाम कवियों को बेहतर और उत्कृष्ट कवि होने का प्रमाण पत्र देता है जिनकी कविताएँ उसे कत्तई किसी दर्जे की नहीं दिखतीं। अपने घर में टंगे भारत भूषण सम्मान पत्र पर उनके हस्ताक्षर देख कर उनका मजबूरी में दस्तखत करता अपमानित लज्जित मुख सामने कौंध गया। उनका यह हस्ताक्षर किसी संधि पत्र पर आँसुओं से हस्ताक्षर करने जैसे रूपक की याद दिलाता है। तीस साल, तीस हस्ताक्षर जिनमें कम से कम तेइस हस्ताक्षर तो उन्होंने मजबूरी में किए यानी कम से कम तेईस रातें तो मुँह छिपा कर रोकर काटी होंगी हिंदी के इस ईमानदार पुरस्कार दाता ने।
मैंने कल उनसे फोन पर इस बारे में बात करने की सोची । वे लखनऊ में थे, उनसे बात हुई भी। लेकिन मुझे लगा कि उन्हें उनकी गुलामगीरी या मजबूरी की याद दिलाकर उनको दुख देना अन्याय होगा, गए वक्तों के लोग हैं, 70 साला बुजुर्ग है, मान और प्यार न दे सकूँ तो उनकी बाँतों में छिपी वेदना तो समझ सकूँ, उनके मन के नाजुक जख्म को अगर सहला न सकूँ तो उन्हे कुरेदकर कर उन पर नमक भी तो न छिड़कूँ । उनको मुंबई में यारी रोड बरिस्ता पर मिलने के वादे के साथ उनके हाल पर छोड़ना बेहतर समझा।
मैं उम्मीद करूँगा कि अपने इस आजादी की अभिव्यक्ति के बाद हम सब के बुजुर्ग विष्णु खरे जी भारत भूषण स्मृति कविता सम्मान के किसी ऐसे प्रमाण पत्र पर दस्तखत न करेंगे, जिसके खिलाफ उन्हें कहीं बोलना या मुँह खोलना पड़े। आखिर वे किसी गुलाम देश, भाषा या संस्कृति के पिछलग्गू नहीं एक सफल अनुवादक, एक कुशल पत्रकार, एक आजाद खयाल आलोचक, एक सख्त कवि, एक संस्कारवान संस्कृति कर्मीं, और एक सच्चे पुरस्कार दाता रहे हैं।
मैं उनकी आलोचना पर लहालोट हो रहे तमाम समर्थकों से भी कहना चाहूँगा कि भाई उनकी मजबूरी का बयान करती आलोचना के सत्कार में जब कूदो तो उनके दुत्कार को यूँ चापलूसों की तरह तो न चाटो, बल्कि उनकी बेकली को समझो। यह तो समझने की कोशिश करो कि आखिर हमारे समय का एक समर्पित साहित्यिक तीस साल तक कितने दुखों और अपमान की अंधेरी खूनी नदियों और कीचड़ से सनी बजबजाती कोठरी फंसा रहा। बंधक रहा। भाई उसे बल दो और रास्ता दिखाओ कि वह ऐसे किसी बंधन से आजाद होने का कोई उपाय कर सके। वहाँ से निकल कर खुली हवा में जी सके। मैं व्यक्तिगत तौर पर विष्णु जी के सुख चैन भरी आजादी के लिए दुआ करता हूँ। वे शतायु हों, उनकी आजाद खयाली निर्बंध बनी रहे। और यह प्रार्थना भी करूँगा कि विष्णु जी तीस साल चुप रहेंगे तो बाद वालों से कैसे कहेंगे कि बोलते रहो, विरोध में आवाज लगाते रहो। क्योंकि भारतेंदु जैसे लोगों को कुल 35 साल की उमर ही नसीब हुई। भला सोचिए कि वे 30 साल चुप रहते तो अंधेर नगरी में चौपट राजा को थू...थू कैसे कहते।
प्रसंग में ग्वालियर में रह रहे एक युवा कवि अशोक कुमार पाण्डे की एक टिप्पणी उनके बलॉग युवा दखल पर भी देखें।
5 comments:
विष्णु खरे की इस तथाकथित भूमिका को पढ़ कर समझ आता है की मुक्तिबोध आलोचक को साहित्य का दारोगा और चेखव आलोचक को घुड़मख्खी क्यों कहते थे !! ऐसे आलाचकों के कारण ही दुनिया भर के कई रचनाकार आलोचक नाम से चिढ़ते हैं…..
इस भूमिका का उद्देश्य इसके उपशीर्षक में स्पष्ट है ” एक अंशतः विवादस्पद जायजा ”
विष्णु खरे ने वाग्जाल बुनकर जो ब्लर्ब लिखे हैं उनकी रोशनी में मुझे साफ नजर आ रहा है की ये भूमिका सिर्फ विवाद पैदा करने के लिए लिखी गयी है. चार- दस लाइन में दाखिल-खारिज करके अदालती फैसला सुनाना विष्णु खरे के अगंभीर रवैये की पुष्टि मात्र करता है. विष्णु खरे ने इस संग्रह का चर्चा में आने के लिए दुरूपयोग किया है. यह भूमिका पुरस्कार समारोह ख़त्म होने के बाद बाहर जनता को फोटो कापी बांटी गयी. मेरी रूचि तो उस अंशतः संशोधन को जानने में है जो विष्णु खरे ने किताब में दी हुयी भूमिका में किया है…..पता तो चले की जनता को बांटे गये और किताब में छपवाए गये पाठ के बीच में क्या फर्क है ?
आप की बात सही है पर व्यथा से मैं सहमत नहीं हो पा रहा.. मेरे मत से आप को किसी एक व्यक्ति की राय को इतना भाव देने की ज़रूरत नहीं..
मैंने सबद पर यह कमेन्ट लिखा है :
अच्छी बुरी कविताएं लिखी जाती हैं.. और पुरस्कार भी साधे जाते हैं.. हिन्दी में ही नहीं अंग्रेज़ी में भी.. अगर जुगाड़ से नहीं तो किसी अन्य हेतुओं से..
बड़ी देर में चेते..खैर! खरे जी ने देर से ही अपनी राय सामने रखी, अच्छी बात है.. उन्हे उसे रखने का पूरा अधिकार है, मैं उसका सम्मान करता हूँ, जितना किसी दूसरे व्यक्ति की राय का। आखिर कला मनोजगत का मामला है.. कोई आलू-प्याज़ तो है नहीं कि एक आलोचक ने तोल के बता दिया कि तीन छटांक है तो हर किसी के लिए उतना ही पड़ेगा।
आदरणीय खरे जी की राय को अन्तिम ईश्वरीय निर्णय मानने की कोई ज़रूरत नहीं है.. जैसा कि कुछ लोग आभास दे रहे हैं..
वो शायद इसलिए कि हिन्दी में प्रकाशक जो किताब छापता है उसे सरकारी संस्थानों में हिन्दी प्रभाग में जंग खा रही अलमारियों के खानों में ऊपर नीचे करने वाले चूहे पढ़ते हैं। कवि सम्मेलन में भी तो नहीं जाते हिन्दी कवि, जाना चाहे भी तो कैसे.. कविता से संगीत तो कब का घर-निकाला पा चुका। बेचारा कवि अपनी कविता के मूल्यांकन के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ आलोचक पर निर्भर है, और अपनी प्रतिष्ठा के लिए इन्ही आलोचको द्वारा निर्णीत पुरस्कारों पर।
हिन्दी हर भारतीय का गौरव है
उज्जवल भविष्य के लिए प्रयास जारी रहें
इसी तरह जानकारी पूर्ण चर्चाएँ ,
लिखते रहें
जिन्हें रचना कर्म से जुड़े रहना है ..
वे कार्य करते रहें .
किसी भी पुरसाकर या आलोचक की परवाह किये बिना
yh theek hai ki puraskaron kee leela ajab hai aur puraskar ka chayan karne walon kee. apne khare jee ke samman men jo kuchh kaha hai, bilkul theek hai aur apka jo teekha sawalon bhara vyangy hai, vh bhee. yh dahadne wala alochak shuruaati jeevan men namvar jaison ka jhola bhi utha hi chuka hai.
अब इस व्यथा पर कौनसी बात कही जाए?
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