Tuesday, November 17, 2009

शिरीष मौर्य को लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान




पृथ्वी पर एक जगह को मिला सम्मान

शिरीष कुमार मौर्य हिंदी कविता का एक युवा और सधा स्वर हैं। उनके कई संकलन प्रकाशित हैं। १९९४ में कथ्यरूप ने पहला कदम नाम से उनकी काव्य पुस्तिका प्रकाशित की थी। फिर २००४ में उनका एक और कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। वे वर्तमान युवा कविता के कुछ उन कवियों में से हैं जिनकी कविता से हिंदी का भविष्य उज्वल दिखता है। युवा कविता के लिए प्रगतिशील वसुधा द्वारा संयोजित तथा लीलाधर मंडलोई द्वारा अपने पिता की स्मृति में स्थापित लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान (वर्ष २००९) शिरीष को उनके तीसरे कविता संग्रह "पृथ्वी पर एक जगह" के लिए दिया गया है। शिरीष को सम्मान देने की अनुशंसा विष्णु नागर, चंद्रकांत देवताले तथा अरुण कमल के तीन सदस्यीय निर्णायक मंडल ने सर्वानुमति से की है। सम्मान समारोह जनवरी माह में छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश में आयोजित होगा। सम्मान संबंधी यह घोषणा वसुधा पत्रिका के संपादक कमला प्रसाद ने की है। शिरीष की कविता पर कुछ न कहना चाहते हुए भी यह कह रहा हूँ कि हिंदी में कम कवि हैं जिनके पास इतनी सुगठित भाषा और विराट भाव संसार है।
शिरीष को इस सम्मान के लिए बधाई ।
यहाँ शिरीष की एक अप्रकाशित और प्रकाशित कविता पढ़ कर उन्हें बधाई दें।

मैं ऐसे बोलता हूँ जैसे कोई सुनता हो मुझे !

रात भर पुरानी फिल्मों की एक पसन्दीदा श्वेत-श्याम नायिका की तरह
स्मृतियां मंडराती
सर से पांव तक कपड़ों से
ढंकींकुछ बेहद मज़बूत पहाड़ी पेड़ों और घनी झरबेरियों के साये
में कुछ दृश्य बेडौल बुद्धू नायकों जैसे गाते आते ढलान पर

एक निरन्तर नीमबेहोशी के
बादमैं उठता तो एक और सुबह पड़ी मिलती दरवाज़े के
पारउसकी कुहनियों से रक्त बहाताउसकी
पीठ के नीचे अख़बार दबा होता उतना ही लहूलुहान
वह किसी पिटी हुई स्त्री सरीखी
लगातीमेरी पत्नी इसे अनदेखा करती जैसे वह सिर्फ मेरी सुबह हो उसकी नहीं
मैं अपनी सुबह के उजाले में अपने सूजे हुए पपोटे देखता
ठंडी होती रहती मेज़ पर रखी चाय
मेरे मुंह में पुराने समय की बास बसी रहती बुरी तरह साफ़ करने के बाद वह कुछ और गाढ़ी हो जाती
मेरे हाथों से उतरती निर्जीव त्वचा की सफ़ेद परत और मेरा बेटा हैरत से ताकता उसे
इस तरह अंतत: मैं तैयार होता और जाता बाहर की दुनिया में
और वहां बोलता ज़ोर ज़ोर से ऐसे जैसे कि कोई सुनता हो मुझे

रात में शहर

दिन की सबसे ज्यादा हलचल वाली जगहें ही
सबसे ज्यादा खामोश हैं
अबचौराहे पर अलाव जलायेपान की दुकान के बन्द होते समय
नियम से सुरक्षा शुल्क
मेंमिलने वाली सिगरेट फूँकते हैंपुलिस बल के दो महाबली सिपाहीएक
गठीला गोरखा भी है वहाँजो
अकेला ही `जागते रहो´ पुकारता घूमता
हैपास ही नेपाल मेंराजा की सुलायी
सदियों पुरानी नींद सेअकबका कर जाग रहीअपनी
शानदार जनता से बेखबरवह फिलहालरानीखेत की सर्द अक्टूबरी रात
और उसके जादू में कहींपोशीदा घूमतेलुटेरों
और सेंधमारों से खबरदार भर करता हैआसमान के सीने पर
टिमकते हैं तारेकभी-कभीटिमकती हैं यादें
उस गोरखे के सीने में भीगाता है जिसके लिएवह
अपना बेहद पसन्दीदा मगर गूढ़ नेपाली गानादूर
कहीं वह एक लड़की है बहुत सुन्दरफूलों वाला रिबन
बाँधेकच्चे दुर्गम पहाड़ी रास्तों से गुज़रतीक्या
उस तक भी पहुंचती होंगी ये बेतरतीबमगर मदमस्त स्वरलहरियाँदिन
भर की सख़्त मेहनत के बाद बमुश्किल नसीबअपनी
थोड़ी-सी नींद में भीजो न जाने किस बेचैनी में रह-रहकरकरवटें बदलती है ?
चीड़ों और बाँजों और देवदारों और ढेर सारीपहाड़ी इमारतों पर
पसरेअंधियारे मेंउसका यह अबूझ गान ओस की बूँदों-सा साफ़ चमकता
हैऔर कहीं जुड़ता है मेरी भी आँखों सेजिन्हें मैंने अभी-अभी पोंछा हैयह
मेरा ही शहर हैजिसे मैं बहुत कम देख पाता हूँमैं नहीं देख पाता
वो रस्ते जिनसे रोज़ गुज़रता हूँ नहीं मिल पाता उनसेजिनसे मैं रोज़ मिलता हूँ
उस चौराहे को तो मैं सबसे कम जानता हूँ रहता हूँ
ऐन जिसके ऊपर बनेअपने घर मेंयह जानना कितना अद्भुत है
कि उजाले में छुप जाती हैंकई सारी चीज़ेंऔर अंधेरा उन्हें उघाड़ देता
हैइस रास्ते पर एक पागल सोया है ऐसी पुरसुकून नींदजो
होश वालों की दुनिया मेंकिसी कोशायद ही मिलती हो इस क़दरवह
मानोहर चीज़ से फ़ारिग हैउसके सोये चेहरे पर मैल की कई परतों के
नीचेमुस्कुराता है एक बच्चावह नींद में भी अपने हाथ बढ़ाता
हैमगर कहीं कोई नहीं हैउसके लिएमाँ की कोई गोद नहींऔर
न ही आगोश किसी प्रेयसी काजो है तो बस यही रस्ताजिस पर से
मैं रोज़ गुज़रता हूँउस
परिचित को हृदयाघात हुआ थाजिसे मैंअभी छोड़कर आया अस्पताल तकयह
मालूम होते हुए भी
कि दरअसल इस शहर का सबसेहृदयहीन आदमी है
वहजानता हूँमेरा भी हृदय अब उतना सलामत नहीं रहाउसमें भी आने लगी हैं खरोंचेंउसके
और दिमाग़ के बीच तनी हुईकई-कईधमनियों और शिराओं में लगातार जारी हैएक
जंगतभी तो मेरी सूजी हुई कनपटियों के भीतरकिसी गुहा मेंकोई रह-रहकर चौंकता हुआ-साकहता है -खोजो ! खोजो उसे
वो शिरीषयहीं तो रहता है !
अपने ही शहर कीएक अनदेखी रात के बीचोंबीचख़ुद को ही
खोजताभटकतासोचता हूँ मैंकि ऐसा ही होता है लगातार
खुलती हुई दुनियाऔर बन्द होते जीवन मेंयह
बेहद दुखदलेकिनएक तयशुदा तरीका हैरोशनी से भरे किसी भी
दिल केअचानक
भभक करबुझ जाने का।

नोट- दूसरी कविता के वाक्य मेरे सम्पादन में उलझ गए हैं। शिरीष के ब्लॉग का अनुनाद आप यहाँ देख सुन सकते हैं।