Friday, June 4, 2010

बेटी उदास है और माँ के हाथ कठोर



दो कविताएँ


पिछले दिनों देश के दो बड़े दैनिक अखबारों में मेरी दो कविताएँ छपीं। एक कविता विष्णु नागर जी ने नई दुनिया में और दूसरी गीत चतुर्वेदी ने दैनिक भास्कर में छापी। इन कविताओं पर कई मित्रों और कुछ नए पाठकों के मेल आए। लोग बताते हैं कि इन अखबारों के करोड़ों पाठक हैं। मुझे यह हमेशा अच्छा लगता है कि कठिनाई से हजार की संख्या में छपने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ ही कविता या साहित्य दैनिक अखबारों में भी प्रकाशित होनी चाहिए। उन दोनों कविताओं को विष्णु जी और गीत के प्रति आभार प्रकट करते हुए यहाँ छाप रहा हूँ। पढ़े और हो सके तो अपनी प्रतिक्रिया दें।



बेटी


आजकल मेरी छोटी बेटी को
कुछ भी ठीक नहीं लग रहा।

न घर न बाहर
न मैं न माँ
न भाई न बहन
न कोई फिल्म
न कोई गाना
न खाना
कुछ भी उसे अपना सा नहीं लग रहा।

बस एक फोन का इंतजार करती रहती है
दिन भर
बस एक नंबर है जिस पर लगा रहता है
उसका मन
बस उसी फोन के लिए जागती रहती है
रात भर
दिन भर में कितनी बार रिचार्ज कराती है
सिम कार्ड।

कल पानी माँगा तो देखती रही मुझे
जैसे सुनी न हो मेरी बात
आज माँ ने कहा कि चली जाओ नानी को देखने तो
बोली बात कर लिया है नानी से
वे ठीक हैं
जाना हो तो
आप जाओ।

बस फिरती रहती है
नेट वर्क को देखती
बातें इतनी धीमें करती है कि या तो वह सुने या
वह जिससे वह कर रही होती है बात।

इस बाइस नवम्बर में हो जाएगी
बीस साल की
मैं समझ सकता उसकी मुश्किल
लेकिन कर नहीं पा रहा हूँ उसकी कोई मदद
बस देख रहा हूँ उसे इधर-उधर परेशान होते
कौन है जिससे वह करती हैं बातें
कहाँ रहता है वह
उसके घर में भी यही हाल होगा
सब उलझन में होंगे
पता नहीं क्या सोचते होंगे
मेरी बेटी के बारे में
बकते हों शायद गालियाँ।

क्या करूँ
समझ में नहीं आ रहा है।

कल उसकी माँ ने कहा
यह ठीक नहीं है
मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ यह ठीक नहीं है
अभी पढ़ रही है
अगले महीने से इम्तहान हैं
क्या होगा
क्या कर पाएगी ऐसी हालत में
सचमुच कुछ समझ नहीं पा रहा।


न ठीक से खाती है न पीती है
बस ऐसे ही जीती है।
और हम सब देखते रहते हैं उसका मुह
जब वह खुश होती है
हम मुसकाते हैं
नहीं तो चुप हो इधर-उधर की बातें बनाते हैं।



माँ के हाथ


आज सुबह अचानक माँ के हाथों की याद आई,
कितने कठोर-कड़े और बेरौनक हैं उसके हाथ,
हरदम काम करती,
पल भर को न आराम करती,
गोबर हटाती, उपले पाथती, रोटियाँ सेंकती,
चापाकल चलाती, बरतन मलती, ठहर लगाती,
ऐसा लगता है हाथों के बल धरती पर चलती है
नहीं तो इतने कठोर और कड़े कैसे हो गए
उसके हाथ।

उसके हाथ सदा से तो ऐसे न रहे होंगे
कभी तो कोमल रहे होंगे उसके
कभी तो उनमें भी रचती रही होगी मेहदी
लेकिन जब से जानता हूँ मां को
देख रहा हूँ
उसके हाथों के कठोरपन को
रात में हमें जब आ रही होती थी नींद
आती थी वह हमारे पास
तेल की कटोरी लिए अपने कठोर हाथों से
लगाती हमारे सिर पर तेल
सवांरती हमें जब हम नींद में जा पहुँचते
तब तक वह जागती हमारे सिरहाने बैठ कर
हमारा मुह निहारती।

अभी वह दूर है
मैं सचमुच का परदेशी हो गया हूँ
लग रहा है जैसे वह दूसरे लोक चली गई हो
बस उसके हाथ दूर से दिख रहे है
खटते हुए, हमें संवारते हुए बनाते हुए
हर फटे पुराने को जोड़ते चमकाते हुए।



33 comments:

स्वाति said...

kavitae acchi lagi. aabhar..

Jandunia said...

बहुत सुंदर कविता

आचार्य उदय said...

आईये जानें ..... मन ही मंदिर है !

आचार्य जी

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर कविताएँ!

प्रवीण पाण्डेय said...

दोनों ही बहुत सुन्दर कवितायें हैं ।

शिरीष कुमार मौर्य said...

दोनों कविताएँ बहुत अच्छी. दूसरी वाली मुझे ज़्यादा दिल के क़रीब लगी पर मेरे लिए वे माँ के नहीं दादी के हाथ हो गए...ये अखबार तो यहाँ आते नहीं...इन्हें यहाँ लगा कर हम तक पहुँचाने का शुक्रिया बड़े भाई....

संजय कुमार चौरसिया said...

bahut sunder rachna

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

परमेन्द्र सिंह said...

बहुत ही सुन्दर कविताएँ हैं। बधाई। आपका यह विचार भी अच्छा है कि कविताएँ दैनिक अखबारों में भी छपें। लेकिन अखबारों में कविता या साहित्य के लिए स्थान ही कहाँ बचा है ?

परमेन्द्र सिंह said...

बहुत ही सुन्दर कविताएँ हैं। बधाई। आपका यह विचार भी अच्छा है कि कविताएँ दैनिक अखबारों में भी छपें। लेकिन अखबारों में कविता या साहित्य के लिए स्थान ही कहाँ बचा है ?

SHEKHAR said...

kavita acchi lagi...........

vandana gupta said...

दोनो ही कवितायें बेह्तरीन है…………बधाई।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दोनों कविताएँ अलग अलग रंग लिए हुए...और मन के भावों को सशक्त रूप से बयां कर रही हैं...सुन्दर रचनाएँ

Ashok Kumar pandey said...

बेटी वाली कविता तो पढ़ी ही थी…लेकिन मां का नाच के बाद मां के हाथ पढ़ना वास्तव में ट्रीट जैसा था…शिरीष भाई की ही तरह मेरे लिये भी ये दादी के ही हाथ हैं…

अख़बार का अनुभव मेरा भी बहुत अच्छा रहा है…गीत के भोपाल आने के बाद भास्कर के रसरंग में वाकई रस आ गया है…आपके बहाने उसे भी बधाई!!

डॉ .अनुराग said...

दूसरी कविता मुझे व्यक्तिगत तौर पे पसंद आयी...बेहद खूबसूरत ...पहली में एक उम्र के नाजुक मोड़ पर पहुंचे रिश्तो में बेलेंस बनाने की दुविधा तो है .पर थोड़ी सपाट बयानी है .....आपकी पुरानी कविताये पढ़कर आपसे अपेक्षाए ज्यादा है .......

शरद कोकास said...

एक कविता बेटी पर और एक माँ पर । माँ पर इस तरह की कवितायें तो पढ़ी हैं लेकिन बेटी पर यह अपने कथ्य और शिल्प में अपने तरह की एक अलग कविता है । डीटेल्स में न जाते हुए केवल ब्योरों के माध्यम से सब कुछ कह देना भी एक कला है ।
अब दूसरी बात अखबार में छपने वाली कविताओं पर । एक बार आदरणीय परसाई जी से इस पर बात हुई थी उन्होने इस बात पर ज़ोर दिया था कि कवियों को अखबारों में अवश्य लिखना चाहिये । लोग कविता भले ही न पढ़ें लेकिन कविता के अस्तित्व के लिये यह ज़रूरी है ।
मैंने कई वर्षों तक अखबारों में कवितायें भेजीं फिर कतिपय कारणों से बन्द कर दीं आज की आपकी पोस्ट से प्रेरित हुआ हूँ देखता हूँ कहीं कुछ भेज सकूँ ।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

दोनों ही कविताएँ बहुत अच्छी हैं.
सीधी-सरल भाषा में सच्ची बात.

एक बेहद साधारण पाठक said...

सुंदर कविताएँ

pallav said...

'बेटी' अद्भुत कविता है.

प्रज्ञा पांडेय said...

माँ बहुत सुंदर लगीं .मार्मिक अभिव्यक्ति ! अखिलेश जी बधाई !!

Sanjeet Tripathi said...

pahli kavita aaj ke samay me jo hamare aaspas ghat raha hai se bahut karine se rekhankit kar rahi hai. meaningful.

dusri kavita dil ki baat hai.......aapke hamare, bahut se logo ke liye......lekin jis tarah se aapne ise shabdo me dhala hai kam hi log is bhaav ko itne saral shabdo me dhaal sakte hain...
sparshi kavita bhai sahab

rashmi ravija said...

दोनों ही कवितायें बहुत अच्छी लगीं...बिलकुल यथार्थपरक
पहली कविता मन को छू गयी...अमूमन पिता के मन में उठते भावों को शब्द कम ही दिए गए हैं...जबकि पिता की आँखें भी सब गुनती-देखती रहती हैं...बहुत ही सरल,शब्दों में बाँधा है,भावनाओं को

दूसरी कविता तो शायद सबके मन की बात है...माँ को देख ऐसी बातें सबके मन में कभी ना कभी आती ही हैं...पर उन्हें इतने सार्थक शब्दों में एक कवि- मन ही व्यक्त कर सकता है...

शारदा अरोरा said...

बढ़िया , बेटी पर कविता बिल्कुल आज के समय का सत्य है ।

Narendra Vyas said...

बहुत सुन्दर प्रभावशाली भावाभिव्यक्ति ! आपको नमन !

शेफाली पाण्डे said...

donon hee bahut achchhe lagee....

Arshad Ali said...

एकदम सटीक लेखनी ...उत्तम कवितायें .

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

‘ऐसा लगता है हाथों के बल धरती पर चलती है माँ’ बहुत अच्छी कविता है , हमारी स्मृतियों को झकझोरनेमें समर्थ। बेटी के ब्यौरे बहुत सहज और स्वाभाविक हैं, ऐसी बेटी के पिताओं को सुकून पहुँचाने वाले।

प्रदीप कांत said...

बोधि भाई,

बेटी की दुविधा और माँ कठोर हाथों की भी ममता - जब कविता में आऐंगी तो अपनी गहन संवेदनात्मक के कारण सभी को टटोलेंगी। हमेशा की तरह् बेहतरीन कविताओं पर बधाई।

प्रदीप जिलवाने said...

दोनों ही कविताएं उम्‍दा है.

विवेक रस्तोगी said...

बेटी उदास है कविता से हमारे मम्मी और पापाजी बहुत प्रभावित थे और हमसे पूछा भी था कि क्या उनकी बेटी २० वर्ष की है, हमने कहा नहीं, क्यों फ़िर उन्होंने कविता के बारे में बताया तो हमने कहा लाईये हम भी कविता पढ़ लें, पर पुराने अखबारों मे इस कविता के लिये सारे अखबार खंगाल डाले पर मुआ वो अखबार नहीं मिला, आज अजीत जी के ब्लॉग से इधर आया तो वह कविता पढ़ने को मिली। दोनों कविताएं बहुत ही अच्छी लगीं।

बोधिसत्व said...

यह तो मेरे लिए बड़ी अच्छी बात है....कि पिता जी और माता जी को कविता अच्छी लगी....हो सकेगा तो कभी उनसे बात भी करना चाहूँगा....उन्हें मेंरा प्रणाम कहें...आपका आभार...

Anonymous said...

'बेटी' पढ़ी. आपकी,मेरी सबकी बेटी की मनःस्थिति.जब माँ नही बनि तब मेरी स्थिति हर युग ,काल में इस स्थिति से गुजरी हैं सब बेटियां और बेटे भी.पर...बेटी के लिए चिंतित और सम्वेदनशील माता-पिता ज्यादा होते हैं.कविता क्या है युवास्था का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है ये रचना.
अब तक कहाँ थे भई?
अब तो आते रहना होगा मुझे,आपके ब्लोग पर.

Ramesh Pandey said...

bahut dinoN ke baad aaj aapke blog par aaya..donoN kavitayeN padheeN..adbhut haiN donoN..badhayee!

झारखंडी आदमी said...

bahut pahle aapka ko padha tha aaj is wiswavyapi soochna sanchar jal me sanyog semil gaye shaitya padhta hoon,
apko padha acha laga