मैंने विभूति जी के मांफी मांग लेने के बाद इस प्रकार के किसी भी अभियान का समर्थन न करने की बात कही थी जिसमें उनकी बर्खास्तगी या निलंबन की मांग की गई हो। मैं अपने उस मत पर अभी भी कायम हूँ। मेरे द्वारा विभूति जी का विरोध न करने से कुछ लोग इतने उत्तेजित हो गए हैं कि मेरे खिलाफ गाली गलौच पर उतर आए हैं।
लोक तंत्र में बहुमत कितना खतरनाक हो सकता है या बहुमत का माहौल बना कर लोग क्या-क्या कर सकते हैं इसका ताजा उदाहरण है विभूति नारायण राय के खिलाफ की जा रही गोलबंदी और इन गोलबंदों हुए लोगों द्वारा की जा रही माँगें।
हमारे यहाँ एक कहावत है कि बोलने पर जीभ और छींकने पर नाक काट लेंगे। तर्क यह है कि जीभ रहेगी तो आदमी आगे भी बोलेगा और नाक रहेगी तो छींकेगी, सो दोनों को काट दो। मामला सदैव के लिए खतम हो जाएगा। कुछ लोग हिंदी समाज से विभूति नारायण राय को निकाल बाहर करने पर आमादा हैं और वे उनके माफी मांग लेने को बेमन की या आधी-अधूरी माफी कह रहे है। उनके लिए विभूति जी द्वारा मांगी गई यह माफी सच्ची माफी, मन से माफी, सहज माफी, शुद्ध माफी नहीं है।
एक का कहना है कि यह पुलिसिया माफी है तो एक कह रहा है कि नौकरी बचाने के लिए माफी है। एक कह रहा है कि यह महिला समाज से नहीं मागी गई है तो एक कह रहा है कि पूरे भारतीय समाज से नहीं माँगी गई है। कुछ का कहना है कि इस मांग में दलित तबके के साथ हो रहे अन्यायों को भी शामिल कर लिया जाए। यानी सब के अपने अपने तरीके हैं. सबका अपना अपना राग है। अपनी-अपनी माँगे हैं।
एक तबका है जो घंटे दो घंटे पर यह लिख रहा है कि देखो माफी मांगने के लिए 130 लोग कह रहे हैं। एक का कहना है देखो बर्खास्तगी के लिए 80 (लेखक) लोग कह रहे हैं। देखो हमारे साथ लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। एक का कहना है कि उन संस्थाओं से कोई ताल्लुक तब तक न रखा जाए जब तक कि विभूति जी अपने पद पर बने हैं। वहाँ भी संख्या का लेखा-जोखा रखा जा रहा है और पेश किया जा रहा है। मित्रो यदि सब कुछ संख्या से ही तय करना है तो इससे दुखद और क्या हो सकता है। यदि कभी प्रतिक्रिया वादी पार्टियाँ जैसे भाजपा, शिवसेना, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना या इस तरह का कोई दल संख्याबल के आधार पर देश की गद्दी पर काबिज हो जाए और मनमानी करने लगे तो यह मत रोना कि देखो संख्या बल के आधार पर सब गड़बड़ किया जा रहा है।
कई लोग तो इतने उत्साह में हैं जैसे कोई विभूति बलि यज्ञ हो रहा हो और देश भर से भक्त लोग घंटा घड़ियाल कटार लेकर चले आ रहे हों कि देखो यह मेरी आहुति है देखो और इसे अर्पित करने दो। मुझे भी कुछ करने का अवसर दो। कई तो इतने उत्तेजित हैं कि 4 या 5 तरह की मांग कर हे है। पहला वे ठीक से माफी मांगने को कह रहे है। दूसरा वे बर्खास्तगी के लिए कह रहे हैं। तीसरा वे निलंबन के लिए कह रहे हैं। चौथा वे बहिष्कार के लिए कह रहे हैं। पाँचवां वे भविष्य में ऐसा कुछ न करने को कह रहे हैं।
इसके साथ ही लेखकों एक धड़ा अब इस मामले को और तूल देने के विरोध में हस्ताक्षर अभियान चला रहा है। वहाँ भी 70 लेखक अपनी सहमति दर्ज करा चुके हैं।
लेकिन मेरा कहना यह है कि लोक तंत्र में यह कैसा दौर है जिसमें बोलने की आजादी नहीं रहेगी। यह एक खाप पंचायत से संचालित लेखक समाज होगा जहाँ लोग वही कहेंगे जिसके लिए गिरोहबंद लेखक अपनी सहमति दे देगे। हर साक्षात्कार हर लेख पहले इन भाई लोगों के अवलोकनार्थ भेंजना होगा जिसे ये लोग प्रकाशित करने लायक समझेंगे वही छपेगा। यह एक प्रकार का समानान्तर सरकार या सेंसर बोर्ड बनाने की एक सोची-समझी चाल है। जिसमें माफी नहीं समूल नाश से न्याय किया जाएगा।
यदि किसी ने कुछ असावधानी से या कैसे भी गलत बोल दिया तो माँफी मांगने की छूट नहीं रहेगी। न्याय एक ही है बोलने और छींकने पर जीभ और नाक काटो। ये नई लेखक पंचायत के लोग जिस किताब विचार या व्यक्ति से असहमत होंगे उसे जला देंगे, मिटा देंगे। इनके लिए हत्या ही एक उपाय रहेगा न्याय का । तो मैं ऐसे परम एकांगी हठ-तंत्र का विरोध करता हूँ । क्योंकि यहाँ बात का नहीं व्यक्ति का विरोध हो रहा है। क्या आप इनके खाप पंचायत सरीखे अभियान से सहमत है। क्या कोई भी व्यक्ति जो अभिव्यक्ति को अपना अधिकार मानता होगा वह ऐसे किसी गोल बंद कबीलाई तौर तरीके से अपनी सहमति जता सकता है। मैं विभूति नारायण राय जी और रवीन्द्र कालिया जी के खिलाफ इस तरह की किसी भी माँग का समर्थन नही कर रहा हूँ।
मुझे इस तरह की माँगों में एक अलग तरह का खेल दिख रहा है। यहाँ एक ऐसे सुचिता वादी समाज का नया खाका पेश किया जा रहा है, जहाँ माघ मेले के संन्यासियों के प्रवचनों की गूँज होगी और हरि ओम तत्सत का पाठ। साथ ही यह भी समझ लेना चाहिए कि यह सत्ता में स्वराज का खेल है। विभूति जी और कालिया जी को हटाने वाले यह देख रहे हैं कि न ये संस्थाएँ बंद होंगी न इनके फायदे बंद होंगे। तो ऐसा कुछ करो कि इस पर अपने लोग हों। अपने लोग यानी स्वराज। और फिर स्वराज के फायदे होंगे। अपना भला होगा। तो मामला बहुत कुछ आत्म कल्याण का है।
दूसरा मामला बर्खास्तगी की माँग की नैतिकता का है। विभूति जी के उस इंटरव्यू से उस एक शब्द के अलावा मैं पूरी तरह सहमत हूँ। जिस प्रवृत्ति को वे अपने साक्षात्कार में रेखांकित करना चाहते हैं वह प्रवृत्ति हिंदी में आज बहुत संगीन दशा में पहुँच गई है। मामला शब्द चयन में असावधानी का था जिसके लिए उन्होंने मांफी मांग ली है। लेकिन अभी ऐसे लोगों की बहुतायत है जो माफ करने में नहीं साफ करने पर तुले हैं। यह लोकतंत्र का नया रूप है। राजनैतिक दलों को इन लेखकों से सीखना चाहिए। जिसमें विपक्ष को अब बयान देने या बोलने की छूट न होगी। विपक्ष हो गा ही नहीं। सब पक्ष में होंगे और पक्षी की तरह रोर करते रहेंगे। हर दशा में एक दूसरे से सहमत होंगे।
जो बाते विभूति जी ने अपने साक्षात्कार में उठाई हैं क्या वे एकदम बेमानी हैं। नहीं सच यही है कि समाज में ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिला है जिनके लेखन में पर पुरुष या पर स्त्री संबंध का उत्तम लेखा जोखा मिले। ऐसा लेखन आज बड़े गौरव का विषय बन गया है। कुछ लेखक लेखिकाओं के लिए यह पराई नार और पराए नर का संबंध तो एक उत्तम लेखकीय विषय-वस्तु का सहज भंडार है। आत्मकथा लिखो या आत्मकथा जैसा लिखो फिर जो चाहे सो लिखो। मामला सहज प्रचार का है। लिखो कि मेरे इतने लोगों से इस इस प्रकार के संबंध थे। लो पढ़ो मैं कितनी या कितना बोल्ड और खुली या खुला हूँ। मैं किताब हूँ। आओ पढ़ो। आओ च़टखारे लो।
कई लेखक हैं जो इस प्रकार के आत्म कथात्मक लेखन को अपने विरोधियों के खिलाफ संहारक अस्त्र की तरह काम में लाते है। मेरे शोध(क) गुरु आचार्य दूध नाथ सिंह ने को इस प्रकार के लेखन को अपना अमोघ अस्त्र तक बना रखा है। अपने एक अग्रज लेखक और अपनी एक सहकर्मी के लिए नमो अंधकारम लिखा तो अपने एक स्वजातीय शिष्य के लिए निष्कासन जैसी प्रतिशोधी कहानी लिखी। नमो अंधकारम ने तो इलाहाबाद के एक बड़े लेखक के जीवन को ही तहस-नहस कर डाला। वे परम पूज्य दूधनाथ जी भी यहाँ बहती गंगा में अपना सत्कर्म प्रवाहित करते दिख रहे हैं। वे भी कह रहे हैं कि विभूति जी इस्तीफा दो।
ऐसे कई लेखक कवि हैं जिन्होंने जीवन भर यही किया है या इसी प्रकार का लेखन कर सकते हैं। क्या हमारी सामाजिक सच्चाइयाँ इन्हीं शरीर केंद्रित बहसों तक सीमित हैं। क्या हम इस तरह की पर पुरुष-नारी संबंध के लिए कोई बढ़ियाँ पवित्र शब्द खोज पा रहे हैं। मुझे ऐसे पूरे एक तबके को संबोधित करने के लिए एक सच्चरित्र शब्द चाहिए। जिसमें मैं किसी को पालतू पिल्ला, लंपट, लंफंगा या... आदि आदि न कह कर ऐसे निर्मल बोल बोल दूँ कि बात बन जाए और चोट भी न लगे।
कबीर कहते हैं कुल बोरनी। तो कुल बोरनी या कुल बोरन से भी काम नहीं चलेगा। यह मध्यकालीन है। कुछ आधुनिक शब्द याद आते हैं श्री लाल शुक्ल या मनोहर श्याम जोशी कहते है पहुँचेली या पहुँचेला। नहीं आज इन पुराने शब्दों से काम नहीं चलेगा। मैं इन या इस प्रकार के संबंध को रोकने की मांग नहीं कर रहा। मैं केवल इस प्रकार के संबंध को एक संज्ञा देने की माँग कर रहा हूँ। क्या कहें इस तबके को। क्या तमाम शब्दकोशों के ये शब्द अब फाड़ कर हटा देने चाहिए। या संबंध रहे बस नाम न रहे। बिना बोर्ड के काम चला लिया जाए। और लेखक समाज सिर्फ देखता रहे। अपनी बात कहने से बचे। तो भविष्य के शब्द हीन और खाप पंचायती लेखकों के समाज में आप का स्वागत है।
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25 comments:
यह बात बिलकुल ठीक है कि इधर ढेरो आत्मकथाओं में
ऐसे प्रदर्शन की होड़ मची है.... पर अगर यह बात बिना
ऐसे च्युत शब्द के प्रयोग के कही गयी होती तो शायद
हम सभी इस विवाद की जगह उस गंभीर तथ्य के बारे में
बात कर रहे होते ...
आखिर एक संवैधानिक पद की कुछ मर्यादाएं तो होती ही हैं ...
पुनश्च
मैं भी किसी धरने प्रदर्शन के पक्ष में नहीं
हूँ...
जब इस इंटरव्यू के बारे में पढ़ा था तो मेरी प्रतिक्रिया थी:
महिला लेखकों के प्रति की गयी राय साहब की यह टिप्पणी बेहद घटिया और शर्मनाक है। निन्दनीय!
इसके बाद बहुत कुछ हुआ। राय साहब ने महिला लेखिकाओं को उनकी बात से दुख हुआ यह कहकर बिना शर्त माफ़ी मांग ली।
इसके साथ-साथ और बाद में भी यह बात चल रही है कि इस माफ़ी से काम नहीं चलेगा। उनको बर्खास्त किया जाये। निलंबित किया जाये आदि-इत्यादि। जिस तरह मेहनत करके यह अभियान चलाये उससे इसके पीछे की और बड़े लोगों के खेल की लगते हैं। क्या हैं वे सब खेल मुझे अंदाज नहीं लेकिन बातें जितनी दिखती हैं उसके अलावा भी बहुत कुछ हैं।
राय साहब ने जिस शब्द का इस्तेमाल किया वैसे भाव तमाम महिला लेखकायें दूसरी लेखिकाओं के लिये प्रयोग करती रही हैं। किसी लेखिका ने एक इंटरव्यू में कहा -महिला लेखकाओं के लेखन में स्त्री मुक्ति की बात केवल कमर के नीचे तक ही सीमित है।
राय साहब साहित्य की दुनिया में पुराने हैं लेकिन पक्के तौर पर अभी वर्धा आने के बाद आये हैं। इसके पहले लेखन उनके लिये साइड बिजनेस रहा होगा और यहां दखल कम रहा होगा। अब वर्धा में आने के बाद उनके हाथ काम करने के लिये खूब सारे अधिकार आये होंगे तो जैसा मन करता है वैसा करने का प्रयास करते होंगे। कुछ गलत होता होगा कुछ सही। काम करने के अंदाज में पु्लिस विभाग के अनुभव और तरीके भी जरूर रहते होंगे। बहुत लोगों को वे खटकते भी होंगे कि दो-चार किताबें लिखकर यह आदमी कैसे हिंदी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का वाइस चांसलर बन गया। इस सब में निश्चित तौर पर राय साहब की हिन्दी साहित्यकार होने काबिलियत कम उनकी नेटवर्किंग ज्यादा काम आयी होगी।
अब बात उनकी सजा पर। जाने-अनजानी,उत्साह-बचकाने पन में कही बात के लिये माफ़ी मांग लेने के बाद और सक्षम अधिकारी द्वारा इसको स्वीकार कर लेने के बाद जो लोग इस बात के लिये जिस तरह से हल्ला मचा रहे हैं उससे यह लगता है कि उनको राय साहब के खिलाफ़ कार्यवाही ही चाहिये और उनका बयान बस बहाना है।
जिस भाषा में मैत्रेयी पुष्पाजी ने राय साहब के खिलाफ़ अपनी बातें कहीं वह वही भाषा जिसका एक शब्द राय साहब ने इस्तेमाल किया।
एक व्यक्ति के खिलाफ़ गोलबंदकर उसको नेस्तनाबूद कर देने से अगर स्त्रियों के प्रति सब लोग अच्छी भाषा प्रयोग करने लगे तब बात समझ में आती है। लेकिन ऐसा होगा नहीं। जब टेलीविजन पर बातचीत तक में लोग द्विअर्थी संवाद बोलने से अपने को नहीं पाते तो पीछे क्या बातें करते होंगे उसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है।
राय साहब के गिरजिम्मेदाराना बयान और उसके लिये माफ़ी मांगने के बाद उनके इस्तीफ़े और बर्खास्तगी की बात कम से कम मेरी समझ में नहीं आती। यह सजा उनके अपराध की तुलना में ज्यादा है- डिस्प्रपोर्शनेट है।
मेरी राय उनके बारे में पढ़ी-लिखी और अपने समाज के बारे में जानकारी के आधार पर है। उनके बारे में अंदर की बहुत सारी बातें जानने वालों से मेरी राय अलग हो सकती है।
जब इस इंटरव्यू के बारे में पढ़ा था तो मेरी प्रतिक्रिया थी:
महिला लेखकों के प्रति की गयी राय साहब की यह टिप्पणी बेहद घटिया और शर्मनाक है। निन्दनीय!
इसके बाद बहुत कुछ हुआ। राय साहब ने महिला लेखिकाओं को उनकी बात से दुख हुआ यह कहकर बिना शर्त माफ़ी मांग ली।
इसके साथ-साथ और बाद में भी यह बात चल रही है कि इस माफ़ी से काम नहीं चलेगा। उनको बर्खास्त किया जाये। निलंबित किया जाये आदि-इत्यादि। जिस तरह मेहनत करके यह अभियान चलाये उससे इसके पीछे की और बड़े लोगों के खेल की लगते हैं। क्या हैं वे सब खेल मुझे अंदाज नहीं लेकिन बातें जितनी दिखती हैं उसके अलावा भी बहुत कुछ हैं।
---जारी
राय साहब ने जिस शब्द का इस्तेमाल किया वैसे भाव तमाम महिला लेखकायें दूसरी लेखिकाओं के लिये प्रयोग करती रही हैं। किसी लेखिका ने एक इंटरव्यू में कहा -महिला लेखकाओं के लेखन में स्त्री मुक्ति की बात केवल कमर के नीचे तक ही सीमित है।
राय साहब साहित्य की दुनिया में पुराने हैं लेकिन पक्के तौर पर अभी वर्धा आने के बाद आये हैं। इसके पहले लेखन उनके लिये साइड बिजनेस रहा होगा और यहां दखल कम रहा होगा। अब वर्धा में आने के बाद उनके हाथ काम करने के लिये खूब सारे अधिकार आये होंगे तो जैसा मन करता है वैसा करने का प्रयास करते होंगे। कुछ गलत होता होगा कुछ सही। काम करने के अंदाज में पु्लिस विभाग के अनुभव और तरीके भी जरूर रहते होंगे। बहुत लोगों को वे खटकते भी होंगे कि दो-चार किताबें लिखकर यह आदमी कैसे हिंदी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का वाइस चांसलर बन गया। इस सब में निश्चित तौर पर राय साहब की हिन्दी साहित्यकार होने काबिलियत कम उनकी नेटवर्किंग ज्यादा काम आयी होगी।
अब बात उनकी सजा पर। जाने-अनजानी,उत्साह-बचकाने पन में कही बात के लिये माफ़ी मांग लेने के बाद और सक्षम अधिकारी द्वारा इसको स्वीकार कर लेने के बाद जो लोग इस बात के लिये जिस तरह से हल्ला मचा रहे हैं उससे यह लगता है कि उनको राय साहब के खिलाफ़ कार्यवाही ही चाहिये और उनका बयान बस बहाना है।
जिस भाषा में मैत्रेयी पुष्पाजी ने राय साहब के खिलाफ़ अपनी बातें कहीं वह वही भाषा जिसका एक शब्द राय साहब ने इस्तेमाल किया।
एक व्यक्ति के खिलाफ़ गोलबंदकर उसको नेस्तनाबूद कर देने से अगर स्त्रियों के प्रति सब लोग अच्छी भाषा प्रयोग करने लगे तब बात समझ में आती है। लेकिन ऐसा होगा नहीं। जब टेलीविजन पर बातचीत तक में लोग द्विअर्थी संवाद बोलने से अपने को नहीं पाते तो पीछे क्या बातें करते होंगे उसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है।
राय साहब के गिरजिम्मेदाराना बयान और उसके लिये माफ़ी मांगने के बाद उनके इस्तीफ़े और बर्खास्तगी की बात कम से कम मेरी समझ में नहीं आती। यह सजा उनके अपराध की तुलना में ज्यादा है- डिस्प्रपोर्शनेट है।
मेरी राय उनके बारे में पढ़ी-लिखी और अपने समाज के बारे में जानकारी के आधार पर है। उनके बारे में अंदर की बहुत सारी बातें जानने वालों से मेरी राय अलग हो सकती है।
राय साहब ने जिस शब्द का इस्तेमाल किया वैसे भाव तमाम महिला लेखकायें दूसरी लेखिकाओं के लिये प्रयोग करती रही हैं। किसी लेखिका ने एक इंटरव्यू में कहा -महिला लेखकाओं के लेखन में स्त्री मुक्ति की बात केवल कमर के नीचे तक ही सीमित है।
राय साहब साहित्य की दुनिया में पुराने हैं लेकिन पक्के तौर पर अभी वर्धा आने के बाद आये हैं। इसके पहले लेखन उनके लिये साइड बिजनेस रहा होगा और यहां दखल कम रहा होगा। अब वर्धा में आने के बाद उनके हाथ काम करने के लिये खूब सारे अधिकार आये होंगे तो जैसा मन करता है वैसा करने का प्रयास करते होंगे। कुछ गलत होता होगा कुछ सही। काम करने के अंदाज में पु्लिस विभाग के अनुभव और तरीके भी जरूर रहते होंगे। बहुत लोगों को वे खटकते भी होंगे कि दो-चार किताबें लिखकर यह आदमी कैसे हिंदी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का वाइस चांसलर बन गया। इस सब में निश्चित तौर पर राय साहब की हिन्दी साहित्यकार होने काबिलियत कम उनकी नेटवर्किंग ज्यादा काम आयी होगी।
--जारी
अब बात उनकी सजा पर। जाने-अनजानी,उत्साह-बचकाने पन में कही बात के लिये माफ़ी मांग लेने के बाद और सक्षम अधिकारी द्वारा इसको स्वीकार कर लेने के बाद जो लोग इस बात के लिये जिस तरह से हल्ला मचा रहे हैं उससे यह लगता है कि उनको राय साहब के खिलाफ़ कार्यवाही ही चाहिये और उनका बयान बस बहाना है।
जिस भाषा में मैत्रेयी पुष्पाजी ने राय साहब के खिलाफ़ अपनी बातें कहीं वह वही भाषा जिसका एक शब्द राय साहब ने इस्तेमाल किया।
एक व्यक्ति के खिलाफ़ गोलबंदकर उसको नेस्तनाबूद कर देने से अगर स्त्रियों के प्रति सब लोग अच्छी भाषा प्रयोग करने लगे तब बात समझ में आती है। लेकिन ऐसा होगा नहीं। जब टेलीविजन पर बातचीत तक में लोग द्विअर्थी संवाद बोलने से अपने को नहीं पाते तो पीछे क्या बातें करते होंगे उसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है।
राय साहब के गिरजिम्मेदाराना बयान और उसके लिये माफ़ी मांगने के बाद उनके इस्तीफ़े और बर्खास्तगी की बात कम से कम मेरी समझ में नहीं आती। यह सजा उनके अपराध की तुलना में ज्यादा है- डिस्प्रपोर्शनेट है।
मेरी राय उनके बारे में पढ़ी-लिखी और अपने समाज के बारे में जानकारी के आधार पर है। उनके बारे में अंदर की बहुत सारी बातें जानने वालों से मेरी राय अलग हो सकती है।
आपका स्टैंड शुरू से ही संतुलित रहा ,हाँ अब कुछ असंतुलित लोग संतुलन साधना में लग गए हैं -विभूति जी पद च्युत होने से जो बच गए हैं -अब दादुर धुन बदल रही है जिसमें एक दो यहाँ भी मौजूद हैं ....राय साहब की विनम्रता से वही परिचित है जो उनसे एक बार भी मिला हो....उन्होंने माफी मांग ली तो यह कौआरोर क्यों ?
एक उन्माद का माहौल बनाकर जिस गोलबन्दी से राय साहब पर हमले तेज किए जा रहे हैं उससे हिंदी साहित्य समाज के बारे में सोचकर मन निराश हो रहा है। राय साहब निश्चित रूप से लीक से हटकर काम करने वाले व्यक्ति रहे हैं। एक कड़क पुलिस अधिकारी के रूप में अपनी प्रोफ़ेशनल छवि बनाए रखकर भी उन्होंने एक संवेदनशील साहित्यकार के रूप में हिंदी समाज को अनेक मौलिक कृतियाँ दी हैं।
सरकारी नौकरी में अनेक वर्जनाओं का शिकार रहने वाला व्यक्ति यदि साहित्यजगत में भी अपने मन की बात खुलकर न कर पाए तो कहीं न कहीं स्थिति शोचनीय ही कही जाएगी। एक शब्द को लेकर उनका मुँह नोच लेने को तैयार लोग यदि उन्हें सर्वोच्च सजा सुनाने की होड़ में पड़ गये हैं तो यह एक नये तरह का फासीवाद ही है। ये तथाकथित बुद्धिजीवी एक भीड़ की मानसिकता से कार्य करते दिख रहे हैं।
क्या यह जघन्यता की पराकाष्ठा नहीं है कि क्षमा मांग लेने बाद भी किसी ने उनके पूरे साक्षात्कार के मर्म को जानने की कोशिश नहीं की। स्त्री विमर्श के नाम पर जिस संकुचित दायरे में साहित्य लिखा जा रहा है, जिन अन्य महत्वपूर्ण आयामों को छोड़ दिया जा रहा है, उसपर अपनी नाखुशी जाहिर करने वाले श्री राय को महिलाओं का अपमान करने वाला खलनायक घोषित करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है।
दरअसल उन्होंने हिंदी साहित्य जगत में एक खास रीति की सनसनी लिखकर पैसा कमाने और एक आभिजात्य जीवन जीने वाले/ वाली साहित्यकारों को टोककर गलती कर दी है कि ऐसे देहमुक्ति विषयक विमर्श से स्त्री मुक्ति के बड़े मुद्दे पीछे छूट गये हैं।
मुझे खुशी होती यदि यह भीड़ इन बातों पर भी कुछ राय देती कि मैत्रेयी जी ने राय साहब का नाम लेकर उन्हें शुरू से ही लफंगा और जाने क्या-क्या बक दिया तो उसे भारत के राष्ट्रपति के उस निर्णय का कितना अनादर माना जाय जिसके अन्तर्गत इनकी नियुक्ति एक सम्मानित पदपर की गयी होगी।
आज बहुमत होती नहीं बल्कि डर और भय से बनायीं जाती है क्योकि चारो तरफ बेबकूफों और भ्रष्टाचारियों का बोलबाला है ,सत्यमेव जयते और ईमानदारी तो गुजरे ज़माने की बात हो गयी है ,रही इंसानियत तो उसकी आज कोई पूछ नहीं क्योकि हैवानियत और नंगापन बिक रहा है और चारो तरफ दिख रहा है ,इसलिए राय साहब से गुजारिस थोडा सोच समझ कर ही आवाज उठायें |
पढ़ लिया जी। बाकी मेहरारू विषयक मामले में क्या कहा जाये?!
अपने अंग सलामत रखने की आकांक्षा के साथ टिप्पणी समाप्त करता हूं।
उन्होनें जिन शब्दों का प्रयोग किया वह निंदा योग्य है, हाँ उन्होने किस बाबत एसे शब्दों का प्रयोग किया ये मायने रखता है। हाँ मै इससे सहमत हूँ कि बोलने कि आजादी होनी चाहिए, लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं होना चाहिए कि आप जो चाहें बोलें । राय जी ने जो कुछ कहा वह एक सोची समझी रणनीति थी, जिसमे उनके सहयोगी मीडिया वाले जमकर बने। अब मुझे लगता है कि मुद्दे विराम देना चाहिए, वह कोई देश का रत्न नही जिसको लेकर इतनी चर्चाएम हो रहीं, मुद्दे और भी हैं जिसपर स्वस्थ बहस हो सकती है।
बोधिभाई,
बहुत अच्छा लिखा है। हम भी मार डालो, जला डालो, काट डालो जैसी परम एकांगी हठतंत्र के खिलाफ हैं और इन्हें किसी मोल तरजीह नहीं देते। टिप्पणी प्रकाशित नहीं हो रही है। कृपया आप यह काम कर दें।
अजित बडनेकर जी ने यह टिप्पणी मेल की है। शब्दों का सफर जैसा गंभीर ब्लॉग उन्ही का है
http://shabdavali.blogspot.com/
यह मामला जितना एकतरफा दिखाई दे रहा है, असल में है नहीं.. मेरे भी कुछ विचार हैं इस पर जिन्हें मौका मिलते ही लिखूंगा.. हिन्दी जगत एक बीमार समाज है जो लोग इलाज का दावा करते दिखाई देते हैं वो बीमारी की और भी भयंकर किस्म का मुजाहिरा करते है.. पूरी बात यहाँ लिख नहीं पा रहा हूँ.. जल्दी ही लिखूंगा ज़रूर..
मैंने उनक इंटरव्यू तो नहीं पढ़ा. उनके बारे में भी कम ही जानता हूँ. साहित्य के बारे में तो कुछ नहीं जानता. हाँ एक बात ज़रूर लगती है कि इंटरव्यू एक लाइन का तो नहीं रहा होगा. एक लाइन तो टेलीविजन की बाईट में बोली जाती है. लेखिकाओं के लिए जो शब्द उन्होंने इस्तेमाल किया वह हर तरह से निंदनीय है. परन्तु जब उन्होंने माफी मांग ली है तो उन्हें माफ़ तो कर ही देना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होगा तो यही लगेगा कि गलती के लिए कोई स्थान नहीं है.
फैजाबाद से कवि आलोचक रघुवंश मणि ने कहा-
Mujhe Bhi Kuch Aisa hi lagta hai.
वांगमय उनका ब्लॉग
http://www.wangmaya.blogspot.com/
आपका कहना भी तर्क युक्त है.
serious comment on this issu. bas us sabd se sahamat nahi baki mudda thik hai.
shashi bhooshan dwivedi
serious comment on this issu. bas us sabd se sahamat nahi baki mudda thik hai.
shashi bhooshan dwivedi
बोधि भाई, अच्छा किया आपने विस्तार से इस मुद्दे पर प्रकाश डाला है। लेकिन और गालयों के लिए तैयार रहिए। चारण-भांट वाली परंपरा मे तो आपको डाला ही जा चुका है।
मैं शुरू से लिख रहा हूं कि ये मुद्दा कुछ दूसरी शक्ल ले रहा है। हद तो ये है कि जिन्होंने माफी मांगने की सबसे पहले मांग उठाई, उन्हें विभूति का समर्थक घोषित करने और फिर उनके घर-दुआर परिवार की बखिया उधेड़ने का घृणित अभियान चलाया जा रहा है। मेरी नजर में किसी को ये पूरा हक है कि वो विभूति को पद से हटाने की मांग करे, लेकिन इस मांग को वापस लेने वाली आपकी मांग पर जिस तरह की टिप्पणियां हुई हैं, वो दिमागी दिवालिएपन की पराकाष्ठा है....कुछ लोग ब्लाग जगत के आभासी संसार को भी सुअरबाड़ा बनाने पर उतारू हैं...
बोधि भाई इस प्रकरण पर मैंने अशोक के ब्लॉग जनपक्ष पर विभूति जी के बयान के खिलाफ़ अपना विरोध दर्ज़ किया था और बदले में मेरी संयमित भाषा पर ही प्रहार शुरू हो गए. भरपूर भर्त्सना के स्वर मेरी टिप्पणी में थे पर 'आदरणीय' और 'जी', इन दो शब्दों को पकड़ कर भाई लोग मेरे ही क़त्ल पर आमादा हो गए. इन दो शब्दों पर यह भंगिमा संदर्भहीनता के साथ दूसरे ब्लोग्स पर भी चली गई- जैसे धीरेश भाई के ब्लॉग पर प्रिय रंगनाथ की टिप्पणी ....शायद आपने देखी हो. आज भाषा व्यवहार के न्यूनतम आदर्श भी किसी को स्वीकार नहीं. विभूति जी के उस शब्द से मैं क्षुब्ध हूँ...वह सारे हिंदी संसार को शर्मिंदा करने वाला है. भाषा के मामले में क्या विभूति जी और क्या उनके विरोधी/समर्थक सब एक ही नाव पर सवार दिख रहे हैं. अब मुझे लगता है कि मैं किसी दीवार से सर मार रहा था. आगे और नहीं.....किसी ने भले आदमी ने सलाह भी दी कि अपनी रचनाशीलता को किसी विवाद की बलि चढ़ाना ठीक नहीं...मैं भी यही सोच रहा हूँ.....आपसे छोटा हूँ पर धीरे से यही सलाह आपकी तरफ़ भी बढ़ा रहा हूँ......
बोधि भाई!
मैं इस विवाद पर शायद चुप रहना चाहता हूँ। क्यों कि मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि गलती से भी विभूति जी ने जिन लेखिकाओं को छिनाल कहा वह किस संदर्भ में कहा। यह बड़ी ही विचित्र बात है कि आप बिना संदर्भ बताए किसी को किसी उपाधि से विभूषित कर दें और फिर उसे गलती बता कर माफी मांग लें। मैं समझता हूँ कि ऐसी गलती तब तक नहीं हो सकती जब तक कि आप के अवचेतन में कुछ कुसंस्कार न छुपे हुए हों या फिर आप इरादतन कुछ कहना चाहते हों।
मैं ने ऐसे बहुत लोग देखे हैं जो ईमानदारी के साथ वामपंथी हैं और बने रहना चाहते हैं, लेकिन अपने पारिवारिक सामंती संस्कारों से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सके हैं और यदा कदा इन संस्कारों की झलक परसते रहते हैं। जब उन्हें खुद पता लगता है कि वे क्या कर गए हैं तो उस व्यवहार को छुपाने का प्रयत्न करते हैं। नहीं छुपा सकने पर गलती मान कर माफ कर देने को कहते हैं। ऐसे लोगों के पास प्रायश्चित के अलावा कोई मार्ग नहीं है। वे केवल प्रायश्चित कर के ही इन बीमारियों से छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं।
विभूति जी ने गलती की यह उन की समस्या है। उस गलती से बहुत सारी समस्याएँ खड़ी हो गई हैं, यह भी उन की समस्या है। उन्हों ने माफी मांग ली, इस से समस्या हल नहीं होगी। उन्हें उस गलती के कारण को खुद अपने अंदर तलाशना चाहिए। कि उन से गलती क्यों हुई? वह गलती उन के उन संस्कारों के कारण थी जिन्हें वे छोड़ना चाहते थे लेकिन नहीं छोड़ सके या फिर उन्होने इरादतन किसी और इरादे से यह सब कहा था, यह तो वे ही बेहतर जानते हैं।
उन्हें स्वयं आत्मालोचना करनी चाहिए औऱ गलती होने का कारण तलाश करना चाहिए। उस कारण से निजात पाने के लिए प्रायश्चित करना चाहिए।
रहा सवाल इस बात का कि वे विश्वविद्यालय के कुलपति पद को छोड़ दें या उन्हें हटा दिया जाए तो इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। खुद पद छोड़ देने और हटा देने के बाद भी जुगाड़ी व्यक्ति हैं तो कुछ न कुछ ऐसा ही या इस से कुछ बेहतर पा जाएंगे। फिर उन के जाने के उपरांत विश्वविद्यालय में एक और कोई जुगाड़ी आ बैठेगा। हो सकता है आने वाला व्यक्ति अब सावधानी से व्यवहार करे और उन से निकृष्ठ होने के उपरांत भी उन पर अपनी श्रेष्ठता साबित करता रह जाए। वस्तुतः इस साक्षात्कार में की हुई गलतियों से जो कुछ उन्हों ने खोया है उस का शायद उन्हें या किसी अन्य को अनुमान भी नहीं है।
हाँ,एक बात विनम्रता पूर्वक मैं यह और कहना चाहता हूँ कि इतिहास में महान वे नहीं हुए जिन्हों ने कोई गलती नहीं की,अपितु वे हुए जिन्हों ने गलतियाँ कीं और पश्चताप की ज्वाला में जलते हुए खुद को कुंदन की तरह खरा बना लिया।
दरअसल कहानियां आत्मकथाएँ कम पढ़ी हैं तो न राय साहब का लिखा पढ़ा है और न हीं वैसी आत्मकथाएँ जिनका शायद ज़िक्र रहा विवादित साक्षात्कार में - गौरा दी [ स्व. शिवानी] के अलावा बड़े महिला कथाकारों में मन्नू जी की बचपन में पढ़ी आपका बंटी और हाल में ममता कालिया जी की खांटी घरेलू औरत [ कवितायेँ] के अलावा विषय ज्ञान थोडा कम है
आपका अनुभव कहीं ज़्यादा है, प्रकरण के किरदारों और उनके लिखे और करे के बारे में - अभी तक इस विषय पर जहां पढ़ा उससे अलग तर्क सहित और स्पष्ट विचार - बहस में एक ही पक्ष दिख रहा था अधिकतर इसके पहले -
बहरहाल राय साहब का साक्षात्कार ज्यों का त्यों पढ़ा (http://lekhakmanch.com/2010/08/05/फिलहाल-स्त्री-विमर्ष-बेव/) - अपनी समझ बढाने के लिए -
उनके बहुचर्चित उद्धरण के पहले बेवफाई क्या है में पितृसत्ता की अवधारणा / धर्म का सन्दर्भ है - पुरुष प्रधान समाज में बेवफाई पुरुष का हक रहा कहा है - - फ़िर उस सामाजिक परिवर्तन का ज़िक्र है जिससे आय और व्यय के निर्णय में बढ़ती स्त्री भागीदारी से धीरे धीरे होते वर्जनाओं के क्षरण का दृष्टांत है - उद्धरण का मूल तर्क है कि स्त्री विमर्श अगर देह मुक्ति है तो इसमें नारी मुक्ति नहीं है उसमें और भी है - उस के बाद फ़िर ये कहना कि जैसी पुरुष गलतियाँ कर रहे थे वैसी महिलाएं भी कर रहीं हैं- "देह से परे भी बहुत कुछ ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर व जीने योग्य बनाता है" बहुत बढ़िया कहा है - [ इसका उद्धरण क्यों नहीं आया?] - उसके बाद स्पष्ट रूप से कहा है कि जब तक उत्पादन और संपत्ति में नारी भागीदारी नहीं होगी सार्थक नारी मुक्ति नहीं होगी - फिर कहानियों और कथाकारों के बारे में अपने विचार हैं, उदाहरण हैं
पूरे तौर पर मुझे राय साहब का साक्षात्कार पुरुष प्रधान तो लगा ही नहीं, मुझे लगा कि वो वही कह रहे हैं कि भाई स्त्री को सही में बराबरी दो और बेवफाई को दोनों तरफ से देखो - स्त्री विमर्श को देह से परे बड़ी आवाज़ दो कि मालिकाना हक बेटियों को मिले तो देर सबेर सार्थक परिणाम शायद मिले - अभी जैसा समाज है वो है - विडम्बना लगी कि यह दब गया लगता है - बहरहाल मुद्दा उछलना था उछल गया बाकी सब अपनी अपनी सोच - हाँ उन्होंने यह भी कहा कि "कलाकार बड़ी दुष्टता के साथ छल सकने में समर्थ तर्क गढ़ लेता है" - गौर करने का है
सादर/ सस्नेह
मनीष
जो कुछ शिरीष जी के साथ हुआ वही बात मेरे साथ भी शशिभूषण जी के ब्लॉग ''हमारी आवाज '' पर देखी जा सकती है । यह हिन्दी भाषा के लिए दुर्दिन जैसा है ।
मुझे पूरा विवाद अपरिपक्वता और चन्द स्वार्थों की जुगलबन्दी से अधिक कुछ नहीं लगता।
बहुत कुछ जानने समझने को मिला, यह इस विवाद का सकारात्मक पहलू है :)
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