Friday, September 17, 2010

कवि विष्णु नागर जी के लिए एक कविता

मेरे गाँव का बिस्नू

(कवि विष्णु नागर जी की षष्ठि पूर्ति पर सादर)

मेरे गाँव में एक बिस्नू है
जो रोता नहीं है।

लोगों ने उसे मारा फिर भी वह नहीं रोया
कुहनी और घुटने से मारा
थप्पड़ और लात से मारा
पत्थर और जूते से मारा
लाठी से उसका सिर फोड़ दिया
लोहे के सरिए से मारा
मुगदर से उसकी कमर तोड़ दी
बाल पकड़ कर पटक दिया खेत में
खेलने के बहाने गिरा दिया मुँह के बल
कबड्डी तो कहने के लिए था वह
लोग थे कि बिस्नू को छील रहे थे
लेकिन फिर भी नहीं रोया
मेरे गाँव का बिस्नू।

उसका खलिहान जला दिया
उसका घर बह गया
उसके पिता को मार कर
घर के पिछवारे फेंक गए शव
सिर अलग धड़ अलग फिर भी नहीं भींगी
बिस्नू की आँखें
वह बस देखता रहा पिता का शव
उसकी माँ लट खोले लोट रही थी
उसकी रुलाई से रो रहे थे लोग
और बिस्नू चुपचाप अर्थी बनाने में जुटा रहा
रोया नहीं।

डाका पड़ा गाँव में
उठा ले गए डाकू उसकी इकलौती बेटी को
अगले महीने होना था उसका गौना
सुदिन पड़ चुका था
अपनी बेटी को बचाने में बिस्नू लड़ता रहा
तब तक जब तक गिर नहीं पड़ा बेसुध हो कर
लेकिन न गिड़गिड़ाया न की फरियाद
न हाथ जोड़े बस लड़ता रहा
अगले हप्ते बेटी की लाश मिली गंगा में उतराते
लेकिन रोया नहीं बिस्नू तब भी।


उसकी देह पर हैं सैकड़ों चोट के निशान
पता नहीं अब वह मजदूर है या किसान
पता कि वह क्यों नहीं रोता है
और जब नहीं रोता तो उसके मन में क्या होता है।

लोगों ने उसकी माँ से पूछा कि बिस्नू क्यों नहीं रोता है
माँ बोली कि क्या बताऊँ
यह जन्म के समय भी नहीं रोया था
सब डर गए........ कि
रोएगा नहीं तो जिएगा कैसे
रोएगा नहीं तो बचेगा कैसे।

लेकिन बेटा सच कहूँ
मैं माँ हूँ उसकी
मैं जानती हूँ मेरा बिस्नू भी रोता है
उसका भीतर-भीतर सुबकना मैं
सुन पाती हूँ
मैंने उसकी रुलाई देखी तो नहीं
लेकिन इतना समझती हूँ कि
जब सारा संसार सोता है
मेरा बिस्नू तब रोता है।

माँ उसकी कहे कुछ भी
सच तो यही है कि आज तक किसी ने नहीं देखा
बिस्नू को रोते
आँख भिगोते या आँसू पोछते।


खाली हाथ है जेब फटी है
जीवन का कोई हिसाब नहीं है
फिर भी बिस्नू के पास लाभ-हानि की कोई किताब नहीं है।


सवाल है कि क्या मेरे गाँव का बिस्नू पुतला है
काठ का बना है
क्या उसके पास नहीं है रोने की भाषा
या उसके लिए रोना मना है।
जो भी हो मेरे गाँव का बिस्नू नहीं रोता है
लेकिन लोग कहते हैं कि इतने बड़े देश मे
एक मेरे गाँव के बिस्नू के न रोने से क्या होता है।

नोट- यह कविता लखनऊ की कवयित्री प्रतिभा कटियार के सौजन्य से रांची के अखबार के प्रभात खबर में रविवार १२ सिंतंबर २०१० को प्रकाशित हुई है। यह प्रभात खबर में मेरी जानकारी में मेरा प्रथम प्रकाशन है। इसके इस पाठ तक की यात्रा में कवि अशोक पाण्डे और कवि हरे प्रकाश उपाध्याय ने महत्वपूर्ण सलाहों से मेरा रास्ता सहल बनाया। प्रभात खबर, प्रतिभा, अशोक और हरे का आभारी हूँ ।

15 comments:

माधव( Madhav) said...

sundar

अरुण चन्द्र रॉय said...

अदभुद कविता है. हजारों विस्नू हैं जो नहीं रोते और जो बिस्नू रोते भी हैं उनके रोने से क्या फर्क पद रहा है.. ए़क झकझोर देने वाली कविता है...

''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...

pratikaatmak kathan se bahut kuchh kahati ye rachanaa. bha gayi

डॉ .अनुराग said...

कितने सालो से रो रहे है बिस्नू .......

पर सलेक्टिव डीफनेस का मर्ज है दुनिया को ......

हरीश करमचंदाणी said...

उनके आँसु दीखते ना हो पर महसूस होते हैं

Dr. SUDHA UPADHYAYA said...

sachmuch lambe arse baad aisee kavita padhi hai aapko dhanyabaad baba naagurjun yaad aagaye

अनुराग मिश्र said...

दुखिया दास 'बिस्नू' है जागे अरु रोवे!!

Ashok Kumar pandey said...

इस कविता को कई जगह…कई रूपों में पढ़ा है…हर बार मज़ा आया…जहां कुछ लगा वहां कह दिया…उसीको आपने आभार योग्य माना और प्रकाशन के वक़्त याद किया…क्या कहूं…बस प्रणाम!

प्रदीप कांत said...

एक बिस्नू के रोने से क्या होता है?

विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन said...

सीने में इस नदी के आप झांकिये जरा
हर दिल के साथ-साथ इक जलता अलाव है।

विष्णु जी को मेरी बधाई। साथ ही आपको भी इतनी अच्छी कविता के लिये।

विनोद शुक्ल-अनामिका प्रकाशन said...

सीने में इस नदी के आप झांकिये जरा
हर दिल के साथ-साथ इक जलता अलाव है।

विष्णु जी को मेरी बधाई। साथ ही आपको भी इतनी अच्छी कविता के लिये।

शरद कोकास said...

भाई यह कविता भी मन को छू गई , और विष्णु नागर जी साठ के हो भी गए , अरे !!

सुनील गज्जाणी said...

बोधी सत्व जी
नमस्कार !
विष्णु नागार जी को सादर नमन !
विष्णु जी को '' संबोधन '' के ज़रिये पूरा पढने का प्रयास किया है जो हरे प्रकाश जी के संपादन में ही थी , बेहद अच्छी लगी कविता !
साधुवाद
सादर

लीना मल्होत्रा said...

bisnu ki vyatha akele bisnu ki nahi rahti har paathak ki ban jaati hai. sundar rachna ke liye badhai

ओमप्रकाश यती said...

वाकई झकझोर देने वाली कविता है ...बधाई .