Saturday, May 5, 2007

बेनाम के नाम

प्रिय बेनाम जी
बंदे की सादर बंदगी स्वीकारो भाई,

कुछ ही दिन हुए आपके छुपे प्यार ने मुझे दोबारा उलझा दिया है। दरअसल मैं मेरा मन आपके रूप-रंग के दर्शन के लिए आकुल-व्याकुल रहने लगा है । आपके बारे में सोचने लगा हूँ। आप मेरे सपनों में आने लगे हैं पर दिक्कत और दुख है कि सपने में भी आप का कोई आकार-प्रकार नहीं झलकता। क्या करूँ , मध्यकालीन कवियों की नायिकाओं सी मेरी हालात बना दी है आपने । ना जाने किस भूल की सजा दे रहे हैं आप। भाई मुझे लगता है कि मेरा और आपका नाता पुराना है। जब मैं गांव में रहता था तब भी तो आप वहाँ थे। आखिर वो आप नहीं थे तो कौन था जो हमें चुपचाप चोट लगाता रहता था। वो भी तो एक बेनाम ही था जो हमारी हाड़ तोड़ मेहनत से पैदा की गई फसल में ऐन कटाई के पहले आग लगा गया था। एक बार तो फसल खलिहान तक आ गई थी। पर मड़ाई के ठीक पहले आपके ही कुल-गोत्र के किसी सक्रिय बेनाम सदस्य ने ना सिर्फ मेरी बल्कि पूरे गांव की फसल को आग के हवाले कर गया था । हम सारे गांव के लोग रोते – कलपते रहे । आग बुताने या बुझाने की कोशिश करते रहे पर बाल्टी-लोटे के पानी से कभी खलिहान की आग बुझती है। इलाके के बाकी गांवों के किसान अपना कोठार या अन्नागार या खाते अन्न से भरते रहे और हम आपकी लगाई आग से उपजी अकूत राख झेलते रहे। हम उस राख से अपना मुँह काला होने से बचते-बचाते रहे। पुलिस आई तो राख की तरफ देख कर कुछ बेनाम लोगों के खिलाफ मामला दर्ज करके मौका-ए-वारदात से रवाना हो गई । बेशक उन्हें यानि पुलिस वालें को लगा होगा कि बेनाम से तो कुछ मिलना-मिलाना नहीं अब यहाँ अपनी वर्दी पर राख का दाग लगाने के लिए क्यों रुकना । वे हमारे जले खलिहान से बेंत हिलाते फुर्र हो गये और हम राख कुरेदते रहे । भाई हम लोग तभी से यानि बचपन से ही बेनाम लोगों से बहुत डरते हैं ।

मैं सचमुच उस बेनाम को भूल गया था लेकिन मैं गलत था मेरे भूलने से क्या फायदा, जब तक आप हमें याद रखे हैं हमारे खेत-खलिहान, घर-बार सब आप की अदृश्य उपस्थिति से यानि आपके होने मात्र के अनुभव से थर्राते हैं । हम चैन से सो तक नहीं पाते कि कौन अनाम अश्वत्थामा हमारे सोते बच्चों को मौत का मुफ्त दान कर जाए । भाई हमें तो फसलों के ऊपर उड़ते जुगनुओं से भी डर लगता है। हम बीड़ी पीने के लिए जलाई गई तीली से भी हिल उठते हैं बेनाम भाई हमारे ऊपर कृपा करो झलक दिखला जाओ । एहसान होगा । पुरखों की आत्मा तृप्त हो जाएगी। जले हुए खलिहान को ना बुझा पाने के संताप से उनकी आत्मा जिस के होने पर उन्हे पूरा यकीन था जो आज तक हांकी-पियासी भटक रही हैं।

मैं यह जानने को बेताब हो रहा हूँ कि वो आप ही तो नहीं जिसने मेरा अमोला(आम का पौधा) उखाड़ दिया था । मैं कई दिन तक दुखी रहा पर जब-जब लगाया दूसरे दिन अपना अमोला उखड़ा पाया। लाल अमरूद के पांच पेड़ पिता जी लाए थे इलाहाबाद से और मैं हर्षित था कि अब अपने पिछवारे ही मिलेगा पका अमरूद । लेकिन पेड़ लगा लेने भर से फल नहीं मिल जाता उसके लिए जागना पड़ता है । संत कबीर तो यहां तक कहते हैं भाई-
‘काट मीज जोई घर लाए सोई सफल किसानी’

(पाठ में फरक हो तो बेनाम चिट्ठी नहीं डालिएगा डर रहा हूँ )

पर हम तो बच्चे थे बेनाम जी आप हमारे अमरूद के पेड़ों को भी चर गये और हम तब से अब तक बिना अपने अमरूद के जी रहे हैं। जब भी अमरूद का ठेला देखते हैं तो अपने अमरूद के उखड़े पौधों के साथ ही आप की बेहद याद आती है ।

आप ने सिर्फ हमारी फसलों को ही नहीं हमारे दड़बे की मुर्गियों हमारे गोशाला के पशुओं तक को बेगाना नहीं समझा। वो आप नहीं थे तो कौन था जिसने हमारी मुर्गियों को उनके दड़बे मे ही जला डाला । हमारी गायों को रोटी में लपेट कर जहर आपने ही दिया होगा बेनाम जी। मुंशी प्रेमचंद के होरी को तो अंत तक पता चल गया था कि उसकी गाय को जहर उसके भाई हीरा ने दिया था, लेकिन मैं तो आज तक नहीं जान पाया कि हमारी गायों को मारने वाला यह बेनाम कौन है । कैसा दिखता है। कहां रहता है । क्या करता है दूसरों के घरों में चुपचाप आग लगाने के अलावा।

बेनाम भाई आप तो उन तमाम लोगों को जानते ही होंगे जो ऐसे कामों को चुपचाप अंजाम देकर असीम आनन्द का अनुभव करते हैं । आप तो उन्हे भी जानते होंगे जो दूसरों की दीवारों और ट्रेन के शौचालयों में कालजयी सचित्र-साहित्य का अंकन करते हैं । गुमनाम चिट्ठियाँ लिख कर अपने मुहल्ले की क्वांरियों को उलझन में डालते हैं। बेनाम जी उन लोगों को हमारे जैसे तमाम डरे लोगों की तरफ से कहिए की एक बार मिल जाएं हम उन्हे पलकों पर बिठा के रखेंगे। उन्हे पूजेंगे भाई । बस यह छुपम-छुपाई का खेल बंद कर दो । हम खलिहान जलाने से लेकर गायों को जहर देकर मारने तक के थानों में दर्ज मामले आज ही वापस ले लेंगे। हमारा आप का मामला रफा-दफा और लेन-देन चुकता ।

3 comments:

अफ़लातून said...

क्या बात है ।

अभय तिवारी said...

देखो तुमने बेनाम को आने का न्योता क्या दिया..अच्छे अच्छे नाम वाले तक पास नहीं फटक रहे हैं.. ये चक्कर क्या बोधि भैया.. ?

चलते चलते said...

बोधि जी ने आपने इतना बढि़या लिखा है बेनामों के लिए कि मुझे लगता है कि इन कठोर दिलों वाले बेनामों को सामने प्रकट होने के लिए काफी है। यदि इस लेखन के बाद भी इन बेनामों का दिल नहीं पिघलता है आपसे मिलने के लिए तो कुछ नहीं हो सकता। लेकिन मेरा मानना है कि जब देश भर के बेनाम इस ब्‍लॉग पर लिखा यह पढ़ेंगे तो वे सामने जरुर आएंगे। बेनामों से सभी लोग दुखी हैं शायद इनका जन्‍म ही दुखी करने के लिए होता है तभी तो घरवाले इनका कोई नाम नहीं रख पाते।