Thursday, December 6, 2007

अयोध्या और पागलदास

पागलदास


( पखावज वादक स्वामी पागलदास के लिए, जिनका २० जनवरी १९९७ को अयोध्या में देहावसान हो गया)

अयोध्या में बसकर
उदास रहते थे पागलदास
यह बताया उस मल्लाह ने
जिसने सरयू में प्रवाहित किया उन्हें।

मैंने पूछा-
आखिर क्यों उदास रहते थे पागलदास
अयोध्या में बसकर भी।

उसने कहा-
कारण तो बता सकते हैं वे ही
जो जानते हों पागलदास को ठीक से
मैं तो आते-जाते सुनता था
उनका रोदन
जिसे छुपाते थे वे पखावज की थोपों में।

मैंने कहा, मुझे उनके स्थान तक ले चलो
उनके किसी जानकार से मिलाओ।

मैंने पागलदास के पट्ट शिष्यों से पूछा
क्या अयोध्या में बसकर
सचमुच उदास रहते थे पागलदास।
शिष्य कुछ बोले-बासे नहीं
बस थाप देते रहे,
मेरे आग्रह करने पर
उन्होंने मुझे दिखाया उनका कक्ष
जहाँ बंद हो गया था आना जाना डोलना
पागलदास के पखावज भी भूल गए थे बोलना।

मैं अयोध्या में ठूँढ़ता रहा
पागलदास के जानकारों को
और लोग उनका नाम सुनते ही
चुप हो
बढ़ जाते थे।

बहुत दिन बीतने पर
मिले पागलदास के संगी
जो कभी संगत करते थे उनके साथ

उन्होंने मुझसे पूछा -
क्या करेंगे जानकर कि
अयोध्या में बसकर भी क्यों उदास रहते थे पागलदास।

उन्होंने कहा-
क्यों उदास हैं आप बनारस में
बुद्ध कपिलवस्तु में
कालिदास उज्जयिनी में
फसलें खेतों में
पत्तियाँ वृच्छों पर, लोग दिल्ली में, पटना में
दुनिया जहान में क्यों उदास हैं
आप सिर्फ यही क्यों पूछ रहे हैं
कि अयोध्या में बसकर भी क्यों उदास थे पागलदास।

मैंने कहा -
मुझे उनकी उदासी से कुछ काम नहीं
मुझे बुद्ध, कालिदास या लोगों की उदासी से
कुछ लेना-देना नहीं
मैं तो सिर्फ बताना चाहता था लोगों को
कि इस वजह से अयोध्या में बसकर भी
उदास रहते थे पागलदास।

उन्होंने बताया-
पागलदास की उदासी की जड़ थे पागलदास

मैंने कहा यह दूसरे पागलदास कौन हैं
क्या करते हैं।

उन्होंने बताया-
जैसे अयोध्या में बसती है दूसरी अयोध्या
सरजू में बहती है दूसरी सरजू
वैसे ही पागलदास में था दूसरा पागलदास
और दोनों रहते थे अलग-थलग और
उदास।

जो दूसरे पागलदास थे
वे न्याय चाहते थे
चाहते थे रक्षा हो सच की
बची रहे मर्यादा अयोध्या की
सहन नहीं होता था कुछ भी उल्टा-सीधा
क्रोधी थे।पहले पागलदास की तरह
सिर्फ अपने भर से नहीं था काम-धाम
पहले पागलदास की तरह उदास होकर
बैठ नहीं गए थे घर के भीतर।

मैंने कहा-
अन्याय का विरोध तो होना ही चाहिए
होनी ही चाहिए सच की रक्षा
पर उदासी का कारण तो बताया नहीं आपने।

उन्होंने कहा-
जो पागलदास
सच की रक्षा चाहते थे
चाहते थे न्याय
वध किया गया उनका
मार दिया गया उनको घेर कर उनके ही आँगन में
एकान्त में नहीं
उनके लोगों की मौजूदगी में
और पहले पागलदास को छोड़ दिया गया
बजाने के लिए वाद्य
कला के सम्वर्धन के लिए।

दूसरे पागलदास की हत्या से
उसको न बचा पाने के संताप से
उदास रहने लगे थे पागलदास
दूसरे पागलदास के न रहने पर
उनको संगत देने वाला बचा न कोई
उन्होंने छोड़ दिया बजाना, भूल गए रंग भरना
तज गिए समारोह, भूल गएकायदा, याद नहीं रहा भराव का ढ़ंग
बचने लगे लोगों से, लोम-विलोम की गंजायश नहीं रही।
बहुत जोर देने पर कभी बजाने बैठते तो
लगता पखावज नहीं
अपनी छाती पीट रहे हैं।

इतना कह कर वे चुप हो गए
मुझे सरजू पार कराया और बोले-
जितना जाना मैंने
पागलदास की उदासी का करण
कह सुनाया
अब जाने सरजू कि उसके दक्षिण तरफ
बस कर भी क्यो उदास रहे पागलदास।

रचना तिथि- २१-०९-1997

14 comments:

Priyankar said...

यह कविता जितनी बार भी पढता हूं, उसी तरह बांध लेती है जैसा पहले पाठ के समय आविष्ट किया था . बोधिसत्व की लिखी और मेरी पढी सबसे अच्छी कविताओं में एक .

बालकिशन said...

मार्मिक कविता है सर. कड़वा सच बयान करती है. और मैं क्या कहूँ ? कैसे सूरज को चिराग दिखाने की गुस्ताखी करूँ?

ALOK PURANIK said...

ग्रेट कविता है।
बोधिसत्वजी के अंदर से बुद्ध बोलते हों जैसे।
पागलदास के अंदर परम अक्लमंद बोलते हों जैसे।
पार कराने वाले के अंदर कई सवालों में डुबोने वाले बोलते हों जैसे।
पखावज के अंदर से पूरी दुनिया के वायलिनों की उदासी बोलती हो जैसे।
चुप्पी के अंदर से पंचम के सुर बोलते हों जैसे।

Shiv Kumar Mishra said...

बहुत अच्छी लगी कविता...

चिंतन से उपजी चिंता, न जाने कितने पागलदासों को खा जा रही है...

ghughutibasuti said...

कभी कभी कोई रचना इतनी अच्छी होती है कि कहने के लिए कोई शब्द नहीं मिलते । यदि मिलते तो हम भी इतना ही अच्छा ना लिख लेते ।
एक बात और, आपकी एक पोस्ट को लेकर मैंने जो लेख लिखा था वह केवल यह बताने को कि पाठक कैसे विषयों की ओर खिंचे चले आते हैं । आपकी पोस्ट से मुझे कोई शिकायत न थी ।
घुघूती बासूती

Gyan Dutt Pandey said...

भैया, क्या कहूं - कविता बहुत बढ़िया लग रही है। पर इसके कोई राजनैतिक कोनोटेशन तो नहीं हैं? कोई खेमाबन्दी न करले इससे तो बहुत नायाब रतन है यह कविता।

अभय तिवारी said...

कुछ कहने की ज़रूरत है क्या?

Sanjeet Tripathi said...

बेहतरीन!
मंत्रमुग्ध करने वाली,पढ़ते-पढ़ते ही आपको कहीं और ले चलने वाली कविता।

नीरज गोस्वामी said...

जितने सुंदर शब्द उतने ही सुंदर भाव. आप ने १० साल कहाँ संभाले रखा इस कविता को. बेमिसाल लेखन.
नीरज

पारुल "पुखराज" said...

अद्धभुत …

अफ़लातून said...

बहुत खूब ! पागलदास की याद आ गयी । कौन से?

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

यह तुम्हारी कुछ बहुत अच्छी कविताओं में से एक है. जहाँ तक मुझे याद है इसी पर तुम्हें कविता का प्रतिष्ठित 'भारत भूषण' सम्मान मिला था. अगर इसी तरह कवितायें ही देते रहो तो भी कुछ हर्ज़ नहीं है.

अनूप शुक्ल said...

अद्भुत कविता है यह। आभार इसे पढ़वाने के लिये। बोधिसत्वजी आप इसे हमारा आग्रह माने या अनुरोध। अपनी सारी कवितायें अपनी आवाज में रिकार्ड करके एक-एक करके पोस्ट करें। युनुस जी की सेवायें लें। कुछ काम करें कुछ काम करें। जग में रह कर कुछ काम करें। शुरुआत इसी कविता से करें। साल खतम होने से पहले यह कविता आपके ब्लाग पर आपकी आवाज् में
सुनवायें। :)

बोधिसत्व said...

1-प्रियंकर भाई मेरी कविता से बंध जाते हैं यह जानकर अच्छा लगा।
2-बालकिशन जी आभारी हूँ आपका
3-आलोक भाई आपका स्नेह है....और क्या चाहिए.....
4-शिव भाई आपसे सहमत हूँ....
5-घुघूती जी आपसे कोई शिकायत मुझे भी नहीं है....
6-ज्ञान भाई आप जितना अच्छा लिखने की चाह है....
7-अभय भाई सब कुछ तो कह दिया आपने...
8-संजीत भाई आभार आपको...
9- नीरज भाई पढ़ने के लिए धन्यवाद
10-पारुल जी धन्यवाद
11- अफलातून जी यही सवाल मेरा भी है कि कौन पागलदास याद आए आपको
12- विजय भाई पुरस्कार तो मिला था....
13-अनूप भाई.....मेरी आवाज में.....देखता हूँ....