कुछ दिन हुए मुंबई में चर्चगेट की तरफ गया था....वहीं हुतात्मा चौक की ओर जा रही सड़क के कोने पर यह दृश्य दिखा...जिस पर मैं अभिशप्त हूँ लिखने को....कभी-कभी लगता है लिखने से कुछ बदलने वाला नहीं....फिर भी हम लिखते हैं....इस उम्मीद पर कि शायद लिखने से कुछ बदल ही जाए। आप पढ़ें...।
भारत-भारती
उधड़ी पुरानी चटाई और एक
टाट बिछाकर,
छोटे बच्चे को
औधें मुँह भूमि पर लिटा कर।
मटमैले फटे आँचल को
उस पर फैला कर
खाली कटोरे सा पिचका पेट
दिखा कर।
मरियल कलुष मुख को कुछ और मलिन
बना कर
माँगने की कोशिश में बार-बार
रिरिया कर।
फटकार के साथ कुछ न कुछ
पाकर
बरबस दाँत चियारती है
फिर धरती में मुँह छिपाकर पड़े बच्चे को
आरत निहारती है ।
यह किस का भरत है
किस का भारत
और किस की यह भारती है।
नोट- यह कविता विष्णु नागर जी के संपादन में कादम्बिनी में छपने गई थी....भूल से यहाँ पहले छप गई....कृपया आप सब इसे कादम्बिनी के अगले अंकों में पढ़ सकते हैं....कविता छप रही है यह जानकारी मुझे पंकज पराशर जी ने दी है....
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
12 comments:
हालांकि, आपकी कविताओं पर कोई कमेंट करने का मेरा साहस नहीं है फिर भी साहस कर रहा हूं, आपकी अंतिम लाइन सबसे अधिक सोचने पर विवश कर रही है
यह किस का भरत है
किस का भारत
और किस की यह भारती है।
बहुत सहज बह गए - किसका भरत?, भारत?, भारती? - गूँज गए - साभार - मनीष [ पता नहीं लिखने से कुछ हो न हो ? उम्मीद तो छोड़ भी नहीं सकते ]
बेचैनी आपकी झलक रही है रचना में, इन दिनों काफी बेचैनी महसूस कर रहे लगते हैं आप!
छंद और निछंद दोनों को साधती है
बोधिसत्व बाबू, कविता बांधती है।
bodhisatva jee,
bahut dino se aapko padhne ki ichha thee aaj poree huee age ye yatra jaaree rahegee.
बहुत देर से आए, लेकिन दुरुस्त आए। भरत-भारती और किसका भारत पर जमकर लिखने की ज़रूरत है। कल मैं भी लिख रहा था कविता नहीं, गद्य। अधूरा है। शायद कल-परसों पूरा करके पोस्ट करों। आवृति बढाएं। व्यस्तता है, पता है। लेकिन कहते न हैं कि जब तलक है जिंदगी फुरसत न मिलेगी काम से, कुछ समय ऐसा निकालो नाम ले लो राम का। तो विनय पत्रिका में व्यवधान अच्छी बात नहीं है।
यदि यह छोटा बच्चा पूछता कि यह कैसी ममता है जो मुझे यहाँ धूल धुसरित होने के लिए इस संसार में ले आई ?
घुघूती बासूती
बहुत बढ़िया. जय हो बोधि भाई की....
सुन्दर कविता।
घुघूती जी यह दृश्य मैंने और मेरी पत्नी आभा ने एक साथ देखा था....बच्चे वाले पक्ष पर उसने कुछ लिखा भी है....शायद कभी अपनाघर में छापे...
घुघूती जी इस दृश्य को मैंने और मेरी पत्नी आभा ने एक साथ देखा था...वह शायद आगे अपनाघर पर छापे...
देकर के चंद सिक्कों की अनुकम्पा भारत वासी
चल देते हैं,
रह जाती है भूखे शिशु के संग, चटाई पे
माँ भारती :-(
Post a Comment